Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 10 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः | बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ||४-१०||
Transliteration
vītarāgabhayakrodhā manmayā māmupāśritāḥ . bahavo jñānatapasā pūtā madbhāvamāgatāḥ ||4-10||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.10 Freed from attachment, fear and anger, absorbed in Me, taking refuge in Me, purified by the fire of knowledge, many have attained to My Being.
।।4.10।। राग भय और क्रोध से रहित मनमय मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रुप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate detachment from immediate outcomes, office politics, and external validation, which enables fearless decision-making and reduces stress from failures. Approach work with a sense of purpose and integrity, applying wisdom to challenges rather than reacting with anger or fear, fostering a more fulfilling and impactful professional life.
🧘 For Stress & Anxiety
Actively detach from anxieties arising from future uncertainties and past regrets. Overcome fear by cultivating inner resilience and trusting in a higher purpose or personal core values. Purify your mind through self-awareness and mindful reflection, letting go of anger and negative thought patterns to foster profound inner peace and mental stability.
❤️ In Relationships
Foster healthier relationships by practicing detachment from expectations and possessiveness, allowing love to flourish freely without fear of loss or abandonment. Resolve conflicts with empathy, patience, and freedom from anger, recognizing the deeper connection with others through understanding and shared human experience, thereby building more authentic and harmonious bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Achieve profound peace and liberation by cultivating detachment from desires, conquering fear and anger through self-knowledge, and taking refuge in the Divine.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.10 वीतरागभयक्रोधाः freed from attachment? fear and anger? मन्मयाः absorbed in Me? माम् Me? उपाश्रिताः taking refuge in? बहवः many? ज्ञानतपसा by the fire of knowledge? पूताः purified? मद्भावम् My Being? आगताः have attained.Commentary When one gets knowledge of the Self? attachment to senseobjects ceases. When he realises he is the constant? indestructible? eternal Self and that change is simply a ality of the body? then he becomes fearless. When he becomes desireless? when he is free from selfishness? when he beholds the Self only everywhere? how can anger arise in himHe who takes refuge in Brahman or the Absolute becomes firmly devoted to Him. He becomes,absorbed in Him (Brahmalina or Brahmanishtha). Jnanatapas is the fire of wisdom. Just as fire burns cotton? so also this Jnanatapas burns all the latent tendencies (Vasanas)? cravings (Trishnas)? mental impressions (Samskaras)? sins and all actions? and purifies the aspirants. (Cf.II.56IV.19to37).
Shri Purohit Swami
4.10 Many have merged their existences in Mine, being freed from desire, fear and anger, filled always with Me and purified by the illuminating flame of self-abnegation.
Dr. S. Sankaranarayan
4.10. Many persons, who are free from passion, fear and anger; are full of Me; take refuge in Me; and have become pure by the austerity of wisdom-they have come to My being.
Swami Adidevananda
4.10 Freed from desire, fear and wrath, absorbed in Me, depending upon Me, purified by the austerity of knowledge, many have attained My state.
