Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 9 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Divine Transcendence

Sanskrit Shloka (Original)

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||४-९||

Transliteration

janma karma ca me divyamevaṃ yo vetti tattvataḥ . tyaktvā dehaṃ punarjanma naiti māmeti so.arjuna ||4-9||

Word-by-Word Meaning

जन्मbirth
कर्मaction
and
मेMy
दिव्यम्divine
एवम्thus
यःwho
वेत्तिknows
तत्त्वतःin true light
त्यक्त्वाhaving abandoned
देहम्the body
पुनःagain
जन्मbirth
नःnot
एतिgets
माम्to Me
एतिcomes
सःhe
अर्जुनO Arjuna.Commentary The Lord

📖 Translation

English

4.9 He who thus know, in their true light, My divine birth and action, having abandoned the body, is not born again, he comes to Me, O Arjuna.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।4.9।। हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,  इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत:  जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach your work with dedication, but cultivate detachment from the outcomes. Understand that your 'actions' (projects, roles) are part of a larger purpose, and true success lies in the intention and effort, not just the material result. This prevents burnout and reduces anxiety over job security or promotions, allowing for a more engaged and fulfilling work life.

🧘 For Stress & Anxiety

Recognize that life's 'births' (new beginnings, challenges) and 'actions' (efforts, failures) are part of a grand, divinely orchestrated play, not solely personal burdens. This perspective fosters detachment from the need to control every outcome, reducing stress, anxiety, and the fear of failure. It cultivates an inner peace by knowing your true self is beyond these temporary circumstances.

❤️ In Relationships

View your interactions and connections as opportunities to recognize the divine essence in others, rather than solely as sources of personal gratification or obligation. This fosters unconditional love, reduces possessiveness and expectations, and helps navigate conflicts by seeing beyond superficial roles and understanding the impermanence of ego-driven dynamics.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Understanding the transcendent, divine nature of existence and action liberates one from the cycle of worldly entanglement, leading to ultimate freedom and union with the Divine.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

4.9 जन्म birth? कर्म action? च and? मे My? दिव्यम् divine? एवम् thus? यः who? वेत्ति knows? तत्त्वतः in true light? त्यक्त्वा having abandoned? देहम् the body? पुनः again? जन्म birth? नः not? एति gets? माम् to Me? एति comes? सः he? अर्जुन O Arjuna.Commentary The Lord? though apparently born? is always beyond birth and death though apparently active for firmly establishing righteousness? He is ever beyond all actions. He who knows this is never born again. He attains knowledge of the Self and becomes liberated while living.The birth of the Lord is an illusion. It is Aprakrita (beyond the pale of Nature). It is divine. It is peculiar to the Lord. Though He appears in human form? His body is Chinmaya (full of consciousness? not inert matter as are human bodies composed of the five elements).

Shri Purohit Swami

4.9 He who realises the divine truth concerning My birth and life is not born again; and when he leaves his body, he becomes one with Me.

Dr. S. Sankaranarayan

4.9. Whosoever knows thus correctly the divine birth and action of Mine, he, on abandoning the body does not go to rirth, [but] goes to Me, O Arjuna !

Swami Adidevananda

4.9 He who thus knows in truth My divine birth and actions does not get rirth after leaving the body; he will come to Me, O Arjuna.

