Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 14 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः | न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ||५-१४||
Transliteration
na kartṛtvaṃ na karmāṇi lokasya sṛjati prabhuḥ . na karmaphalasaṃyogaṃ svabhāvastu pravartate ||5-14||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.14 Neither agency nor actions does the Lord create for the world, nor union with the fruits of actions. But it is Nature that acts.
।।5.14।। लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, understand that while diligent effort is crucial, the ultimate success or failure of projects often involves numerous external factors beyond your direct control (Nature). This perspective helps alleviate excessive pride in success and undue self-blame in failure, fostering a more resilient and process-oriented approach. Focus on fulfilling your responsibilities without being overly attached to specific outcomes, allowing for adaptability and reducing burnout.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognizing that the Lord (your true Self) is not the direct orchestrator of every action or result, and that 'Nature' (Prakriti, the material world's laws) plays a significant role, can dramatically reduce anxiety and stress. Release the burden of feeling solely responsible for all outcomes. Cultivate acceptance for what is beyond your control, understanding that many events unfold according to natural processes, not purely individual will. This mindset fosters mental peace and resilience.
❤️ In Relationships
Apply this understanding by releasing the need to control others' actions or the outcomes of interactions. Recognize that individuals act according to their own 'nature' (conditioning, personality, tendencies) and external influences. This perspective can reduce blame (of self or others) and foster greater empathy and acceptance. It encourages focusing on your own conduct and intentions rather than being overly attached to how others respond or how a relationship 'should' turn out.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Release the burden of doership and attachment to results; Nature governs the unfolding of events.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.14 न not? कर्तृत्वम् agency? न not? कर्माणि actions? लोकस्य for this world? सृजति creates? प्रभुः the Lord? न not? कर्मफलसंयोगम् union with the fruits of actions? स्वभावः nature? तु but? प्रवर्तते leads to action.Commentary The Lord does not create agency or doership. He does not press anyone to do actions. He never tells anyone? Do this or do that. He does not bring about the union with the fruit of actions. It is Prakritit or Nature that does everything. (Cf.III.33)
Shri Purohit Swami
5.14 The Lord of this universe has not ordained activity, or any incentive thereto, or any relation between an act and its consequences. All this is the work of Nature.
Dr. S. Sankaranarayan
5.14. The Lord (Self) acires neither the state of being a creator of the world, nor the actions, nor the connecting with the fruits of their actions. But it is the inherent nature [in It] that exerts.
Swami Adidevananda
5.14 The lord of the body (the self i.e., the Jiva) does not create agency, nor actions, nor union with the fruits of actions in relation to the world of selves. It is only the inherent tendencies that function.
Swami Gambirananda
