Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 12 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Origin of All Creation

Sanskrit Shloka (Original)

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये | मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ||७-१२||

Transliteration

ye caiva sāttvikā bhāvā rājasāstāmasāśca ye . matta eveti tānviddhi na tvahaṃ teṣu te mayi ||7-12||

Word-by-Word Meaning

येwhatever
and
एवeven
सात्त्विकाःpure
भावाःnatures
राजसाःactive
तामसाःinert
and
येwhatever
मत्तःfrom Me
एवeven
इतिthus
तान्them
विद्धिknow
not
तुindeed
अहम्I
तेषुin them
तेthey
मयिin Me.Commentary This is a world of the three Gunas

📖 Translation

English

7.12 Whatever beings (and objects) that are pure, active and inert, know that they proceed from Me. They are in Me, yet I am not in them.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.12।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक (जड़) भाव हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि मैं उनमें नहीं हूँ, वे मुझमें हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Recognize that all work, roles, and outcomes, regardless of their nature (Sattvic, Rajasic, or Tamasic), originate from a larger interconnected system. Maintain a sense of professional detachment from successes and failures, understanding that they are transient manifestations, while diligently performing your duties. Focus on the contribution and purpose rather than being consumed by the specific 'type' of work or its results, knowing your true self is not defined by them.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate an 'observer's perspective' towards stressful situations, emotions, or external challenges. Just as the ocean encompasses waves but is not defined by them, understand that these experiences arise within your consciousness, but your core self remains distinct, unperturbed, and transcendent. This fosters resilience and prevents over-identification with transient mental or emotional states, promoting inner peace.

❤️ In Relationships

Approach relationships with a deeper understanding that all individuals, with their diverse personalities and temperaments (expressions of the three Gunas), originate from a common source. Practice acceptance and compassion, recognizing different natures without judgment. Maintain healthy boundaries by supporting and interacting with others, but ensure their actions or dominant Gunas do not overwhelm or define your inner peace and sense of self. See the divine spark in everyone.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

All forms and natures in existence originate from the Divine, which encompasses them yet remains eternally unattached and free. Recognize your own capacity for detached engagement and inner stability amidst life's diverse manifestations.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.12 ये whatever? च and? एव even? सात्त्विकाः pure? भावाः natures? राजसाः active? तामसाः inert? च and? ये whatever? मत्तः from Me? एव even? इति thus? तान् them? विद्धि know? न not? तु indeed? अहम् I? तेषु in them? ते they? मयि in Me.Commentary This is a world of the three Gunas? viz.? Sattva (purity)? Rajas (passion) and Tamas (inertia). All sentient and insentient objects are the aggregate of these three alities of Nature. One ality predominates in them and the predominant ality imparts to the object its distinctive character or definite properties.In the gods? sages milk and green gram? Sattva is predominant. In Gandharvas (a class of celestials)? kings? warriors and chillies? Rajas is predominant. In demons? Sudras? garlic? onion and meat? Tamas is predominant.Though these beings and objects proceed from Me? I am not in them they are in Me. I am independent. I am the support for them they depend on Me just as the superimposed snake depends on the rope. The snake is in the rope? but the rope is never in the snake. The waves belong to the ocean but the ocean does not belong to the waves. (Cf.IX.4and6)

Shri Purohit Swami

7.12 Whatever be the nature of their life, whether it be pure or passionate or ignorant, they are all derived from Me. They are in Me, but I am not in them.

Dr. S. Sankaranarayan

7.12. Whatever beings are there [in the universe]-whether they are of the Sattva or of Rajas or of Tamas (Strands)- be sure that they are from Me; I am not in them, but they are in Me.

Swami Adidevananda

7.12 Know that all those states of Sattva, Rajas and Tamas are from Me alone. But I am not in them; they are in Me.

Swami Gambirananda

7.12 Those things that indeed are made of (the ality of ) sattva, and those things that are made of (the ality of) rajas and tamas, know them to have sprung from Me alone. However, I am not in them; they are in Me!

