Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 24 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Inner Happiness & Contentment

Sanskrit Shloka (Original)

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः | स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ||५-२४||

Transliteration

yo.antaḥsukho.antarārāmastathāntarjyotireva yaḥ . sa yogī brahmanirvāṇaṃ brahmabhūto.adhigacchati ||5-24||

Word-by-Word Meaning

यःwho
अन्तःसुखःone whose happiness is within
अन्तरारामःone who rejoices within
तथाalso
अन्तर्ज्योतिःone who is illuminated within
एवeven
यःwho
सःthat
योगीYogi
ब्रह्मनिर्वाणम्absolute freedom or Moksha
ब्रह्मभूतःbecoming Brahman

📖 Translation

English

5.24 He who is happy within, who rejoices within, and who is illuminated within, that Yogi attains absolute freedom or Moksha, himself becoming Brahman.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.24।। जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला,  आत्मा में ही आराम वाला तथा आत्मा में ही ज्ञान वाला है,  वह योगी ब्रह्मरूप बनकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your work, cultivate inner satisfaction and purpose that transcends external recognition or material rewards. Find joy and meaning in the process of your contribution itself, rather than solely depending on promotions or praise for fulfillment. This internal 'light' allows you to remain focused and content, regardless of external market fluctuations or workplace dynamics.

🧘 For Stress & Anxiety

To manage stress and improve mental health, actively turn your focus inward. Develop practices like meditation, mindfulness, or self-reflection to access your 'inner source of happiness' and 'illumination.' This cultivates resilience, allowing you to find peace and stability independent of external pressures, fostering a deep sense of calm even amidst chaos.

❤️ In Relationships

Approach relationships from a place of inner completeness and joy, rather than seeking validation or happiness solely from others. Radiate your inner contentment and light, enriching your connections without becoming overly dependent or demanding. This fosters healthier, more balanced relationships built on mutual respect and shared growth, rather than external gratification.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True happiness, peace, and ultimate liberation are discovered by turning inward and cultivating self-illumination and contentment within the Self.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.24 यः who? अन्तःसुखः one whose happiness is within? अन्तरारामः one who rejoices within? तथा also? अन्तर्ज्योतिः one who is illuminated within? एव even? यः who? सः that? योगी Yogi? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom or Moksha? ब्रह्मभूतः becoming Brahman? अधिगच्छति attains.Commentary Within meansin the Self. He attains Brahmanirvanam or liberation while living. He becomes a Jivanmukta.

Shri Purohit Swami

5.24 He who is happy within his Self and has found Its peace, and in whom the inner light shines, that sage attains Eternal Bliss and becomes the Spirit Itself.

Dr. S. Sankaranarayan

5.24. The seers, whose dirts have decayed; by whom dualities have been out off; whose self (mind) is controlled; and who are delighted in the welfare of all; they gain the Brahman, the Tranil One.

Swami Adidevananda

5.24 He whose joy is within, pleasure is within, and similarly light is within - he is a Yogin, who having become the Brahman, attains the bliss of the Brahman.

