Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 23 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Detachment / Non attachment

Sanskrit Shloka (Original)

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते | गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ||१४-२३||

Transliteration

udāsīnavadāsīno guṇairyo na vicālyate . guṇā vartanta ityevaṃ yo.avatiṣṭhati neṅgate ||14-23||

Word-by-Word Meaning

उदासीनवत्like one unconcerned
आसीनःseated
गुणैःby the Gunas
यःwho
not
विचाल्यतेis moved
गुणाःthe Gunas
वर्तन्तेoperate
इतिthus
एवeven
यःwho
अवतिष्ठतिis selfcentred
not

📖 Translation

English

14.23 He who, seated like one unconcerned, is not moved by the alities, and who, knowing that the alities are active, is self-centred and moves not.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.23।। जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और "गुण ही व्यवहार करते हैं" ऐसा जानकर स्थित रहता है और उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Maintain objectivity amidst workplace dynamics, project successes, or failures. Understand that external results, office politics, and team temperaments are often driven by collective 'gunas' (passions, ambitions, inertia). This perspective helps avoid emotional entanglement, allowing you to focus on your contribution with steady resolve, unswayed by praise or criticism.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivate an observer's perspective towards your thoughts and emotions. When stress or anxiety arises, recognize it as a transient mental state ('gunas operating') rather than identifying with it completely. This practice allows for disengagement from rumination or emotional agitation, fostering inner peace and resilience against daily stressors.

❤️ In Relationships

Approach interactions with empathy but without emotional over-identification or reactivity. Understand that others' actions, moods, and opinions are often expressions of their own 'gunas' (temperaments, conditioning). This helps you remain centered, avoid taking things personally, and maintain healthy boundaries, offering stable support rather than getting caught in relational drama.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate inner stillness and detached awareness; observe the world's fluctuations as the play of Gunas, abiding unperturbed in your true Self.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.23 उदासीनवत् like one unconcerned? आसीनः seated? गुणैः by the Gunas? यः who? न not? विचाल्यते is moved? गुणाः the Gunas? वर्तन्ते operate? इति thus? एव even? यः who? अवतिष्ठति is selfcentred? न not? इङ्गते moves.Commentary He is seated as a neutral (one who inclines to neither party). He is free from likes and dislikes. He is entirely unconcerned whether the alities with their effects and the body come or go. He is like the spectator at a football or a cricket match or a drama. Just as the sky remains unconcerned when the wind blows? so also he remains ite unconcerned when the alities operate.He does not swerve from the path of Selfrealisation. He treads the path firmly. He thinks and feels The alities are modified into the body? senses and senseobjects. They act and react upon one another? remains unshaken by them. He abides in his own Self and stands firm like the mountain Meru. (Cf.III.28V.8to11)

Shri Purohit Swami

14.23 He who maintains an attitude of indifference, who is not disturbed by the Qualities, who realises that it is only they who act, and remains calm;

Dr. S. Sankaranarayan

14.23. He who, sitting like an unconcerned person, is not perturbed by the Strands; who is ignorant that the Strands exist; (or who remain simply aware that the Strands [alone] exist) who is not shaken;

Swami Adidevananda

14.23 He who sits like one unconcerned, undisturbed by the Gunas; who knows, 'It is the Gunas that move,' and so rests unshaken;

Swami Gambirananda

14.23 He who, sitting like one indifferent, is not distracted by the three alities; he who, thinking that the alities alone act, remains firm and surely does not move;

