Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 11 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः | सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ||१२-११||

Transliteration

athaitadapyaśakto.asi kartuṃ madyogamāśritaḥ . sarvakarmaphalatyāgaṃ tataḥ kuru yatātmavān ||12-11||

Word-by-Word Meaning

अथif
एतत्this
अपिalso
अशक्तःunable
असि(thou) art
कर्तुम्to do
मद्योगम्My Yoga
आश्रितःresorting to
सर्वकर्मफलत्यागम्the renunciation of the fruits of all actions
ततःthen
कुरुdo

📖 Translation

English

12.11 If thou art unable to do even this, then, resorting to union with Me, renounce the fruits of all actions with the self controlled.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।12.11।। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your professional life, focus intensely on the quality of your work and effort, rather than solely on promotions, bonuses, or recognition. Do your best, but gracefully accept outcomes, whether success or setback, without letting them define your worth or cause undue stress. This fosters a resilient and dedicated approach to tasks, prioritizing contribution over personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

To manage stress and anxiety, shift your focus from worrying about potential results to diligently performing your responsibilities with self-control. By renouncing attachment to specific outcomes, you reduce the emotional burden of expectation and the sting of disappointment, cultivating mental equanimity and inner calm regardless of external circumstances. This practice helps to stabilize your mental health by reducing the influence of external factors.

❤️ In Relationships

In personal relationships, act with genuine love, care, and support, focusing on your contributions without demanding specific returns or reactions from others. Practice self-control over your expectations, offering your best self without attachment to how others reciprocate. This fosters healthier, less co-dependent connections, prevents resentment from unmet expectations, and allows you to give purely.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even when higher spiritual practices seem unattainable, diligently perform your duties with self-control, detaching from the fruits of your actions; this path of surrender itself is a profound way to achieve inner peace and connect with the Divine.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

12.11 अथ if? एतत् this? अपि also? अशक्तः unable? असि (thou) art? कर्तुम् to do? मद्योगम् My Yoga? आश्रितः resorting to? सर्वकर्मफलत्यागम् the renunciation of the fruits of all actions? ततः then? कुरु do? यतात्मवान् selfcontrolled.Commentary This is the easiest path. If thou art unable to perform actions for My sake? if thou canst not even be intent on My service? if thou art unable to practise the Bhagavata Dharmas? if thous wishest to do actions impelled by personal desires? then do thou perform them (for your sake from a sense of duty) renouncing them all in Me and also abandon the fruits of all actions? at the same time practising selfcontrol.In verse 8 the Yoga of meditation is prescribed for advanced students in verse 9 the Yoga of constant practice if one finds that? too? to be difficult? the performance of actions for the sake of the Lord alone has been taught in verse 10 and those who cannot do even this are asked to abandon the fruits of all actions.Madyogam My Yoga. Surrendering all actions and their fruits to Me is My Yoga.Yatatmavan The man of discrimination who has controlled all the senses? who has withdrawn the senses from sound? touch? form? taste and smell.Now the Lord eulogises the renunciation of the fruits of all actions in order to encourage the aspirants to practise the Yoga of renunciation of the fruits of actions.

Shri Purohit Swami

12.11 And if thou art too weak even for this, then seek refuge in union with Me, and with perfect self-control renounce the fruit of thy action.

Dr. S. Sankaranarayan

12.11. Now, if you are not capable of doing this too, then taking resort to My Yoga renounce the fruit of all action, with your self (mind) subdued.

Swami Adidevananda

12.11 If you are unable to do even this, i.e., taking refuge in My Yoga, then, with your self controlled, renounce the fruits of every action.

Swami Gambirananda

12.11 If you are unable to do even this, in that case, having resorted to the Yoga for Me, thereafter renounce the results of all works by becoming controlled in mind.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।12.11।। पूर्व श्लोक में? हमें अहंकार का सर्वथा त्याग करके जगत् में कर्म करने का उपदेश दिया गया था। अत्यन्त अहंकारी और मानी पुरुष के लिए यह कार्य़ इतना सरल नहीं है। ऐसा पुरुष रजोगुण के कारण अत्यन्त क्षुब्ध रहता है तथा तमोगुण की निम्नस्तरीय प्रवृत्तियों के कारण उसका व्यक्तित्व विषाक्त रहता है। ऐसे निम्न स्तर के व्यक्ति के लिए भी गीता में साधन मार्ग बताया गया है। प्राय ऐसा पुरुष सभी धर्मों के लिए निराशा का ही विषय बन जाता है। परन्तु? गीता में ऐसे दीर्घस्थायी रोग से पीड़ित रोगियों के लिये भी विचारपूर्वक उपचार बताया गया है। वह उपचार सरल किन्तु ऐसा प्रभावी है कि उसके द्वारा उस रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त कर उस्ो सर्वोच्च व्यक्तित्व की आभा तथा कार्यकुशलता प्रदान की जा सकती है।यदि समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर पाना असंभव है? तो उस साधक के लिए उतना ही प्रभावी अन्य उपाय यहाँ बताया गया है कि? आत्मसंयम से युक्त होकर? मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर? तुम समस्त कर्मों के फलों का त्याग करो।ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण को वे लोग अप्रिय हैं? जो केवल वेतनार्थी होते हैं। परन्तु उनका यह द्वेष मध्यमवर्गीय अथवा उच्चवर्गीय लोगों के मन में पसीना बहाने वाले मजदूरों के प्रति तिरस्कार नहीं समझना चाहिए। समाजवाद की प्रणाली वाले राष्ट्र में प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति के मन में श्रीकृष्ण की यह अधीरता उठती है। वे अपने राष्ट्र में ऐसे लोगों को सहन नहीं कर सकते? जो केवल वेतन या व्यक्तिगत लाभ के लिए ही कर्म करते हैं। ऐसे समादवादी राष्ट्र में ