Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 22 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Equanimity

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव | न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ||१४-२२||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . prakāśaṃ ca pravṛttiṃ ca mohameva ca pāṇḍava . na dveṣṭi sampravṛttāni na nivṛttāni kāṅkṣati ||14-22||

Word-by-Word Meaning

प्रकाशम्light
and
प्रवृत्तिम्activity
and
मोहम्delusion
एवeven
and
पाण्डवO Arjuna
not
द्वेष्टिhates
सम्प्रवृत्तानि(when) gone forth
not
निवृत्तानिwhen absent
काङ्क्षतिlongs.Commentary This is the answer to Arjunas first estion. Light is the effect of Sattva

📖 Translation

English

14.22 The Blessed Lord said When light, activity and delusion are present, he hates them not, nor does he long for them when they are absent.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।14.22।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे पाण्डव ! (ज्ञानी पुरुष) प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह के प्रवृत्त होने पर भी उनका द्वेष नहीं करता तथा निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा नहीं करता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, approach successes (light/knowledge), intense periods of activity (rajas), and phases of low motivation or stagnation (tamas) with equanimity. Do not become overly proud or attached to achievements, nor excessively frustrated or self-critical during setbacks or creative blocks. Perform your duties without attachment to outcomes, accepting the natural ebb and flow of productivity and recognition, which fosters resilience and reduces work-related stress.

🧘 For Stress & Anxiety

For mental health, practice observing your internal states—periods of clarity, high energy, or mental fogginess—without judgment or resistance. Instead of fighting 'bad' moods or desperately clinging to 'good ones,' recognize them as transient manifestations. This non-reactive acceptance reduces internal conflict, emotional volatility, and the stress caused by constantly trying to control or change your mental landscape, leading to greater inner peace.

❤️ In Relationships

Apply this principle to relationships by accepting the natural fluctuations in yourself and others. When a loved one is vibrant and engaged, appreciate it without demanding it always be so. When they are withdrawn, lethargic, or going through a difficult period, do not judge, reject, or long for them to be different. This fosters unconditional acceptance, reduces conflict arising from expectations, and cultivates deeper empathy and understanding.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate an unwavering inner balance, observing the transient states of clarity, activity, and inertia in yourself and the world without attachment or aversion.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

14.22 प्रकाशम् light? च and? प्रवृत्तिम् activity? च and? मोहम् delusion? एव even? च and? पाण्डव O Arjuna? न not? द्वेष्टि hates? सम्प्रवृत्तानि (when) gone forth? न not? निवृत्तानि when absent? काङ्क्षति longs.Commentary This is the answer to Arjunas first estion. Light is the effect of Sattva? activity of Rajas and delusion of Tamas. The liberated sage does not hate them when they are present. When Sattva shines he is not carried away by pride. He does not think? I am a vey learned man. When the impulse for action is awakened in the body or when there is a divine call for him to do work for the solidarity of the world (Lokasangraha) he does not hate any action and he does not regret it after the action is accomplished. He feels no remorse while performing actions. The work is like the play of a child. While inertia increases in him? he is not deluded by infatuation.Only an ignorant man thinks Tamas has entered into me. I am deluded. I am under the influence of heedlessness? torpor? sloth? laziness and indolence. Now I am under the influence of Rajas. I am forced to do activities. This is painful. I have fallen from my true nature. This gives me a lot of pain. Now Sattva predominates in me. I am attached to happiness and knowledge. I am proud of my learning and better status.The liberated sage who has transcended the Gunas does not thus hate them when they are present.A man of Sattva or Rajas or Tamas longs for light? action or inertia which first manifested themselves and disappeared. But a liberated sage or one who has gone beyond the three alities does not at all long for these states which have vanished. This mark or characteristic is an internal mental state. It cannot be perceived or detected by others. It can be felt by ones own self alone. If one is endowed with clairvoyant vision or the inner eye of intuition? he can directly behold the longins that arise in the mind of another man.In the following three verses the Lord gives His answer to Arjunas second estion What is the conduct of the sage who has crossed over the Gunas

Shri Purohit Swami

14.22 Lord Shri Krishna replied: O Prince! He who shuns not the Quality which is present, and longs not for that which is absent;

Dr. S. Sankaranarayan

14.22. The Bhagavat said O son of Pandu ! He does niether abhor nor crave for illumination, and exertion, and delusion too, as and when they arise or cease to be.

