Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 13 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Mental Detachment (Sannyasa)

Sanskrit Shloka (Original)

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी | नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||५-१३||

Transliteration

sarvakarmāṇi manasā saṃnyasyāste sukhaṃ vaśī . navadvāre pure dehī naiva kurvanna kārayan ||5-13||

Word-by-Word Meaning

सर्वकर्माणिall actions
मनसाby the mind
संन्यस्यhaving renounced
आस्तेrests
सुखम्happily
वशीthe selfcontrolled
नवद्वारेin the ninegated
पुरेin the city
देहीthe embodied
not
एवeven
कुर्वन्acting
not

📖 Translation

English

5.13 Mentally renouncing all actions and self-controlled, the embodied one rests happily in the nine-gated city, neither acting nor causing others (body and senses) to act.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.13।। सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach tasks with diligent effort but without emotional entanglement in the outcomes. Focus on performing your duties skillfully, detaching from the pressure of success or failure, which fosters sustained productivity and mental clarity in the workplace.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate mental detachment from stressful thoughts and worries by observing them without identifying. Recognize that your inner peace is not dictated by external circumstances or pressures, allowing you to maintain calm and equilibrium amidst chaos.

❤️ In Relationships

Engage with others with genuine care and presence, yet avoid excessive attachment to specific outcomes or trying to control situations. Offer support and love while maintaining your emotional independence, fostering healthier and less taxing interactions.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Achieve unshakeable inner peace by mentally detaching from actions and their outcomes, mastering your senses, and realizing your true nature beyond the body-mind complex.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.13 सर्वकर्माणि all actions? मनसा by the mind? संन्यस्य having renounced? आस्ते rests? सुखम् happily? वशी the selfcontrolled? नवद्वारे in the ninegated? पुरे in the city? देही the embodied? न not? एव even? कुर्वन् acting? न not? कारयन् causing to act.Commentary All actions -- (1) Nitya Karmas These are obligatory duties. Their performance does not produce any merit but their nonperformance produces demerit. Sandhyavandana? etc.? belong to this category.(2) Naimittika Karmas These Karmas are performed on the occurrence of some special events such as the birth of a son? eclipse? etc.(3) Kamya Karmas These are optional. They are intended for the attainment of some special ends (for getting rain? son? etc.)(4) Nishiddha Karmas These are forbidden actions such as theft? drinking liour? etc.(5) Prayaschitta Karmas Actions performed to neutralise the effects of evil actions or sins.The man who has controlled the senses renounces all actions by discrimination? by seeing inaction in action and rests happily in this body of nine openings (the ninegated city)? because he is free from cares? worries? anxieties and fear and his mind is ite calm and he enjoys the supreme peace of the Eternal. In this ninegated city the Self is the king. The senses? the mind? the subconscious mind? and the intellect are the inhabitants or subjects.The ignorant wordly man says? I am resting in the easychair. The man of wisdom who has realised that the Self is distinct from the body which is a product of the five elements? says? I am resting in this body. (Cf.XVIII.17?50)

Shri Purohit Swami

5.13 Mentally renouncing all actions, the self-controlled soul enjoys bliss in this body, the city of the nine gates, neither doing anything himself nor causing anything to be done.

Dr. S. Sankaranarayan

5.13. Having renounced all actions by mind, a man of self-control, dwells happily in his body, a nine-win-dowed mansion, neither performing, nor causing others to perform [actions].

Swami Adidevananda

5.13 The embodied self, mentally resigning all actions as belonging to the city of nine gates (i.e., the body) and becoming self-controlled, dwells happily, neither himself acting nor causing the body to act.