Swami Gambirananda
4.10 Many who were devoid of attachment, fear and anger, who were absorbed in Me, who had taken refuge in Me, and were purified by the austerity of Knowledge, have attained My state.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.10।। इस श्लोक में अध्यात्म साधना एवं साध्य दोनों को ही स्पष्टरूप से बताया गया है किसी भी साधक के लिये राग और उसके कार्यों का त्याग किये बिना कोई उन्नति करना संभव नहीं क्योंकि वे सदैव उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं। एक बार मन इनसे उत्पन्न विक्षेपों से रहित होकर शान्त और स्थिरचित्त हो जाता है तब पूर्णत्व की स्थिति उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य होती है जो उसे आगे बढ़ने के लिये उत्साहित करती है। आत्मविकास की इस स्थिति पर पहुँचने पर उस साधक को शास्त्राध्ययन की योग्यता प्राप्त होती है।उपनिषदों में वर्णित आत्मप्राप्ति की साधना इस प्रकार है (क) गुरु के चरणों के पास बैठकर वेदान्त का श्रवण (ख) श्रवण किये हुए विषय पर युक्ति पूर्वक मनन और (ग) इस प्रकार जाने हुए आत्मतत्त्व का निदिध्यासन अर्थात् ध्यान। वेदान्त के सिद्धान्त का अध्ययन और उस ज्ञान के अनुसार जीवन में आचरण करने को ही इस श्लोक में ज्ञानतप कहा गया।कुछ व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में कर्म भक्ति एवं ज्ञान इन तीनों योगों के समुच्चय का उपदेश दिया गया है। कैसे उनके अनुसार कर्मयोग की भावना से अपने कार्य क्षेत्र में कर्म किये बिना राग भय और क्रोध निवृत्ति नहीं हो सकती। मन्मया और मामुपाश्रिता अर्थात् मुझमें स्थित और मेरे शरण हुए इन शब्दों में भक्तियोग का संकेत है क्योंकि ईश्वर की शरण में गया हुआ भक्त भगवान् के साथ में एकरूप हो जाता है। आत्मानात्मविवेक करके आत्मा के साथ तादात्म्य रखने के प्रयत्न को ज्ञानयोग कहते हैं जिसे यहाँ ज्ञानतप कहा गया है। इन सबका निष्कर्ष यह है कि भिन्नभिन्न प्रतीत होने वाले साधना मार्गों का अनुसरण करने पर साघकगण मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं।वास्तव में देखा जाय तो ये समस्त साधनामार्ग मन को साधन सम्पन्न बनाने के लिये ही हैं जिसे शास्त्रीय भाषा में अन्तकरण शुद्धि कहते हैं। हममें से कुछ लोगों का अपनी देह के साथ अत्यधिक तादात्म्य होता है। कुछ व्यक्ति अधिक भावुक होते हैं तो अन्य लोग बुद्धिवादी। इन सबके लिये एक ही प्रकार के साधन का उपदेश करने पर इस बात की सम्भावना रहती है कि उसे सार्वभौमिक स्वीकृति न मिले तथा सबके लिये उसकी उपयोगिता सिद्ध न हो सके।यह स्पष्ट है कि साधना मार्गों में विविधता होने पर भी सभी साधकों का आत्मानुभव एक ही है। यह एक विवादरहित तथ्य है क्योंकि विश्व के आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रत्येक सन्त ने अपने पूर्वकालीन साहित्य से विचारों को लेकर उनकी नयी प्रति प्रस्तुत कर दी हो इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् रागद्वेषवान् हैं क्योंकि वे किसी को मोक्ष प्रदान करते हैं और अन्यों को नहीं। इस पर कहते हैं
Swami Ramsukhdas
