Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 11 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि | योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ||५-११||
Transliteration
kāyena manasā buddhyā kevalairindriyairapi . yoginaḥ karma kurvanti saṅgaṃ tyaktvātmaśuddhaye ||5-11||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
5.11 Yogis, having abandoned attachment, perform actions only by the body, mind, intellect, and even by the senses, for the purification of the self.
।।5.11।। योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, perform tasks with utmost diligence, focus, and skill (using body, mind, intellect, and senses), dedicating your efforts to the project's success or a larger organizational mission rather than solely to personal gain, promotion, or recognition. This approach fosters integrity, excellence, and a sense of purpose, regardless of the immediate reward.
🧘 For Stress & Anxiety
To manage stress and anxiety, engage fully in the present moment's task without excessive worry about future results or past failures. By consciously detaching from the outcomes of your actions, you reduce performance pressure and the emotional toll of successes or setbacks, cultivating a calmer, more resilient mental state and protecting your well-being.
❤️ In Relationships
Approach relationships with genuine care, effort, and unconditional giving, focusing on what you can contribute rather than what you expect to receive. By abandoning attachment to specific reciprocal actions or desired responses from others, you foster healthier, less demanding, and more fulfilling connections, free from possessiveness or resentment.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Engage fully in your actions with body, mind, and intellect, but release attachment to personal outcomes; act selflessly for inner purity.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
5.11 कायेन by the body? मनसा by the mind? बुद्ध्या by the intellect? केवलैः only? इन्द्रियैः by the senses? अपि also? योगिनः Yogis? कर्म action? कुर्वन्ति perform? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? आत्मशुद्धये for the purification of the self. Commentary Yogis here means Karma Yogis who are devoted to the path of action? who are free from egoism and selfishness? who work for the purification of their hearts without the least attachment to the fruits or results of their actions? and who dedicate all actions to the Lord as their offerings.Kevalam only by (free from egoism and selfishness) applies to the body? mind? intellect and the senses.
Shri Purohit Swami
5.11 The sage performs his action dispassionately, using his body, mind and intellect, and even his senses, always as a means of purification.
Dr. S. Sankaranarayan
5.11. Having given up attachment, the men of Yoga perform action, just with the body, with the mind, with intellect and also with sense-organs, for attaining the Self.
Swami Adidevananda
5.11 Merely witth the body, the mind, the intellect and the senses, Yogins do actions, renouncing attachment, for the purification of the self.
Swami Gambirananda
