Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 13 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् | मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ||७-१३||
Transliteration
tribhirguṇamayairbhāvairebhiḥ sarvamidaṃ jagat . mohitaṃ nābhijānāti māmebhyaḥ paramavyayam ||7-13||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
7.13 Deluded by these Natures (states or things) composed of the three alities of Nature all this world does not know Me as distinct from them and immutable.
।।7.13।। त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (विकारों) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, recognize that successes, failures, titles, and material gains are all transient manifestations influenced by the Gunas (qualities of nature). Don't let the pursuit of external validation (Rajas) or the inertia of complacency (Tamas) delude you into believing these define your true worth. Strive for purposeful action (Sattva), understanding that your intrinsic value is immutable and distinct from your career's fluctuating trajectory.
🧘 For Stress & Anxiety
Much of our stress and mental anguish stems from identifying too strongly with temporary emotional states, external circumstances, and the outcomes of actions – all products of the Gunas. By understanding that these are fleeting and do not represent your true, immutable Self, you can cultivate detachment. This helps you observe distressing thoughts and feelings without being swept away by them, finding inner peace amidst life's constant changes.
❤️ In Relationships
Relationships are often a complex interplay of Guna-driven affections, attachments, and infatuations. Realize that possessiveness, unrealistic expectations, and emotional dependency arise from mistaking these impermanent qualities for the essence of love. Strive for a love that recognizes the divine, immutable essence in others and yourself, moving beyond conditional attachments and the transient drama of Guna-driven interactions. This fosters deeper, more liberated connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Do not be deluded by the temporary, Guna-driven world; recognize the immutable, eternal truth that lies beyond it.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
7.13 त्रिभिः by three? गुणमयैः composed of Gunas? भावैः by natures? एभिः by these? सर्वम् all? इदम् this? जगत् world? मोहितम् deluded? न not? अभिजानाति knows? माम् Me? एभ्यः from them? परम् higher? अव्ययम् immutable.Commentary Persons of this world are deluded by the three alities of Nature or Maya. Affection? attachment and infatuated love are all modifications of these alities. On account of delusion created by these three alities they are not able to break the worldly ties and to turn the mind towards the Supreme Soul? the Lord of the three alities.Avyayam Immutable or unchangeable or inexhaustible or imperishable. The Self is of one homogeneous essence. It has not got the six changes or modifications (Shad Bhava Vikaras) which the body has? viz.? existence? birth? growth? modification? decay and death. (Cf.VII.25)
Shri Purohit Swami
7.13 The inhabitants of the world, misled by those natures which the Qualities have engendered, know not that I am higher than them all, and that I do not change.
Dr. S. Sankaranarayan
7.13. Being duluded by these three beings of the Strands, this entire world does not recognise Me Who am eternal and transcending these [Strands].
Swami Adidevananda
7.13 The entire universe is deluded by these three states originating from the Gunas (of Prakrti), and fails to recognise Me, who am beyond them and immutable.
Swami Gambirananda