4.10।। व्याख्या--'वीतरागभयक्रोधाः'--परमात्मासे विमुख होनेपर नाशवान् पदार्थोंमें 'राग' हो जाता है। रागसे फिर प्राप्तमें 'ममता' और अप्राप्तकी कामना उत्पन्न होती है। रागवाले (प्रिय) पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर तो 'लोभ' होता है, पर उनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचनेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर) 'क्रोध' होता है। यदि बाधा पहुँचानेवाला व्यक्ति अपनेसे अधिक बलवान् हो और उसपर अपना वश न चल सकता हो तथासमयपर वह हमारा अनिष्ट कर देगा--ऐसी सम्भावना हो तो 'भय' होता है। इस प्रकार नाशवान् पदार्थोंके रागसे ही भय, क्रोध, लोभ, ममता, कामना आदि सभी दोषोंकी उत्पत्ति होती है। रागके मिटनेपर ये सभी दोष मिट जाते हैं। पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर, दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवा करनेसे राग मिटता है। कारण कि वास्तवमें पदार्थ और क्रियासे हमारा सम्बन्ध है ही नहीं।अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी भगवान् केवल हमारे कल्याणके लिये ही अवतार लेते हैं। कारण कि वे प्राणीमात्रके परम सुहृद् हैं और उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र जीवोंके कल्याणके लिये ही होती हैं। इस प्रकार भगवान्की परम सुहृत्तापर दृढ़ विश्वास होनेसे भगवान्में आकर्षण हो जाता है। भगवान्में आकर्षण होनेसे संसारका आकर्षण (राग) स्वतः मिट जाता है। जैसे, बचपनमें बालकोंका कंकड़-पत्थरोंमें आकर्षण होता है और उनसे वे खेलते हैं। खेलमें वे कंकड़-पत्थरोंके लिये लड़ पड़ते हैं। एक कहता है कि यह मेरा है और दूसरा कहता है कि यह मेरा है। इस प्रकार गलीमें पड़े कंकड़-पत्थरोंमें ही उन्हें महत्ता दीखती है। परन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं ,तब कंकड़-पत्थरोंमें उनका आकर्षण मिट जाता है और रुपयोंमें आकर्षण हो जाता है। रुपयोंमें आकर्षण होनेपर उन्हें कंकड़पत्थरोंमें अथवा खिलौनोंमें कोई महत्ता नहीं दीखती। ऐसे ही जब मनुष्यकी परमात्मामें लगन लग जाती है तब उसके लिये संसारके रुपये और सब पदार्थ आकर्षक न रहकर फीके पड़ जाते हैं। उसका संसारमें आकर्षण या राग मिट जाता है। राग मिटते ही भय और क्रोध दोनों मिट जाते हैं क्योंकि ये दोनों रागके ही आश्रित रहते हैं।'मन्मयाः'--भगवान्के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेसे मनुष्योंकी भगवान्में प्रियता हो जाती है प्रियता होनेसे वे भगवान्के ही शरण हो जाते हैं और शरण होनेसे वे स्वयं 'मन्मयाः' अर्थात् भगवन्मय हो जाते हैं�� सांसारिक भोगोंमें आकर्षणवाले मनुष्य भोगोंकी कामनाओंमें तन्मय हो जाते हैं--'कामात्मानः' (गीता 2। 43) और भगवान्में आकर्षणवाले मनुष्य भगवान्में तन्मय हो जाते हैं--'तन्मयाः' (नारदभक्तिसूत्र 70)। वे हर समय भगवान्में ही तल्लीन रहते हैं। उनके विचारों, आचरणों आदिमें भगवान्की ही मुख्यता रहती है। प्रेमकी अधिकताके कारण वे भगवत्स्वरूप बन जाते हैं, मानो उनकी अपनी कोई अलग सत्ता ही न हो (टिप्पणी प0 230.1)।'मामुपाश्रिताः'-- 'वीतरागभयक्रोधाः' में संसारसे स्वयंका सम्बन्ध-विच्छेद है और 'मन्मयाः माम् उपाश्रिताः' में भगवान्की तल्लीनता है।किसी-न-किसीका आश्रय लिये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। भगवान्का अंश जीव भगवान्से विमुख होकर दूसरेका आश्रय लेता है तो वह आश्रय टिकता नहीं, प्रत्युत मिटता जाता है। धनादि नाशवान् पदार्थोंका आश्रय पतन करनेवाला होता है। इतना ही नहीं, शुभ-कर्मोंको करनेमें बुद्धिका, भगवत्प्राप्तिके साधनोंका तथा भोग और संग्रहके त्यागका आश्रय लेनेपर भी भगवत्प्राप्तिमें देरी लगती है। जबतक मनुष्य स्वयं (स्वरूपसे) भगवान्के आश्रित नहीं हो जाता, तबतक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है।