Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 12 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Detachment from Outcomes

Sanskrit Shloka (Original)

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् | अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||५-१२||

Transliteration

yuktaḥ karmaphalaṃ tyaktvā śāntimāpnoti naiṣṭhikīm . ayuktaḥ kāmakāreṇa phale sakto nibadhyate ||5-12||

Word-by-Word Meaning

युक्तःthe united one (the well poised)
कर्मफलम्fruit of action
त्यक्त्वाhaving abandoned
शान्तिम्peace
आप्नोतिattains
नैष्ठिकीम्final
अयुक्तःthe nonunited one
कामकारेणimpelled by desire
फलेin the fruit (of action)
सक्तःattached

📖 Translation

English

5.12 The united one (the well poised or the harmonised) having abandoned the fruit of action attains to the eternal peace: the non-united only (the unsteady or the unbalanced) impelled by desire, attached to the fruit, is bound.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।5.12।। युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है;  और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus on the quality of your work and the integrity of your effort, rather than obsessing over specific outcomes like promotions, bonuses, or external validation. By dedicating yourself to the task at hand without being emotionally tied to the results, you enhance performance and maintain inner calm, regardless of the fluctuating external circumstances of your career.

🧘 For Stress & Anxiety

Significantly reduce stress and anxiety by practicing detachment from the outcomes of your actions. Do your best in every situation, but then consciously release the need for things to unfold exactly as you desire. This allows you to remain balanced and peaceful, preventing the cycle of worry and disappointment that arises from outcome-dependent happiness.

❤️ In Relationships

Engage in relationships with genuine affection and acts of service, without being attached to specific reciprocations, acknowledgments, or how the other person 'should' behave. By offering love and support freely, you foster healthier, more authentic connections and protect yourself from resentment and disappointment when expectations are not met.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Achieve lasting peace and true freedom by focusing your energy on performing your actions with dedication, rather than being bound by desire for or attachment to their results.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

5.12 युक्तः the united one (the well poised)? कर्मफलम् fruit of action? त्यक्त्वा having abandoned? शान्तिम् peace? आप्नोति attains? नैष्ठिकीम् final? अयुक्तः the nonunited one? कामकारेण impelled by desire? फले in the fruit (of action)? सक्तः attached? निबध्यते is bound.Commentary Santim naishthikim is interpreted as peace born of devotion of steadfastness. The harmonious man who does actions for the sake of the Lord without expectation of the fruit and who says? I do actions for my Lord only? not for my personal gain or profit? attains to the peace born of devotion? through the following four stages? viz.? purity of mind? the attainment of knowledge? renunciation of actions? and steadiness in wisdom. But the unbalanced or the unharmonised man who is led by desire and who is attached to the fruits of the actions and who says? I have done such and such an action I will get such and such a fruit? is firmly bound.

Shri Purohit Swami

5.12 Having abandoned the fruit of action, he wins eternal peace. Others unacquainted with spirituality, led by desire and clinging to the benefit which they think will follow their actions, become entangled in them.

Dr. S. Sankaranarayan

5.12. Having abandoned [the attachment for] the fruit of actions, the master of Yoga attains the highest Peace. [But] the person, other than the master of Yoga, attached to the fruit of action, is bound by his action born of desire.

Swami Adidevananda

5.12 A Yogin, renouncing the fruits of his actions, attains lasting peace. But the unsteady man who is attached to fruits of actions, being impelled by desire, is bound.