5.14 The Self does not create agentship or any objects (of desire) for anyone; nor association with the results of actions. But it is Nature that acts.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.14।। वेदों में ईश्वर के विषय में प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वद्रष्टा कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है जो समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार ही न्यायपूर्वक फल प्रदान करता है। यहाँ परमात्मा का वर्णन जगत् के साथ उसके सम्बन्ध को दिखाकर किया गया है।परमात्मा न कर्तृत्व को उत्पन्न करता है और न ही कर्मों का अनुमोदन करता है। कर्म का फल के साथ संयोग कराना यह भी उसका कार्य नहीं।अनेक व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में प्रभु शब्द से कर्माध्यक्ष कर्मफलदाता ईश्वर को सूचित किया गया है परन्तु भगवान् के कथन से उनके मत की पुष्टि नहीं होती। विचार करने पर कोई भी विद्यार्थी स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि यहाँ भगवान अर्जुन को निरुपाधिक चैतन्य आत्मा का स्वरूप समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यहाँ आत्मा का तीन शरीरों स्थूल सूक्ष्म और कारण के साथ सम्बन्ध बताया गया है।यदि श्रीकृष्ण के कथन के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व कर्म और कर्मफल संयोग से कोई सम्बन्ध नहीं है तब हमारे जीवन का भी आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये क्योंकि कर्तृत्वादि से भिन्न हमारे जीवन का अस्तित्व ही नहीं है। तथापि आत्मा के अभाव में किसी भी वस्तु का न अस्तित्व है और न क्रियारूप व्यापार। इसलिये आत्मा और अनात्मा के बीच किसीनकिसी प्रकार का सम्बन्ध होना अनिवार्य है और उस विचित्र सम्बन्ध रहित सम्बन्ध का वर्णन यहाँ किया गया है।यह तो सर्वविदित है कि मनुष्य की नाक अपनी जगह पर सुस्थिर रहती है। उसमें स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से गति नहीं होती। और फिर भी यदि कोई व्यक्ति जल में अपने मुख को देखते हुये यह पाये कि उसकी नाक किसी कील पर लटकी हुयी वस्तु के समान हिल रही है तब वह क्या सोचेगा वह जानेगा कि नाक अपने स्थान पर सुस्थित है तथापि जल में वह उसे हिलती दिखाई दे रही है। स्पष्ट है कि चेहरे के प्रतिबिम्ब की स्थिति जल की स्थिति पर निर्भर करती है। आत्मा में न कर्तृत्व है और न क्रिया परन्तु उपाधियों में व्यक्त आत्मा जिसे जीव कहते हैं के लिए कर्तृत्व कर्म और फल संयोग प्राप्त हो जाते हैं।विद्युत स्वयं स्थिर शक्ति है। उसके उत्पादन के पश्चात् उसका वितरण करने पर अनेक प्रकार के उपकरणों के माध्यम से वह अनेक रूपों में व्यक्त होती है। चैतन्यस्वरूप आत्मा भी जड़ उपाधियों से परिच्छिन्नसा हुआ कर्तृत्वादि को प्राप्त होता है।कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव है आत्मा नहीं। स्वभाव अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया के सम्बन्ध से ही आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्वादि गुण प्रतीत होते हैं।पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा प्रकृति के गुणों से सर्वथा निर्लिप्त ही है। भगवान् कहते है
Swami Ramsukhdas
5.14।। व्याख्या--'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः'--सृष्टिकी रचनाका कार्य सगुण भगवान्का है, इसलिये 'प्रभुः' पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक, नियामक हैं। सृष्टिरचनाका कार्य करनेपर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता 4। 13)। किसी भी कर्मके कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मोंके कर्तापनकी रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा किये जाते हैं ;परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृतिसे तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका कर्ता बन जाता है (गीता 3। 