Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 15 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः | अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ||५-१५||

Transliteration

nādatte kasyacitpāpaṃ na caiva sukṛtaṃ vibhuḥ . ajñānenāvṛtaṃ jñānaṃ tena muhyanti jantavaḥ ||5-15||

Word-by-Word Meaning

not
आदत्तेtakes
कस्यचित्of anyone
पापम्demerit
not
and
एवeven
सुकृतम्merit
विभुःthe Lord
अज्ञानेनby ignorance
आवृतम्enveloped
ज्ञानम्knowledge
तेनby that
मुह्यन्तिare deluded
जन्तवःbeings.Commentary Knowledge is enveloped by ignorance. Conseently man is deluded. He thinks

📖 Translation

English

5.15 The Lord takes neither the demerit nor even the merit of any; knowledge is enveloped by ignorance, thery beings are deluded.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है;  (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है,  इससे सब जीव मोहित होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your work, avoid the delusion of excessive identification with success or failure. The Lord is impartial; personal outcomes are not divinely ordained rewards or punishments, but the natural unfolding of actions, often perceived through the veil of ignorance. Focus on diligent effort (karma yoga), detaching from the emotional highs and lows of promotions, layoffs, or project outcomes, understanding that your true self is beyond these transient professional roles and results.

🧘 For Stress & Anxiety

Much mental stress and anxiety arise from the delusion that your worth or happiness is tied to external achievements, others' opinions, or the outcomes of your actions. Realize that your true, fundamental self is untouched by these external events. By understanding that ignorance causes you to mistakenly identify with 'doing' and 'enjoying,' you can cultivate detachment from outcome-driven pressure, finding peace regardless of external circumstances.

❤️ In Relationships

Avoid projecting your expectations, desires, or judgments onto others, and do not hold them (or yourself) accountable for your happiness or suffering as if it were a cosmic debt. The delusion of 'I act, I enjoy' extends to relationships, causing attachment and resentment. Recognize that both you and others operate under varying degrees of obscured knowledge. Practice empathy and non-attachment, understanding that your true self is not defined by the roles you play or the emotional fluctuations within relationships.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Ignorance veils true knowledge, deluding us into identifying with fleeting actions and results, while the impartial divine is untouched by our merit or demerit.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.15 न not? आदत्ते takes? कस्यचित् of anyone? पापम् demerit? न not? च and? एव even? सुकृतम् merit? विभुः the Lord? अज्ञानेन by ignorance? आवृतम् enveloped? ज्ञानम् knowledge? तेन by that? मुह्यन्ति are deluded? जन्तवः beings.Commentary Knowledge is enveloped by ignorance. Conseently man is deluded. He thinks? I act. I enjoy. I have done such and such a meritourious act. I will get such and such a fruit. I will enjoy in heaven. I will get a birth in a rich family.Of anyone even of His devotees.Man is bound when he is identifies himself with Nature and its effects -- body? mind? Prana or the lifeforce? and senses. He attains freedom or Moksha when he identifies himself with the immortal? actionless Self that dwells within his heart.When I does not act how can God accept good or evil deeds (Cf.V.29)

Shri Purohit Swami

5.15 The Lord does not accept responsibility for any man's sin or merit. Men are deluded because in them wisdom is submerged in ignorance.

Dr. S. Sankaranarayan

5.15. The Omnimanifest (Soul) takes [upon Itself] neither sin nor merit [born] of any [action]. But, the perfect knowledge is clouded by Illusion and hence the creatures are deluded.

Swami Adidevananda

5.15 The all-pervading One takes away neither the sin nor the merit of any one. Knowledge is enveloped by ignorance. Creatures are thery deluded.

