Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 11 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||४-११||
Transliteration
ye yathā māṃ prapadyante tāṃstathaiva bhajāmyaham . mama vartmānuvartante manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ||4-11||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.11 In whatever way men approach Me even so do I reward them; My path do men tread in all ways, O Arjuna.
।।4.11।। जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
The quality of your effort, intention, and ethical conduct in your work directly influences the outcomes you receive—be it financial gain, personal fulfillment, or societal impact. Align your 'how' and 'why' with your desired 'what'.
🧘 For Stress & Anxiety
Your mental approach to challenges determines your resilience and peace of mind. Approaching stress with mindfulness, acceptance, and a problem-solving mindset leads to inner strength and effective solutions, while fear and avoidance perpetuate anxiety.
❤️ In Relationships
The energy and intention you bring to your interactions shape the nature of your relationships. Cultivating empathy, respect, and genuine connection fosters deeper bonds and positive interactions; a self-serving approach yields superficial or problematic results.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The universe responds precisely to your approach and intention; you ultimately create your reality through the path you choose and the purpose you hold.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.11 ये who? यथा in whatever way? माम् Me? प्रपद्यन्ते approach? तान् them? तथा so? एव even? भजामि reward? अहम् I? मम My? वर्त्म path? अनुवर्तन्ते follow? मनुष्याः men? पार्थ O Partha? सर्वशः in all ways.Commentary I reward men by bestowing on them the objects they desire in accordance with their ways and the motives with which they seek Me. If anyone worships Me with selfish motives I grant him the objects he desires. If he worships Me unselfishly for attaining knowledge of the Self? I grant him Moksha or final liberation. I am not at all partial to anyone. (Cf.VII.21andIX.23).
Shri Purohit Swami
4.11 Howsoever men try to worship Me, so do I welcome them. By whatever path they travel, it leads to Me at last.
Dr. S. Sankaranarayan
4.11. The way in which men resort to Me, in the same way I favour them. O son of Prtha, all sorts of men follow the path of Mine.
Swami Adidevananda
4.11 Whoever resortt to Me in any manner, in the same manner do I favour them; men experience Me alone in different ways, O Arjuna.
Swami Gambirananda