27)। यदि कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता, तो भगवान् इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें 'नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्'--ऐसा कैसे कहते? तात्पर्य यह है कि कर्तापन भगवान्का बनाया हुआ नहीं है, अपितु जीवका अपना माना हुआ है। अतः जीव इसका त्याग कर सकता है।भगवान् ऐसा विधान भी नहीं करते कि अमुक जीवको अमुक शुभ अथवा अशुभ कर्म करना प़ड़ेगा। यदि ऐसा विधान भगवान् कर देते तो विधि-निषेध बतानेवाले शास्त्र, गुरु, शिक्षा आदि सब व्यर्थ हो जाते, उनकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती और कर्मोंका फल भी जीवको नहीं भोगना पड़ता। 'न कर्माणि' पदोंसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है। 'न कर्मफलसंयोगम्'--जीव जैसा कर्म करता है, वैसा फल उसे भोगना पड़ता है। जड होनेके कारण कर्म स्वयं अपना फल भुगतानेमें असमर्थ हैं। अतः कर्मोंके फलका विधान भगवान् करते हैं--'लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्' (गीता 7। 22)। भगवान् कर्मोंका फल तो देते हैं, पर उस फलके साथ सम्बन्ध भगवान् नहीं जोड़ते, प्रत्युत जीव स्वयं जोड़ता है। जीव अज्ञानवश कर्मोंका कर्ता बनकर और कर्मफलमें आसक्त होकर कर्मफलके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और इसीसे सुखी-दुःखी होता है। यदि वह कर्मफलके साथ स्वयं अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो वह कर्मफलके सम्बन्धसे मुक्त रह सकता है। ऐसे कर्मफलसे सम्बन्ध न जोड़नेवाले पुरुषोंके लिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'संन्यासिनाम्' पद आया है। उन्हें कर्मोंका फल इस लोक या परलोकमें कहीं नहीं मिलता। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान्ने जोड़ा होता तो जीव कभी कर्मफलसे मुक्त नहीं होता। दूसर�� अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं--'मा कर्मफलहेतुर्भूः' अर्थात् कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य हुआ कि सुखी-दुःखी होना अथवा न होना और कर्मफलका हेतु बनना अथवा न बनना मनुष्यके हाथमें है। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता, तो मनुष्य कभी सुख-दुःखमें सम नहीं हो पाता और निष्कामभावसे कर्म भी नहीं कर पाता, जिसे करनेकी बात भगवान्ने गीतामें जगह-जगह कही है (जैसे 4। 20 5। 12 14। 24 आदि)। शङ्का--श्रुतिमें आता है कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति करना चाहते हैं, उससे तो शुभ-कर्म करवाते हैं और जिसकी अधोगति करना चाहते हैं, उससे अशुभ-कर्म करवाते हैं (टिप्पणी प0 301.1)। जब भगवान् ही शुभाशुभ कर्म करवाते हैं, तो फिर 'भगवान् किसीके कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल-संयोगकी रचना नहीं करते'--ऐसा कहना तो श्रुतिके साथ विरोध हुआ ! समाधान--वास्तवमें श्रुतिके उपर्युक्त कथनका तात्पर्य शुभाशुभ कर्म करवाकर मनुष्यकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करनेमें नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार कर्मफल भुगताकर उसे शुद्ध करनेमें है, (टिप्पणी प0 301.2) अर्थात् मनुष्य शुभाशुभ कर्मोंका फल जैसे भोग सके, भगवान् कृपापूर्वक उसे कर्मबन्धनसे मुक्त करके अपना वास्तविक प्रेम प्रदान करनेके लिये (उसके प्रारब्धके अनुसार) वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं। जैसे, जिस मनुष्यको प्रारब्धके अनुसार धनकी प्राप्ति होनेवाली है, उसे व्यापार आदिमें वैसी ही (खरीदने आदिकी) प्रेरणा कर देते हैं अर्थात् उस समय उसकी वैसी ही बुद्धि बन जाती है और जिसे प्रारब्धके अनुसार हानि होनेवाली है, उसे व्यापार आदिमें वैसी ही प्रेरणा कर देते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस प्रकारसे अपने शुभाशुभ कर्मोंका फल भोग सके, भगवत्प्रेरणासे वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बन जाती है।यदि श्रुतिका यही अर्थ लिया जाय कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करना चाहते हैं, उससे शुभ और अशुभ-कर्म करवाते हैं, तो मनुष्य कर्म करनेमें सर्वथा पराधीन हो जायगा और शास्त्रों, सन्त-महात्माओं आदिका विधि-निषेध, गुरुकी शिक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जायँगे। अतः यहाँ श्रुतिका तात्पर्य कर्मोंका फल भुगताकर मनुष्यको शुद्ध करना ही है।'