Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 25 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Ethical Purification

Sanskrit Shloka (Original)

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः | छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ||५-२५||

Transliteration

labhante brahmanirvāṇamṛṣayaḥ kṣīṇakalmaṣāḥ . chinnadvaidhā yatātmānaḥ sarvabhūtahite ratāḥ ||5-25||

Word-by-Word Meaning

लभन्तेobtain
ब्रह्मनिर्वाणम्absolute freedom
ऋषयःthe Rishis
क्षीणकल्मषाःthose whose sins are destroyed
छिन्नद्वैधाःwhose dualities are torn asunder
यतात्मानःthose who are selfcontrolled
सर्वभूतहितेin the welfare of all beings

📖 Translation

English

5.25 The sages (Rishis) obtain absolute freedom or Moksha they whose sins have been destroyed, whose dualities (perception of dualities or experience of the pairs of opposites) are torn asunder, who are self-controlled, and intent on the welfare of all beings.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.25।। वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach work with integrity, focusing on contributing to the collective good of the organization or society, rather than solely personal gain. Develop the discipline to handle successes and failures, praise and criticism with equanimity, maintaining focus and ethical conduct regardless of external pressures.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate a balanced mind by reducing attachment to outcomes and external conditions. Practice self-control to manage emotional reactions and impulses, finding inner calm through disciplined reflection or mindfulness. Engaging in selfless service can shift focus from personal anxieties, fostering a sense of purpose and well-being.

❤️ In Relationships

Act with genuine compassion and a sincere desire for the welfare of others, fostering empathy and understanding. Practice self-control to manage conflicts constructively, avoiding hurtful words or actions. Seek to overcome dualities in perspective, understanding differences without letting them create division, and always acting with honesty and integrity.

social_impact

Actively participate in community welfare and social causes, recognizing the interconnectedness of all beings. This verse encourages a commitment to universal well-being, translating personal spiritual growth into tangible positive impact on society. It's about being a change agent through compassionate action.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Attain ultimate freedom and inner peace by purifying your intentions, mastering your mind to transcend dualities, and dedicating yourself to the welfare of all beings.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.25 लभन्ते obtain? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? ऋषयः the Rishis? क्षीणकल्मषाः those whose sins are destroyed? छिन्नद्वैधाः whose dualities are torn asunder? यतात्मानः those who are selfcontrolled? सर्वभूतहिते in the welfare of all beings? रताः rejoicing.Commentary Sins are destroyed by the performance of Agnihotra (a daily obligatoyr ritual) and other Yajnas (vide notes on verse III. 13) without expectation of their fruits and by other selfless services. The duties vanish by constant meditation on the nondual Brahman. He never hurts others in thought? word and deed? and he is devoted to the welfare of all beings as he feels that all beings are but his own Self. (Cf.XII.4)

Shri Purohit Swami

5.25 Sages whose sins have been washed away, whose sense of separateness has vanished, who have subdued themselves, and seek only the welfare of all, come to the Eternal Spirit.

Dr. S. Sankaranarayan

5.25. At all times there is the tranil Brahman for the ascetics who have severed their connection with desire and anger, who have controlled their mind and have realised their Self.

Swami Adidevananda

5.25 The sages who are free from the pairs of opposites, whose minds are well subdued and who are devoted to the welfare of all beings, become cleansed of all impurities and attain the bliss of the Brahman.

