Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 24 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Equanimity

Sanskrit Shloka (Original)

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः | तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ||१४-२४||

Transliteration

samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ samaloṣṭāśmakāñcanaḥ . tulyapriyāpriyo dhīrastulyanindātmasaṃstutiḥ ||14-24||

Word-by-Word Meaning

समदुःखसुखःalike in pleasure and pain
स्वस्थःstanding in his own Self
समलोष्टाश्मकाञ्चनःregarding a clod of earth
तुल्यप्रियाप्रियःthe same to the dear and the undear
धीरःfirm

📖 Translation

English

14.24 Who is the same in pleasure and pain, who dwells in the Self, to whom a clod of earth, stone and gold are alike, who is the same to the dear and the unfriendly, who is firm, and to whom censure and praise are as one.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.24।। जो स्वस्थ (स्वरूप में स्थित), सुख-दु:ख में समान रहता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है; ऐसा वीर पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate equanimity towards professional successes and setbacks, treating promotions and project failures with an even mind. Approach all tasks, whether high-profile ('gold') or routine ('clod of earth'), with consistent dedication. Remain objective in dealing with colleagues, not swayed by personal likes or dislikes, and accept both praise and criticism as feedback without letting them disturb your inner composure.

🧘 For Stress & Anxiety

Develop an inner sanctuary of peace by consciously detaching from the emotional roller coaster of external events. By dwelling in the 'Self' (Swastha), you build resilience against the ups and downs of daily life, reducing emotional reactivity to pleasure and pain. This practice frees you from the need for external validation, diminishing stress caused by seeking approval or fearing censure, and fostering a deep sense of calm.

❤️ In Relationships

Practice unconditional regard, maintaining a steady and respectful demeanor towards all, regardless of whether they are currently 'dear' or 'unfriendly.' Respond to both praise and criticism from others with an even temper, avoiding ego-driven reactions that can damage connections. This fosters stable and authentic relationships, free from the volatility of personal biases and external judgments.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate an unwavering inner state of equanimity, rooted in your true Self, to transcend the fluctuating dualities of life and experience enduring peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.24 समदुःखसुखः alike in pleasure and pain? स्वस्थः standing in his own Self? समलोष्टाश्मकाञ्चनः regarding a clod of earth? a stone and gold alike? तुल्यप्रियाप्रियः the same to the dear and the undear? धीरः firm? तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः the same in censure and praise. Commentary Night and day have no meaning to a post fixed in the ground. Even so pleasure and pain have no meaning to a sage who dwells in his own Self. He is above the pairs of opposites. In his eyes cowdung or gold? a jewel or a stone? are of eal value. He is free from the idea of,giving and taking. His mind is not perturbed by anything pleasant or unpleasant. He is the same towards agreeable and disagreeable things. Praise and censure cannot affect him. He stands adamant. He abides in his own essential state as ExistenceKnowledgeBliss Absolute. He is ever calm and serene. (Cf.V.18)

Shri Purohit Swami

14.24 Who accepts pain and pleasure as it comes, is centred in his Self, to whom a piece of clay or stone or gold are the same, who neither likes nor dislikes, who is steadfast, indifferent alike to praise or censure;

Dr. S. Sankaranarayan

14.24. To whom pain, pleasure and sleep are alike; to whom a cold, a stone and a lump of gold are alike; to whom both the pleasant and the unpleasant things are eal; who is firm [in mind]; to whom blame and personal commendation are eal;

Swami Adidevananda

14.24 He who is alike in pleasure and pain, who dwells in his self, who looks upon a clod, a stone and piece of gold as of eal value, who remains the same towards things dear and hateful and who is intelligent, who regards both blame and praise of himself as eal;

Swami Gambirananda

14.24 He to whom sorrow and happiness are alike, who is established in his own Self, to whom a lump of earth, iron and gold are the same, to whom the agreeable and the disagreeable are the same, who is wise, to whom censure and his own praise are the same;