5.11 By giving up attachment, the yogis undertake work merely through the body, mind, intellect and even the organs, for the purification of themselves.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।5.11।। कर्मयोगी का प्रयत्न यह होता है कि अपने स्वरूप में ही रहकर स्वयं के अन्तर्बाह्य घटित हो रही घटनाओं को उनके साथ तादात्म्य किये बिना केवल साक्षी भाव से देखे। कुछ काल तक इसका अभ्यास करने पर उसे यह स्पष्टतया ज्ञात होगा कि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं और साक्षी के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। तथापि उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह साक्षित्व अथवा साक्षी स्वयं पारमार्थिक सत्य नहीं है वरन् बुद्धि की खिड़की में से झांकता हुआ परम सत्य यह साक्षी है। हमारा अनुभव है कि हम स्वयं को कार्यरत देखते हैं तब हमें इस देखने वाले साक्षी का भी भान होता है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व वह है जो इस उपर्युक्त द्रष्टा को भी प्रकाशित करता है यह उपनिषदों की घोषणा है।यदि परम सत्य साक्षित्व से भी परे है तो कर्मयोगी को इस साक्षीभाव का अभ्यास क्यों करना चाहिये इसका उत्तर है आत्मविशुद्धये अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि के लिए। साक्षीभाव से कर्म करने पर स्वाभाविक ही अहंकार का त्याग होकर पूर्व संचित वासनाओं का क्षय हो जायेगा। जितनी अधिक मात्रा में वासना निवृत्ति होगी उतना ही शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा जिसमें परमात्मा की अनुभूति स्पष्ट रूप से होगी।निम्नलिखित कारण से भी कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है
Swami Ramsukhdas
5.11।। व्याख्या--'योगिनः' यहाँ 'योगिनः'--पद कर्मयोगीके लिये आया है। जो योगी भगवदर्पणबुद्धिसे कर्म करते हैं, वे भक्तियोगी कहलाते हैं। परन्तु जो योगी केवल संसारकी सेवा के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं, वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता, प्रत्युत संसारका ही मानता है। कारण कि शरीरादिकी संसारके साथ एकता है।'कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि'--जिनको साधारण मनुष्य अपनी मानते हैं, वे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि वास्तवमें किसी भी दृष्टिसे अपनी नहीं हैं, प्रत्युत अपनेको मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं। इनको अपनी मानना सर्वथा भूल है। इन सबकी संसारके साथ स्वतःसिद्ध एकता है।विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान्के हैं, कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृति हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना, इनमें ममता रखना भूल है। ममताको सर्वथा मिटानेके लिये ही यहाँ 'केवलैः' पद प्रयुक्त हुआ है। यहाँ 'केवलैः' पद बहुवचन होनेसे इन्द्रियोंका ही विशेषण है; परन्तु इन्द्रियोंसे ही ममता हटानेके लिये कहा जाय, शरीर-मन-बुद्धिसे नहीं--ऐसा सम्भव नहीं है। शरीरादिका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। व्यष्टि कभी समष्टिसे अलग नहीं हो सकती। इसलिये व्यष्टि-(शरीरादि-) से सम्बन्ध जोड़नेपर समष्टि-(संसार-) से स्वतः सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे लड़कीसे विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास, ससुर आदि ससुरालके सभी सम्बन्धियोंसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है ,ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु-(शरीरादि-) से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है। अतः यहाँ 'केवलैः' पद शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि सबमें ही साधकको ममता हटानेकी प्रेरणा करता है (टिप्पणी प0 295.1)।वास्तवमें कर्ताका स्वयं निर्मम होना ही आवश्यक है। यदि कर्ता स्वयं निर्मम हो तो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब जगहसे ममता सर्वथा मिट जाती है। कारण कि वास्तवमें शरीर, इन्द्रियाँ आदि स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं; अतः इनमें ममता केवल मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं। कर्मयोगकी साधनामें फलकी इच्छाका त्याग मुख्य है। (गीता 5। 12)। साधारण लोग फल-प्राप्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी फलकी आसक्तिको मिटानेके लिये कर्म करता है। परन्तु जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिको अपना मानता रहता है, वह फलकी इच्छाका त्याग कर ही नहीं सकता (टिप्पणी प0 295.2)। कारण कि उसका ऐसा भाव रहता है कि शरीरादि अपने हैं तो उनके द्वारा किये गये कर्मोंका फल भी अपनेको मिलना चाहिये। इस प्रकार शरीरादिको अपना माननेसे स्वतः फलकी इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये फलकी इच्छाको मिटानेके लिये शरीरादिको कभी भी अपना न मानना अत्यन्त आवश्यक है।'