Swami Gambirananda

5.24 One who is happy within, whose pleasure is within, and who has his light only within, that yogi, having become Brahman, attains absorption in Brahman.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.24।। सामान्यत मनुष्य तीन प्रकार के सुख जानता है शारीरिक उपभोगों का सुख तथा भावनाओं एवं विचारों का आनन्द। उपर्युक्त तीन श्लोकों से यह बात स्पष्ट होती है कि तत्त्ववित् पुरुष का आनन्द तो इनसे भिन्न स्वरूप में ही होता है। अत काम और क्रोध से मुक्त आत्मानन्द में स्थित पुरुष ही योगी है वही वास्तव में सुखी भी है।हम विश्वास नहीं कर पाते कि सामान्यतया सर्वविदित सुख के साधनों को त्यागने पर भी ज्ञानी की उपर्युक्त वर्णित स्थिति में कोई सुख या सन्तोष भी हो सकता है। सब प्रकार के भोजनों का त्याग करने पर भोजन का आनन्द कैसे प्राप्त हो सकता है यह भी बात तर्क और अनुभव के विरुद्ध है कि मनुष्य कभी अन्धकारमय शून्यावस्था मात्र से सन्तुष्ट हो सकता है। प्राणिमात्र दिनरात अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में कार्यरत दिखाई देते हैं। किस वस्तु को प्राप्त करने के लिये उनका यह परिश्रम है उत्तर केवल एक है अधिकसेअधिक सुख और सन्तोष की प्राप्ति के लिए। सब दुखों के अभावमात्र की स्थिति भी जैसे निद्रावस्था आनन्द का शिखर नहीं कही जा सकती जिसे प्राप्त कर मनुष्य़ पूर्ण सन्तोष का अनुभव कर सकता है।इन कारणों से ज्ञानी के विषय में कहे हुये भगवान् के वचन को अतिशयोक्ति ही माना जायेगा। इस श्लोक में ऐसी ही विपरीत धारणा को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। जब जीव मिथ्या और अनित्य वस्तुओं को त्यागकर आत्मस्वरूप को पहचानता है तब वह कोई शून्यावस्था नहीं बल्कि आत्मा के द्वारा आत्मा में ही आत्मानन्द की अनुभूति की स्थिति है।आध्यात्मिक साधना में उपदिष्ट विषयों से वैराग्य कोई दुख का कारण नहीं है वरन् उसके द्वारा साधक निश्चयात्मकरूप से सुखशान्ति प्राप्त करता है। यह स्वरूपानुभव का आन्तरिक आनन्द नित्य बना रहता है न कि वैषयिक सुखों के समान क्षणमात्र। आत्मोन्नति के मार्ग में अग्रसर साधक अन्तसुख और अन्तराराम बन जाता है। उसका आनन्द बाह्य विषय निरपेक्ष होता है। उसका हृदय सदैव चैतन्य के प्रकाश से आलोकित रहता है।आत्मानुभूति में स्थित यह पुरुष ब्रह्मवित् कहलाता है। ब्रह्म को जानकर वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप बनकर परम मोक्ष को प्राप्त होता है।

Swami Ramsukhdas

5.24।। व्याख्या--'योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः' जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थोंमें सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मामें ही सुख मिलता है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तःसुखः' कहा गया है। परमात्मतत्त्वके सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्वमें सुखका अनुभव उसे हर समय होता है; क्योंकि उसके सुखका आधार बाह्य पदार्थोंका संयोग नहीं होता।स्वयं अपनी सत्तामें निरन्तर स्थित रहनेके लिये बाह्यकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयंको स्वयंसे दुःख नहीं होता, स्वयंको स्वयंसे अरुचि नहीं होती--यह अन्तःसुख है।जो सदाके लिये न मिले और सभीको न मिले, वह 'बाह्य' है। परन्तु जो सदाके लिये मिले और सभीको मिले, वह 'आभ्यन्तर' है।जो भोगोंमें रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्म-तत्त्वमें ही रमण करता है, और व्यवहारकालमें भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्वमें ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तरारामः' कहा गया है।इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधकका यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है, उसे यहाँ 'अन्तर्ज्योतिः' कहा गया है।सांसारिक ज्ञानका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर उस परमात्मतत्त्वके ज्ञानका न आरम्भ होता है, न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये सबमें एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है'--ऐसा ज्ञान सांख्ययोगीमें नित्य-निरन्तर और स्वतः-स्वाभाविक रहता है।'स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति'--सांख्ययोगका ऊँचा साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है, जो परिच्छिन्नताका द्योतक है। कारण कि साधकमें 'मैं स्वाधीन हूँ', 'मैं मुक्त हूँ', 'मैं ब्रह्ममें स्थित हूँ'--इस प्रकार परिच्छिन्नताके संस्कार रहते हैं। ब्रह्मभूत साधकको अपनेमें परिच्छिन्नताका अनुभव नहीं होता। जबतक किञ्चिन्मात्र भी परिच्छिन्नता या व्यक्तित्व शेष है, तबतक वह तत्त्वनिष्ठ नहीं हुआ है। इसलिये इस अवस्थामें सन्तोष नहीं करना चाहिये।'ब्रह्मनिर्वाणम्'--प��का अर्थ है--जिसमें कभी कोई हलचल हुई नहीं, है नहीं, होगी नहीं और हो सकतीभी नहीं--ऐसा निर्वाण अर्थात् शान्त ब्रह्म। जब ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका व्यक्तित्व निर्वाण ब्रह्ममें लीन हो जाता है, तब एकमात्र निर्वाण ब्रह्म ही शेष रह जाता है अर्थात् साधक परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्न हो जाता है--तत्त्वनिष्ठ हो जाता है, जो कि स्वतःसिद्ध है। ब्रह्मभूत अवस्थामें तो साधक ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करता है, पर व्यक्तित्वका नाश होनेपर अनुभव करनेवाला कोई नहीं रहता। साधक ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है--'ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' (बृहदारण्यक0 4। 4। 6)। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने निवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बतायी। अब आगेके श्लोकमें प्रवृत्तिपूर्वक सांख्ययोगकी साधना बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.24।। जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला,  आत्मा में ही आराम वाला तथा आत्मा में ही ज्ञान वाला है,  वह योगी ब्रह्मरूप बनकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.24।।ज्ञानिलक्षणं प्रपञ्चयत्युत्तरैः श्लोकैः। आरामः परदर्शनादिनिमित्तं सुखम्। अत्र तु परमात्मदर्शनादिनिमित्तं तत्। सुखं तूपद्रवक्षये व्यक्तम्। अत्र तु कामादिक्षये व्यक्तमात्मनः सुखम् स्वयञ्ज्योतिष्ट्वाद्भगवतः। तद्व्यक्तेरन्तर्ज्योतिः। सर्वेषामन्तर्ज्योतिष्ट्वेऽपि व्यक्तेर्विशेषः।असम्प्रज्ञातसमाधीनां बाह्यादर्शनात्। दर्शनेऽप्यकिंञ्चित्करत्वादेवशब्दः। उक्तं चैतत् दर्शनस्पर्शसम्भाषाद्यत्सुखं जायते नृणाम्। आरामः स तु विज्ञेयः सुखं कामक्षयोदितम् इति नारदीये।स्वज्योतिष्ट्वान्महाविष्णोरन्तर्ज्योतिस्तु तत्स्थितः इति च। अन्तस्सुखत्वादेः कारणमाह ब्रह्मणि भूत इति।