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.24।। जीवन की निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में ज्ञानी पुरुष के मन के समत्व और सन्तुलन का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। त्रिगुणों की क्रूरताओं से परे आत्मा में ज्ञानी पुरुष स्थित रहता है? जहाँ सत्त्वगुण का रोमांचक सुख नहीं है? न रजोगुण का कोलाहल है और न ही तमोगुण की थकान है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है।सामान्य मनुष्य को समता की यह स्थिति पूर्ण मृत्यु ही प्रतीत होगी। और? निसन्देह? यह वास्तविकता भी है यह परिच्छिन्न अहंकार की मृत्यु है? जो सांसारिक अनुभवों का भोक्ता है। उपाधियुक्त आत्मा ही जीवरूप में प्रतीत होता है? जो सदैव विक्षुब्ध मन की प्रचण्ड चंचल वृत्तियों पर समुद्री सतह पर बहते हुये काष्ठ खण्ड के समान व्यवहार करता है। प्रेम और घृणा? राग और द्वेष के तूफानों से सदैव विचलित हुआ यह दुखी जीव असंख्य विक्षेपों और दुखों को भोगता रहता है।इसलिये? तृष्णा और आसक्ति के इस दुर्व्यवस्थित क्षेत्र से स्वयं को विलग कर स्वस्वरूप में ही स्थित होना ही मुक्ति है। ज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ क्या सम्बन्ध होता है यह प्रश्न ऐसा ही है? जैसे जाग्रत पुरष का अपने स्वप्नजगत् से क्या सम्बन्ध होता है त्रिगुणों के बन्धनों से मुक्त पुरुष जगत् की अनात्म वस्तुओं के साथ के अविद्याजनित अहं और मम भाव को सर्वथा त्याग देता है। उस वास्तविक दैवी जाग्रति की अवस्था में निम्न स्तर के अनुभव? इस जगत् के सुख और दुख? प्रिय और अप्रिय तथा निन्दा और स्तुति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। समस्त अनुभवों में वह सम? असंग साक्षी बनकर रहता है।स्वस्थ अपने सर्व उपाधिविवर्जित सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित पुरुष स्वस्थ कहलाता है। अत उपाधियों के द्वारा अनुभूत जगत् से वह अछूता रहता है।समदुखसुख इन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् के सम्पर्क में आकर पूर्वकाल में अर्जित किये हुये समान अनुभवों की तुलना में उसका मूल्यांकन करना और तत्पश्चात् उसे सुख या दुख के रूप में अनुभव करना? यह हमारे व्यष्टि मन की युक्ति है। यदि बाह्य जगत् की वस्तुओं में ही सुख या दुख होता? तो सभी व्यक्तियों का अनुभव एक समान होता जैसे सूर्य के प्रकाश का सबका अनुभव एक समान है? क्योंकि प्रकाश सूर्य का धर्म है। परन्तु विषयों के सम्बन्ध में यह बात नहीं देखी जाती। कोई विषय किसी एक व्यक्ति को सुखदायक प्रतीत होता है तो अन्य व्यक्ति को दुखदायक। इससे सिद्ध होता है कि हमारे सुखदुख अपने मन की कल्पना मात्र हैं? वस्तुस्थिति न्ाहीं। ज्ञानी पुरुष मन और बुद्धि के उपनेत्रों से जगत् को नहीं देखता और? इसलिये? संसारी पुरुषो द्वारा कहे जाने वाले सुख और दुख में वह समान रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चन वह लोष्ट (मिट्टी)? अश्म (पाषाण) और काञ्चन (स्वर्ण) इन सबको समदृष्टि से देखता है। वस्तुओं का परिग्रह करने में संसारी लोगों की अत्यधिक रुचि होती है। लोग स्वर्ण? हीरे? मोती आदि बहुमूल्य वस्तुओं को एकत्र करना चाहते हैं? किन्तु सामान्य मिट्टी? पाषाण आदि की उपेक्षा करते हैं। परन्तु जिसे परमार्थ वस्तु की उपलब्धि हो गई है? वह ज्ञानी पुरुष मिट्टी? पाषाण? स्वर्ण इन सबको एक समान ही देखता है ? क्योंकि पारमार्थिक सत्य की दृष्टि से ये सब मिथ्या वस्तुएं ही हैं। वस्तुत? उनमें कोई भी मूल्यवान नहीं है।बाल्यावस्था में? छोटे बालक मयूरपंख? शुक्तिका? संगमर्मर के टुकड़े? टूटी चूड़ियां? पुरानी टिकटें आदि वस्तुओं का संग्रह करते हैं और उनके लिये वह एक बहुमूल्य कोष के समान होता है। परन्तु युवावस्था के प्राप्त होने पर उस कोष का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वे उसे अपने छोटे भाई को दे देते हैं तो वह उस धरोहर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसी प्रकार? जीवभाव में स्थित अज्ञानी पुरुष असंख्य वस्तुओं का संग्रह करना चाहता है? जो ज्ञानी की दृष्टि में बच्चों का एक खेल मात्र है।तुल्यप्रियाप्रिय यदि हम अनेक व्यक्तियों के साथ के अपने सम्बन्धों पर विचार करें? तो यह ज्ञात होगा कि हमें अपने समस्वभाव का व्यक्ति प्रिय प्रतीत होगा और प्रतिकूल स्वभाव का व्यक्ति अप्रिय। यही बात वस्तुओं और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी सत्य है। यह प्रिय और अप्रिय का अनुभव मन के स्तर पर रहने वाले लोगों के लिये ही है? मन से परे आत्मस्वरूप में स्थित हुये ज्ञानी पुरुष के लिये नहीं। जगत् में सामान्य दृष्टि से किन्हीं वस्तुओं और घटनाओं को प्रिय या अप्रिय समझा जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिये वे सब तुल्य हैं? क्योंकि वह समान्य जनों के मापदण्ड से जगत् की ओर नहीं देखता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति स्वप्नावस्था में स्वप्नद्रष्टा पुरुष की कोई निन्दा करते हैं और कोई प्रशंसा। जब वह स्वप्न से जाग जाता है तो क्या वह उस निन्दा और स्तुति को तुल्य नहीं समझेगा संसारी लोग अपनीअपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार कभी किसी की निन्दा करते हैं? तो कभी स्तुति। सर्वोच्च आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त पुरुष के लिये दोनों का ही कोई महत्त्व नहीं होता।