Swami Gambirananda

5.12 Giving up the result of work by becoming resolute in faith, one attains Peace arising from steadfastness. One who is lacking in resolute faith, being attached to the result under the impulsion of desire, becomes bound.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।5.12।। कर्मफल की प्राप्ति की चिन्ताओं से मुक्त होकर सम्यक् प्रकार से कर्माचरण के द्वारा कर्मयोगी को अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है। यह शान्ति आर्थिक अथवा राजनैतिक परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली कोई वस्तु नहीं है। संविधान बनाने वाली संस्थाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के द्वारा भी इस शान्ति को स्थापित नहीं किया जा सकता। यह तो मनुष्य के मन की वह स्थिति है जबकि उसका आन्तरिक संसार विक्षुब्ध करने वाले विचारों के मदोन्मत्त तूफानों से विचलित नहीं होता। शान्ति एक अखण्डानुभूति एवं एक संगठित व्यक्तित्व को सुरभि है। यज्ञ भावना से कर्म करते हुए इस शान्ति को प्राप्त करना ही यहां प्रतिपादित क्रांतिकारी सिद्धांत है। जब साधक कर्तृत्व के अभिमान और फल की आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य कर्म करता है तब उसे कर्मयोग निष्ठा की शान्ति शीघ्र ही प्राप्त होती है।इसी बात पर अधिक बल देने के लिये भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगी के विपरीत जो अयुक्त पुरुष है वह अभिमान तथा फलासक्ति के कारण अपने ही कर्मों से बँधता है। जो औषधि कम मात्रा में उपचार का कार्य करती है उसी का अधिक मात्रा में सेवन मृत्यु का कारण बन सकता है जैसे नींद की गोलियाँ। जो शस्त्र आत्मरक्षण का साधन है वही आत्महनन का भी कारण बन सकता है।इसी प्रकार जगत् में अविवेक से कार्य करने पर संतोष और आनन्द के आलोक के मिलन के स्थान पर दृढ़तर बन्धन और अथाह अन्धकारमय जीवन प्राप्त होता है। इसका एकमात्र कारण है हमारी किसी फलविशेष के लिए कामना। भविष्य मे अपने मन के अनुकूल स्थिति को चाहने का नाम है कामना अथवा इच्छा। यदि एक मेंढक अपना विस्तार करता हुआ बैल के आकार का बनने का प्रयत्न करे तो उसका अन्त दुखपूर्ण ही होगा। एक परिच्छिन्न सार्मथ्य का जीव स्वयं के अनुकूल और इष्ट परिस्थिति का निर्माण करने में सर्वथा असमर्थ है। उसका प्रयत्न उस मेढक के समान ही होने के कारण अविवेकपूर्ण है। उसको यह समझना चाहिए कि कर्म करने में वह स्वतन्त्र है परन्तु कर्मफल अनेक नियमों के अनुसार प्राप्त होने के कारण फल प्राप्ति में वह परवश है। इसलिए किसी फलविशेष में आसक्त होकर उसका आग्रह रखना केवल अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं।परन्तु जो परमार्थदर्शी हैं उसके विषय में कहते हैं