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.12।। मुझमें सम्पूर्ण जगत् पिरोया हुआ है जैसे सूत्र में मणियाँ अपने इस कथन के साथ प्रारम्भ किये गये प्रकरण का उपसंहार भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में करते हैं।हमें जगत् में ज्ञान क्रिया और जड़त्व इन तीनों का अनुभव होता है। इन्हें ही क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण का कार्य कहा जाता है। वेदान्त में जिसे माया कहा गया है वह इन तीनों गुणों का संयुक्त रूप है जिसके अधीन प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भिन्नभिन्न प्रकार की दिखाई देती हैं। मनुष्य की भावनाएं और विचार इन गुणों से प्रभावित होते हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से कार्य करता है।उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से यह अर्थ स्पष्ट होता है कि इन तीन गुणों से उत्पन्न जो कोई भी वस्तु प्राणी या स्थिति है वह सब आत्मा से (मुझ से) उत्पन्न होती है। पूर्व वर्णित सिद्धांत को ही यहाँ शास्त्रीय भाषा में दोहराया गया है। पारमार्थिक सत्यस्वरूप चैतन्य आत्मा पर अपरा प्रकृति का अध्यास हुआ है यह कोई वास्तविकता नहीं। त्रिगुणजनित भावों की सत्य से उत्पत्ति उसी प्रकार की है जैसे मिट्टी से घट समुद्र से तरंग और स्वर्ण से आभूषण की।इस श्लोक का सुन्दर अन्तिम वाक्य एक पहेली के समान है। इस प्रकार का लेखन हिन्दू दार्शनिकों की विशेषता है जो अध्ययनकर्ता को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती है। ऐसे कथन विद्यार्थी को और अधिक सूक्ष्म और गहन विचार करने के लिए और उसका वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए आमन्त्रित करते हैं। मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं।केवल वाच्यार्थ की दृष्टि से उपर्युक्त कथन त्रुटिपूर्ण ही समझा जायेगा क्योंकि यदि क ख में नहीं है तो ख क में कैसे हो सकता है यदि मैं उनमें नहीं हूँ तो वे भी मुझमें नहीं हो सकते। परन्तु भगवान का कथन है मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं। इस सुन्दर एवं मधुर विरोधाभास से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष और प्रकृति का संबंध कारण और कार्य का नहीं बल्कि अधिष्ठान और अध्यस्त का है। पुरुष पर प्रकृति का आभास अध्यास के कारण होता है। खंभे में यदि प्रेत का आभास हो तो यही कहा जायेगा कि प्रेत खंभे में है परन्तु खंभा प्रेत में नहीं।श्री शंकराचार्य इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं मैं उनमें नहीं हूँ का अर्थ है मैं उन पर आश्रित नहीं हूँ जब कि उनका अस्तित्व मुझ पर आश्रित है। जैसे जल का अस्तित्व तरंग पर आश्रित नहीं है किन्तु तरंग जल पर आश्रित होती है। तरंग के होने से जल को किसी प्रकार का दोष या बन्धन नहीं प्राप्त होता। उसी प्रकार जड़ प्रकृति का अस्तित्व चेतन पुरुष के कारण सिद्ध होता है परन्तु पुरुष सब परिच्छेदों से सदा मुक्त ही रहता है।अगले श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जगत् के लोग उनके वास्तविक नित्यमुक्त स्वरूप को नहीं जानते हैं। लोगों के इस अज्ञान का क्या कारण है सुनो

