Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 26 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् | अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ||५-२६||
Transliteration
kāmakrodhaviyuktānāṃ yatīnāṃ yatacetasām . abhito brahmanirvāṇaṃ vartate viditātmanām ||5-26||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.26 Absolute freedom (or Brahmic bliss) exists on all sides for those self-controlled ascetics who are free from desire and anger, who have controlled their thoughts and who have realised the Self.
।।5.26।। काम और क्रोध से रहित, संयतचित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate equanimity by detaching from excessive desire for specific outcomes or recognition, and by managing anger when faced with setbacks or difficult colleagues. Practicing mental control allows for sustained focus, reduced burnout, and clearer decision-making, leading to a state of calm effectiveness regardless of workplace pressures.
🧘 For Stress & Anxiety
Achieve mental tranquility by actively releasing desires and anger, which are primary sources of stress. Develop self-controlled thoughts through mindfulness and meditation, fostering a deep sense of inner peace and freedom from anxiety and overthinking. Realizing your true Self provides a stable anchor, making you less reactive to external stressors.
❤️ In Relationships
Foster healthier connections by eliminating possessive desires and reactive anger, allowing for unconditional love and understanding. Self-controlled thoughts enable thoughtful responses rather than impulsive reactions, improving communication. A clear understanding of your own Self (self-awareness) reduces ego conflicts and promotes empathy, leading to more harmonious and fulfilling interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Master your desires, anger, and thoughts to unlock profound inner freedom and peace, realizing your true Self and experiencing bliss in every facet of existence.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.26 कामक्रोधवियुक्तानाम् of those who are free from desire and anger? यतीनाम् of the selfcontrolled ascetics? यतचेतसाम् of those who have controlled their thoughts? अभितः on all sides? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? वर्तते exists? विदितात्मनाम् of those who have realised the Self.Commentary Those who renounce all actions and practise Sravana (hearing of the scriptures)? Manana (reflection) and Nididhyasana (meditation)? who are established in Brahman or who are steadily devoted to the knowledge of the Self attain liberation or Moksha instantaneously (Kaivalya Moksha). Karma Yoga leads to Moksha step by step (Krama Mukti). First comes purification of the mind? then knowledge? then renunciation of all actions and eventually Moksha.
Shri Purohit Swami
5.26 Saints who know their Selves, who control their minds, and feel neither desire nor anger, find Eternal Bliss everywhere.
Dr. S. Sankaranarayan
5.26. Warding off the external contacts outside; making the sense of sight in the middle of the two wandering ones; counter-balancing both the forward and backward moving forces that travel within what acts crookedly;
Swami Adidevananda
5.26 To those who are free from desire and wrath, who are wont to exert themselves, whose thought is controlled, and who have conered it - the beatitude of the Brahman is close at hand.
Swami Gambirananda
5.26 To the monks who have control over their internal organ, who are free from desire and anger, who have known the Self, there is absorption in Brahman either way.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.26।। इस आसुरी युग में लोगों को दैवी जीवन जीने की प्रेरणा देने प्राणि मात्र के प्रति हृदय मे उमड़ते प्रेम के कारण वेश्या को पापमुक्त अथवा कोढ़ी को रोग मुक्त करने अंधकार को प्रकाशित करके अज्ञानियों का पथप्रदर्शन करने का समाज सेवा का कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने दिव्य स्वरूप में स्थित समाज की अशुद्धियों से लिप्त नहीं होता। जैसे एक चिकित्सक अस्वस्थ रोगियों का उपचार उनके मध्य रहकर करता हुआ भी उनके रोगें से अछूता रहता है या उनके दुखों से स्वयं भावावेश में नहीं आ जाता वैसे ही दुखार्त कामुक हीन वैषयिक प्रवृत्तियों के लोगों के मध्य रहकर भी ज्ञानी पुरुष को उनके अवगुणों का स्पर्श तक नहीं होता।किस प्रकार सिद्ध पुरुष जगत् के प्रलोभनों में अपने मन का समत्व बनाये रख पाता है भगवान् कहते हैं जो पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल पर मन की काम और क्रोध की प्रवृत्तियों को विजित कर लेता है और शास्त्रों में उपदिष्ट दैवी जीवन के मार्ग का अनुसरण करता है वह आत्मज्ञान को प्राप्त करके इस समत्व को प्राप्त करता है जिसे कोई भी वस्तु या परिस्थिति विचलित नहीं कर पाती। वह इसी जीवन में तथा देह त्याग के पश्चात् भी ब्रह्मानन्द में ही स्थित रहता है।अब भगवान् सम्यक् दर्शन के साक्षात् अन्तरंग साधनध्यानयोग का वर्णन अगले दो सूत्ररूप श्लोकों में करते हैं