Swami Adidevananda

14.22 The Lord said He hates not illumination, nor activity nor even delusion, O Arjuna, while these prevail, nor longs for them when they cease.

Swami Gambirananda

14.22 The Blessed Lord said O son of Pandu, he neither dislikes illumination (knowledge), activity and delusion when they appear, nor does he long for them when they disappear.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।14.22।। जो उपाधियां या वस्तुएं तीन गुणों का कार्य हैं केवल उन पर ही त्रिगुणों का प्रभाव पड़ सकता है? उनसे परे आत्मतत्त्व पर नहीं। अत आत्मज्ञान होने के पश्चात् भी ये उपाधियां पूर्ववत् व्यवहार करती रहती हैं और उनपर गुणों का प्रभाव भी पड़ सकता है। परन्तु ज्ञानी पुरुष उनसे किसी प्रकार से तादात्म्य नहीं करता। समस्त परिस्थितियों में सदैव समत्व भाव में स्थित रहना अनुभवी पुरुष का प्रमुख लक्षण है और यही पूर्णत्व का सार है।प्रकाश? प्रवृत्ति और मोह ये क्रमश सत्त्व? रज और तमोगुण के कार्य हैं। यहाँ त्रिगुणों का निर्देश उनके कार्यों के द्वारा किया गया है। सामान्यत अज्ञानी मनुष्य के मन में जब रजोगुण के कार्य विक्षेप अथवा तमोगुण के कार्य निद्रा? प्रमाद आदि प्रभावशाली होते हैं? तब वह उनका द्वेष करता है और सत्त्वगुण के कार्य ज्ञान? सुख और शान्ति के होने पर वह उनसे प्रीति रखता है। सत्त्वगुण निवृत्त हो जाय तो वह उसकी इच्छा करके उसके लिये लालायित रहता है। इन सबका कारण त्रिगुणों के साथ अविद्यामूलक तादात्म्य है।ज्ञानी की स्थिति अज्ञानी से सर्वथा भिन्न होती है। वह जानता है कि त्रिगुणों का साक्षी आत्मा उन गुणों तथा उनके कार्यों से सदैव असंगअसंस्पृष्ट रहता है। अत वह रज और तम के प्रवृत्त होने पर न उनसे द्वेष रखता है और न सत्त्वगुण के प्रवृत्त होने की कामना। उसकी सुखशान्ति इन गुणों की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति पर निर्भर नहीं करती। किसी लखपति धनी व्यक्ति को संयोगवशात् पचीस पैसे मिलने या न मिलने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसा हो सकता है कि कभी वह नीचे झुककर उस पैसे के सिक्के को उठा ले? किन्तु उसे वह? हर्षातिरेक नहीं होगा? जो एक दरिद्र व्यक्ति को समान परिस्थिति में होता होगा।इस प्रकार? समस्त उपाधियों के तादात्म्य को त्यागकर आत्मानुभूति में रमा पुरुष ही त्रिगुणातीत या मुक्त कहलाता है। संसार के दुख उसे कदापि विचलित नहीं कर सकते।अब? उस ज्ञानी पुरुष के आचरण का वर्णन करते हैं