Swami Ramsukhdas

5.12।। व्याख्या--'युक्तः'--इस पदका अर्थ प्रसङ्गके अनुसार लिया जाता है; जैसे--इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें अपनेको अकर्ता माननेवाले सांख्ययोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है, ऐसे ही यहाँ कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है।जिनका उद्देश्य 'समता' है वे सभी पुरुष युक्त अर्थात् योगी हैं। यहाँ कर्मयोगीका प्रकरण चल रहा है, इसलिये यहाँ 'युक्तः' पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होनेसे जिसमें सांसारिक कामनाओंका अभाव हो गया है।'कर्मफलं त्यक्त्वा'--यहाँ कर्मफलका त्याग करनेका तात्पर्य फलकी इच्छा, आसक्तिका त्याग करना है; क्योंकि वास्तवमें त्याग कर्मफलका नहीं, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छाका होता है। कर्मफलकी इच्छाका त्याग करनेका अर्थ है--किसी भी कर्म और कर्मफलसे अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका सुख लेनेकी इच्छा न रखना। कर्म करनेसे एक तो तात्कालिक फल (सुख) मिलता है और दूसरा परिणाममें फल मिलता है--इन दोनों ही फलोंकी इच्छाका त्याग करना है। अपना कुछ नहीं है, अपने लिये कुछ नहीं करना है और अपनेको कुछ नहीं चाहिये--इस प्रकार कर्ताके सर्वथा निष्काम होनेपर कर्मफलकी इच्छाका त्याग हो जाता है। संचित-कर्मोंके अनुसार प्रारब्ध बनता है, प्रारब्धके अनुसार मनुष्यका जन्म होता है और मनुष्य-जन्ममें नये कर्म होनेसे नये कर्म-संस्कार संचित होते हैं। परन्तु कर्मफलकी आसक्तिका त्याग करके कर्म करनेसे कर्म भुने हुए बीजकी तरह संस्कार उत्पन्न करनेमें असमर्थ हो जाते हैं और उनकी संज्ञा 'अकर्म' हो जाती है (गीता 4। 20)। वर्तमानमें निष्कामभावपूर्वक किये कर्मोंके प्रभावसे उसके पुराने कर्म-संस्कार (संचित कर्म) भी समाप्त हो जाते हैं (गीता 4। 23)। इस प्रकार उसके पुनर्जन्मका कारण ही समाप्त हो जाता है।कर्मफल चार प्रकारके होते हैं (1) 'दृष्ट कर्मफल'--वर्तमानमें किये जानेवाले नये कर्मोंका फल, जो तत्काल प्रत्यक्ष मिलता हुआ दीखता है; जैसे--भोजन करनेसे तृप्ति होना आदि।(2) 'अदृष्ट कर्मफल'--वर्तमानमें किये जानेवाले नये कर्मोंका फल, जो अभी तो संचितरूपसे संगृहीत होता है, पर भविष्यमें इस लोक और परलोकमें अनुकूलता या प्रतिकूलताके रूपमें मिलेगा। (3) 'प्राप्त कर्मफल'--प्रारब्धके अनुसार वर्तमानमें मिले हुए शरीर, जाति, वर्ण, धन, सम्पत्ति, अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आदि।(4) 'अप्राप्त कर्मफल'--प्रारब्ध-कर्मके फल-रूपमें जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्यमें मिलनेवाली है।उपर्युक्त चार प्रकारके कर्मफलोंमें दृष्ट और अदृष्ट कर्मफल 'क्रियमाण-कर्म' के अधीन हैं तथा प्राप्त और अप्राप्त कर्मफल 'प्रारब्ध-कर्म' के अधीन हैं। कर्मफलका त्याग करन��का अर्थ है--दृष्ट कर्मफलका आग्रह नहीं रखना तथा मिलनेपर प्रसन्न या अप्रसन्न न होना; अदृष्ट कर्मफलकी आशा न रखना; प्राप्त कर्मफलमें ममता न करना तथा मिलनेपर सुखी या दुःखी न होना और अप्राप्त कर्मफलकी कामना न करना कि मेरा दुःख मिट जाय और सुख हो जाय।साधारण मनुष्य किसी-न-किसी कामनाको लेकर ही कर्मोंका आरम्भ करता है और कर्मोंकी समाप्तितक उस कामनाका चिन्तन करता रहता है। जैसे व्यापारी धनकी इच्छासे व्यापार आरम्भ करता है तो उसकी वृत्तियाँ धनके लाभ और हानिकी ओर ही रहती हैं कि लाभ हो जाय, हानि न हो। धनका लाभ होनेपर वह प्रसन्न होता है और हानि होनेपर दुःखी होता है। इसी तरह सभी मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई आदि कोई-न-कोई अनुकूल फलकी इच्छा रखकर ही कर्म करते हैं। परन्तु कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके कर्म करता है। यहाँ स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि अगर कोई इच्छा ही न हो तो कर्म करें ही क्यों? इसके उत्तरमें सबसे पहली बात तो यह है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें कर्मोंका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता (गीता 3। 5)। यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि मनुष्य बहुत अंशोंमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर सकता है, तो भी मनुष्यके भीतर जबतक संसारके प्रति राग है, तबतक वह शान्तिसे (कर्म किये बिना) नहीं बैठ सकता। उससे विषयोंका चिन्तन अवश्य होगा, जो कि कर्म है। विषयोंका चिन्तन होनेसे वह क्रमशः पतनकी ओर चला जायगा (गीता 2। 62 63)। इसलिये जबतक रागका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता, तबतक मनुष्य कर्मोंसे छूट नहीं सकता। कर्म करनेसे पुराना राग मिटता है और निःस्वार्थभावसे केवल परहितके लिये कर्म करनेसे नया राग पैदा नहीं होता।विचारपूर्वक देखा जाय तो कर्मफलकी इच्छा रखकर कर्म करना बड़ी बेसमझी है। पहली बात तो यह है कि जब प्रत्येक कर्म आरम्भ और समाप्त होनेवाला है, तब उसका फल नित्य कैसे होगा? फल भी प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्म और कर्मफल--दोनों ही नाशवान् हैं। या तो फल नहीं रहेगा, यह हमारा कहलानेवाला शरीर नहीं रहेगा। दूसरी बात, इच्छा रखें या न रखें, जो फल मिलनेवाला है, वह तो मिलेगा ही। इच्छा करनेसे अधिक फल मिलता हो और इच्छा न करनेसे कम फल मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। अतः फलकी कामना करना बेसमझी ही हैनिष्कामभावसे अर्थात् फलकी कामना न रखकर लोकहितार्थ कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कर्मयोगीके कर्म उद्देश्यहीन अर्थात् पागलके कर्मकी तरह नहीं होते, प्रत्युत परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका महान् उद्देश्य रखकर ही वह लोकहितार्थ सब कर्म करता है। उसके कर्मोंका लक्ष्य परमात्मतत्त्व रहता है, सांसारिक पदार्थ नहीं। शरीरमें ममता न रहनेसे उसमें आलस्य, अकर्मण्यता आदि दोष नहीं आते, प्रत्युत वह कर्मोंको सुचारुरूपसे और तत्परताके साथ करता है।मार्मिक बात जिन कर्मोंको करनेसे नाशवान् पदार्थोंकी प्राप्ति होती है, वे ही कर्म निष्कामभावपूर्वक एकमात्र परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका उद्देश्य रखकर लोकहितार्थ करनेसे नित्यसिद्ध परमात्मतत्त्वकी अनुभूतिमें हेतु बन सकते हैं। तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें कहा गया है कि कर्मोंके द्वारा ही जनकादि कर्मयोगियोंको परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि मिली; और छठे अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा गया है कि योगमें आरूढ़ होनेके लिये कर्म करना आवश्यक है। इन सब बातोंसे यह अर्थ निकलता है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर्मोंसे होती है। पार्वती, मनु-शतरूपा आदिको भी तपरूप कर्मसे भगवत्प्राप्ति हुई। यह बात भी आती है कि जप, ध्यान सत्सङ्ग, स्वाध्याय, श्रवण, मनन आदि साधनोंसे तत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है। इसके विपरीत ऐसी बात भी आती है कि तप आदि कर्मोंसे भगवत्प्राप्ति नहीं होती (गीता 11। 