Bhagavad Gita Chapter 7 Verse 11 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् | धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ||७-११||

Transliteration

balaṃ balavatāṃ cāhaṃ kāmarāgavivarjitam . dharmāviruddho bhūteṣu kāmo.asmi bharatarṣabha ||7-11||

Word-by-Word Meaning

बलम्strength
बलवताम्of the strong
अस्मिam (I)
कामरागविवर्जितम्devoid of desire and attachment
धर्माविरुद्धःunopposed to Dharma
भूतेषुin beings
कामःdesire
अस्मिam (I)

📖 Translation

English

7.11 Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।7.11।। हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach work with strength derived from dedication and ethical purpose, rather than insatiable ambition or attachment to outcomes. Strive for excellence and create value, understanding that true achievement comes from efforts aligned with a larger, dharmic objective, rather than just personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate resilience by recognizing that true strength lies in the inner capacity to respond to challenges without being consumed by craving or aversion. Discern desires that genuinely foster well-being (e.g., healthy habits, meaningful engagement) from those that lead to anxiety, fear, and unhealthy attachments.

❤️ In Relationships

Build connections based on selfless love, respect, and a desire for mutual well-being, rather than possessiveness, ego-driven demands, or seeking personal gratification. Exercise the strength to act with integrity, forgive, and maintain healthy boundaries, fostering relationships free from binding attachments.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True strength and desire, when aligned with righteousness (Dharma) and free from binding attachment, are manifestations of the divine and lead to a purposeful, fulfilling life.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

7.11 बलम् strength? बलवताम् of the strong? अस्मि am (I)? कामरागविवर्जितम् devoid of desire and attachment? धर्माविरुद्धः unopposed to Dharma? भूतेषु in beings? कामः desire? अस्मि am (I)? भरतर्षभ O Lord of the Bharatas.Commentary Kama Desire for those objects that come in contact with the senses.Raga attachment for those objects that come in contact with the senses.I am that strength which is necessary for the bare sustenance of the body. I am not the strength which generates desire and attachment for sensual objects as in the case of worldlyminded persons. I am the desire which is in accordance with the teachings of the scriptures or the code prescribing the duties of life. I am the desire for moderate eating and drinking? etc.? which are,necessary for the sustenance of the body and which help one in the practice of Yoga.

Shri Purohit Swami

7.11 I am the Strength of the strong, of them who are free from attachment and desire; and, O Arjuna, I am the Desire for righteousness.

Dr. S. Sankaranarayan

7.11. Of the strong, I am the strength that is free from desire and attachment. O best of the Bharatas, in [all] beings I am the desire which is not opposed to attributes.

Swami Adidevananda

7.11 In the strong, I am strength, devoid of desire and passion. In all beings, I am the desire which is not forbidden by law (Dharma), O Arjuna.