Swami Ramsukhdas

।।7.12।। व्याख्या--'ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये'--ये जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ क्रिया) हैं, वे भी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टिमात्रमें जो कुछ हो रहा है, मूलमें सबका आश्रय, आधार और प्रकाशक भगवान् ही हैं अर्थात् सब भगवान्से ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं।सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान्से ही होते हैं, इसलिये इनमें जो कुछ विलक्षणता दीखती है, वह सब भगवान्की ही है; अतः मनुष्यकी दृष्टि भगवान्की तरफ ही जानी चाहिये, सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ नहीं। यदि उसकी दृष्टि भगवान्की तरफ जायगी तो वह मुक्त हो जायगा और यदि उसकी दृष्टि सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ जायगी तो वह बँध जायगा।सात्त्विक, राजस और तामस--इन भावोंके (गुण, पदार्थ और क्रियामात्रके) अतिरिक्त कोई भाव है ही नहीं। ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं। यहाँ शङ्का होती है कि अगर ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं तो हमलोग जो कुछ करें, वह सब भगवत्स्वरूप ही होगा, फिर ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये--यह विधि-निषेध कहाँ रहा? इसका समाधान यह है कि मनुष्यमात्र सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता। अनुकूल परिस्थिति विहित-कर्मोंका फल है और प्रतिकूल परिस्थिति निषिद्ध-कर्मोंका फल है। इसलिये कहा जाता है कि विहित-कर्म करो और निषिद्ध-कर्म मत करो। अगर निषिद्धको भगवत्स्वरूप मानकर करोगे तो भगवान् दुःखों और नरकोंके रूपमें प्रकट होंगे। जो अशुभ कर्मोंकी उपासना करता है, उसके सामने भगवान् अशुभ-रूपसे ही प्रकट होते हैं; क्योंकि दुःख और नरक भी तो भगवान्के ही स्वरूप हैं।जहाँ करने और न करनेकी बात होती है, वहीं विधि और निषेध लागू होता है। अतः वहाँ विहित ही करना चाहिये, निषिद्ध नहीं करना चाहिये। परंतु जहाँ मानने और जाननेकी बात होती है, वहाँ परमात्माको ही 'मानना' चाहिये और अपनेको अथवा संसारको 'जानना' चाहिये।जहाँ माननेकी बात है, वहाँ परमात्माको ही मानकर उनके मिलनेकी उत्कण्ठा बढ़ानी चाहिये। उनको प्राप्त और प्रसन्न करनेके लिये उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये तथा उनकी आज्ञा और सिद्धान्तोंके विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये। भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध कार्य करेंगे तो उनको प्रसन्नता कैसे होगी? और विरुद्ध कार्य करनेवालेको उनकी प्राप्ति कैसे होगी? जैसे, किसी मनुष्यके मनके विरुद्ध काम करनेसे वह राजी कैसेहोगा और प्रेमसे कैसे मिलेगा? जहाँ जाननेकी बात है, वहाँ संसारको जानना चाहिये। जो उत्पत्ति-विनाशशील है, सदा साथ रहनेवाला नहीं है, वह अपना नहीं है और अपने लिये भी नहीं है--ऐसा जानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। उसमें कामना, ममता, आसक्ति नहीं करनी चाहिये। उसका महत्त्व हृदयसे उठा देना चाहिये। इससे सत्त-त्त्व प्रत्यक्ष हो जायगा और जानना पूर्ण हो जायगा। असत् (नाशवान्) वस्तु हमारे साथ रहनेवाली नहीं है--ऐसा समझनेपर भी अगर समय-समयपर उसको महत्त्व देते रहेंगे तो वास्तविकता (सत्-वस्तु) की प्राप्ति नहीं होगी।      'मत्त एवेति तान्विद्धि'--उन सबको तू मेरेसे ही उत्पन्न होनेवाला समझ अर्थात् सब कुछ मैं ही हूँ। कार्य और कारण--ये दोनों भिन्न दीखते हुए भी कार्य कारणसे अपनी भिन्न एवं स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। अतः कार्य कारणरूप ही होता है। जैसे, सोनेसे गहने पैदा होते हैं तो वे सोनेसे अलग नहीं होते अर्थात् सोना ही होते हैं। ऐसे ही परमात्मासे पैदा होनेवाली अनन्त सृष्टि परमात्मासे भिन्न स्वतन्त्र सत्ता नहीं रख सकती। 'मत्त एव'कहनेका तात्पर्य है कि अपरा और परा प्रकृति मेरा स्वभाव है; अतः कोई उनको मेरेसे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकता। सातवें अध्यायके परिशिष्टरूप नवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि 'कल्पके आदिमें प्रकृतिको वशमें करके मैं बार-बार सृष्टिकी रचना करता हूँ' (9। 8) और आगे कहते हैं कि मेरी अध्यक्षतामें प्रकृति चराचर संसारको रचती है' (9। 