उपर्युक्त अनुभवों के चार सुन्दर उदाहरणों के द्वारा व्यासजी ने जीवन के कुछ प्रमुख अनुभव दर्शाये हैं? जिनमें सामान्य मनुष्य सुख और दुख का अनुभव करता है।आगे कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।14.24।। व्याख्या --   धीरः? समदुःखसुखः -- नित्यअनित्य? सारअसार आदिके तत्त्वको जानकर स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित होनेसे गुणातीत मनुष्य धैर्यवान् कहलाता है।पूर्वकर्मोंके अनुसार आनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका नाम सुखदुःख है अर्थात् प्रारब्धके अनुसार शरीर? इन्द्रियों आदिके अनुकूल परिस्थितिको सुख कहते हैं और शरीर? इन्द्रियों आदिके प्रतिकूल परिस्थितिको दुःख कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनोंमें सम रहता है। तात्पर्य है कि सुखदुःखरूप बाह्य परिस्थितियाँ उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें विकार पैदा नहीं कर सकतीं? उसको सुखीदुःखी नहीं कर सकतीं।स्वस्थः -- स्वरूपमें सुखदुःख है ही नहीं। स्वरूपसे तो सुखदुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आनेजानेवाले सुखदुःखका भोक्ता नहीं बनता? प्रत्युत अपने नित्यनिरन्तर रहनेवाले स्वरूपमें स्थिर रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः -- उसका मिट्टीके ढेले? पत्थर और स्वर्णमें न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है। परन्तु व्यवहारमें वह ढेलेको ढेलेकी जगह रखता है? पत्थरको पत्थरकी जगह रखता है और स्वर्णको स्वर्णकी जगह (तिजोरी आदिमें) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्तिअप्राप्तिमें उसको हर्षशोक नहीं होते? वह सम रहता है? तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है।ढेले? पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें रागद्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता? विकार ही दोषी होते हैं।तुल्यप्रियाप्रियः -- क्रियमाण कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें अर्थात् उनके तात्कालिक फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें भी वह सम रहता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः -- निन्दा और स्तुतिमें नामकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका नामके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्तमें खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्तमें प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करनेवालोंके प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करनेवालोंके प्रति उसका राग नहीं होता।साधारण मनुष्योंकी यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निन्दा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है। परन्तु जो गुणोंसे ऊँचे उठ जाते हैं? उनको निन्दास्तुतिका ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं? पर उनमें निन्दास्तुतिको लेकर खिन्नताप्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्वमें स्थित हैं? वहाँ गुणोंवाली परकृत निन्दास्तुति पहुँचती ही नहीं।निन्दा और स्तुति -- ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओंसे राजीनाराज होना गलती है। कारण कि जिसका जैसा स्वभाव है? जैसी धारणा है? वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले? हमारी निन्दा न करे -- यह न्याय नहीं है अर्थात् उसको बोलनेमें बाध्य करनेका भाव न्याय नहीं है? अन्याय है। दूसरोंपर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो हमारी स्तुति ही करो दूसरी बात? कोई निन्दा करता है तो उसमें साधकको प्रसन्न होना चाहिये कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं? मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है? तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसामें राजी नहीं होना चाहिये क्योंकि राजी होनेमें खतरा हैमानापमानयोस्तुल्यः -- मान और अपमान होनेमें शरीरकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका शरीरके साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे? मान करे या अपमान करे? इन परकृत क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं पड़ता।