संसारके पदार्थोंमें मनुष्यका आकर्षण और आश्रय अलग-अलग होता है, जैसे--मनुष्यका आकर्षण तो स्त्री, पुत्र आदिमें होता है और आश्रय बड़ोंका होता है। परन्तु भगवान्में लगे हुए मनुष्यका भगवान्में ही आकर्षण होता है और भगवान्का ही आश्रय होता है; क्योंकि प्रिय-से-प्रिय भी भगवान् हैं और बड़े-से-बड़े भी भगवान् हैं। 'बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः'--यद्यपि ज्ञानयोग-(सांख्यनिष्ठा-) से भी मनुष्य पवित्र हो सकता है, तथापि यहाँ भगवान्के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेको 'ज्ञान' कहा गया है। इस ज्ञानसे मनुष्य पवित्र हो जाता है; क्योंकि भगवान् पवित्रोंसे भी पवित्र हैं-- 'पवित्राणां पवित्रं यः।' भगवान्का ही अंश होनेसे जीवमें भी स्वतःस्वाभाविक पवित्रता है--'चेतन अमल सहज सुख रासी' (मानस 7। 117। 1)। नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे, उनको अपना माननेसे ही यह अपवित्र होता है; क्योंकि नाशवान् पदार्थोंकी ममता ही मल (अपवित्रता) है (टिप्पणी प0 230.2)। भगवान्के जन्म-कर्मके तत्त्वको जाननेसे जब नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण ,उनकी ममता सर्वथा मिट जाती है, तब सब मलिनता नष्ट हो जाती है और मनुष्य परम पवित्र हो जाता है।कर्मयोगका प्रसङ्ग होनेसे उपर्युक्त पदोंमें आये 'ज्ञान' शब्दका अर्थ कर्मयोगका ज्ञान भी माना जा सकता है। कर्मयोगका ज्ञान है-- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पद, योग्यता, अधिकार, धन, जमीन आदि मिली हुई मात्र वस्तुएँ संसारकी और संसारके लिये ही हैं, अपनी और अपने लिये नहीं हैं। कारण कि स्वयं (स्वरूप) नित्य है; अतः उसके साथ अनित्य वस्तु कैसे रह सकती है तथा उसके काम भी कैसे आ सकती है? शरीरादि वस्तुएँ जन्मसे पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरनेके बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है। इन मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग करनेका ही अधिकार है, अपनी माननेका अधिकार नहीं। ये वस्तुएँ संसारकी ही हैं, अतः इन्हें संसारकी ही सेवामें लगाना है। यही इनका सदुपयोग है। इनको अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तवमें बन्धन या अपवित्रता है। इस प्रकार नाशवान् वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानना 'ज्ञानतप' है; जिससे मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। जितने भी तप हैं, उन सबसे बढ़कर 'ज्ञानतप' है। इस ज्ञानतपसे जडके साथ माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद हो जाता है। जबतक मनुष्य जडके साथ अपना सम्बन्ध मानता रहता है, तबतक दूसरी तपस्यासे उसकी उतनी पवित्रता नहीं होती, जितनी पवित्रता ज्ञानतपसे जडका सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे होती है। इस ज्ञानतपसे पवित्र होकर मनुष्य भगवान्के भाव-(सत्ता-) को अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जैसे भगवान् नित्य-निरन्तर रहते हैं, ऐसे वह भी उनमें नित्य-निरन्तर रहता है; जैसे भगवान् निर्लिप्त-निर्विकार रहते हैं, ऐसे वह भी निर्लिप्त-निर्विकार रहता है; जैसे भगवान्के लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, ऐसे ही उसके लिये भी कुछ करना शेष नहीं रहता। ज्ञानमार्गसे भी मनुष्य इसी प्रकार भगवान्के भावको प्राप्त हो जाता है (गीता 14। 