10)--ये दोनों बातें एक ही हुईं। चाहे प्रकृतिको लेकर भगवान् रचना करें, चाहे भगवान्की अध्यक्षतामें प्रकृति रचना करे--इन दोनोंका तात्पर्य एक ही है। भगवान् रचना करते हैं तो प्रकृतिको लेकर ही करते हैं, तो मुख्यता भगवान्की ही हुई और प्रकृति भगवान्की अध्यक्षतामें रचना करती है, तो भी मुख्यता भगवान्की ही हुई। इसी बातको यहाँ कहा है कि मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय हूँ (7। 6), और इसका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि 'सात्त्विक, राजस और तामस--ये भाव मेरेसे ही होते हैं।'भगवान्ने विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा करके जाननेवालेकी दुर्लभता बताते हुए जो प्रकरण आरम्भ किया, उसमें अपरा और परा प्रकृतिका कथन किया। अपरा और परा प्रकृतियोंको सम्पूर्ण प्राणियोंका कारण बताया; क्योंकि इनके संयोगसे ही सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं। फिर अपनेको इन अपरा और पराका कारण बताया--'मत्तः परतरं नान्यत्'(7। 7)। यही बात विभूतियोंके वर्णनका उपसंहार करते हुए यहाँ कही है कि सात्त्विक, राजस और तामस भावोंको मेरेसे ही होनेवाला ज्ञान।     'न त्वहं तेषु ते मयि'--मैं उनमें नहीं हूँ और वे मेरेमें नहीं हैं। तात्पर्य है कि उन गुणोंकी मेरे सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अर्थात् मैं-ही-मैं हूँ; मेरे सिवाय और कुछ है ही नहीं। वे सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ हैं, वे सब-के-सब उत्पन्न और नष्ट होते हैं। परन्तु मैं उत्पन्न भी नहीं होता और नष्ट भी नहीं होता। अगर मैं उनमें होता तो उनका नाश होनेपर मेरा भी नाश हो जाता; परन्तु मेरा कभी नाश नहीं होता, इसलिये मैं उनमें नहीं हूँ। अगर वे मेरेमें होते तो मैं जैसा अविनाशी हूँ, वैसे वे भी अविनाशी होते; परंतु वे तो नष्ट होते हैं और मैं रहता हूँ इसलिये वे मेरेमें नहीं हैं। जैसे बीज ही वृक्ष, शाखाएँ, पत्ते, फूल आदिके रूपमें होता है; परंतु वृक्ष, शाखाएँ, पत्ते आदिमें बीजको खोजेंगे तो उनमें बीज नहीं मिलेगा। कारण कि बीज उनमें तत्त्व-रूपसे विद्यमान रहता है। ऐसे ही सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं; परन्तु उन भावोंमें मेरेको खोजोगे तो उनमें मैं नहीं मिलूँगा (गीता 7। 13)। कारण कि मैं उनमें मूलरूपसे और तत्त्वरूपसे विद्यमान हूँ। अतः मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ।   जैसे, बादल आकाशसे ही उत्पन्न होते हैं, आकाशमें ही रहते हैं और आकाशमें ही लीन होते हैं; परंतु आकाश ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। न आकाशमें बादल रहते हैं और न बादलोंमें आकाश रहता है। ऐसे ही आठवें श्लोकसे लेकर यहाँतक जितनी (सत्रह) विभूतियाँ बतायी गयी हैं, वे सब मेरेसे ही उत्पन्न होती हैं, मेरेमें ही रहती हैं और मेरेमें ही लीन हो जाती हैं। परंतु वे मेरेमें नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ। मेरे सिवाय उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस दृष्टिसे सब कुछ मैं ही हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्के सिवाय जितने सात्त्विक, राजस और तामस भाव अर्थात् प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ दिखायी देती हैं, उनकी सत्ता मानकर और उनको महत्ता देकर ये मनुष्य उनमें फँस रहे हैं। अतः भगवान् उन मनुष्योंका लक्ष्य इधर कराते हैं कि इन सब पदार्थों और क्रियाओंमें सत्ता और महत्ता मेरी ही है। विशेष बात सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे उत्पन्न होनेवाले तरह-तरहके जितने भाव (प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ) हैं, वे सब-के-सब भगवान्की शक्ति प्रकृतिसे ही उत्पन्न होते हैं। परंतु ��्रकृति भगवान्से अभिन्न होनेके कारण इन गुणोंको भगवान्ने 'मत्त एव' 'मेरेसे ही होते हैं'--ऐसा कहा है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति भगवान्से अभिन्न होनेसे ये सभी भाव भगवान्से उत्पन्न होते हैं और भगवान्में ही लीन हो जाते हैं, पर परा प्रकृति (जीवात्मा-) ने इनके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया अर्थात् इनको अपना और अपने लिये मान लिया--यही परा प्रकृतिद्वारा जगत्को धारण करना है। इसीसे वह जन्मता-मरता रहता है। अब उस बन्धनका निवारण करनेके लिये यहाँ कहते हैं कि सात्त्विक, राजस और तामस--ये सब भाव मेरेसे ही होते हैं। इसी रीतिसे दसवें अध्यायमें कहा है--'भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः'(10। 