7.13 All this world, deluded as it is by these three things made of the gunas (alities), does not know Me who am transcendental to these and undecaying.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।7.13।। प्रश्न यह है कि यदि त्रिगुणों से परे कोई परम अव्यय तत्त्व है तो सामान्य मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता है पूर्ण साक्षात्कार न भी सहज हो तब भी कम से कम उसके अस्तित्व के विषय में तो उसे शंका नहीं होनी चाहिए इसका उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।त्रिगुणों से उत्पन्न राग द्वेषादि विकारों के कारण मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को भूलकर उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके केवल विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। स्वाभाविक है कि इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। एक बार स्तम्भ में प्रेत का आभास होने पर वह स्तम्भ उससे आच्छादित हो जाता है। यह एक तथ्य है कि जब तक यह आभास बना रहता है तब तक स्तम्भ का एक इञ्च भाग भी मोहित व्यक्ति को नहीं दिखाई देता इसी प्रकार माया से उत्पन्न उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण आत्मा को मानो जीवभाव प्राप्त हो जाता है। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है जिसके कारण यह अपने लिए और जगत् के लिए अनन्त दुख और विक्षेप उत्पन्न करता रहता है।अगले श्लोक में इस आवरण शक्ति की परिभाषा का वर्णन किया गया है
Swami Ramsukhdas
।।7.13।। व्याख्या--'त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परमव्ययम्'--सत्त्व रज और तम--तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपनेको सात्त्विक, राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उनका अपनेमें आरोप कर लेता है कि 'मैं सात्त्विक, राजस और तामस हो गया हूँ।' इस प्रकार तीनों गुणोंसे मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्माका अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्माकी तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वृत्तियोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है--यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होनेके कारण वह 'मेरा परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्ध है'--इसको समझ ही नहीं सकता। यहाँ 'जगत्' शब्द जीवात्माका वाचक है। निरन्तर परिवर्तनशील शरीरके साथ तादात्म्य होनेके कारण ही यह जीव 'जगत्' नामसे कहा जाता है। तात्पर्य है कि शरीरके जन्मनेमें अपना जन्मना, शरीरके मरनेमें अपना मरना, शरीरके बीमार होनेमें अपना बीमार होना और शरीरके स्वस्थ होनेमें अपना स्वस्थ होना मान लेता है, इसीसे यह 'जगत्' नामसे कहा जाता है। जबतक यह शरीरके साथ अपना तादात्म्य मानेगा, तबतक यह जगत् ही रहेगा अर्थात् जन्मता-मरता ही रहेगा, कहीं भी स्थायी नहीं रहेगा।गुणोंकी भगवान्के सिवाय अलग सत्ता माननेसे ही प्राणी मोहित होते हैं। अगर वे गुणोंको भगवत्स्वरूप मानें तो कभी मोहित हो ही नहीं सकते।तीनों गुणोंका कार्य जो शरीर है, उस शरीरको चाहे अपना मान लें, चाहे अपनेको शरीर मान लें--दोनों ही मान्यताओंसे मोह पैदा होता है। शरीरको अपना मानना 'ममता' हुई और अपनेको शरीर मानना 'अहंता' हुई। शरीरके साथ अहंता-ममता करना ही मोहित होना है। मोहित हो जानेसे गुणोंसे सर्वथा अतीत जो भगवत्तत्त्व है, उसको नहीं जान सकता। यह उस भगवत्तत्त्वको तभी जान सकता है जब त्रिगुणात्मक शरीरके साथ इसकी अहंताममता मिट जाती है। यह सिद्धान्त है कि मनुष्य संसारसे सर्वथा अलग होनेपर ही संसारको जान सकता है और परमात्मासे सर्वथा अभिन्न होनेपर भी परमात्माको जान सकता है। कारण इसका यह है कि त्रिगुणात्मक शरीरसे यह स्वयं सर्वथा भिन्न है और परमात्माके साथ यह स्वयं सर्वथा अभिन्न है।अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव होना ही मोहित होना है। जो प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले तीनों गुणोंसे परे हैं, अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्य-निरन्तर एकरूप रहनेवाले हैं, ऐसे परमात्मा 'स्वाभाविक' हैं। परमात्माकी यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है, कृत्रिम नहीं है, अभ्याससाध्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक है। परंतुशरीर तथा संसारमें अहंता-ममता अर्थात् 'मैं' और 'मेरा'-भाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होनेवाला है, यह केवल माना हुआ है, इसलिये यह 'अस्वाभाविक' है। इस अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है, जिसके कारण मनुष्य स्वाभाविकताको समझ नहीं सकता। जीव पहले परमात्मासे विमुख हुआ या पहले संसारके सम्मुख (गुणोंसे मोहित) हुआ?