4.11 According to the manner in which they approach Me, I favour them in that very manner. O son of Partha, human beings follow My path in every way.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.11।। भगवान् में राग द्वेष आदि की दुर्बलताओं का आरोप उचित नहीं है। वे तो शक्तिपुञ्ज हैं जो समस्त कर्मों एवं उपलब्धियों का मूल है। उस ईश्वर की शक्ति का आह्वान करने के लिये हमें उपाधियाँ दी गयी हैं। बुद्धिमत्ता पूर्वक यदि इन उपाधियों का तथा शक्ति का हम उपयोग करें तो निश्चय ही लक्ष्य को पा सकते हैं अन्यथा वही शक्ति हमारे नाश का कारण बन सकती है।यन्त्रों की सहायता से पेट्रोल की ईन्धन शक्ति को अश्वशक्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। उस परिवर्तित शक्ति का उपयोग करके वाहन द्वारा हम अपने गन्तव्य तक पहुँच सकते हैं अथवा किसी वृक्ष आदि से टक्कर मारकर अपनी हड्डियाँ भी चूरचूर कर सकते हैं इस प्रकार की दुर्घटनायें वाहन चालकों की असावधानी के कारण होती हैं। यद्यपि जिस वेग से वाहन टकराया उस वेग को उसने पेट्रोल से ही प्राप्त किया था। हम यह नहीं कह सकते कि जो लोग लक्ष्य तक पहुँच गये उनके प्रति पेट्रोल को राग था और दुर्घटनाग्रस्त लोगों से द्वेष। बिना किसी पक्षपात के पेट्रोल अपनी शक्ति प्रदान करता है परन्तु यन्त्रों द्वारा उसका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करना हमारी अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है। यही बात विद्युत् शक्ति के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिये। विद्युत् की अभिव्यक्ति विभिन्न उपकरणों में विभिन्न प्रकार से होती है वह उन सब उपकरणों का गुण धर्म है और न कि विद्युत शक्ति का।इसी प्रकार भगवान् यहाँ कहते हैं जो मुझे जैसा भजते हैं मैं उन पर वैसी ही कृपा करता हूँ। जिस रूप में हम ईश्वर का आह्वान करेंगे उसी रूप में वे हमारी इच्छा को पूर्ण करेंगे।यदि भगवान् पक्षपातादि अवगुणों से सर्वथा मुक्त हैं तो उनकी कृपा सब पर एक समान ही होगी फिर सामान्य मनुष्य भगवान् की शरण में न जाकर अन्य विषयों की ही क्यों इच्छा करते हैं इस प्रश्न का उत्तर है
Swami Ramsukhdas
4.11।। व्याख्या--'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्'--भक्त भगवान्की जिस भावसे, जिस सम्बन्धसे, जिस प्रकारसे शरण लेता है, भगवान् भी उसे उसी भावसे, उसी सम्बन्धसे, उसी प्रकारसे आश्रय देते हैं। जैसे, भक्त भगवान्को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानता है तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं, पुत्र मानता है तो वे श्रेष्ठ पुत्र बन जाते हैं, भाई मानता है तो वे श्रेष्ठ भाई बन जाते हैं, सखा मानता है तो वे श्रेष्ठ सखा बन जाते हैं, नौकर मानता है तो वे श्रेष्ठ नौकर बन जाते हैं। भक्त भगवान्के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान् भी भक्तके बिना व्याकुल हो जाते हैं।अर्जुनका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति सखाभाव था तथा वे उन्हें अपना सारथि बनाना चाहते थे; अतः भगवान् सखाभावसे उनके सारथि बन गये। विश्वामित्र ऋषिने भगवान् श्रीरामको अपना शिष्य मान लिया तो भगवान् उनके शिष्य बन गये। इस प्रकार भक्तोंके श्रद्धाभावके अनुसार भगवान्का वैसा ही बननेका स्वभाव है।अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी भगवान् भी अपने ही बनाये हुए साधारण मनुष्योंके भावोंके अनुसार बर्ताव करते हैं, यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता, दयालुता और अपनापन है? भगवान् विशेषरूपसे भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं--ऐसा प्रस्तुत प्रकरणसे सिद्ध होता है। भक्तलोग जिस भावसे, जिस रूपमें भगवान्की सेवा करना चाहते हैं ,भगवान्को उनके लिये उसी रूपमें आना पड़ता है। जैसे, उपनिषद्में आया है--'एकाकी न रमते' (बृहदारण्यक0 1। 4। 3)--अक���ले भगवान्का मन नहीं लगा, तो वे ही भगवान् अनेक रूपोंमें प्रकट होकर खेल खेलने लगे। ऐसे ही जब भक्तोंके मनमें भगवान्के साथ खेल खेलनेकी इच्छा हो जाती है, तब भगवान् उनके साथ खेल खेलने-(लीला करने-) के लिये प्रकट हो जाते हैं। भक्त भगवान्के बिना नहीं रह सकता तो भगवान् भी भक्तके बिना नहीं रह सकते। यहाँ आये ''यथा' और 'तथा'--इन प्रकारवाचक पदोंका अभिप्राय 'सम्बन्ध', 'भाव' और 'लगन' से है। भक्त और भगवान्का प्रकार एक-सा होनेपर भी इनमें एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि भगवान् भक्तकी चालसे नहीं चलते, प्रत्युत अपनी चाल-(शक्ति-) से चलते हैं (टिप्पणी प0 232.1)। भगवान् सर्वत्र विद्यमान, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, परम सुहृद् और सत्यसंकल्प हैं। भक्तको केवल अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है, फिर भगवान् भी अपनी पूरी शक्तिसे उसे प्राप्त हो जाते हैं।भगवत्प्राप्तिमें बाधा साधक स्वयं लगाता है क्योंकि भगवत्प्राप्तिके लिये वह समझ, सामग्री, समय और सामर्थ्यको अपनी मानकर उन्हें पूरा नहीं लगाता, प्रत्युत अपने पास बचाकर रख लेता है। यदि वह उन्हें अपना न मानकर उन्हें पूरा लगा दे तो उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है। कारण कि यह समझ, सामग्री आदि उसकी अपनी नहीं हैं; प्रत्युत भगवान्से मिली हैं; भगवान्की हैं। अतः इन्हें अपनी मानना ही बाधा है। साधक स्वयं भी भगवान्का ही अंश है। उसने खुद अपनेको भगवान्से अलग माना है, भगवान्ने नहीं। भक्ति (प्रेम) कर्मजन्य अर्थात् किसी साधन-विशेषका फल नहीं है। भगवान्के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्त होती है। दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है। यहाँ भगवान् मानो इस बातको कह रहे हैं कि तुम अपना सब कुछ मुझे दे दोगे तो मैं भी अपना सब कुछ तुम्हें दे दूँगा और तुम अपने-आपको मुझे दे दोगे तो मैं भी अपने-आपको तुम्हें दे दूँगा। भगवत्प्राप्तिका कितना सरल और सस्ता सौदा हैअपने-आपको भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान् भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते। वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं--रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।(मानस 1। 29। 3)इस (ग्यारहवें) श्लोकमें द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण, सायुज्य-सामीप्य आदि शास्त्रीय विषयका वर्णन नहीं है, प्रत्युत भगवान्से अपनेपनका ही वर्णन है। जैसे, नवें श्लोकमें भगवान्के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेसे भगवत्प्राप्ति होनेका वर्णन है। 'केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ'-- इस प्रकार भगवान्में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमतासेहो जाती है। अतः साधकको केवल भगवान्में ही अपनापन मान लेना चाहिये (जो वास्तवमें है), चाहे समझमें आये अथवा न आये। मान लेनेपर जब संसारके झूठे सम्बन्ध भी सच्चे प्रतीत होने लगते हैं, फिर जो भगवान्का सदासे ही सच्चा सम्बन्ध है, वह अनुभवमें क्यों नहीं आयेगा? अर्थात् अवश्य आयेगा। शङ्का--जो भगवान्को जिस भावसे स्वीकार करते हैं, भगवान् भी उनसे उसी भावसे बर्ताव करते हैं, तो फिर यदि कोई भगवान्को द्वैष, वैर आदिके भावसे स्वीकार करेगा तो क्या भगवान् भी उससे उसी (द्वेष आदिके) भावसे बर्ताव करेंगे? समाधान-- यहाँ 'प्रपद्यन्ते' पदसे भगवान्की प्रपत्ति अर्थात् शरणागतिका ही विषय है; उनसे द्वेष, वैर आदिका विषय नहीं। अतः यहाँ इस विषयमें शङ्का ही नहीं उठ सकती। फिर भी इसपर थोड़ा विचार करें तो भगवान्के स्वीकार करनेका तात्पर्य है--कल्याण करना। जो भगवान्को जिस भावसे स्वीकार करता है, भगवान् भी उससे वैसा ही आचरण करके अन्तमें उसका कल्याण ही करते हैं (टिप्पणी प0 232.2)। भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं (गीता 5। 29)। इसलिये जिसका जिसमें हित होता है, भगवान् उसके लिये वैसा ही प्रबन्ध कर देते हैं। वैर-द्वेष रखनेवालोंका भी जिससे कल्याण हो जाय, वैसा ही भगवान् कहते हैं। [वैरद्वेष रखनेवाले भगवान्का बिगाड़ भी क्या कर लेंगे?] अंगदजीको रावणकी सभामें भेजते समय भगवान् श्रीराम कहते हैं कि वही बात कहना, जिससे हमारा काम भी हो और रावणका हित भी हो --'काजु हमार तासु हित होई' (मानस 6। 17। 4)। भगवान्की सुहृत्ताकी तो बात ही क्या, भक्त भी समस्त प्राणियोंके सुहृद् होते हैं--'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)। जब भक्तोंसे भी किसीका किञ्चिन्मात्र भी अहित नहीं होता, तब भगवान्से किसीका अहित हो ही कैसे सकता है? भगवान्से किसी प्रकारका भी सम्बन्ध जोड़ा जाय, वह कल्याण करनेवाला ही होता है; क्योंकि भगवान् परम दयालु, परम सुहृद् और चिन्मय हैं। जैसे गङ्गामें स्नान वैशाख मासमें किया जाय अथवा माघ मासमें, दोनोंका ही माहात्म्य एक समान है। परन्तु वैशाखके स्नानमें जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता माघके स्नानमें नहीं होती। इसी प्रकार भक्ति-प्रेमपूर्वक भगवान्से सम्बन्ध जोड़नेवालोंको जैसा आनन्द होता है, वैसा आनन्द वैर-द्वेषपूर्वक भगवान्से सम्बन्ध जोड़ने-वालोंको नहीं होता। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः--श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी उसीके अनुसार आचरण करने लग जाते हैं (गीता 3। 21)। भगवान् सबसे श्रेष्ठ (सर्वोपरि) हैं, इसलिये सभी लोग उनके मार्गका अनुसरण करते हैं तीसरे अध्यायमें तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें भी यही बात (उपर्युक्त पदोंसे ही) कही गयी है। साधक भगवान्के साथ जिस प्रकारका सम्बन्ध मानता है भगवान् उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध माननेके लिये तैयार रहते हैं। महाराज दशरथजी भगवान् श्रीरामको पुत्रभावसे स्वीकार करते हैं, तो भगवान् उनके सच्चे पुत्र बन जाते हैं और सामर्थ्यवान् होकर भी 'पिता' दशरथजीके वचनोंको टालनेमें अपनेको असमर्थ मानते हैं (टिप्पणी प0 233)। इस प्रकारके आचरणोंसे भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि यदि तुम्हारी संसारमें किसीके साथ सम्बन्धके नाते प्रियता हो तो वही सम्बन्ध तुम मेरे साथ कर लो, जैसे--मातामें प्रियता हो तो मेरेको अपनी माता मान लो, पितामें प्रियता हो तो मेरेको अपना पिता मान लो; पुत्रमें प्रियता हो तो मेरेको अपना पुत्र मान लो, आदि। ऐसा माननेसे मेरेमें वास्तविक प्रियता हो जायगी और मेरी प्राप्ति सुगमता-पूर्वक हो जायगी।