Swami Gambirananda

4.9 He who thus knows truly the divine birth and actions of Mine does not get rirth after casting off the body. He attains Me, O Arjuna.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।4.9।। अवतार कैसे होता है तथा उसका प्रयोजन भी बताने के पश्चात् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि जो पुरुष उनके दिव्य जन्म और कर्म को तत्त्वत जानता है वह सब बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मस्वरूप बन जाता है। तत्त्वत शब्द से यह स्पष्ट किया गया है कि इसे केवल बुद्धि के स्तर पर जानना नहीं है वरन् यह अनुभव करना है कि अपने ही हृदय में किस प्रकार परमात्मा का अवतरण होता है। आज निसन्देह ही हम एक पशु के समान जी रहे हैं परन्तु जब कभी हम निस्वार्थ इच्छा से प्रेरित हुए कर्म करते हैं उस समय परमात्मा की ही दिव्य क्षमता हमारे कर्मों में झलकती है।इस श्लोक में सूक्ष्म संकेत यह भी है कि आत्मविकास के लिये भगवान् के आनन्दरूप की उपासना करना निराकार आत्मा के ध्यान के समान ही प्रभावकारी है। कुछ वेदान्त विचारक ऐसे भी हैं जो भगवान् के सगुणसाकार होने की कल्पना को स्वीकार नहीं करते। अत वे अवतार को भी नहीं मानते। वास्तव में यह युक्तियुक्त नहीं है। पूरी लगन से जो पुरुष साधना करता है वह सगुण अथवा निर्गुण उपासना के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।यहाँ उस पूर्णत्व की स्थिति का संकेत किया गया है जिसे प्राप्त करके जीव का पुनर्जन्म नहीं होता। वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर इसका संकेत अमृतत्त्व शब्द से किया गया है तो दूसरे स्थानों पर पुनर्जन्म के अभाव के रूप में। ऐसा प्रतीत होता है मानो पहले लोग मृत्यु से डरते थे इसलिये पूर्णत्व की स्थिति मे उसका अभाव बताया गया है। अन्य विचारकों ने यह अनुभव किया होगा कि मृत्यु से अधिक दुखदायी जन्म है क्योकि उसके पश्चात् दुखों की एक शृंखला प्रारम्भ हो जाती है। अत मोक्ष का लक्षण पुनर्जन्म का अभाव कहा गया है।जिनका जन्म होता हैउसी का नाश भी होता है इस कारण अमृतत्त्व और पुनर्जन्म के अभाव से पूर्णत्व की स्थिति का ही संकेत किया गया है। तथापि दूसरे शब्द से विचारकों की परिपक्वता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।यह मोक्षमार्ग केवल वर्तमान में ही प्रवृत्त नहीं हुआ बल्कि प्राचीनकाल में भी अनेक साधकों ने इसका अनुसरण किया था राग भय और क्रोध से रहित मन्मय (मेरे में स्थिति वाले) मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त