19)।पहले भी बहुत-से भक्त ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान्को प्राप्त हो चुके हैं। अतः साधकोंको वर्तमानमें ही ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान्को प्राप्त कर लेना चाहिये। भगवान्को प्राप्त करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं, कोई भी परतन्त्र नहीं है। कारण कि मानव-शरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है। सम्बन्ध-- जन्मकी दिव्यताका वर्णन तो हो गया, अब कर्मोंकी दिव्यता क्या होती है--इस विषयका आरम्भ करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.10।। राग भय और क्रोध से रहित मनमय मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रुप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.10।।सन्ति च तथा मुक्ता इत्याह वीतरागेति। मन्मयाः मत्प्रचुराः सर्वत्र मां विना न किञ्चित्पश्यन्तीत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।4.10।।संप्रति प्रस्तुतमोक्षमार्गस्य नूतनत्वेनाव्यवस्थितत्वमाशङ्क्य परिहरति नैष इति। मन्मयत्वस्य मद्भावगमनेनापौनरुक्त्यं दर्शयति ब्रह्मविद इति। आत्मनो भिन्नत्वेन भिन्नाभिन्नत्वेन वा ब्रह्मणो वेदनं व्यावर्तयति ईश्वरेति। अभेददर्शनेन समुच्चित्य कर्मानुष्ठानं प्रत्याचष्टे मामेवेति। तदुपाश्रयत्वमेवविशदयति केवलेति। मामुपाश्रिता इति केवलज्ञाननिष्ठत्वमुक्त्वा ज्ञानतपसा पूता इति किमर्थं पुनरुच्यते तत्राह इतरेति।
Sri Vallabhacharya
।।4.10।।किञ्च यद्यहं प्राकृतजन्मकर्मा तदा मदुपाश्रयान्न कोऽपि मुक्तः स्यात् दृश्यन्ते तु मुक्त्वा इत्याह वीतेति। मां पूर्णपुरुषोत्तममुपाश्रिता बहवो गोपीकंसचैद्यादयो अमुनाऽवतारेणैव वीतशब्दोऽव्याप्तौ साङ्ख्ये सङ्केतितः तथैव सूत्रंवीतनिवीतपरिचाय्ये इति। एवमाधिव्याप्तरागव्याप्तभयव्याप्तक्रोधव्याप्तास्तत्तदुपाधिकभाववन्तोऽपि तत्तद्दोषशून्याः पूताः साक्षाद्वस्तुसामर्थ्यान्निर्दोषाः अतो ज्ञानेन कीटभृङ्गन्यायेनसोऽस्मि इति भावनया अन्ये क्षात्त्राश्रितास्तपसा वा परेथ पूताः सन्तः तापेन च मन्मया मदाकारमज्जन्मादिना च ज्ञानरूपेण पूता वा प्रारब्धनिर्वाणसमये देहं प्राकृतं त्यक्त्वा लोकातिरिक्तां दिव्यां भागवतीं तनुं प्राप्ता इत्याशयेन मद्भावमागता इति तेषां स्वस्थितावागमनं वक्ति। एवं च बहवो मुक्ता मद्भावमागता दैवा आसुरा विवेकिनश्च निरूपिताः न त्वधुना एवायं प्रवृत्तो मदाश्रयमार्ग इत्यर्थः। एतेन व्यापिवैकुण्ठे मुक्तजीवानां प्राकृतदेहेन्द्रियासुहीनानां दिव्यत्वं बहुत्वं च सूचितं तेनान्ये एकदेशिकपक्षा व्यावर्त्तिताः।
Sridhara Swami
।।4.10।।कथं जन्मकर्मज्ञानेन त्वत्प्राप्तिः स्यादित्यत्राह वीतरागेति। अहं शुद्धसत्त्वावतारैर्धर्मपरिपालनं करोमीति मदीयं परमकारुणिकत्वं ज्ञात्वा वीता विगता रागभयक्रोधा येभ्यस्ते विक्षेपाभावात्। मन्मया मदेकचित्ता भूत्वा मामेवोपाश्रिताः सन्तो मत्प्रसादलभ्यं यदात्मज्ञानं च तपश्च तत्परिपाकहेतुः स्वधर्मस्तयोः। द्वन्द्वैकवद्भावः। तेन ज्ञानतपसा पूताः शुद्धा निरस्ताज्ञानतत्कार्यमलाः सन्तो मद्भावं मत्सायुज्यं प्राप्ता बहवः नत्वधुनैव प्रवृत्तोऽयं मद्भक्तिमार्ग इत्यर्थः। तदेवंतान्यहं वेद सर्वाणि इत्यादिना विद्याविद्योपाधिभ्यां तत्त्वंपदार्थावीश्व रजीवौ प्रदर्श्येश्व रस्य चाविद्याभावेन नित्यशुद्धत्वाज्जीवस्य चेश्व रप्रसादलब्धज्ञानेनाज्ञाननिवृत्तेः शुद्धस्य सतश्चिदंशेन तदैक्यमुक्तमिति द्रष्टव्यम्।