दूसरी बात, भगवान् अपने आचरणोंसे यह शिक्षा देते हैं कि जिस प्रकार मेरे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, उसके लिये मैं भी वैसा ही बन जाता हूँ, उसी प्रकार तुम्हारे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, तुम भी उसके लिये वैसे ही बन जाओ; जैसे--माता-पिताके लिये तुम सुपुत्र बन जाओ पत्नीके लिये तुम सुयोग्यपति बन जाओ, बहनके लिये तुम श्रेष्ठ भाई बन जाओ, आदि। परन्तु बदलेमें उनसे कुछ चाहो मत; जैसे--कुछ लेनेकी इच्छासे माता-पिताको अपने न मानकर केवल सेवा करनेके लिये ही उन्हें अपने मानो। ऐसा मानना ही भगवान्के मार्गका अनुसरण करना है। अभिमानरहित होकर निःस्वार्थभावसे दूसरेकी सेवा करनेसे शीघ्र ही दूसरेकी ममता छूटकर भगवान्में प्रेम हो जायगा, जिससे भगवान्की प्राप्ति हो जायगी।विशेष बातअहंकार-रहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान्की तरफ चला जाता है। कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है। इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है। प्रेमभाव व्यापक होनेपर उसके माने हुए सभी बनावटी सम्बन्ध मिट जाते हैं और भगवान्का स्वाभाविक नित्य-सम्बन्ध जाग्रत् हो जाता है। जीवमात्रका परमात्माके साथ स्वतः नित्य-सम्बन्ध है (गीता 15। 7)। परन्तु ज��तक जीव इस सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरा सम्बन्ध जोड़ लेता है, तबतक वह जन्म-मरणके बन्धनमें पड़ा रहता है। उसका यह बन्धन दो ओरसे होता है--एक तो वह भगवान्के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरे, जिसके साथ वास्तवमें अपना सम्बन्ध है नहीं, उसके सम्बन्धको नित्य मान लेता है। जब जीव 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते' के अनुसार अपना सम्बन्ध केवल भगवान्से मान लेता है अर्थात् पहचान लेता है, तब उसे भगवान्से अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है।भगवान्के नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान्के शरण होना है। शरण होनेपर भक्त निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशङ्क हो जाता है। फिर उसके द्वारा भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध कोई क्रिया कैसे हो सकती है? उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्के आज्ञानुसार ही होती हैं--'मम वर्त्मानुवर्तन्ते'। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया कि जो मुझे जिस भावसे स्वीकार करता है, मैं भी उसे उसी भावसे स्वीकार करता हूँ अर्थात् मेरी प्राप्ति बहुत सरल और सुगम है। ऐसा होनेपर भी लोग भगवान्का आश्रय क्यों नहीं लेते--इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।4.11।। जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.11।।न च मद्भजनमात्रेण मुक्तिर्भवत्यन्यदेवतारूपेण तथापि सर्वेषामानुरूप्येण फलं ददामीत्याह येयथेति। सेवयामि फलदानेन न तु गुणभावेन। कथमयं विशेषः इत्यत आह मम वर्त्मेति। अन्यदेवता यजन्तोऽपि मम वर्त्मैवानुवर्तन्ते। सर्वकर्मकर्तृत्वात् भोक्तृत्वाच्च मम।येऽप्यन्यदेवताभक्ताः 9।23 इति वक्ष्यति। यो देवानां नामधा एक एव ऋक्सं.8।3।17।3 इति श्रुतिः। भगवानेव च तत्राभिधीयते। अजस्य नाभावध्येकमर्पितम् ऋक्सं.8।3।17।6 इति तल्लिङ्गात्।