Swami Ramsukhdas

4.9।। व्याख्या--'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'--भगवान् जन्म-मृत्युसे सर्वथा अतीत--अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका मनुष्यरूपमें अवतार साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता। वे कृपापूर्वक मात्र जीवोंका हित करनेके लिये स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्य आदिके रूपमें जन्म-धारणकी लीला करते हैं। उनका जन्म कर्मोंके परवश नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही शरीर धारण करते हैं (टिप्पणी प0 226)।भगवान्का साकार विग्रह जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका नहीं होता। जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, अनित्य, रोगग्रस्त, लौकिक, विकारी, पाञ्चभौतिक और रज-वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले होते हैं, पर भगवान्के विग्रह पाप-पुण्यसे रहित, नित्य, अनामय, अलौकिक, विकाररहित, परम दिव्य और प्रकट होनेवाले होते हैं। अन्य जीवोंकी अपेक्षा तो देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान्का शरीर उनसे भी अत्यन्त विलक्षण होता है, जिसका देवतालोग भी सदा ही दर्शन चाहते रहते हैं (गीता 11। 52)।भगवान् जब श्रीराम तथा श्रीकृष्णके रूपमें इस पृथ्वीपर आये तब वे माता कौसल्या और देवकीके गर्भसे उत्पन्न नहीं हुए। पहले उन्हें अपने शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी स्वरूपका दर्शन देकर फिर वे माताकी प्रार्थनापर बालरूपमें लीला करने लगे। भगवान् श्रीरामके लिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं--         भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।         हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।             लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।         भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।         माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।         कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।        सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।भगवान् श्रीकृष्णके लिये आया है       उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।       शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्।।(श्रीमद्भा0 10। 3। 30)माता देवकीने कहा--'विश्वात्मन् ! शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मकी शोभासे युक्त इस चार भुजाओंवाले अपने अलौकिक दिव्य रूपको अब छिपा लीजिये!' तब भगवान्ने माता-पिताके देखते-देखते अपनी मायासे तत्काल एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया-- 'पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः।।' (श्रीमद्भा0 10। 3। 46) जब भगवान् श्रीराम अपने धाम पधारने लगे, तब वे अन्तर्धान हुए। जीवोंके शरीरों���ी तरह उनका शरीर यहाँ नहीं रहा, प्रत्युत वे इसी शरीरसे अपने धाम चले गये--     पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्चित्य महामतिः।     विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः।।(वाल्मीकिरामायण उत्तर0 110। 12)'महामति भगवान् श्रीरामने पितामह ब्रह्माजीके वचन सुनकर और तदनुसार निश्चय करके तीनों भाइयोंसहित अपने उसी शरीरसे वैष्णव तेजमें प्रवेश किया।' भगवान् श्रीकृष्णके लिये भी ऐसी ही बात आयी है-- 'लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम्।' योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्।।(श्रीमद्भा0 11। 31। 6)'धारणा और ध्यानके लिये अति मङ्गलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्तिको योगधारणाजनित अग्निके द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान्ने अपने धाममें सशरीर प्रवेश किया।' भगवान्के विग्रह-(दिव्य शरीर-) के विषयमें महामुनि वाल्मीकिजी भगवान् श्रीरामसे कहते हैं--चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।। नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।(मानस 2। 127। 3)एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठधाममें जा रहे थे। वहाँ भगवान्के द्वारपालोंने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब सनकादिने उन्हें शाप दे दिया। अपने अनुचरोंके द्वारा सनकादिका अपमान हुआ जानकर भगवान् स्वयं वहाँ पधारे। उस समय भगवान्का दर्शन करनेसे उनकी बड़ी विलक्षण दशा हुई। उन्होंने भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया-- तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द       किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः।। अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां       संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः।।(श्रीमद्भा0 3। 15। 