Swami Gambirananda

7.11 And of the strong I am the strength which is devoid of passion and attachment. Among creatures I am desire which is not contrary to righteousness, O scion of the Bharata dyansty.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।7.11।। सामान्य बुद्धिमत्ता के और मन्दबुद्धि के लोगों को अनेक उदाहरण देने के पश्चात् यहाँ इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण उस अत्यन्त मेधावी पुरुष के लिये तत्त्व का निर्देश करते हैं जिसमें यह क्षमता हो कि वह इस दिये हुये निर्देश पर सूक्ष्म विचार कर सके।बलवानों का बल मैं हूँ केवल इतने ही कथन में पूर्व कथित दृष्टान्तों की अपेक्षा कोई अधिक विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। परन्तु बल शब्द को दिये गये विशेषण से इसको विशेष महत्त्व प्राप्त हो जाता है। सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है।कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना किसी बल की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं. अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। हड़ताल और दंगे उपद्रव और युद्ध इन सबके पीछे प्रेरक वृत्तियां हैं काम और राग। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं बलवानों का काम और राग से वर्जित बल हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है।इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अत वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। जिन विचारों एवं कर्मों से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।अब तक के उपदेश तथा दृष्टान्तों का क्या यह अर्थ हुआ कि आत्मा वास्तव में अनात्म जड़ उपाधियों के बन्धन में आ गया है परिच्छिन्न उपाधि अपरिच्छिन्न आत्मा को कैसे सीमित कर सकती है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।7.11।। व्याख्या--'बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्'--कठिन-से-कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना-आसक्तिरहित शुद्ध, निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होनेपर भी 'मेरा कार्य शास्त्र और धर्मके अनुकूल है तथा लोकमर्यादाके अनुसार सन्तजनानुमोदित है'--ऐसे विचारसे मनमें एक उत्साह रहता है। इसका नाम 'बल' है। यह बल भगवान्का ही स्वरूप है। अतः यह 'बल' ग्राह्य है। गीतामें भगवान्ने खुद ही बलकी व्याख्या कर दी है। सत्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'कामरागबलान्विताः' पदमें आया बल कामना और आसक्तिसे युक्त होनेसे दुराग्रह और हठका वाचक है। अतः यह बल भगवान्का स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आसुरी सम्पत्ति होनेसे त्याज्य है। ऐसे ही 'सिद्धोऽहं बलवान्सुखी' (गीता 16। 14) और 'अहंकारं बलं दर्पम्' (गीता 16। 18 18। 53) पदोंमें आया बल भी त्याज्य है। छठे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'बलवद्दृढम्' पदमें आया बल शब्द मनका विशेषण है। वह बल भी आसुरी सम्पत्तिका ही है; क्योंकि उसमें कामना और आसक्ति है। परन्तु यहाँ (7। 11 में) जो बल आया है, वह कामना और आसक्तिसे रहित है, इसलिये यह सात्त्विक उत्साहका वाचक है और ग्राह्य है। सत्रहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें 'आयुःसत्त्वबलारोग्य ৷৷.' पदमें आया बल शब्द भी इसी सात्त्विक बलका वाचक है। 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'--हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! मनुष्योंमें (टिप्पणी प0 407.1) धर्मसे अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त 'काम' (टिप्पणी प0 407.2) मेरा स्वरूप है। कारण कि शास्त्र और लोक-मर्यादाके अनुसार शुभ-भावसे केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये जो काम होता है, वह काम मनुष्यके अधीन होता है। परंतु आसक्ति कामना सुखभोग आदिके लिये जो काम होता है उस काममें मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वशमें होकर वह न करनेलायक शास्त्रविरुद्ध काममें प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरुद्ध काम पतनका तथा सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका हेतु होता है। कृत्रिम उपायोंसे सन्तति-निरोध कराकर केवल भोग-बुद्धिसे काममें प्रवृत्त होना महान् नरकोंका दरवाजा है। जो सन्तानकी उत्पत्ति कर सके, वह 'पुरुष' कहलाता है और जो गर्भ धारण कर सके, वह 'स्त्री' कहलाती है (टिप्पणी प0 407.3)। अगर पुरुष और स्त्री आपरेशनके द्वारा अपनी सन्तानोत्पत्ति करनेकी योग्यता-(पुरुषत्व और स्त्रीत्व-) को नष्ट कर देते हैं, वे दोनों ही हिजड़े कहलानेयोग्य हैं। नपुंसक होनेके कारण देवकार्य (हवन-पूजन आदि) और पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) में उनका अधिकार नहीं रहता (टिप्पणी प0 407.4)। स्त्रीमें मातृशक्ति नष्ट हो जानेके कारण उसके लिये परम आदरणीय एवं प्रिय 'माँ' सम्बोधनका प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार केवल सन्तानोत्पत्तिके लिये कामका सेवन करे अथवा ब्रह्मचर्यका पालन करे।

Swami Tejomayananda

।।7.11।। हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।

Sri Anandgiri

।।7.11।।यच्च बलवतां बलं तद्भूते मयि तेषां प्रोतत्वमित्याह बलमिति। कामक्रोधादिपूर्वकस्यापि बलस्यानुमतिं वारयति तच्चेति। कामरागयोरेकार्थत्वमाशङ्क्यार्थभेदमावेदयति कामस्तृष्णेत्यादिना। विशेषणसामर्थ्यसिद्धं व्यावर्त्य दर्शयति नत्विति। शास्त्रार्थाविरुद्धकामभूते मयि तथाविधकामवतां भूतानां प्रोतत्वं विवक्षित्वाह कि़ञ्चेति। धर्माविरुद्धं काममुदाहरति यथेति।

Sri Vallabhacharya

।।7.11।।बलमिति। क्रियाशक्तिरूपं तदपि न प्रवृत्त्यात्मकमित्याह कामरागाविवर्जितमिति। तथैव कामोऽस्मि स च लोके धर्मविरोधीति तद्व्यावृत्त्यर्थमाह धर्माविरुद्ध इति। एते सप्तसप्त तत्तद्वयभेदा निरूपिताः।

Sridhara Swami

।।7.11।।किंच बलमिति। कामोऽप्राप्ते वस्तुन्यभिलाषो राजसः रागः पुनरभिलषितेऽर्थे प्राप्तेऽपि पुनरधिकेऽर्थे चित्तरञ्जनात्मकस्तृष्णापरपर्यायस्तामसः ताभ्यां विवर्जितं बलवतां बलमस्मि। सात्त्विकं स्वधर्मानुष्ठानसामर्थ्यमहमित्यर्थः। स्वधर्मेणाविरुद्धः स्वदारेषु पुत्रोत्पत्तिमात्रोपयोगी कामोऽहम्।

Explore More