Swami Gambirananda

5.13 The embodied man of self-control, having given up all actions mentally, continues happily in the town of nine gates, without doing or causing (others) to do anything at all.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.13।। जगत् से पलायन करना संन्यास नहीं है। मिथ्या धारणाओं एवं अविवेकपूर्ण आसक्तियों का त्याग ही वास्तविक संन्यास है। जिस पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रियाँ एवं मन की प्रवृत्तियाँ स्वयं के वश में हैं और जिसके कर्म अहंकार और स्वार्थ से रहित होते हैं उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द परम संतोष प्राप्त होता है। तब वह सुखपूर्वक शरीर रूपी नवद्वार नगरी में निवास करता है।नवद्वारयुक्त नगरी का रूपक उपनिषदों में प्रसिद्ध है। शरीर को उस नगरी के समान माना गया है जो प्राचीन काल में किलों की प्राचीर के अन्दर बसायी गयी होता थी। इस शरीर रूपी नगरी के नवद्वार हैं दो आँखें दो नासिका छिद्र दो कान मुँह जननेन्द्रिय तथा गुदेन्द्रिय। इस शरीर में जीवन व्यापार सुचारु रूप से चलने के लिए इनमें से समस्त अथवा अधिकांश द्वारों का होना आवश्यक है। जैसे एक राजा किले में रहकर अपने मंत्रियों द्वारा शासन करता है तब उसकी परिस्थिति मात्र से अधिकारीगण प्रेरणाशक्ति और अनुमति प्राप्त कर अपनाअपना कार्य करते है इसी प्रकार चैतन्य आत्मा स्वयं अकर्ता रहते हुये भी उसके केवल सान्निध्य से समस्त ज्ञानेन्द्रयाँ एवं कर्मेन्द्रियां स्वव्यापार मे व्यस्त रहती हैं।इस प्रसिद्ध रूपक का प्रयोग करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संयमी एवं तत्त्वदर्शी पुरुष शरीर में सुख से रहते हुए उपाधियों के कार्य देखता रहता है परन्तु स्वयं न कर्म करता है और न उपाधियों से करवाता है।और