Sri Anandgiri

।।5.24।।ज्ञानस्यात्यन्तमन्तरङ्गमात्मनिष्ठत्वं दर्शयन्प्रकृतं ब्रह्मविदमेव विशिनष्टि कथंभूतश्चेति। यथान्तरेव सुखं न बाह्यैर्विषयैस्तथान्तरेव ज्योतिर्न श्रोत्रादिभिरतो विषयान्तरविज्ञानरहित इत्याह तथेति। यथोक्तविशेषणसमाधिमा़ञ्जीवन्नेव मुक्तिमधिगच्छतीत्याह स योगीति। आत्मन्यन्तःसुखमिति बाह्यविषयनिरपेक्षत्वं विवक्षितमन्तरारामत्वं च स्त्र्यादिविषयापेक्षामन्तरेण क्रीडाप्रयुक्तफलभाक्त्वमभिमतमिन्द्रियादिजन्यप्रकाशशून्यत्वमात्मज्योतिष्ट्वमिष्टम्। यथोक्तविशेषणसंपन्नः समाहितश्च जीवन्नेव ब्रह्मभावं प्राप्नोति। ब्रह्मणि परिपूर्णे निर्वृत्तिं सर्वानर्थनिवृत्त्युपलक्षितां स्थितिमनतिशयानन्दाविर्भावलक्षणां प्राप्नोतीत्याह य ईदृश इति।

Sri Vallabhacharya

।।5.24।।न केवलं कामक्रोधवेगसहनमात्रेण मोक्षप्राप्तिः अपितु योऽन्तरिति। अन्तरात्मनि सुखादि यस्य स योगी ब्रह्मसुखं गतः जीवन्मुक्तः तस्यसंसारस्य लयो मुक्तौ न प्रपञ्चस्य कर्हिचित्।

Sridhara Swami

।।5.24।। न केवलं कामक्रोधवेगसंहरणमात्रेण मोक्षं प्राप्नोति अपितु योऽन्तरिति। अन्तः आत्मन्येव सुखं यस्य न विषयेषु अन्तरेवारामः क्रीडा यस्य न बहिः अन्तरेव ज्योतिर्दृष्टिर्यस्य न गीतनृत्यादिषु स एव ब्रह्मणि भूतः स्थितः सन्ब्रह्मणि निर्वाणं लयमधिगच्छति प्राप्नोति।

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