निन्दास्तुति और मानअपमान -- इन दोनों ही परकृत क्रियाओंमें गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओंका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत निन्दा और अपमानमें दुःखी होना तथा स्तुति और मानमें हर्षित होना दोषी है क्योंकि ये दोनों ही प्रकृतिके विकार हैं। गुणातीत पुरुषको निन्दास्तुति और मानअपमानका ज्ञान तो होता है? पर गुणोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे? नाम और शरीरके साथ तादात्म्य न रहनेसे वह सुखीदुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्वमें स्थित है? वहाँ ये विकार नहीं हैं। वह तत्त्व गुणरहित है? निर्विकार है।तुल्यो मित्रारिपक्षयोः -- वह मित्र और शत्रुके पक्षमें सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें कोई मित्र और शत्रु नहीं होता? तथापि दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्यको भी दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं किन्तु इस बातका पता लगनेपर उस मनुष्यपर इसका असर पड़ता है? जिससे उसमें रागद्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु गुणातीत मनुष्यपर इस बातका पता लगनेपर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रुकी भावनाके कारण ही व्यवहारमें पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्यके कहलानेवाले अन्तःकरणमें मित्रशत्रुकी भावना ही नहीं होती अतः उसके व्यवहारमें पक्षपात नहीं होता।एक व्यक्ति उस महापुरुषके साथ मित्रता रखता है और दूसरा व्यक्ति अपने स्वभाववश उस महापुरुषके साथ शत्रुता रखता है। जब उन दोनों व्यक्तियोंकी किसी बातको लेकर न्याय करनेका अवसर आ जाय? तब (व्यवहारमें) वह मित्रता रखनेवालेकी अपेक्षा शत्रुता रखनेवालेका कुछ अधिक पक्ष लेता है। जैसे -- पदार्थादिका बँटवारा करते समय वह मित्रता रखनेवालेको कम (उतना ही? जितना वह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर सकता हो) और शत्रुता रखनेवालोंको कुछ ज्यादा पदार्थ देता है। यह भी समता ही कहलाती है क्योंकि अपने पक्षवालोंके साथ न्याय और विपक्षवालोंके साथ उदारता होनी चाहिये।सर्वारम्भपरित्यागी -- वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्तिके संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरहका कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थितिके अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओंमें उसकी प्रवृत्ति कामना? वासना? ममतासे रहित होती है और निवृत्ति भी मानबड़ाई आदिकी इच्छासे रहित होती है।गुणातीतः स उच्यते -- यहाँ उच्यते पदसे यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुषकी गुणातीत संज्ञा नहीं है किन्तु उसके कहे जानेवाले शरीर? अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो जो गुणातीत है? उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं अतः जिसके लक्षण होते हैं? वह गुणातीत कैसे हो सकता है परन्तु अर्जुनने भी गुणातीतके ही लक्षण पूछे हैं और भगवान्ने भी गुणातीतके ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीतकी जिस शरीर और अन्तःकरणमें स्थिति मानते थे? उसी शरीर और अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतः ये लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं।प्रकृतिके कार्य गुण हैं और गुणोंके कार्य शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि हैं। अतः मनबुद्धि आदिके द्वारा अपने कारण गुणोंका भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता? फिर गुणोंके भी कारण प्रकृतिका वर्णन हो ही कैसे सकता है जो प्रकृतिसे भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है? उसका वर्णन करना तो उन मनबुद्धि आदिके द्वारा सम्भव ही नहीं है। वास्तवमें गुणातीतके ये लक्षण स्वरूपमें तो होते ही नहीं किन्तु अन्तःकरणमें मानी हुई अहंताममताके नष्ट हो जानेपर उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणके माध्यमसे ही ये लक्षण -- गुणातीतके लक्षण कहे जाते हैं।यहाँ भगवान्ने सुखदुःख? प्रियअप्रिय? निन्दास्तुति और मानअपमान -- ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं? जिनमें साधारण आदमियोंकी तो विषमता हो ही जाती है? साधकोंकी भी कभीकभी विषमता हो जाती है। ऐसे इन आठ कठिन स्थलोंमें जिसकी समता हो जाती है? उसके लिये अन्य सभी अवस्थाओंमें समता रखना सुगम हो जाता है। अतः यहाँ उन्हीं आठ कठिन स्थलोंका नाम लेकर भगवान् यह बताते हैं कि गुणातीत महापुरुषकी इन आठों स्थलोंमें स्वतःस्वाभाविक समता होती है।गुणातीत मनुष्यकी जो स्वतःसिद्ध निर्विकारता है? उसकी जो स्वाभाविक स्थिति है? उसमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेजानेका कुछ भी फरक नहीं पड़ता। उसकी निर्विकारता? समता ज्योंकीत्यों अटल रहती है। उसकी शान्ति कभी भङ्ग नहीं होती।[चौबीसवें और पचीसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी समताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध --   अर्जुनने तीसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत होनेका उपाय पूछा था। उसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।