5) अर्थात् प्राणियोंके ये अलग-अलग प्रकारवाले (बीस) भाव मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं; और 'अहं सर्वस्य प्रभवतो मत्तः सर्वं प्रवर्तते'(10। 8) अर्थात् सबका प्रभव मैं हूँ और सब मेरेसे प्रवृत्त होते हैं। पंद्रहवें अध्यायमें भी कहा है कि स्मृति, ज्ञान आदि सब मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं--'मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च'(15। 15)। जब सब कुछ परमात्मासे ही उत्पन्न होता है, तब मनुष्यके साथ उन गुणोंका कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने साथ गुणोंका सम्बन्ध न माननेसे यह मनुष्य बँधता नहीं अर्थात् वे गुण उसके लिये जन्म-मरणके कारण नहीं बनते। गीतामें जहाँ भक्तिका वर्णन है, वहाँ भगवान् कहते हैं कि सब कुछ मैं ही हूँ--'सदसच्चाहमर्जुन'(9। 19) और अर्जुन भी भगवान्के लिये कहते हैं कि आप सत् और असत् भी हैं तथा उनसे पर भी हैं--'सदसत्तत्परं यत्' (11। 37)। ज्ञानी (प्रेमी) भक्तके लिये भी भगवान् कहते हैं कि उसकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)। कारण यह है कि भक्तिमें श्रद्धा और मान्यताकी मुख्यता होती है तथा भगवान्में दृढ़ अनन्यता होती है। भक्तिमें अन्यका अभाव होता है। जैसे उत्तम पतिव्रताको एक पतिके सिवाय संसारमें दूसरा कोई पुरुष दीखता ही नहीं, ऐसे ही भक्तको एक भगवान्के सिवाय और कोई दीखता ही नहीं, केवल भगवान् ही दीखते हैं। गीतामें जहाँ ज्ञानका वर्णन है, वहाँ भगवान् बताते हैं कि सत् और असत्--दोनों अलग-अलग हैं--'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः'(2। 16)। ऐसे ही ज्ञानमार्गमें शरीर-शरीरी, देह-देही, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति-पुरुष--दोनोंको अलग-अलग जाननेकी बात बहुत बार आयी है; जैसे--'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि'(13। 19) 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम्'(13। 2) 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्'(13। 26) 'क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नम्'(13। 33) 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा' (13। 34)। कारण यह है कि ज्ञानमार्गमें विवेककी प्रधानता होती है। अतः वहाँ नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशी आदिका विचार होता है और फिर अपना स्वरूप बिलकुल निर्लिप्त है--ऐसा बोध होता है।  साधकमें श्रद्धा और विवेक--दोनों ही रहने चाहिये। भक्तिमार्गमें श्रद्धाकी मुख्यता होती है और ज्ञानमार्गमें विवेककी मुख्यता होती है। ऐसा होनेपर भी भक्तिमार्गमें विवेकका और ज्ञानमार्गमें श्रद्धाका अभाव नहीं है। भक्ति-मार्गमें मानते हैं कि सात्त्विक राजस और तामस भाव भगवान्से ही होते हैं (7। 12) और ज्ञानमार्गमें मानते हैं कि सत्त्व, रज और तम--ये तीनों गुण प्रकृतिसे ही होते हैं--'सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः' (14। 5)। दोनों ही साधक अपनेमें निर्विकारता मानते हैं कि ये गुण अपने नहीं हैं; और दोनों ही जहाँ एक तत्त्वको प्राप्त होते हैं, वहाँ न द्वैत कह सकते हैं, न अद्वैत; न सत् कह सकते हैं, न असत्।भक्तिमार्गवाले भगवान्के साथ अनन्य प्रेमसे अभिन्न होकर प्रकृतिसे सर्वथा रहित हो जाते हैं और ज्ञानमार्गवाले प्रकृति एवं पुरुषका विवेक करके प्रकृतिसे बिलकुल असम्बद्ध अपने स्वरूपका साक्षात् अनुभव करके प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धरहित हो जाते हैं।  सम्बन्ध--भगवान्ने पहले बारहवें श्लोकमें कहा कि ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं। इस विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि भगवान् प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा निर्लिप्त हैं। ऐसे ही भगवान्का शुद्ध अंश यह जीव भी निर्लिप्त है। इसपर यह प्रश्न होता है कि यह जीव निर्लिप्त होता हुआ भी बँधता कैसे है? इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।7.12।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक (जड़) भाव हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि मैं उनमें नहीं हूँ, वे मुझमें हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।