Swami Gambirananda

5.25 The seers whose sins have been attenuated, who are freed from doubt, whose organs are under control, who are engaged in doing good to all beings, attain absorption in Brahman.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.25।। जितेन्द्रिय होकर जब मनुष्य ध्यानभ्यास करता है तब वह अपने मन की सभी पापपूर्ण वासनाओं को धो डालता है जिन्होनें आत्मस्वरूप को आवृत्त कर रखा है और जिसके कारण सत्य के विषय में असंख्य संशय उत्पन्न होते हैं। मन के शुद्ध होने पर आत्मानुभव भी सहजसिद्ध हो जाता है। आत्मज्ञान का उदय होने के साथ ही आवरण और विक्षेप रूप अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होकर स्वरूप में अवस्थान प्राप्त हो जाता है।विकास के सर्वोच्च शिखरआत्मस्थिति को प्राप्त करने के पश्चात् देह त्याग तक ज्ञानी पुरुष का क्या कर्तव्य होता है इस विषय में सामान्य धारणा यह है कि वह जगत् में विक्षिप्त के समान अथवा पाषाण प्रतिमा के समान रहेगा दिन में कमसेकम एक बार भोजन करेगा और घूमता रहेगा। लोग ऐसे पुरुष को समाज पर भार समझते हैं। परन्तु वेदों में मनुष्य के लिए कोई जीवित प्रेत का लक्ष्य नहीं बताया गया है और न ऋषियों ने किसी ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है।आत्मसाक्षात्कार कोई दैवनिर्धारित शवगर्त की ओर धीरेधीरे बढ़ने वाला दुखद संचलन नहीं वरन् सत्य के राजप्रासाद तक पहँचने की सुखद यात्रा है। यह सत्य जीव का स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसके अज्ञान से वह अपने से ही दूर भटक गया था। आत्मानुभव में स्थित ज्ञानी पुरुष का सम्पूर्ण जीवन मनुष्यों का आत्म अज्ञान दूर करने और आत्मवैभव को प्रकट करने में समर्पित होता है। इसका संकेत भगवान् के शब्दों में सर्वभूत हिते रता के द्वारा किया गया है।यह लोक सेवा उसका स्वनिर्धारित कार्य और मनोरंजन दोनों ही है। उपाधियों के द्वारा सब की सेवा में अपने को समर्पित करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहता है।भगवान् आगे कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.25।। व्याख्या--'यतात्मानः'--नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मनबुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ 'यतात्मानः' पद आया है।'सर्वभूतहिते रताः'--सांख्ययोगकी सिद्धिमें व्यक्तित्वका अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तित्वके अभिमानको मिटाकर तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करनेके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव होना आवश्यक है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें प्रीति ही उसके व्यक्तित्वको मिटानेका सुगम साधन है।जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है। जैसे अपने कहलानेवाले शरीरमें आकृति, अवयव, कार्य, नाम आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी ऐसा भाव रहता है कि सभी अङ्गोंको आराम पहुँचे, किसी भी अङ्गको कष्ट न हो, ऐसे ही वर्ण, आश्रम ,सम्प्रदाय, साधन-पद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सबको सुख पहुँचे, सबका हित हो, कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि बाहरसे भिन्नता रहनेपर भी भीतरसे एक परमात्मतत्त्व ही समानरूपसे सबमें परिपूर्ण है। अतः प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनेसे व्यक्तिगत स्वार्थभाव सुगमतासे नष्ट हो जाता है और परमात्मतत्त्वके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।'छिन्नद्वैधाः'--जबतक तत्त्वप्राप्तिका एक निश्चय दृढ़ नहीं होता, तबतक अच्छे-अच्छे साधकोंके अन्तःकरणमें भी कुछ-न-कुछ दुविधा विद्यमान रहती है। दृढ़ निश्चय होनेपर साधकोंको अपनी साधनामें कोई संशय, विकल्प, भ्रम आदि नहीं रहता और वे असंदिग्धरूपसे तत्परतापूर्वक अपने साधनमें लग जाते हैं।'क्षीणकल्मषाः'--प्रकृतिसे माना हुआ जो भी सम्बन्ध है, वह सब कल्मष ही है; क्योंकि प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् पापों, दोषों, विकारोंका हेतु है। प्रकृति तथा उसके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे स्पष्टतया अपना अलग अनुभव करनेसे साधकमें निर्विकारता स्वतः आ जाती है।'ऋषयः'--'ऋष्' धातुका अर��थ है--ज्ञान। उस ज्ञान-(विवेक-) को महत्त्व देनेवाले ऋषि कहलाते हैं।प्राचीनकालमें ऋषियोंने गृहस्थमें रहते हुए भी परमात्मतत्त्वको प्राप्त किया था। इस श्लोकमें भी सांसारिक व्यवहार करते हुए विवेकपूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाले साधकोंका वर्णन है। अतः अपने विवेकको महत्त्व देनेवाले ये साधक भी ऋषि ही हैं।'लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्' ब्रह्म तो सभीको सदासर्वदा प्राप्त है ही, पर परिवर्तनशील शरीर आदिसे अपनी एकता मान लेनेके कारण मनुष्य ब्रह्मसे विमुख रहता है। जब शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब सम्पूर्ण विकारों और संशयोंका नाश होकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्मका अनुभव हो जाता है।'लभन्ते' पदका तात्पर्य है कि जैसे लहरें समुद्रमें लीन हो जाती हैं, ऐसे ही सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाते हैं। जैसे जल-तत्त्वमें समुद्र और लहरें--ये दो भेद नहीं हैं, ऐसे ही निर्वाण ब्रह्ममें आत्मा और परमात्मा--ये दो भेद नहीं हैं।  सम्बन्ध--चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें भगवान्ने सांख्ययोगके साधकोंद्वारा निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त करनेकी बात कही। अब आगेके श्लोकमें यह बताते हैं कि निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर उसका कैसा अनुभव होता है

Swami Tejomayananda

।।5.25।। वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.25।।पापक्षयाच्चैतद्भवतीत्याह लभन्त इति। क्षीणकल्मषा भूत्वा छिन्नद्वैधा यतात्मानः। द्वेधा भावो द्वैधम् संशयो विपर्ययो वा। तच्चोक्तम् विपर्ययः संशयो वा यद्वैधं त्वकृतात्मनाम्। ज्ञानासिना तु तच्छित्त्वा मुक्तसङ्गः परिव्रजेत् इति च। छिन्नद्वैधास्त एवायतात्मानः दीर्घमनसः सर्वज्ञा इत्यर्थः। तत एव छिन्नद्वैधाः। तच्चोक्तम् क्षीणपापा महाज्ञाना जायन्ते गतसंशयाः इति।छिन्नद्वैधा यतात्मानः इति वा।

Sri Anandgiri

।।5.25।।मुक्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तरमाह किंचेति। यज्ञादिनित्यकर्मानुष्ठानात्पापादिलक्षणं कल्मषं क्षीयते ततश्च श्रवणाद्यावृत्तेः सम्यग्दर्शनं जायते ततो मुक्तिरप्रयत्नेन भवतीत्याह लभन्त इति। ज्ञानप्राप्त्युपायान्तरं दर्शयति छिन्नेति। श्रवणादिना संशयनिरसनं कार्यकरणनियमनं च दयालुत्वेनाहिंसकत्वमित्येतदपि सम्यग्ज्ञानप्राप्तौ कारणमित्यर्थः। अक्षरव्याख्यानं स्पष्टत्वान्न व्याख्यायते।

Sri Vallabhacharya

।।5.25।।तत्र सतामाचरणं प्रमाणयति लभन्त इति। ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः सर्वज्ञा भूत्वा छिन्नसंशया यतात्मानो ब्रह्मानन्दं लभन्ते।

Sridhara Swami

।।5.25।।किंच लभन्त इति। ऋषयः सम्यग्दर्शिनः क्षीणं कल्मषं येषां छिन्नं द्वैधं संशयो येषां यत संयत आत्मा चित्तं येषां सर्वेषां भूतानां हिते रताः कृपालवस्ते ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षं लभन्ते।

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