53),  परमात्मा किसी कर्मका फल नहीं हैं आदि। इन दोनों बातोंमें सामञ्जस्य कैसे हो? इसका समाधान है कि वास्तवमें परमात्माकी प्राप्ति किसी कर्मसे नहीं होती। वे किसी कर्मका फल नहीं हैं। परमात्मा प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें सदा-सर्वदा विद्यमान हैं। वे सदा-सर्वदा सबको प्राप्त हैं और सभी प्राणियोंकी सदा-सर्वदा उन्हींमें स्थिति है। परमात्मासे कोई भी मनुष्य कभी अलग था नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। परन्तु जड प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिसे अहंता-ममतापूर्वक अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे मनुष्य परमात्मासे विमुख हो जाता है और जो वास्तवमें अपने हैं, उन परमात्माको अपना न मानकर जो अपने हैं ही नहीं, उन नाशवान् पदार्थोंको अपना मानने लग जाता है। अतः जड पदार्थोंके साथ जीवका जो रागयुक्त सम्बन्ध है, उसे मिटानेमें ही सम्पूर्ण साधनोंकी सार्थकता है।जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है। अतः तप आदि साधन करते-करते जब जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तभी परमात्मप्राप्ति होती है। वही सम्बन्ध-विच्छेद तब बहुत सुगमतासे हो जाता है, जब निष्कामभावसे केवल लोकहितके लिये कर्तव्य-कर्म किये जायँ।परमात्मा किसी साधनसे खरीदे नहीं जा सकते; क्योंकि प्रकृतिके सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ मिलकर भी चिन्मय और अविनाशी परमात्माकी किञ्चिन्मात्र भी समानता नहीं कर सकते। दूसरी बात, मूल्य देकर जो वस्तु मिलती है, वह उस मूल्यसे कमजोर (कम मूल्यवाली) ही होती है। यदि कर्मोंसे परमात्मा मिल जायँ तो वे कर्मोंसे कमजोर ही सिद्ध होंगे।यहाँ एक मार्मिक बात समझनेकी है कि प्रायः साधक जिन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, आदिसे साधन करते हैं, उनका सम्बन्ध, महत्त्व और आश्रय रखते हुए ही साधन करते हैं। जबतक इन शरीरादिसे यत्किञ्चित् भी सम्बन्ध है; तबतक जडतासे सम्बन्ध बना हुआ है। जडतासे सम्बन्ध रखते हुए परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं होता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति जडताके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जडताके त्यागसे होती है। जिस जातिका संसार है उसी जातिके ये शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि, आदि हैं। अतः इन्हें संसारका ही मानकर, संसारकी ही सेवामें लगा दे (जो कर्मयोग) है। परन्तु इन शरीरादिसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न माने, इन्हें महत्त्व न दे, इनका आश्रय न रखे; क्योंकि असत्से सम्बन्ध रखते हुए असत्की सर्वथा निवृत्ति नहीं हो सकती। असत्से सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये निष्कामभावसे किये हुए सब कर्म (साधन) सहायक होते हैं। असत्से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही परमात्मासे जो विमुखता हो रही थी, वह मिट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है। 'शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्'--यह बात अनुभव-सिद्ध है कि सांसारिक पदार्थोंकी कामना और ममताके त्यागसे शान्ति मिलती है। सुषुप्तिमें जब संसारकी विस्मृति हो जाती है तब उसमें भी शान्तिका अनुभव होता है। यदि जाग्रत्में ही संसारका सम्बन्धविच्छेद (कामनाममताका त्याग) हो जाय तो फिर कहना ही क्या है ऐसे ही नींद आने किसी कार्यके पूरा होने लड़कीका विवाह होने आदिसे भी एक शान्ति मिलती है। तात्पर्य है कि सांसारिक कामना ममता और आसक्तिका त्याग करते ही शान्ति प्राप्त होती है। परन्तु इस शान्तिका उपभोग करनेसे अर्थात् इसमें सुख लेनेसे और इसे ही लक्ष्य मान लेनेसे साधक इस शान्तिके फलस्वरूप मिलनेवाली नैष्ठिकी शान्ति (टिप्पणी प0 298) अर्थात् परमशान्तिसे वञ्चित रह जाता है। कारण कि यह शान्ति ध्येय नहीं है प्रत्युत परमशान्तिका कारण है--योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते (गीता 6। 3)। संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे होनेवाली शान्ति सत्त्व-गुणसे सम्बन्ध रखनेवाली सात्त्विकी शान्ति है। जबतक साधक इस शान्तिका भोग करता है और इस शान्तिसे 'मुझमें शान्ति है' इस प्रकार अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक परिच्छिन्नता रहती है (गीता 14। 6) और जबतक परिच्छिन्नता रहती है, तबतक अखण्ड एकरस रहनेवाली वास्तविक शान्तिका अनुभव नहीं होता।'अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते'--जो कर्मयोगी नहीं है, प्रत्युत कर्मी है, ऐसे सकाम पुरुषके लिये यहाँ 'अयुक्तः' पद आया है।सकाम पुरुष नयी-नयी कामनाओंके कारण फलमें आसक्त होकर जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ जाता है। कामनामात्रसे कोई भी पदार्थ नहीं मिलता, अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता--ऐसी बात प्रत्यक्ष होनेपर भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही है। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-- 'अंतहुँ तोहि तजैंगे पामर तू न तजै अबही ते।।' (विनयपत्रिका 198) इसका अर्थ यह नहीं कि पदार्थोंको स्वरूपसे छोड़ दें। अगर स्वरूपसे छोड़नेपर ही मुक्ति होती तो मरनेवाले (शरीर छोड़नेवाले) सभी मुक्त हो जाते पदार्थ तो अपने-आप ही स्वरूपसे छूटते चले जा रहे हैं। अतः वास्तवमें उन पदार्थोंमें जो कामना, ममता और आसक्ति है, उसीको छोड़ना है; क्योंकि पदार्थोंसे कामना-ममता-आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप बन्धनका कारण है। कर्मयोगके आचरणसे (कर्मोंका प्रवाह केवल परहितके लिये होनेसे) यह माना हुआ सम्बन्ध सुगमतासे छूट जाता है। सम्बन्ध--कर्मयोगका वर्णन करके अब भगवान् पुनः सांख्ययोगका विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।5.12।। युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है;  और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।5.12।।पुनर्युक्त्यादिनियमनार्थं युक्तायुक्तफलमाह युक्त इति। युक्तो योगयुक्तः।