Swami Tejomayananda

।।14.24।। जो स्वस्थ (स्वरूप में स्थित), सुख-दु:ख में समान रहता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है; ऐसा वीर पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.24 -- 14.25।।तुल्यत्वार्थ उक्तः पुरस्तात्।

Sri Anandgiri

।।14.24।।गुणातीतस्य लिङ्गान्तरमाह -- किञ्चेति। तयोः समत्वं रागद्वेषानुत्पादकतया स्वकीयत्वाभिमानानास्पदत्वं प्रसन्नत्वं स्वास्थ्यादप्रच्युतिरविक्रियत्वम्। विद्वद्दृष्ट्या प्रियाप्रिययोरसंभवेऽपि लोकदृष्टिमाश्रित्याह -- प्रियं चेति। प्रियाप्रियग्रहणेन गृहीतानां काञ्चनादीनां ब्राह्मणपरिव्राजकवत्पृथग्ग्रहणम्। निन्दा दोषोक्तिरात्मसंस्तुतिरात्मनो गुणकीर्तनम्।

Sri Vallabhacharya

।।14.24।।समेति। गुणकार्येषु हर्षद्वेषशून्यतया स लक्ष्य इत्युक्ते समत्वं योगो हेतुरिति साङ्ख्ययोगसारभूतमर्थं स्मारयति। समे दुःखसुखे रजस्सत्त्वकार्ये यस्य। तत्र हेतुः -- स्वस्थ आत्मस्थ इति। समानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि हेयतया यस्य? सर्वत्र समभूतस्य।

Sridhara Swami

।।14.24।।अपिच -- समेति। समे सुखदुःखे यस्य। यतः स्वस्थः स्वरूप एव स्थितः। अतएव समानि लोष्टाश्मकाञ्चनानि यस्य। तुल्ये प्रियाप्रिये सुखदुःखहेतुभूते यस्य। धीरो धीमान्। तुल्या निन्दा च आत्मस्तुतिश्च यस्य।

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