केवलैः'--पदका तात्पर्य है कि जैसे वर्षा बरसती है और उससे लोगोंका हित होता है; परन्तु उसमें ऐसा भाव नहीं होता कि मैं बरसती हूँ, मेरी वर्षा है कि जिससे दूसरोंका हित होगा, दूसरोंको सुख होगा। ऐसे हीइन्द्रियों आदिके द्वारा होनेवाले हितमें भी अपनापन मालूम न दे। परन्तु शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियोंके द्वारा किसीका अभीष्ट हो गया, किसीकी मनचाही बात हो गयी--इन क्रियाओँको लेकर अपने मनमें खुशी आती है तो मन, बुद्धि आदिमें केवलपना नहीं रहा, प्रत्युत उनके साथ सम्बन्ध जुड़ गया, ममता हो गयी।'सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये'--[पीछे दसवें श्लोकमें भी 'सङ्गं त्यक्त्वा' पद आये हैं; अतः इनकी व्याख्या वहीं देखनी चाहिये।] साधारणतः मल, विक्षेप और आवरण-दोषके दूर होनेको अन्तःकरणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि है--शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना। शरीरादि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है --'ममता मल जरि जाइ' (मानस 7। 117 क)। अत�� शरीरादिके प्रति अहंता-ममतापूर्वक माने गये सम्बन्धका सर्वथा अभाव ही आत्मशुद्धि है।इस श्लोकमें आये 'केवलैः' पदसे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना न माननेकी बात आयी है अर्थात् वहाँ 'केवलैः' पदमें अपनापन हटानेका उद्देश्य है और यहाँ 'आत्मशुद्धये' पदमें अपनापन सर्वथा हटनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये (अपनापन सर्वथा हटानेके उद्देश्यसे) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना न माननेपर भी इनमें सूक्ष्म अपनापन रह जाता है। उस सूक्ष्म अपनेपनका सर्वथा मिटना ही आत्मशुद्धि अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धि है।अहंतामें भी ममता रहती है। ममता सर्वथा मिटनेपर जब अहंतामें भी ममता नहीं रहती, तब सर्वथा शुद्धि हो जाती है।'कर्म कुर्वन्ति'--शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें जो सूक्ष्म अपनापन रह जाता है, उसे सर्वथा दूर करनेके लिये कर्मयोगी कर्म करते हैं।जबतक मनुष्य कर्म करते हुए अपने लिये किसी प्रकारका सुख चाहता है अर्थात् किसी फलकी इच्छा रखता है और शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्म-सामग्रीको अपनी मानता है, तबतक वह कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके और कर्म-सामग्रीको अपनी न मानकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। कारण कि योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील योगीके लिये (दूसरोंके हितके लिये) कर्म करना ही हेतु कहा जाता है--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता 6। 3)। इस प्रकार दूसरोंके हितके लिये वह ज्यों-ज्यों कर्म करता है, त्यों-ही-त्यों ममता-आसक्ति मिटती चली जाती है और अन्तःकरणकी शुद्धि होती चली जाती है। सम्बन्ध--अब भगवान् आगेके श्लोकमें अन्वय और व्यतिरेक-रीतिसे कर्मयोगकी महिमाका वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।5.11।। योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।5.11।।एवं चाचार इत्याह कायेनेति।
Sri Anandgiri
।।5.11।।अविदुषस्तर्हि कृतेन कर्मणा किं स्यादित्याशङ्क्याह केवलमिति। अज्ञस्येश्वरार्पणबुद्ध्यानुष्ठितं कर्म बुद्धिशुद्धिफलमित्यत्रैव हेतुमाह यस्मादिति। केवलशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धे प्रयोजनमाह सर्वव्यापारेष्विति। कर्मणश्चित्तशुद्धिफलत्वे तादर्थ्येन कर्मानुष्ठानमेव तव कर्तव्यमिति यस्मादित्यस्यापेक्षितं वदन्फलितमाह तस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।5.11।।अत्र सदाचारं प्रमाणयति कायेनेति। कायेनाऽऽसनादिना मनसा ध्यानादिना बुद्ध्या तत्त्वनिश्चयादिना अभिनिवेशरहितैरिन्द्रियैः शुद्धं श्रवणदर्शनकीर्त्तनादिलक्षणं कर्म नारदादयः सङ्गं त्यक्त्वा आत्मनः शुद्धये समत्वाय कुर्वन्ति। अतो ये केवलं साङ्ख्यास्ते कर्मसन्न्यासं सिद्धान्ततयाऽभ्युपगच्छन्ति। ये च योगिनस्ते कर्मकरणमेवेति फलितम्।
Sridhara Swami
।।5.11।।बन्धकत्वाभावमुक्त्वा मोक्षहेतुत्वं सदाचारेण दर्शयति कायेनेति। कायेन स्नानादि बुद्ध्या तत्त्वनिश्चयादि केवलैः कर्माभिनिवेशरहितैरिन्द्रियैश्च श्रवणकीर्तनादिलक्षणं कर्म फलसङ्गं त्यक्त्वा चित्तशुद्धये योगिनः कर्म कुर्वन्ति।