Swami Gambirananda

5.15 The Omnipresent neither accepts anybody's sin nor even virtue. Knowledge remains covered by ignorance. Thery the creatures become deluded.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.15।। विभु अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न पुण्य कर्म को। यह कथन पुराणों में वर्णित देवताओं की कल्पना से भिन्न है क्योंकि वहाँ देवताओं को जीवों के पाप और पुण्य कर्मों का लेखाजोखा रखने वालों के रूप में वर्णन किया गया है। कथा प्रेमी भक्त लोगों को वेदान्त सिद्धांत उनके प्रेम को आघात पहुँचाने वाला प्रतीत होता है और इसलिये वे गीता के स्थान पर श्रीकृष्ण की लीलाओं का अध्ययन कर भाव विभोर होना अधिक पसन्द करते हैं। ईश्वर के विषय में यह धारणा है कि मेघों के ऊपर कहीं आकाश में बैठा विश्व भर के प्राणियों के शुभअशुभ कर्मों का निरीक्षण करते हुए उनका ख्याल रखता है जिससे प्र्ालय के पश्चात् न्याय के दिन जब समस्त जीव उसके पास पहुँचें तो वह उनका कर्मानुसार न्याय कर सके। यह रोचक धारणा केवल सामान्य जनों की ही हो सकती है जिनकी बुद्धि अधिक विकसित नहीं है।समस्त विश्व के अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा को जीवन के कर्मों से कोई प्रयोजन हो या परिच्छिन्न वस्तुओं में उसकी कोई विशेष रुचि हो ऐसा हम नहीं मान सकते। परमार्थ की दृष्टि से तो परिच्छिन्न जगत् का आत्यन्तिक अभाव है। केवल आत्म विस्मृति के कारण ही उपाधियों में व्यक्त हुआ वह आत्मा कर्तृत्व कर्म फलभोग आदि से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। समतल काँच के माध्यम से निर्गत सूर्यप्रकाश में कोई विकार नहीं होता परन्तु यदि वही प्रकाश एक प्रिज्म (आयत) में से निकले तो सात रंगों में विभाजित हो जाता है। इसी प्रकार एकमेव अद्वितीय सर्वव्यापी परिपूर्ण परमात्मा शरीर मन और बुद्धि इन आविद्यक उपाधियों में व्यक्त होकर नानारूप जगदाभास के रूप में प्रतीत होता है।यहाँ ज्ञान और अज्ञान के सम्बन्ध का सुन्दर वर्णन किया गया है। अज्ञान ज्ञान नहीं हो सकता और न ज्ञान अज्ञान का एक अंश। परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण इन दोनों का सह अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता हैं। परन्तु यहाँ कहा गया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत हुआ है यह ऐसे ही है जैसे किसी जंगल में सर्वत्र व्याप्त अंधकार में दूर कहीं प्रकाश की किरण को देखकर कहा जा सकता है कि वह प्रकाश अंधकार से आवृत है। अगले श्लोक में अज्ञान आवरण को दूर करने के उपाय तथा उसकी निवृत्ति के फल को विस्तार से बताया गया है।सत्य के अनावरण की प्रक्रिया में अज्ञान की निवृत्ति मात्र अपेक्षित है न कि ज्ञान की उत्पत्ति। इसलिए सत्य की प्राप्ति वास्तव ��ें सिद्ध वस्तु की ही प्राप्ति है और कोई नवीन उपलब्धि नहीं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.15।। व्याख्या--'नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः'--पूर्वश्लोकमें जिसको 'प्रभुः' पदसे कहा गया है, उसी परमात्माको यहाँ 'विभुः' पदसे कहा गया है।कर्मफलका भागी होना दो प्रकारसे होता है--जो कर्म करता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है और जो दूसरेसे कर्म करवाता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है। परन्तु परमात्मा न तो किसीके कर्मको करनेवाला है और न कर्म करवानेवाला ही है; अतः वह किसीके भी कर्मका फलभागी नहीं हो सकता।सूर्य सम्पूर्ण जगत्को प्रकाश देता है और उस प्रकाशके अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्य-कर्म करते हैं; परन्तु उन कर्मोंसे सूर्यका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्वसे प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसीकी सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार-शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादिसे होनेवाले पाप-पुण्योंका परमात्मतत्त्वसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान्ने मनुष्यमात्रको स्वतन्त्रता दे रखी है; अतः मनुष्य उन कर्मोंका फलभागी अपनेको भी मान सकता है और भगवान्को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलोंको भगवान्के अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान्की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता अपनेको मान लेता है, वह बन्धनमें प़ड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण नहीं करते। परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान्के अर्पण करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण करते हैं। जैसे सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'सर्वस्य' पदसे और छब्बीसवें श्लोकमें 'कश्चन' पदसे सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, ऐसे ही यहाँ 'कस्यचित्' पदसे अपनेको कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करनेवाले सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, न कि भक्तोंकी। कारण कि भावग्राही होनेसे भगवान् भक्तोंके द्वारा अर्पण किये हुए पत्र, पुष्प आदि पदार्थोंको और सम्पूर्ण कर्मोंको ग्रहण करते हैं (गीता 9। 