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.23।। भगवान् श्रीकृष्ण तीन श्लोकों में जगत् की वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ ज्ञानी पुरुष जो सम्बन्ध रखता है? उसका विस्तृत वर्णन करते हैं। मनुष्य की संस्कृति एक मिथ्या मुखौटा हो सकती है। जब तक पर्याप्त रूप से प्रलोभित करने वाली परिस्थितियां हमारे समक्ष उपस्थित नहीं होती? तब तक हममें से बहुत से लोग ईश्वर के समान व्यवहार कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आती? तब तक हो सकता है कि वह क्रूर न हो वह जब तक दरिद्री है? तब तक शान्त जीवन व्यतीत करता हो और प्रलोभनों के अभाव में वह भ्रष्टाचार से ऊपर हो। इस प्रकार? अनेक ऐसे सद्गुण जिनसे अनेक व्यक्तियों को हम सम्पन्न समझते हैं? वे सब केवल कृत्रिम सौन्दर्य के ही होते हैं। उनका वास्तविक हीन स्वरूप उस मुखौटे से छिपा रहता है।सम्भावित दुष्ट पुरुष ऋण लिये सद्गुणों के कृत्रिम परिधानों को धारण करके जगत् में विचरण करते रहते हैं। इसलिए? ज्ञानी पुरुष की वास्तविक परीक्षा या पहचान जंगलों या गिरिकन्दराओं में नहीं? वरन् बीच बाजार में हो सकती है? जहाँ वह जगत् की दुष्टताओं से पीड़ित किया जाता है। ईसा मसीह इतने महान् कभी नहीं थे जितने वे सूली पर चढ़ाये जाने के समय हुए जगत् के द्वारा कुचले जाने पर ही हमारा वास्तविक स्वभाव प्रगट होता है। घर्षण से ही चन्दन की सुगन्ध प्रगट होती है। जिन उँगलियों से हम तुलसी दल को पीसते हैं वह उन्हीं पर अपना सुगन्ध छोड़ जाता है।ज्ञानी पुरुष उदासीन के समान आसीन हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है। जगत् के सभी शुभ? अशुभ और उपेक्ष्य अनुभवों में वह उदासीन के समान रहता है? क्योंकि वह जानता है कि यह सब मन का खेल मात्र है। चित्रपट ग्रह में दर्शाये जा रहे चलचित्र के सुखान्त अथवा दुखान्त से हम विचलित नहीं होते? क्योंकि हम जानते हैं कि यह छायाचित्र का खेल हमारे मनोरंजन के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी पुरुष जगत् की घटनाओं से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं रखता है। व्यासजी अत्यन्त सावधानीपूर्वक शब्दों को चुनते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष ऐसा प्रतीत होता है? मानो वह उदासीन्ा हो उदासीनवत् आसीन। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह अपने जीवन में तथा बाह्य जगत् में होने वाली घटनाओं से विक्षुब्ध या उत्तेजित नहीं हो जाता।वह भलीभाँति जानता है कि उसके अन्तकरण में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन केवल गुणों के ही हैं और फिर बाह्य जगत् का अनुभव भी मनस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सम्यक्दर्शी पुरुष अपने आन्तरिक तथा बाह्य जगत् में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानकर उनसे अविचलित रहता है।इन गुणों की क्रीड़ा देखने के लिये स्वयं साक्षी बनकर रहना होता है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित रहकर वह गुणों की अन्तर्बाह्य क्रीड़ा को देखते हुये उसका आनन्द उठाता है। गली में हो रहे लड़ाईझगड़े को ऊपर छज्जे पर से देखने वाला व्यक्ति उस लड़ाई से प्रभावित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी अपनी समत्व की स्थिति से गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है।पूर्व श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुये कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।14.23।।  व्याख्या --   उदासीनवदासीनः -- दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों? तो उन दोनोंमेंसे किसी एकका पक्ष लेनेवाला पक्षपाती कहलाता है और दोनोंका न्याय करनेवाला मध्यस्थ कहलाता है। परन्तु जो उन दोनोंको देखता तो है? पर न तो किसीका पक्ष लेता है और न किसीसे कुछ कहता ही है? वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा -- दोनोंको देखनेसे गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।