Swami Ramsukhdas

5.13।। व्याख्या--'वशी देही'--इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति होनेसे ही ये मनुष्यपर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहनेपर ये स्वतः अपने वशमें रहते हैं। सांख्ययोगीकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति न रहनेसे ये सर्वथा उसके वशमें रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे 'वशी' कहा गया है। जबतक किसी भी मनुष्यका प्रकृतिके कार्य (शरीर, इन्द्रियों आदि) के साथ किञ्चिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है, तबतक वह प्रकृतिके 'अवश' अर्थात् वशीभूत रहता है--'कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः' (गीता 3। 5)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अतः प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहनेके कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता। परन्तु प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों शरीरोंसे ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होनेसे सांख्ययोगी उनकी क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता। यद्यपि सांख्ययोगीका शरीरके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह शरीरधारी ही दीखता है। इसलिये उसे 'देही'कहा गया है।'नवद्वारे पुरे'--शब्दादि विषयोंका सेवन करनेके लिये दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख--ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं, और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये गुदा और उपस्थ--ये दो द्वार शरीरके निचले भागमें हैं। इन नौ द्वारोंवाले शरीरको 'पुर' अर्थात् नगर कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहनेवाला मनुष्य--दोनों अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहनेका भाव रखनेवाला जीवात्मा--दोनों अलग--अलग हैं। जैसे नगरमें रहनेवाला मनुष्य नगरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता, ऐसे ही सांख्ययोगी शरीरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता।'सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य'--इसी अध्यायके आठवें-नवें श्लोकोंमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राणोंके द्वारा होनेवाली जिन तेरह क्रियाओँका वर्णन हुआ है, उन सब क्रियाओंका बोधक यहाँ 'सर्वकर्माणि' पद है। यहाँ 'मनसा संन्यस्य' पदोंका अभिप्राय है--विवेकपूर्वक मनसे त्याग करना। यदि इन पदोंका अर्थ केवल मनसे त्याग करना माना जाय तो दोष आता है; क्योंकि मनसे त्याग करना भी मनकी एक क्रिया है और गीता मनसे होनेवाली क्रियाको कर्म मानती है--'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (18। 15)। शरीरसे होनेवाली क्रियाओंके कर्तापनका मनसे त्याग करनेपर भी मनकी (त्यागरूप) क्रियाका कर्तापन तो रह ही गया! अतः 'मनसा संन्यस्य' पदोंका तात्पर्य है--विवेकपूर्वक मनसे क्रियाओंके कर्तापनका त्याग करना अर्थात् कर्तापनसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करना। जहाँसे कर्तापनका सम्बन्ध माना है, वहींसे उस सम्बन्धका त्याग करना है। सांख्ययोगी अपनेमें कर्तापन न मानकर उसे शरीरमें ही छोड़ देता है अर्थात् कर्तापन शरीरमें ही है, अपनेमें कभी नहीं।'नैव कुर्वन्न कारयन्'--सांख्ययोगीमें कर्तृत्व और कारयितृत्व दोनों ही नहीं होते अर्थात् वह करनेवाला भी नहीं होता और करवानेवाला भी नहीं होता।शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे किञ्चिन्मात्र भी अहंताममताका सम्बन्ध न होनेके कारण सांख्ययोगीउनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको कैसे मान सकता है? अर्थात् कभी नहीं मान सकता। इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें भी 'नैव किञ्चित् करोमि' पदोंसे यही बात कही गयी है। तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने 'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति' पदोंसे कहा है कि शरीरमें रहते हुए भी यह अविनाशी आत्मा कुछ नहीं करता।यहाँ शङ्का होती है कि जीवात्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करता; किन्तु वह प्रेरक बनकर कर्म तो करवा सकता है? इसका समाधान यह है कि जैसे सूर्यभगवान्का उदय होनेपर सम्पूर्ण जगत्में प्रकाश छा जाता है, लोग अपने-अपने कामोंमें लग जाते हैं, कोई खेती करता है, कोई वेदपाठ करता है, कोई व्यापार करता है आदि। परन्तु सूर्य-भगवान् विहित या निषिद्ध किसी भी क्रियाके प्रेरक नहीं होते। उनसे सबको प्रकाश मिलता है, पर उस प्रकाशका कोई सदुपयोग करे या दुरुपयोग, इसमें सूर्यभगवान्की कोई प्रेरणा नहीं है। यदि उनकी प्रेरणा होती तो पाप या पुण्य-कर्मोंका भागी भी उन्हींको होना पड़ता। ऐसे ही चेतनतत्त्वसे प्रकृतिको सत्ता और शक्ति तो प्राप्त होती है, पर वह किसी क्रियाका प्रेरक नहीं होता। यही बात भगवान्ने यहाँ 'न कारयन्' पदोंसे कही है।'आस्ते सुखम्'--मनुष्यमात्रकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति है; परन्तु वे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें मान लेते हैं जिससे उन्हें इस स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। परन्तु सांख्ययोगीको निरन्तर स्वरूपमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है। स्वरूप सदा-सर्वदा सुख-स्वरूप है। वह सुख अखण्ड, एकरस और परिच्छिन्नतासे रहित है।एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें जैसी स्थिति होती है, स्वरूपमें वैसी स्थिति नहीं होती। कारण कि स्वरूप ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। उस स्वरूपमें मनुष्यकी स्थिति स्वतः-स्वाभाविक है; अतः उसमें स्थित होनेमें कोई श्रम, उद्योग नहीं है। स्वरूपको पहचाननेपर एक स्वरूप-ही-स्वरूप रह जाता है। पहचानमात्रको समझानेके लिये ही यहाँ 'आस्ते' पदका प्रयोग हुआ है। इसे ही चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें 'स्वस्थः' पदसे कहा गया है।यहाँ 'आस्ते' क्रिया जिस तत्त्वकी सत्ताको प्रकट कर रही है, वह सब आधारोंका आधार है। समस्त उत्पन्न तत्त्व उस अनुत्पन्न तत्त्वके आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठानरूप तत्त्वको किसी आधारकी आवश्यकता ही क्या है? उस स्वतःसिद्ध तत्त्वमें स्वाभाविक स्थितिको ही यहाँ 'आस्ते' पदसे कहा गया है। इसे ही आगे बीसवें श्लोकमें 'ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः' पदोंसे कहा गया है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें कहा गया कि सांख्ययोगी न तो कर्म करता है और न करवाता ही है; किन्तु भगवान् तो कर्म करवाते होंगे? इसके उत्तरमें आगेका श्लोक कहते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.13।। सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.13।।पुनः सन्न्यासशब्दार्थं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। मनसेति विशेषणादभिमानत्यागः।