--इसमें दार्शनिकोंका मत यह है कि परमात्मासे विमुख होना और संसारसे सम्बन्ध जोड़ना--ये दोनों अनादि हैं, इनका आदि नहीं है। अतः इनमें पहले या पीछेकी बात नहीं कही जा सकती। परन्तु मनुष्य यदि मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग न करे, उसे केवल भगवान्में ही लगाना शुरू कर दे तो यह संसारसे ऊपर उठ जाता है अर्थात् इसका जन्म-मरण मिट जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मनुष्य प्रभुकी दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके ही बन्धनमें पड़ा है। अपनी स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके नष्ट होनेवाले पदार्थोंमें उलझ जानेसे यह परमात्मतत्त्वको जान नहीं सकता। 'परमव्ययम्'पदसे भगवान् कहते हैं कि मैं इन गुणोंसे पर हूँ अर्थात् इन गुणोंसे सर्वथा रहित, असम्बद्ध, निर्लिप्त हूँ। मैं न कभी किसी गुणसे बँधा हुआ हूँ और न गुणोंके परिवर्तनसे मेरेमें कोई परिवर्तन ही होता है। ऐसे मेरे वास्तविक स्वरूपको गुणोंसे मोहित प्राणी नहीं जान सकते। सम्बन्ध-- अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपनेको न जान सकनेमें हेतु बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।7.13।। त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (विकारों) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।7.13।।तर्हि कथमेवं न ज्ञायते इत्यत आह त्रिभिरिति। तादात्म्यार्थे मयट्। तच्चोक्तम्तादात्म्यार्थे विकारार्थे प्राचुर्यार्थे मयट् त्रिधा इति। न हि गुणकार्यभूता माया।गुणमयी 7।14 इति च वक्ष्यति। सिद्धं च कार्यस्यापि तादात्म्यम्तादात्म्यं कार्यधर्मादेः संयोगो भिन्नवस्तुनोः इत्यादि व्यासयोगे। भावैः पदार्थैः। सर्वे भावा दृश्यमाना गुणमया एत एवेति दर्शयति एभिरिति। ज्ञानिव्यावृत्त्यर्थंइदं इति। गुणमयदेहादिकं दृष्ट्वेश्वरदेहेऽपि तादृश इति मायामोहित इत्यर्थः। जगाद च व्यासयोगेगौणान्ब्रह्मादिदेहादीन्दृष्ट्वा विष्णोरपीदृशः। देहादिरिति मन्वानो मोहितोऽज्ञो जनो भृशम् इति। एभ्यो गुणमयेभ्यःगुणेभ्यश्च परं 14।19 इति वक्ष्यमाणत्वात्। केवलो निर्गुणश्च श्वे.उ.6।11 इत्यादिश्रुतिभ्यश्च त्रैगुण्यवर्जितमिति चोक्तम्।
Sri Anandgiri
।।7.13।।सतीश्वरस्य स्वातन्त्र्ये नित्यशुद्धत्वादौ च कुतो जगतस्तदात्मकस्य संसारित्वमित्याशङ्क्य तदज्ञानादित्याह एवंभूतमपीति। यद्यप्रपञ्चोऽविक्रियश्च त्वं कस्मात्त्वामात्मभूतं स्वयंप्रकाशं सर्वो जनस्तथा न जानातीति मत्वा शङ्कते तच्चेति। श्लोकेनोत्तरमाह उच्यत इति। एभ्यः परमित्यप्रपञ्चकत्वमुच्यते। अव्ययमिति सर्वविक्रियाराहित्यम्।
Sri Vallabhacharya
।।7.13 7.14।।परमेतदसंस्पष्टं मां वेदान्तवेद्यं न जगद्वेदेह गुणतन्त्रत्वादित्याह त्रिभिरिति। भावैस्त्रिभिः पदार्थैः। त्रित्व गुणमयत्वाभिप्रायेण। मोहितं जगदिदमावृतं एभ्यस्त्रिगुणात्मकेभ्यो भावेभ्यो मूलभूतगुणेभ्यो वा परमव्ययं विनाशरहितं मां न जानाति। प्रकृतेर्गुणा एव बन्धकाः। सत्त्वरजस्तमोमयैः भावैः सर्वं जगन्मोहितं मम मायागुणा एव हि परिणता अपि स्वरूपावरणे विक्षेपे च हेत्वन्तरभूताः भगवज्ज्ञानसाधनप्रतिकूलाः प्रत्युत बन्धरूपाः जीवेऽविद्याकृताध्यासदार्ढ्यकारणभूताश्चसर्वाध्यासनिवृत्तौ हि सर्वथा न भवेद्यथा। सा च विद्योदये सा च न शब्दात्सुविचारितात्। मर्यादाभङ्ग एव स्यात्प्रमाणानां तथा सति। गजानुमानं नैव स्यात्साङ्कर्यं वा तथा भवेत्। दशमस्त्वमसीत्यादौ देहादिविषयत्वतः। शब्दस्य साहचर्येण चक्षुषैव भवेन्मतिः। स्मारकत्वमतो वाक्ये सङ्ख्याज्ञानं पुराः यतः। अध्यासस्यानिवृत्तत्वान्न विविक्तात्मदर्शनम्। मनसा शक्यते कर्त्तुं नान्यथा सर्वदा भवेत्। प्रत्यक्षेणापि विज्ञानं मायया ज्ञानकाशया। स्वप्नबोधरीत्या हि किमु शब्दं निवारयेत्। सर्वज्ञस्वं सर्वभावज्ञानं चापाततः फलम्। सर्वो न ब्रह्म सर्वं तु वामदेवस्तथा जगौ। अवयुज्यागर्भवासात्सूर्याद्यनुवदन्मुहुः। ज्ञानदुर्बलवाक्यत्वात्पाषण्डवचनं मतम्। सत्ये युगेऽतिमहतां भवत्येतन्न चान्यथा। स्वप्नो जागरणं चैव यथा ह्यन्योन्यवैरिणौ। विद्याविद्ये तथा स्यातां न तु सर्वात्मना लयः। इदमेव विनिश्चित्य श्रीकृष्णोऽर्जुनमाह वै। मामेवेति। एवकारेण सर्वेषामनुपायत्वमाह ज्ञानादीनां सर्वेषां भगवदधीनत्वात्।विश्वासं सर्वतस्त्यक्त्वा कृष्णमेव भजेद्बुधः इति श्रीमदाचार्योक्तानुसारेण प्रपत्तिमार्गरीत्या ये भजन्ते मां पुरुषोत्तममेव ते मायां तरन्ति। इयं च दैवी माया प्रकृते नासुरी अन्यस्याज्ञानविशेषेण स्वकृतिसाध्येन च बाधितत्वनियमात् अतएव दुरत्यया। यद्वा धात्वन्वर्था दैवी गुणमयी च। ममेति मदधीनभक्तहितकारिण्येषा भवतीति एतां मायां त एव जगति स्थिता मदीया निर्गुणात्मकास्तीर्णा इत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।7.13।।एवंभूतं त्वां परमेश्वरमयं जनः किमिति न जानातीत्यत आह त्रिभिरिति। त्रिभिस्त्रिविधैरेभिः पूर्वोक्तैः गुणमयैः कामलोभादिभिर्गुणविकारैः भावै स्वभावैर्मोहितमिदं जगत् अतो मां नाभिजानाति। कथंभूतम्। एभ्यो भावेभ्यः परं एभिरसंस्पृष्टम्। एतेषां नियन्तारमत एवाव्ययम्। निर्विकारमित्यर्थः।