Sri Anandgiri

।।5.12।।इतश्च सङ्गं त्यक्त्वा कर्मानुष्ठानं त्वया कर्तव्यमित्याह यस्माच्चेति। युक्तः सन्फलं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्मोक्षाख्यां शान्तिं यस्मादाप्नोति तस्माच्च त्वया सङ्गं त्यक्त्वा कर्म कर्तव्यमिति योजना। विपक्षे दोषमाह अयुक्त इति। युक्तत्वं व्याकरोति ईश्वरायेति। फलं परित्यज्य कर्म कुर्वन्निति शेषः। नैष्ठिकी शान्तिरित्येतदेव विशदयति सत्त्वेति। द्वितीयमर्धं विभजते यस्त्विति। असमाधाने दोषादर्जुनस्य नियोगं दर्शयति अतस्त्वमिति।

Sri Vallabhacharya

।।5.12।।एवं च योगेन कर्मकरणे मोक्षं विपरीते बन्धनं चाह युक्त इति। शान्तिः फलं तत्र च बन्धः।

Sridhara Swami

।।5.12।।ननु तेनैव कर्मणा कश्चिन्मुच्यते कश्चिद्बध्यत इति व्यवस्था कथमत आह युक्त इति। युक्तः परमेश्वरैकनिष्ठः सन्कर्मणां फलं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वन्नात्यन्तिकीं शान्तिं मोक्षं प्राप्नोति। अयुक्तस्तु बहिर्मुखः कामकारेण कामतः प्रवृत्त्या फले आसक्तो नितरां बन्धं प्राप्नोति।

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