Swami Ramsukhdas

।।14.22।। व्याख्या --   प्रकाशं च -- इन्द्रियों और अन्तःकरणकी स्वच्छता? निर्मलताका नाम प्रकाश है। तात्पर्य है कि जिससे इन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि पाँचों विषयोंका स्पष्टतया ज्ञान होता है? मनसे मनन होता है और बुद्धिसे निर्णय होता है? उसका नाम प्रकाश है।भगवान्ने पहले (14। 11 में ) सत्त्वगुणकी दो वृत्तियाँ बतायी थीं -- प्रकाश और ज्ञान। उनमेंसे यहाँ केवल प्रकाशवृत्ति लेनेका तात्पर्य है कि सत्त्वगुणमें प्रकाशवृत्ति ही मुख्य है क्योंकि जबतक इन्द्रियाँ और अन्तःकरणमें प्रकाश नहीं आता? स्वच्छतानिर्मलता नहीं आती? तबतक ज्ञान (विवेक) जाग्रत् नहीं होता। प्रकाशके आनेपर ही ज्ञान जाग्रत् होता है। अतः यहाँ ज्ञानवृत्तिको प्रकाशके ही अन्तर्गत ले लेना चाहिये।प्रवृत्तिं च -- जबतक गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक रजोगुणकी लोभ? प्रवृत्ति? रागपूर्वक कर्मोंका आरम्भ? अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ पैदा होती रहती हैं। परन्तु जब मनुष्य गुणातीत हो जाता है? तब रजोगुणके साथ तादात्म्य रखनेवाली वृत्तियाँ तो पैदा हो ही नहीं सकतीं? पर आसक्ति? कामनासे रहित प्रवृत्ति (क्रियाशीलता) रहती है। यह प्रवृत्ति दोषी नहीं है। गुणातीत मनुष्यके द्वारा भी क्रियाएँ होती हैं। इसलिये भगवान्ने यहाँ केवल प्रवृत्ति को ही लिया है।रजोगुणके दो रूप हैं -- राग और क्रिया। इनमेंसे राग तो दुःखोंका कारण है। यह राग गुणातीतमें नहीं रहता। परन्तु जबतक गुणातीत मनुष्यका दीखनेवाला शरीर रहता है? तबतक उसके द्वारा निष्कामभावपूर्वक स्वतः क्रियाएँ होती रहती हैं। इसी क्रियाशीलताको भगवान्ने यहाँ प्रवृत्ति नामसे कहा है।मोहमेव च पाण्डव -- मोह दो प्रकारका है -- (1) नित्यअनित्य? सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका विव��क न होना और (2) व्यवहारमें भूल होना। गुणातीत महापुरुषमें पहले प्रकारका मोह (सत्असत् आदिका विवेक न होना) तो होता ही नहीं (गीता 4। 35)। परन्तु व्यवहारमें भूल होना अर्थात् किसीके कहनेसे किसी निर्दोष व्यक्तिको दोषी मान लेना और दोषी व्यक्तिको निर्दोष मान लेना आदि तथा रस्सीमें साँप दीख जाना? मृगतृष्णामें जल दीख जाना? सीपी और अभ्रकमें चाँदीका भ्रम हो जाना आदि मोह तो गुणातीत मनुष्यमें भी होता है।न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति -- सत्त्वगुणका कार्य प्रकाश? रजोगुणका कार्य प्रवृत्ति और तमोगुणका कार्य मोह -- इन तीनोंके अच्छी तरह प्रवृत्त होनेपर भी गुणातीत महापुरुष इनसे द्वेष नहीं करता और इनके निवृत्त होनेपर भी इनकी इच्छा नहीं करता। तात्पर्य है कि ऐसी वृत्तियाँ क्यों उत्पन्न हो रही हैं? इनमेंसे कोईसी भी वृत्ति न रहे -- ऐसा द्वेष नहीं करता और ये वृत्तियाँ पुनः आ जायँ ये वृत्तियाँ बनी रहें -- ऐसा राग नहीं करता। गुणातीत होनेके कारण गुणोंकी वृत्तियोंके आनेजानेसे उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता। वह इन वृत्तियोंसे स्वाभाविक ही निर्लिप्त रहता है।