वास्तवमें देखा जाय तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत्स्वरूप परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है ही नहीं? केवल एक परमात्माकी सत्ता ही है? तो फिर वह उदासीन किससे हो परन्तु जिनकी दृष्टिमें संसार और परमात्माकी सत्ता है? ऐसे लोगोंकी दृष्टिमें वह गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।गुणैर्यो न विचाल्यते -- उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें सत्त्व? रज? और तम -- इन गुणोंकी वृत्तियाँ तो आती हैं? पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरोंके अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर अपनेमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता? ऐसे ही उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारका अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्वका भाव निरन्तर स्वतःस्वाभाविक जाग्रत् रहता है।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति -- गुण ही गुणोंमें बरत रहे ह��ं (गीता 3। 28) अर्थात् गुणोंमें ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं -- ऐसा समझकर वह अपने स्वरूपमें निर्विकाररूपसे स्थित रहता है।न इङ्गते -- पहले गुणा वर्तन्त इत्येव पदोंसे उसका गुणोंके साथ सम्बन्धका निषेध किया? अब न ईङ्गते पदोंसे उसमें क्रियाओँका अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूपमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं।[बाईसवें और तेईसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी तटस्थता? निर्लिप्तताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध --   इक्कीसवें श्लोकमें अर्जुनने दूसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत मनुष्यके आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.23।। जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और "गुण ही व्यवहार करते हैं" ऐसा जानकर स्थित रहता है और उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.23।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।14.23।।कैर्लिङ्गैरित्यादि परिहृत्य द्वितीयं प्रश्नं परिहरति -- अथेति। दृष्टान्तं व्याचष्टे -- यथेति। उपेक्षकस्य पक्षपाते तत्त्वायोगादित्यर्थः। आत्मविदात्मकौटस्थ्यज्ञानेनासीनो निवृत्तकर्तृत्वाभिमानोऽप्रयतमानो भवतीति दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति। गुणातीतत्वोपायमार्गो ज्ञानमेव। शब्दादिभिर्विषयैरस्य कूटस्थत्वज्ञानात्प्रच्यवनमाशङ्क्याह -- गुणैरिति। उपनतानां विषयाणां रागद्वेषद्वारा प्रवर्तकत्वमित्येतत्प्रपञ्चयति -- तदेतदिति। योऽवतिष्ठति स गुणातीत इत्युत्तरत्र संबन्धः। अवपूर्वस्य तिष्ठतेरात्मनेपदे प्रयोक्तव्ये कथं परस्मैपदमित्याशङ्क्याह -- छन्दोभङ्गेति। पाठान्तरे तु बाधितानुवृत्तिमात्रमनुष्ठानम्। करणाकारपरिणतानां गुणानां विषयाकारपरिणतेषु तेषु प्रवृत्तिर्न ममेति पश्यन्नचलतया कूटस्थदृष्टिमात्मनो न जहातीत्याह -- नेङ्गत इति।

Sri Vallabhacharya

।।14.23।।उदासीनवदिति। गुणातिरिक्तात्मावलोकनतृप्तत्वात् अन्यत्रानात्मवस्तुनि उदासीनवदासीनः द्वेषाकाङ्क्षाद्वारेण गुणैश्च यो न विचाल्यते? किन्तु स्वकार्येषु प्रकाशादिषु गुणा वर्त्तन्त इति तिष्ठति न गुणानुगुणं स्वात्मना चेष्टते।

Sridhara Swami

।।14.23।।तदेवं स्वसंवेद्यं तस्य लक्षणमुक्त्वा परसंवेद्यं तस्य लक्षणं वक्तुं किमाचार इति द्वितीयप्रश्नस्योत्तरमाह -- उदासीनवदिति त्रिभिः। उदासीनवत्साक्षितया आसीनः स्थितः सन् गुणैर्गुणकार्यैः सुखदुःखादिभिर्यो न विचाल्यते स्वरूपान्न प्रच्याव्यते अपितु गुणा एव स्वकार्येषु वर्तन्ते? एतैर्मम संबन्ध एव नास्तीति विवेकज्ञानेन यस्तूष्णीमवतिष्ठति। परस्मैपदमार्षम्। नेङ्गते न चलति।

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