43)'प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान्के चरण-कमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मञ्जरीकी वायुने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया।' शब्दादि विषयोंमें गंध कोई इतनी विलक्षण चीज नहीं है, जिसमें मन आकृष्ट हो जाय। पर भगवान्के चरण-कमलोंकी गंधसे नित्य-निरन्तर परमात्म-स्वरूपमें मग्न रहनेवाले सनकादिकोंके चित्तमें भी खलबली पैदा हो गयी। कारण कि वह पृथ्वीकी विकाररूप गंध नहीं थी, प्रत्युत दिव्य गंध थी। ऐसे ही भगवान्के विग्रहकी प्रत्येक वस्तु (वस्त्र, आभूषण, आयुध आदि) दिव्य, चिन्मय और अत्यन्त विलक्षण है।भगवान्की लीलाओंको सुनने, पढ़ने, याद करने आदिसे लोगोंका अन्तःकरण निर्मल, पवित्र हो जाता है और उनका अज्ञान दूर हो जाता है --यह भगवान्के कर्मोंकी दिव्यता है। ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर, ब्रह्माजी, सनकादिक ऋषि, देवर्षि नारद आदि भी उनकी लीलाओंको गाकर और सुनकर मग्न हो जाते हैं। भगवान्के अवतारके जो लीला-स्थल हैं, उन स्थानोंमें आस्तिकभावसे, श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निवास करनेसे एवं उनका दर्शन करनेसे भी मनुष्यका कल्याण हो जाता है। तात्पर्य है कि भगवान् मात्र जीवोंका कल्याण करनेके उद्देश्यसे ही अवतार लेते हैं और लीलाएँ करते हैं; अतः उनकी लीलाओंको पढ़ने-सुननेसे, उनका मनन-चिन्तन करनेसे स्वाभाविक ही उस उद्देश्यकी सिद्धि हो जाती है।चौथे श्लोकमें अर्जुनने भगवान्से केवल उनके 'जन्म' के विषयमें पूछा था; परन्तु यहाँ भगवान्ने अर्जुनके पूछे बिना अपनी तरफसे 'कर्म' के विषयमें कहना आरम्भ कर दिया! इसमें भगवान्का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जैसे मेरे कर्म दिव्य हैं, वैसे तुम्हारे कर्म भी दिव्य होने चाहिये। कारण कि मनुष्यका जन्म तो दिव्य नहीं हो सकता, पर उसके कर्म अवश्य दिव्य हो सकते हैं; क्योंकि उसीके लिये उसका जन्म हुआ है। कर्मोंमें दिव्यता (शुद्धि) योगसे आती है। जो कर्म बाँधनेवाले होते हैं, उनमें दिव्यता आनेसे वे ही कर्म मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं। कर्म दिव्य (फलेच्छा, ममता-आसक्तिसे रहित) होनेपर कर्ता एक तो उन कर्मोंसे बँधतानहीं; दूसरे, वह पुराने कर्मोंसे भी नहीं बँधता--मुक्त हो जाता है; और तीसरे, उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे दूसरोंका भी हित स्वतः होता रहता है।गम्भीरतापूर्वक विचार करके देखें तो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही कर्मोंमें मलिनता आती है और वे बाँधनेवाले होते हैं। विनाशीसे अपना सम्बन्ध माननेसे अन्तःकरण, कर्म और पदार्थ--तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जानेसे ये तीनों स्वतः पवित्र हो जाते हैं। अतः विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध ही मूल बाधा है।'एवं यो वेत्ति तत्त्वतः'--अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा प्राणिमात्रका ईश्वर होते हुए भी भगवान् मात्र जीवोंके हितके लिये अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वतन्त्रतापूर्वक युग-युगमें मनुष्य आदिके रूपमें अवतार लेते हैं--इस तत्त्वको जानना अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानना भगवान्के जन्मोंकी दिव्यताको जानना है। सम्पूर्ण क्रियाओँको करते हुए भी भगवान् अकर्ता ही हैं अर्थात् उनमें करनेका अभिमान नहीं है (गीता 4। 13) और किसी भी कर्मफलमें उनकी स्पृहा (फलेच्छा) नहीं है (गीता 4। 14)--इस तत्त्वको जानना भगवान्के कर्मोंकी दिव्यताको जानना है।जैसे भगवान्के जन्ममें स्वाभाविक ही मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्तता है ,ऐसे ही मनुष्यमें भी मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्तता आ जाना ही वास्तवमें भगवान्के जन्म और कर्मके तत्त्वको जानना है। 'त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति'--भगवान्को त्रिलोकीमें न तो कुछ करना शेष है और न कुछ पाना ही शेष है (गीता 3। 22)। फिर भी वे केवल जीवमात्रका उद्धार करनेके लिये कृपापूर्वक इस भूमण्डलपर अवतार लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं। उन लीलाओंको गानेसे, सुननेसे, पढ़नेसे और उनका चिन्तन करनेसे भगवान्के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। भगवान्से सम्बन्ध जुड़नेपर संसारका सम्बन्ध छूट जाता है। संसारका सम्बन्ध छूटनेपर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मनुष्य जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जाता है। वास्तवमें कर्म बन्धनकारक नहीं होते। कर्मोंमें जो बाँधनेकी शक्ति है, वह केवल मनुष्यकी अपनी बनायी हुई (कमाना) है। कामनाकी पूर्तिके लिये रागपूर्वक अपने लिये कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँध जाता है। फिर ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है त्यों-त्यों वह पापोंमें प्रवृत्त होने लगता है इस प्रकार उसके कर्म अत्यन्त मलिन हो जाते हैं, जिससे वह बारंबार नीच योनियों और नरकोंमें गिरता रहता है। परन्तु जब वह केवल दूसरोंकी सेवाके लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तब उसके कर्मोंमें दिव्यता, विलक्षणता आती चली जाती है। इस प्रकार कामनाका सर्वथा नाश होनेपर उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं ,अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते; फिर उसके पुनर्जन्मका प्रश्न ही नहीं रहता।'