विशेष बातएक तो वृत्तियोंका होना होता है और एक वृत्तियोंको करना (उनमें सम्बन्ध जोड़ना अर्थात् रागद्वेष करना) होता है। होने और करनेमें बड़ा अन्तर है। होना समष्टिगत होता है और करना व्यक्तिगत होता है। संसारमें जो होता है? उसकी जिम्मेवारी हमारेपर नहीं होती। जो हम करते हैं? उसीकी जिम्मेवारी हमारेपर होती है।जिस समष्टि शक्तिसे संसारमात्रका संचालन होता है? उसी शक्तिसे हमारे शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि(जो कि संसारके ही अंश हैं) का भी संचालन होता है। जब संसारमें होनेवाली क्रियाओंके गुणदोष हमें नहीं लगते? तब शरीरादिमें होनेवाली क्रियाओंके गुणदोष हमें लग ही कैसे सकते हैं परन्तु जब स्वतः होनेवाली क्रियाओंमेंसे कुछ क्रियाओँके साथ मनुष्य रागद्वेषपूर्वक अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् उनका कर्ता बन जाता है? तब उनका फल उसको ही भोगना पड़ता है। इसलिये अन्तःकरणमें सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंसे होनेवाली अच्छीबुरी वृत्तियोंसे साधकको रागद्वेष नहीं करना चाहिये अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये।वृत्तियाँ एक समान किसीकी भी नहीं रहतीं। तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुषके अन्तःकरणमें भी होती हैं? पर उसका उन वृत्तियोंसे रागद्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ आपसेआप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुषकी दृष्टि उधर जाती ही नहीं क्योंकि उसकी दृष्टिमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।देखना और दीखना -- दोनोंमें बड़ा फरक है। देखना करने के अन्तर्गत होता है और दीखना होने के अन्तर्गत होता है। दोष देखनेमें होता है? दीखनेमें नहीं। अतः साधकको यदि अन्तःकरणमें खराबसेखराब वृत्ति भी दीख जाय? तो भी उसको घबराना नहीं चाहिये। अपनेआप दीखनेवाली (होनेवाली) वृत्तियोंसे रागद्वेष करना अर्थात् उनके अनुसार अपनी स्थिति मानना ही उनको देखना है। साधकसे भूल यही होती है कि वह दीखनेवाली वस्तुको देखने लग जाता है और फँस जाता है। भगवान् राम कहते हैं -- सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक। गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।। (मानस 7। 41)साधकको गहराईसे विचार करना चाहिये कि वृत्तियाँ तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं? पर स्वयं (अपना स्वरूप) सदा ज्योंकात्यों रहता है। वृत्तियोंमें होनेवाले परिवर्तनको देखनेवाला स्वरूप परिवर्तनरहित है। कारण कि परिवर्तनशीलको परिवर्तनशील नहीं देख सकता? प्रत्युत परिवर्तनरहित ही परिवर्तनशीलको देख सकता है। इससे सिद्ध होता है कि स्वरूप वृत्तियोंसे अलग है। परिवर्तनशील गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेसे ही गुणोंमें होनेवाली वृत्तियाँ अपनेमें प्रतीत होती हैं। अतः साधकको आनेजाने वाली वृत्तियोंके साथ मिलकर अपने वास्तविक स्वरूपसे विचलित नहीं होना चाहिये। चाहे जैसे वृत्तियाँ आयें? उनसे राजीनाराज नहीं होना चाहिये उनके साथ अपनी एकता नहीं माननी चाहिये। सदा एकरस रहनेवाले गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्त? निर्विकार एवं अविनाशी अपने स्वरूपको न देखकर परिवर्तनशील? विकारी एवं विनाशी वृत्तियोंको देखना साधकके लिये महान् बाधक है।