26 27)। 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्'--स्वरूपका ज्ञान सभी मनुष्योंमें स्वतः सिद्ध है; किन्तु अज्ञानके द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञानके कारण जीव मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं। अपनेको कर्मोंका कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता 3। 27)। भगवान्के द्वारा मनुष्यमात्रको विवेक दिया हुआ है, जिसके द्वारा इस मूढ़ताका नाश किया जासकता है। इसलिये इस अध्यायके आठवें श्लोकमें कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने और तेरहवें श्लोकमें कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मोंके कर्तापनको विवेकपूर्वक मनसे छोड़ दे।शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूपसे अपरिवर्तनशील होनेपर भी अपनेको परिवर्तनशील पदार्थोंसे एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं--ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव किसीको नहीं होता। अतः मैं बदलनेवाला नहीं हूँ--इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थोंसे अपनी असङ्गताका अनुभव कर लेनेसे अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वतः प्रकाशित हो जाता है। कारण कि प्रकृतिके कार्यसे अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है।'अज्ञान' शब्दमें जो 'नञ्'समास है, वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। कारण कि ज्ञानका अभाव कभी होता ही नहीं, चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञानको ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियोंका और बुद्धिका ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञानको महत्त्व देनेसे, इसके प्रभावसे प्रभावित होनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं--यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानका आवृत होना है। इन्द्रियोंका ज्ञान सीमित है। इन्द्रियोंके ज्ञानकी अपेक्षा बुद्धिका ज्ञान असीम है। परन्तु बुद्धिका ज्ञान मन और इन्द्रियोंके ज्ञान-(जानने और न जानने-) को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषय-पदार्थोंको ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृतिका कार्य है और जिस बुद्धिका कारण प्रकृति है, उस प्रकृतिको बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृतिको भी प्रकाशित नही कर सकती, तब प्रकृतिसे अतीत जो चेतन-तत्त्व है, उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है! इसलिये बुद्धिका ज्ञान अधूरा ज्ञान है। 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः'--भगवान्ने 'जन्तवः' पद देकर मानो मनुष्योंकी ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं, (टिप्पणी प0 303) क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है। आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है। इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका लक्ष्य नहीं है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य सुख-दुःखसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलानेयोग्य हैं।अपनेको कर्मोंका कर्ता मान लेना तथा कर्मफलमें हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञानसे मोहित होना है। पापपुण्य हमें करने पड़ते हैं इनसे हम कैसे छूट सकते हैं सुखीदुःखी होना हमारे कर्मोंका फल है, इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं?--इस प्रकारकी धारणा बना लेना ही अज्ञानसे मोहित होना है।जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दुःखसे रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखीदुःखी होता है। इस मूढ़ता(अज्ञान) को ही यहाँ 'तेन' पदसे कहा गया है। इस मूढ़तासे अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहे हैं,  इस बातको यहाँ 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः' पदोंसे कहा गया है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया है कि अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका जानेके कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेकके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर देनेपर जिस ज्ञानका उदय होता है, उसकी महिमा आगेके श्लोकमें कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है;  (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है,  इससे सब जीव मोहित होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.15।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।5.15।।कर्तृत्वभोक्तृत्वैश्वर्याण्यात्मनोऽविद्याकृतानीत्युक्तमिदानीमीश्वरे संन्यस्तसमस्तव्यापारस्य तदेकशरणस्य दुरितं सुकृतं वा तदनुग्रहार्थं भगवानादत्ते मदेकशरणो मत्प्रीत्यर्थं कर्म कुर्वाणो दुष्कृताद्यनुमोदनेनानुग्राह्यो मयेति प्रत्ययभाक्त्वादित्याशङ्क्य सोऽपि परमार्थतो नास्यास्त्यविक्रियत्वादित्याह परमार्थतस्त्विति। पूर्वार्धगतान्यक्षराणि व्याख्यायाकाङ्क्षापूर्वकमुत्तरार्धमवतार्य व्याचष्टे किमर्थमित्यादिना।