Sri Anandgiri
।।4.11।।ईश्वरः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो मोक्षं प्रयच्छति चेत्प्रागुक्तविशेषणवैयर्थ्यं यदि तु केभ्यश्चिदेव मोक्षं प्रयच्छेत्तर्हि तस्य रागादिमत्त्वादनीश्वरत्वापत्तिरिति शङ्कते तव तर्हीति। ये मुमुक्षवस्तेभ्यो मोक्षमीश्वरो ज्ञानसंपादनद्वारा प्रयच्छति फलान्तरार्थिभ्यस्तु तत्तदुपायानुष्ठानेन तत्तदेव ददातीति नास्य रागद्वेषाविति परिहरति उच्यत इति। मुमुक्षूणामीश्वरानुसारित्वेऽपि फलान्तरार्थिनां कुतस्तदनुसारित्वमित्याशङ्क्यफलमत उपपत्ते रिति न्यायेन तत्फलस्येश्वरायत्तत्वात्तदनुवर्तित्वमावश्यकमित्याह ममेति। भगवद्वचनभागिनां सर्वेषामेव कैवल्यमेकरूपं किमिति नानुगृह्यते तत्राह तेषामिति। अभ्युदयनिःश्रेयसार्थित्वं प्रार्थनावैचित्र्यादेकस्यैव किं न स्यादित्याशङ्क्य पर्यायेण तदनुपपत्तिं साधयति नहीति। मुमुक्षूणां फलार्थिनां च विभागे स्थिते सत्यनुग्रहविभागं फलितमाह अत इति। फलप्रदानेनानुगृह्णामीति संबन्धः। नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठायिनामेव फलार्थित्वाभावे सति मुमुक्षुत्वे कथं तेष्वनुग्रहः स्यादिति तत्राह ये यथोक्तेति। ज्ञानप्रदानेन भजामीत्युत्तरत्र संबन्धः। सन्ति केचित्त्यक्तसर्वकर्माणो ज्ञानिनो मोक्षमेवापेक्ष्यमाणास्तेष्वनुग्रहप्रकारं प्रकटयति ये ज्ञानिन इति। केचिदार्ताः सन्तो ज्ञानादिसाधनान्तररहिता भगवन्तमेवार्तिमपहर्तुमनुवर्तन्ते तेषु भगवतोऽनुग्रहविशेषं दर्शयति तथेति। पूर्वार्धव्याख्यानमुपसंहरति इत्येवमिति। भगवतोऽनुग्रहे निमित्तान्तरं निवारयति न पुनरिति। फलार्थित्वे मुमुक्षुत्वे च जन्तूनां भगवदनुसरणमावश्यकमित्युत्तरार्धं विभजते सर्वथापीति। सर्वावस्थत्वं तेन तेनात्मना परस्यैवेश्वरस्यावस्थानं मार्गो ज्ञानकर्मलक्षणः। मनुष्यग्रहणादितरेषामीश्वरमार्गानुवर्तित्वपर्युदासः स्यादित्याशङ्क्याह यत्फलेति। सर्वप्रकारैर्मम मार्गमनुवर्तन्त इति पूर्वेण संबन्धः।
Sri Vallabhacharya
।।4.11।।ननु तर्हि त्वय्यपि वैषम्यं यस्मादेवमुपाश्रितानामेवात्मभावं ददासि नान्येषामिति तत्राह ये यथेति। ये यादृशा अधिकारिणः पुष्टिप्रवाहमर्यादामार्गीयाः येन येन प्रकारेण सकामतया निष्कामतया वा मां प्रपद्यन्ते आश्रयन्ते तानहं तथैव भजाम्यनुकरोमि।तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः इतिन्यायेनाङ्गीकरोमि कल्पतरुवत्। न तु सकामा ये मां विहायेन्द्रादीनेव यजन्ते तानहमुपेक्षे इति मन्तव्यं यतः सर्वशः सर्वप्रकारैर्देवान्तरभजनभेदैर्मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते। न तु मामेवाऽथापि। तत्तद्रूपेण ममैव सेव्यत्वश्रवणात् तथा तेषामविवेकतो भजनं न साधु वस्तुविमर्शे तन्ममैवायाति तदंशित्वात्। वक्ष्यते च येऽप्यन्यदेवताभक्ताः 9।3 इत्यादिना।
Sridhara Swami
।।4.11।।ननु तर्हि किं त्वय्यपि वैषम्यमस्ति यस्मादेवं त्वदेकशरणानामेवात्मभावं ददासि नान्येषां सकामानामित्यत आह ये यथेति। यथा येन प्रकारेण सकामतया निष्कामतया वा ये मां भजन्ति तानहं तथैव तदपेक्षितफलदानेन भजाम्यनुगृह्णामि नतु ये सकामा मां विहायेन्द्रादीनेव भजन्ते तानहमुपेक्ष इति मन्तव्यम्। यतः सर्वशः सर्वप्रकारैरिन्द्रादिसेवका अपि ममैव वर्त्म भजनमार्गमनुवर्तन्ते। इन्द्रादिरूपेणापि ममैव सेव्यत्वात्।