Sri Anandgiri

।।5.13।।तर्हि फले सक्तिं त्यक्त्वा सर्वैरपि कर्तव्यमिति कर्मसंन्यासस्य निरवकाशत्वमित्याशङ्क्याऽविदुषः सकाशाद्विदुषो विशेषं दर्शयति यस्त्विति। सर्वकर्मपरित्यागे प्राप्तं मरणं व्यावर्तयति आस्त इति। वृत्तिं लभमानोऽपि शरीरतापेनाध्यात्मिकादिना तप्यमानस्तिष्ठतीति चेन्नेत्याह सुखमिति। कार्यकरणसंघातपारवश्यं पर्युदस्यति वशीति। आसनस्यापेक्षितमधिकरणं निर्दिशति नवेति। देहसंबन्धाभिमानाभासवत्त्वमाह देहीति। मनसा सर्वकर्मसंन्यासेऽपि लोकसंग्रहार्थं बहिः सर्वं कर्म कर्तव्यमिति प्राप्तं प्रत्याह नैवेति। तान्येव सर्वाणि कर्माणि परित्याज्यानि विशिनष्टि नित्यमिति। तेषां परित्यागे हेतुमाह तानीति। यदुक्तं सुखमास्त इति तदुपपादयति त्यक्तेति। जितेन्द्रियत्वं कायवशीकारस्याप्युपलक्षणम् द्वे श्रोत्रे द्वे चक्षुषी द्वे नासिके वागेकेति सप्त शीर्षण्यानि शिरोगतानि शब्दाद्युपलब्धिद्वाराणि। अथापि कथं नवद्वारत्वमधोगताभ्यां पायूपस्थाभ्यां सहेत्याह अर्वागिति। शरीरस्य पुरसाम्यं स्वामिना पौरैश्चाधिष्ठितत्वेन दर्शयति आमेत्यादिना। यद्यपि देहे जीवनत्वाद्देहसंबन्धाभिमानाभासवानवतिष्ठते तथापि प्रवासीव परगेहे तत्पूजापरिभवादिभिरप्रहृष्यन्नविषीदन्व्यामोहादिरहितश्च तिष्ठतीति मत्वाह तस्मिन्निति। विशेषणमाक्षिपति किमिति। तदनुपपत्तिमेव दर्शयति सर्वो हीति। सर्वसाधारणे देहावस्थाने संन्यस्य देहे तिष्ठति विद्वानिति विशेषणमकिंचित्करमिति फलितमाह तत्रेति। विशेषणफलं दर्शयन्नुत्तरमाह उच्यत इति। किमविवेकिनं प्रति विशेषणानर्थक्यं चोद्यते किं वा विवेकिनं प्रतीति विकल्प्याद्यमङ्गीकरोति यस्त्विति। अज्ञत्वं देहित्वेहेतुः। तदेव देहित्वं स्फुटयति देहेति। संघातात्मदर्शिनोऽपि देहे स्थितिप्रतिभासः स्यादिति चेन्नेत्याह नहीति। द्वितीयं दूषयति देहादीति। गृहादिषु देहस्यावस्थानेनात्मावस्थानभ्रमव्यावृत्त्यर्थं देहे विद्वानास्त इति विशेषणमुपपद्यते विवेकवतो देहेऽवस्थानप्रतिभाससंभवादित्यर्थः। ननु विवेकिनो देहावस्थानप्रतिभानेऽपि वाङ्मनोदेहव्यापारात्मनां कर्मणां तस्मिन्प्रसङ्गाभावात्तत्त्यागेन कुतस्तस्य देहेऽवस्थानमुच्यते तत्राह परकर्मणां चेति। ननु विवेकिनो दिगाद्यनवच्छिन्नबाह्याभ्यन्तराविक्रियब्रह्मात्मतां मन्यमानस्य कुतो देहेऽवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह उत्पन्नेति। तत्र हेतुमाह प्रारब्धेति। यदि प्रारब्धफलं धर्माधर्मात्मकं कर्म तस्योपभुक्तस्य शेषादनुपभुक्ताद्देहादिसंस्कारोऽनुवर्तते तदनुवृत्त्या च तत्रैव देहे विशेषविज्ञानमवस्थानविषयमुपपद्यतेऽतो विवेकवतः संन्यासिनो