मामेति सोऽर्जुन'--नाशवान् कर्मोंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण नित्यप्राप्त परमात्मा भी अप्राप्त प्रतीत होते हैं। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करनेसे मात्र कर्मोंका प्रवाह केवल संसारकी तरफ हो जाता है और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है। जीवोंपर महान् कृपा ही भगवान्के जन्ममें कारण है--इस प्रकार भगवान्के जन्मकी दिव्यताको जाननेसे मनुष्यकी भगवान्में भक्ति हो जाती है (टिप्पणी प0 228)। भक्तिसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। भगवान्के कर्मोंकी दिव्यताको जाननेसे मनुष्यके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं अर्थात् वे बन्धनकारक न होकर खुदका और दूसरोंका कल्याण करनेवाले हो जाते हैं, जिससे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक भगवान्की प्राप्ति हो जातीहै।मार्मिक बातसम्पूर्ण कर्म आरम्भ और समाप्त होनेवाले हैं (और कर्मके फलस्वरूप जो कुछ प्राप्त होता है, वह भी अनित्य और नाशवान् हो���ा है); परन्तु स्वयं (जीवात्मा) नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। अतः वास्तवमें स्वयंका कर्मोंके साथ कोई सम्बन्ध है नहीं, प्रत्युत माना हुआ है। अतः सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी उनके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं--ऐसा अनुभव करे तो उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं--यह कर्मोंका तत्त्व है। यही कर्मयोग है क्रियाशील प्रकृतिके साथ तादात्म्य होनेके कारण मनुष्यमात्रमें कर्म करनेका वेग रहता है। वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता (गीता 3। 5)। संसारमें वह देखता है कि कर्म करनेसे ही सिद्धि (वस्तुकी प्राप्ति) होती है। इसी कारण वह परमात्माकी प्राप्ति भी कर्मोंके द्वारा ही करना चाहता है; परन्तु यह उसकी महान् भूल है। कारण कि नाशवान् कर्मोंके द्वारा नाशवान् वस्तुकी ही प्राप्ति होती है, अविनाशीकी प्राप्ति नहीं होती। अविनाशीकी प्राप्ति तो कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है। कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर्मयोगमें (ज्ञानयोगकी अपेक्षा भी) सरलतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों शरीरोंसे होनेवाले सम्पूर्ण कर्म निष्कामभावपूर्वक केवल संसारके हितके लिये होनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है और अपना कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।यहाँ भगवान्ने 'माम् एति' पदोंसे यह भाव प्रकट किया है कि मनुष्य कर्मोंके द्वारा जिसकी सिद्धि चाहता है, वह परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध (नित्यप्राप्त) है। स्वतःसिद्ध वस्तुके लिये करना कैसा? जो वस्तु प्राप्त है, उसे प्राप्त करना कैसा? करनेसे तो उस वस्तुकी प्राप्ति होती है, जो पहले अप्राप्त थी।एक उत्पत्ति होती है, और एक खोज होती है। उत्पत्ति उसकी होती है जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है; जिसका पहले अभाव है और बादमें जिसका विनाश हो जाता है। खोज उसकी होती है, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता है; जो पहलेसे विद्यमान है और नित्य-निरन्तर रहता है; किन्तु जो क्रिया और पदार्थरूप संसारका महत्त्व मान लेनेसे छिप गया है। जब मनुष्य क्रियाओँ और पदार्थोंको केवल दूसरोंकी सेवामें लगा देता है, तब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका साक्षात् अनुभव हो जाता है। यही नित्यप्राप्तकी खोज है।कर्तव्य-कर्मोंको न करके प्रमाद-आलस्य करना और कर्तव्य-कर्मोंको करके उनके फलकी इच्छा रखना--इन दोनों कारणोंसे मनुष्यको नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवमें बाधा लगती है। इस बाधाको दूर करनेका उपाय है--फलकी इच्छा न रखकर दूसरोंकी सेवाके रूपसे कर्तव्य-कर्म करना। फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य-कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही परमात्मासे हमारा जो स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध है, उसका अनुभव हो जाता है।  सम्बन्ध-- भगवान्के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेवाले कैसे होते हैं--इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।4.9।। हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,  इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत:  जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।4.9।।पृथङ्मुक्त्युक्तिर्हि सर्वज्ञानि(न)नियमदर्शनार्थम्। न तु तावन्मात्रेण मुक्तिरित्युक्तम् 3।20।वेदाद्युक्तं तु सर्वं यो ज्ञात्वोपास्ते सदा हि माम्। तस्यैव दर्शनपथं यामि नान्यस्य कस्यचित् इत्युक्तेश्च महाकौर्मे। अत्रोक्तस्यैतज्ज्ञात्वैव जन्म नैतीति गतिः। इतरवाक्यानां नान्या गतिः। नान्यस्य कस्यचिदिति विशेषणात् तत्त्वत इति विशेषणाच्च सर्वं ज्ञानमापतति। यत्रैवं भवति तत्र तत्त्वत इति विशेषणे न विरोधः। उक्तं च एकं च तत्त्वतो ज्ञातुं विना सर्वज्ञतां नरः। न समर्थो महेन्द्रोऽपि तस्मात्सर्वत्र जिज्ञसेत् इति स्कान्दे।