स्वभावस्तु प्रवर्तते'--कर्तापन, कर्म और कर्म-फलका सम्बन्ध--इन तीनोंको मनुष्य अपने स्वभावके वशमेंहोकर करता है। यहाँ 'स्वभावः' पद व्यष्टि प्रकृति-(आदत) का वाचक है, जिसे स्वयं जीवने बनाया है। जबतक स्वभावमें राग-द्वेष रहते हैं, तबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता, तबतक जीव स्वभावके वशीभूत रहता है।तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें 'प्रकृतिं यान्ति भूतानि' पदोंसे भगवान्ने कहा है कि मनुष्योंको अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावके वशीभूत होकर कर्म करने पड़ते हैं। यही बात भगवान् यहाँ 'तु स्वभावः प्रवर्तते' पदोंसे कह रहे हैं।जबतक प्रकृति अर्थात् स्वभावसे जीवका सम्बन्ध माना हुआ है, तबतक कर्तापन, कर्म और कर्मफलके साथ संयोग--इन तीनोंमें जीवकी परतन्त्रता बनी रहेगी, जो जीवकी ही बनायी हुई है।उपर्युक्त पदोंसे भगवान् यह कह रहे हैं कि कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलसंयोग (भोक्तृत्व)--तीनों जीवके अपने बनाये हुए हैं, इसलिये वह स्वयं इनका त्याग करके निर्लिप्तता अनुभव कर सकता है। सम्बन्ध--जब भगवान् किसीके कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल-संयोगकी रचना नहीं करते तो फिर वे किसीके कर्मोंके फलभागी कैसे हो सकते हैं?--इस बातको आगेके श्लोकमें स्पष्ट करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.14।। लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.14।।न च करोति वस्तुत इत्याह न कर्तृत्वमिति। प्रभुर्हि जीवो जडमपेक्ष्य।
Sri Anandgiri
।।5.14।।आत्मनो यदुक्तं कारयितृत्वं नास्तीति तत्प्रपञ्चयति नेत्यादिना। यद्यपि लोकस्य कर्तृत्वं न सृजतीति नास्ति कारयितृत्वं तथापि रथशकटादीनि कुर्वन्भवति कर्तेत्याशङ्क्याह न कर्माणीति। तथापि भोजयितृत्वेन विक्रियावत्त्वं दुष्परिहरमित्याशङ्क्याह न कर्मेति। कस्य तर्हि प्रवर्तकत्वं तदाह स्वभावस्त्विति। कुर्विति कर्तृत्वं लोकस्य न सृजत्यात्मेति संबन्धः। रथादीनां कर्मत्वं साधयति ईप्सितेति। आत्मनो देहादिस्वामित्वेन प्रभुत्वं रथादिकृतवतो लोकस्य रथादिफलेन संबन्धमपि न सृजत्यात्मेत्यात्मनो भोजयितृत्वं प्रत्याचष्टे नापीति। चतुर्थपादं शङ्कोत्तरत्वेनावतारयति यदीत्यादिना। स्वभाववादस्तर्हीत्याशङ्क्य व्याकरोति अविद्यालक्षणेति। प्रकृतेर्विद्याभावत्वं व्युदसितुं मायेत्युक्तं सा च सप्तमे वक्ष्यते तेन प्रधानविलक्षणेत्याह दैवी हीति।
Sri Vallabhacharya
।।5.14।।किञ्चआत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः 6।5 इत्युक्तत्वादात्मन एव निरोधे समत्वे सर्वं सेत्स्यतीति। अन्यथा कर्तृत्वाद्यहङ्कारादिना मिथ्याचरणमेव भविष्यति। तत्र च हेतुरात्मैव नान्यः सोऽपि प्राकृतस्वभावमय इति तन्निरोधं दृढयितुं सिद्धान्तमाह न कर्तृत्वमिति। प्रभुरीश्वरः परमात्मा लोकस्य प्राकृतशरीराभिमानिनः नानायोनिबीजाशयस्वभावकृतिकस्य कर्तृत्वं कर्माणि तत्फलसंयोगं च न सृजति। किन्तु तादृशः स्वभावो लोकनिष्ठः स्वत एव प्रवर्तते। अन्यथा परमात्मनो वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गः।
Sridhara Swami
।।5.14।।ननुएष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते इत्यादिश्रुतेः परमेश्वरेणैव शुभाशुभफलेषु कर्मसु कर्तृत्वेन प्रयुज्यमानोऽस्वतन्त्रः पुरुषः कथं तानि कर्माणि त्यजेत्। ईश्वरेणैव ज्ञानमार्गे प्रयुज्यमानः शुभान्यशुभानि च त्यक्ष्यतीति चेत् एवं सति वैषम्यनैर्घृण्याभ्यां प्रयोजककर्तृत्वादीश्वरस्यापि पुण्यपापसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह न कर्तृत्वमिति द्वाभ्याम्। प्रभुरीश्वरः जीवलोकस्य कर्तृत्वादिकं न सृजति किंतु जीवस्यैव स्वभावोऽविद्यैव कर्तृत्वादिरूपेण प्रवर्तते। अनाद्यविद्याकामवशात्प्रवृत्तिस्वभावं जीवलोकमीश्वरः कर्मसु नियुङ्क्ते न तु स्वयमेव कर्तृत्वादिकमुत्पादयतीत्यर्थः।