Sri Vallabhacharya

।।5.15।।यस्मादेवं तस्मान्नादत्ते न भजते पापं पुण्यं च कारयितृत्वं च तत्साधकतमविसर्जनादेवोपयुज्यते।बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् भाग.10।87।2 इत्यादिवाक्यात्तैर्भोगमोक्षोपायप्रवृत्तौ तदात्मैवेह हेतुरिति तत्त्वम्। अतः स्वभावकृतं सर्वम्। ननु तदेशभूता अपि एते आत्मनः कथं प्राकृतत्वभावेन सम्मुह्यन्ति स्वरूपाज्ञानादित्याह अज्ञानेनेति। तत्र ज्ञानं स्वरूपविषयकं अज्ञानेनाविद्यायाः प्रथमपर्वस्वरूपाज्ञानेनावृतं ततोऽन्यपर्वभिः प्राणान्तःकरणेन्द्रियदेहाध्यासैः वस्तुतस्तु विचित्ररिरंसावतो भगवतो नित्या आज्ञाकारिण्यो द्वादशशक्तयो मुख्याःगिरा पृष्ट्या इत्यादिना निरूपिता भागवते। तत्र मायाख्याया अशंद्वयं विद्याविद्येति। भगवदाज्ञयैव विद्यया आत्मनां स्वरूपगमकात्सत्त्वानुगुण्यात् अविद्यया च विपरीतस्वभावया कर्मजन्ममरणादिपर्यावर्तगम इतरानुगुण्यात् अन्यथा स्वरूपवैचित्र्यं न स्यादित्यज्ञानेनावृतमात्मनां स्वरूपज्ञानम्। उक्तं चविद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्। मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते भाग.11।11।3 इति।पञ्चपर्वा त्वविद्येयं जीवगा मायया कृता इति। अतस्तेन जन्तवो भवन्तो मुह्यन्ति। स्वयमेवात्मनि कर्तृत्वादिस्वभावं सृजन्ति न परमात्मेति सिद्धान्तः।

Sridhara Swami

।।5.15।।यस्मादेवं तस्मात् नादत्त इति। प्रयोजकोऽपि सन्प्रभुः कस्यचित्पापं सुकृतं च नैवादत्ते न भजते। तत्र हेतुःविभुः परिपूर्णः। आप्तकाम इत्यर्थः। यदि हि स्वार्थकामनया कारयेत्तर्हि तथा स्यात् नत्वेतदस्ति। आप्तकामस्यैवाचिन्त्यनिजमायया तत्तत्पूर्वकर्मानुसारेण प्रवर्तकत्वात्। ननु भक्ताननुगृह्णतोऽभक्तान्निगृह्णतश्च वैषम्योपलम्भात्कथमाप्तकामत्वमित्यत आह अज्ञानेनेति। निग्रहोऽपि दण्डरूपोऽनुग्रह एवेत्येवमज्ञानेन सर्वत्र समः परमेश्वर इत्येवंभूतं ज्ञानमावृतम्। तेन हेतुना जन्तवो जीवा मुह्यन्ति। भगवति वैषम्यं मन्यन्त इत्यर्थः।

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