Sri Anandgiri

।।4.9।।मायामयमीश्वरस्य जन्म न वास्तवं तस्यैव च जगत्परिपालनं कर्म नान्यस्येति जानतः श्रेयोवाप्तिं दर्शयन् विपक्षे प्रत्यवायं सूचयति तज्जन्मेत्यादिना। यथोक्तं मायामयं कल्पितमिति यावत् वेदनस्य यथावत्त्वं वेद्यस्य जन्मादेरुक्तरूपानतिवर्तित्वम्। यदि पुनर्भगवतो वास्तवं जन्म साधुजनपरिपालनादि चान्यस्यैव कर्म क्षत्रियस्येति विवक्ष्यते तदा तत्त्वापरिज्ञानप्रयुक्तो जन्मादिः संसारो दुर्वारः स्यादिति भावः।

Sri Vallabhacharya

।।4.9।।किञ्च उत्पत्तिस्त्रिधा। यथोक्तंवैष्णवतन्त्रेअनित्ये जननं नित्ये परिच्छिन्ने समागमः। नित्यापरिच्छिन्नतनौ प्राकट्यं चेति सा त्रिधा इति। अतो न ममायं सम्भवः प्राकृतस्येव कर्म वा मायिकं किन्त्वैच्छिकं दिव्यमित्याशयेन स्वजन्मकर्मणां ज्ञाने फलमाह जन्मकर्मेति। जन्मन इह प्रादुर्भावार्थकत्���ाद्दिव्यत्वं किं पुनर्वपुषः कर्म च तथा दिव्यमलौकिकं तत्त्वतो यो वेत्ति सोऽपि जन्मफलं प्राप्य प्राकृतं देहं त्यक्त्वाऽर्थादलोकसम्बन्धिसच्चिदानन्दमयस्वरूपं प्राप्य पुनर्जन्म नैति किन्तु मामेतीत्यर्थः।अत्र केचित् जन्ममूलदेहस्य भगवति प्राकृतत्वमभ्युपगच्छन्ति तदसत् तत्र देहदेहिविभागाभावात्। पाञ्चभौतिकत्वजन्यत्वनियमस्य प्राकृतविषयत्वादप्राकृते यथाश्रुतीच्छाविषयत्वेन तत्सिद्धिः। अन्यथाज्ञानेच्छादीनामनित्यत्वनियमान्नित्यज्ञानादिकमपि वाद्यभिमतं न तत्र सिद्ध्येत्। ननु ज्ञानादिभिरेव जगत्कर्तृत्वोपपत्तौ प्रत्यक्षबाधाच्च किमित्यानन्यमयदेहोऽभ्युपेयः इति चेत् न कर्तृत्वनिर्वाहार्थमेव व्याप्तिबलेन नित्यज्ञानवत्तथाविधदेहस्वीकारात् नित्यापरिच्छिन्नतनोः प्राकट्यस्यैव जन्मत्वेन जन्यत्वाभावात्। आनन्दाद्ध्येव नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 स यथा सैन्धवघनः बृ.उ.4।5।13आनन्दमयोऽभ्यासात् ब्र.सू.1।1।12 आह चतन्मात्रं आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः इत्यादिश्रुतिन्यायपुराणवाक्यैः पूर्ण एव देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणात्मस्वरूप एव सदानन्दरूपो ज्ञानरूपः पुरुषोत्तमः नत्वात्ममात्रमिति निर्बाधमुपैहि। ननु तथाप्यानन्दत्वदेहवत्त्वयोर्विरोध इति चेत् न स्वस्वाधिकरणे प्रमाणैरेकत्रोभयोः सिद्ध्यसिद्धिभ्यां वा विरोधाभावात्। तथाप्यानन्दस्य धर्मिरूपत्वे कथं धर्मरूपत्वम् इति चेत् न स यथा सैन्धवघनः यः सर्वज्ञः मुं.उ.1।9 इति श्रुतिभ्यां ज्ञानरूपत्वज्ञानाधारवदानन्दरूपत्वतदाधारत्वयोरविरोधात्। विरुद्धधर्माश्रयत्वाच्चानन्दादिमत्त्वमिति दिक्। एतेन यस्तत्र परिदृश्यमानरूपः स एव साक्षात्स्वेच्छातनुरानन्दमयः पुरुषोत्तमो नान्य इति यथाभूतार्थोपदेष्टृभगवद्वाक्यादवसेयम्।पुरुषोत्तम एवायं स्वैश्वर्याद्यक्षरात्मकम्। विरुद्धधर्माश्रयणं स्वीयविश्वासपूर्त्तये। क्वचित् क्वचिद्दर्शयति प्रभुर्गोपालनन्दनः। निगमप्रतिपाद्यात्मदृश्यमानवपुर्हरिः। विशेषस्तूत्तरत्र स्पष्टीभविष्यति।

Sridhara Swami

।।4.9।।एवंविधानामीश्व रजन्मकर्मणां ज्ञाने फलमाह जन्मकर्मेति। मे जन्म स्वेच्छाकृतं कर्म च धर्मपालनरूपं दिव्यमलौकिकं तत्त्वतः परानुग्रहार्थमेवेति यो वेत्ति स देहाभिमानं त्यक्त्वा पुनर्जन्म नैति न प्राप्नोति किंतु मामेव प्राप्नोति।

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