Sri Anandgiri

।।7.12।।चिदानन्दयोरभिव्यञ्जकानां भावानामीश्वरात्मत्वाभिधानादन्येषामतदात्मत्वप्राप्तावुक्तं कि़ञ्चेति। प्राणिनां त्रैविध्ये हेतुं दर्शयन्वाक्यार्थमाह ये केचिदिति। तर्हि पितुरिव पुत्राधीनत्वं त्वत्तो जायमानात्तदधीनत्वं तवापि स्यादिति विक्रियावत्त्वदूष्यत्वप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह यद्यपीति। मम परमार्थत्वात्तेषां कल्पितत्वान्न तद्गुणदोषौ मयि स्यातामित्यर्थः। तेषामपि तद्वदेव स्वतन्त्रतासंभवात्किमिति कल्पितत्वमित्याशङ्क्याह ते पुनरिति। त्रिविधानां भावानां न स्वातन्त्र्यमीश्वरकार्यत्वेन तदधीनत्वात्तथा न कल्पितस्याधिष्ठानसत्ताप्रतीतिभ्यामेव तद्वत्त्वात्तन्मात्रत्वसिद्धिरित्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।7.12।।मत्तः परतरं नान्यदिति प्रागुक्तं स्पष्टयति भगवानेकेन ये चैविति। प्राकृता अप्येते मत्त एव मत्सत्प्रकृतिगुणकार्यत्वात् मम च प्रकृत्यादिकारणत्वेन मुख्यकर्तृत्वं उपादानगोचरापरोक्षाज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते जीववत्तदायत्तो न भवामीत्यर्थः। नशब्दोऽत्रापि सम्बध्यते। तेऽपि मयि न किन्तु मदुपादेयप्रकृतावेव ते वर्तन्ते। अहं तु मूलरूपेण तत्कर्त्तैवेत्यर्थः। अथवा ते मयि इति परम्परया तेषां मदाश्रितत्वात्।

Sridhara Swami

।।7.12।। किंच ये चेति। ये चान्येऽपि सात्त्विका भावाः शमदमादयः राजसाश्च द्वेषदर्पादयः तामसाश्च शोकमोहादयः प्राणिनां स्वकर्मवशाज्जायन्ते तान्सर्वान्मत्त एव जातानिति विद्धि। मदीयप्रकृतिगुणत्रयकार्यत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते। जीववत्तदधीनोऽहं न भवामीत्यर्थः। ते तु मदधीनाः सन्तो मयि वर्तन्त इत्यर्थ।

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