Swami Tejomayananda

।।14.22।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे पाण्डव ! (ज्ञानी पुरुष) प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह के प्रवृत्त होने पर भी उनका द्वेष नहीं करता तथा निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा नहीं करता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।14.22।।प्रायो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। तथा हि सामवेदे भाल्लवेयशाखायाम् -- रजस्तमस्सत्त्वगुणान्प्रवृत्तान्प्रायो न च द्वेष्टि न चापि काङ्क्षति। तथापि सूक्ष्मं सत्त्वगुणं च काङ्क्षेद्यदि प्रविष्टं सुतमश्च जह्यात् इति।न हि देवा ऋषयश्च सत्त्वस्था नृपसत्तम। हीनाः सत्वेन सूक्ष्मेण ततो वैकारिका मताः। कथं वैकारिको गच्छेत्पुरुषः पुरुषोत्तमम् इति मोक्षधर्मे।सात्त्विकः पुरुषव्याघ्र भवेन्मोक्षार्थनिश्चितः इति च।

Sri Anandgiri

।।14.22।।प्रश्नस्वरूपमनूद्य तदुत्तरं दर्शयति -- गुणातीतस्येति। पृष्टो भगवानिति संबन्धः। किंवृत्तस्य त्रिधा प्रयोगदर्शनात्प्रश्नद्वयार्थमित्युपलक्षणं प्रश्नत्रयार्थमिति द्रष्टव्यम्। उत्तरमवतार्यानन्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- यत्तावदिति। तानि सम्यग्दर्शी न द्वेष्टीत्युक्तमेव स्पष्टयितुं निषेध्यमसम्यग्दर्शिनो द्वेषं तेषु प्रकटयति -- ममेत्यादिना। सम्यग्दर्शिनः संप्रवृत्तेषु प्रकाशादिषु द्वेषाभावमुपसंहरति -- तदेवमिति। न निवृत्तानीत्यादि व्याचष्टे -- यथाचेति। तेषामनात्मीयत्वं सम्यक्पश्यन्नात्मानुकूलप्रतिकूलतारोपणेन नोद्विजते तेभ्यश्च न स्पृहयतीत्यर्थः। स्वानुभवसिद्धं गुणातीतस्य लक्षणमुक्तमित्याह -- एतन्नेति। परप्रत्यक्षत्वाभावं प्रपञ्चयति -- नहीति। आश्रयो विषयः।

Sri Vallabhacharya

।।14.22।।तदा श्रीभगवांस्तत्स्वरूपमाचारं गुणातीततां च लक्षयन्नाह चतुर्भिः -- प्रकाशं चेत्यादिभिः। प्रकाशः सात्त्विकः? प्रवृत्ती राजसी? मोहस्तामस इत्येतानि त्रिगुणकार्याणि अनात्मसु प्रवृत्तानि न द्वेष्टि? यदि निवृत्तानि च तथापि न काङ्क्षति? अथवा प्रकाशं कर्माणि च निवृत्तानि न काङ्क्षति? कर्मप्रवृत्तिं मोहं च न द्वेष्टि? प्रवृत्तानि च कर्माण्यपीति।

Sridhara Swami

।।14.22।। स्थितप्रज्ञस्य का भाषा इत्यादिना द्वितीयाध्याये पृष्टमपि दत्तोत्तरमपि पुनर्विशेषबुभुत्सया पृच्छतीति ज्ञात्वा प्रकारान्तरेण तस्य लक्षणादिकं श्रीभगवानुवाच -- प्रकाशं चेत्यादिषड्भिः। तत्रैकेन लक्षणमाह।।प्रकाशं चेति। प्रकाशं चसर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् इति पूर्वोक्तं सत्त्वकार्यं? प्रवृत्तिं च रजःकार्यम्? मोहं च तमसः कार्यम्। उपलक्षणमेतत्सत्त्वादीनाम्। सर्वाण्यपि कार्याणि यथायथं संप्रवृत्तानि स्वतःप्राप्तानि सन्ति दुःखबुद्ध्या यो न द्वेष्टि? निवृत्तानि च सन्ति सुखबुद्ध्या न काङ्क्षति? गुणातीतः स उच्यत इति चतुर्थेनान्वयः।

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