Swami Ramsukhdas
5.26।। व्याख्या--'कामक्रोधवियुक्तानां यतीनाम्'--भगवान् उपर्युक्त पदोंसे यह स्पष्ट कह रहे हैं कि सिद्ध महापुरुषमें काम-क्रोधादि दोषोंकी गन्ध भी नहीं रहती। काम-क्रोधादि दोष उत्पत्ति-विनाशशील असत् पदार्थों (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) के सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। सिद्ध महापुरुषको उत्पत्ति-विनाशशील सत्त-त्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, अतः उत्पत्ति-विनाशरहित असत् पदार्थोंसे उसका सम्बन्ध सर्वथा नहीं रहता। उसके अनुभवमें अपने कहलानेवाले शरीर अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारके साथ अपने सम्बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः उसमें काम-क्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? यदि काम-क्रोध सूक्ष्मरूपसे भी हों, तो अपनेको जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है।उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी इच्छाको 'काम' कहते हैं। काम अर्थात् कामना अभावमें पैदा होती है। अभाव सदैव असत्में रहता है। सत्-स्वरूपमें अभाव है ही नहीं। परन्तु जब स्वरूप असत्से तादात्म्य कर लेता है, तब असत्-अंशके अभावको वह अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अभाव माननेसे ही कामना पैदा होती है और कामना-पूर्तिमें बाधा लगनेपर क्रोध आ जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें कामना न होनेपर भी तादात्म्यके कारण अपनेमें कामनाकी प्रतीति होती है। परन्तु जिनका तादात्म्य नष्ट हो गया है और स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, उन्हें स्वयंमें असत्के अभावका अनुभव हो ही कैसे सकता है ?साधन करनेसे कामक्रोध कम होते हैं ऐसा साधकोंका अनुभव है। जो चीज कम होनेवाली होती है वह मिटनेवाली होती है अतः जिस साधनसे ये काम-क्रोध कम होते हैं उसी साधनसे ये मिट भी जाते हैं।साधन करनेवालोंको यह अनुभव होता है कि (1) कामक्रोध आदि दोष पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते। (2) पहले जितने वेगसे आते थे उतने वेगसे अब नहीं आते और (3) पहले जितनी देरतक ठहरते थे उतनी देरतक अब नहीं ठहरते। कभी-कभी साधकको ऐसा भी प्रतीत होता है कि काम-क्रोधका वेग पहलेसे भी अधिक आ गया। इसका कारण यह है कि (1) साधन करनेसे भोगासक्ति तो मिटती चली गयी और पूर्णावस्था प्राप्त हुई नहीं। (2) अन्तःकरण शुद्ध होनेसे थोड़े काम-क्रोध भी साधकको अधिक प्रतीत होते हैं। (3) कोई मनके विरुद्ध कार्य करता है तो वह साधकको बुरा लगता है, पर साधकउसकी परवाह नहीं करता। बुरा लगनेके भावका भीतर संग्रह होता रहता है। फिर अन्तमें थोड़ी-सी बातपर भी जोरसे क्रोध आ जाता है; क्योंकि भीतर जो संग्रह हुआ था, वह एक साथ बाहर निकलता है। इससे दूसरे व्यक्तिको भी आश्चर्य होता है कि इतनी थोड़ी-सी बातपर इसे इतना क्रोध आ गया! कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी। परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।'यतचेतसाम्'--जबतक असत्का सम्बन्ध रहता है, तबतक मन वशमें नहीं होता। असत्का सम्बन्ध सर्वथा न रहनेसे महापुरुषोंका कहलानेवाला मन स्वतः वशमें रहता है।'अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्'--अपने स्वरूपका वास्तविक बोध हो जानेसे उन महापुरुषोंको यहाँ 'विदितात्मनाम्' कहा गया है। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्यको लेकर मनुष्यजन्म हुआ है और मनुष्यजन्मकी इतनी महिमा गायी गयी है, उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया है।शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके--बाद नित्य-निरन्तर वे महापुरुष शान्त ब्रह्ममें ही स्थित रहते हैं। जैसे भिन्न-भिन्न क्रियाओंको करते समय साधारण मनुष्योंकी शरीरमें स्थितिकी मान्यता निरन्तर रहती है, ऐसे ही भिन्न-भिन्न क्रियाओंको करते समय उन महापुरुषोंकी स्थिति निरन्तर एक ब्रह्ममें ही रहती है। उनकी इस स्वाभाविक स्थितिमें कभी थोड़ा भी अन्तर नहीं आता; क्योंकि जिस विभागमें क्रियाएँ होती हैं, उस विभाग-(असत्-) से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा। सम्बन्ध--अब आगेके दो श्लोकोंमें भगवान् यह बताते हैं कि जिस तत्त्वको ज्ञानयोगी और कर्मयोगी प्राप्त करता है, उसी तत्त्वको ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है (टिप्पणी प0 319)।
Swami Tejomayananda
।।5.26।। काम और क्रोध से रहित, संयतचित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.26।।सुलभं च तेषां ब्रह्मेत्याह कामक्रोधेति। अभितः सर्वतः।
Sri Anandgiri
।।5.26।।पूर्वं कामक्रोधयोर्वेगः सोढव्यो दर्शितः संप्रति तावेव त्याज्यावित्याह किंचेति। ननु दर्शितविशेषणवतां मृतानामेव मोक्षो नतु जीवतामिति चेन्नेत्याह अभित इति। अस्मदादीनामपि तर्हि प्रभूतकामादिप्रभावविधुराणां किमिति मोक्षो न भवतीत्याशङ्क्य सम्यग्दर्शनवैशेष्याभावादित्याह विदितेति। उक्तेऽर्थे श्लोकाक्षराणामन्वयमाचष्टे कामक्रोधेत्यादिना।
Sri Vallabhacharya
।।5.26।।किञ्च कामक्रोधवियुक्तानामिति। अभित उभयतः मृतानां जीवतां न देहान्तर एव तेषां ब्रह्मानन्दः अपितु जीवतामपि वर्त्तते इत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।5.26।।किंच कामक्रोधवियुक्तानामिति। कामक्रोधाभ्यां वियुक्तानां यतीनां संन्यासिनां संयतचित्तानां ज्ञातात्मतत्त्वानां अभित उभयतो मृतानां जीवतां च न देहान्तर एव तेषां ब्रह्मणि लयः अपितु जीवतामपि वर्तत इत्यर्थः।