देहेऽवस्थानव्यपदेशः संभवतीत्यर्थः। अविद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणासंभवेऽपि विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरति देह एवेति। देहे स्वावस्थानविषयो विद्वत्प्रत्ययस्तदविषयश्चाविद्वत्प्रत्ययस्तयोरेवं भेदे विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरन्नेव हेतुं विशदयति विद्वदिति। आरोपितकर्तृत्वाद्यभावेऽपि स्वगतकर्तृत्वादि दुर्वारमित्याशङ्कामनूद्य दूषयति यद्यपीत्यादिना। क्रियासु प्रवर्तयन्नास्त इति पूर्वेण संबन्धः। पूर्वस्यापि शतुरेवमेव संबन्धः। कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नेत्यत्र विचारयति किमिति। यत्कर्तृत्वं कारयितृत्वं च तत्किं देहिनः स्वात्मसमवायि सदेव संन्यासान्न भवतीत्युच्यते यथा गच्छतो देवदत्तस्य स्वगतैव गतिस्तत्स्थित्या त्यागान्न भवत्यथ वा स्वारस्येन कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नास्तीति वक्तव्यमाद्ये सक्रियत्व�� द्वितीये कूटस्थत्वमित्यर्थः। द्वितीयं पक्षमाश्रित्योत्तरमाह अत्रेति। उक्तेऽर्थे वाक्योपक्रममनुकूलयति उक्तं हीति। तत्रैव वाक्यशेषमपि संवादयति शरीरस्थोऽपीति। स्मृत्युक्तेऽर्थे श्रुतिमपि दर्शयति ध्यायतीवेति। उपाधिगतैव सर्वा विक्रिया नात्मनि स्वतोऽस्तीत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।5.13।।अतो योगे मनसैव कर्मत्यागः बाह्यतः कर्म करणं चाभिप्रेतम् अन्यथा मिथ्याचार इति तत्त्वं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। योगे समभूतेन मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं यथा भवति तथा स्वयं नैव कुर्वन्मनसा त्यागात् इन्द्रियैरपि न कारयन्निति साङ्ख्याद्भेदोऽपि सूचितः।

Sridhara Swami

।।5.13।।एवं तावच्चित्तशुद्धिशून्यस्य संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यत इत्येतत्प्रपञ्चितम्। इदानीं शुद्धचित्तस्य संन्यासः श्रेष्ठ इत्याह सर्वकर्माणीति। वशी यतचित्तः। सर्वाणि कर्माणि विक्षेपकाणि मनसा विवेकयुक्तेन संन्यस्य सुखं यथा भवत्येवं ज्ञाननिष्ठः सन्नास्ते। क्वास्त इत्यत आह। नवद्वारे नेत्रे नासिके कर्णौ मुखं चेति सप्त शिरोगतानि अधोगते द्वे पायूपस्थरूपे इत्येवं नव द्वाराणि यस्मिंस्तस्मिन्पुरे पुरवदहंभावशून्ये देहे देही अवतिष्ठते। अहंकाराभावादेव स्वयं तेन देहेन नैव कुर्वन्ममकाराभावाच्च न कारयन्नित्यविशुद्धचित्ताद्ध्यावृत्तिरुक्ता। अविशुद्धचित्तो हि संन्यस्य पुनः करोति कारयति च। नत्वयं तथा। अतः सुखमास्त इत्यर्थः।

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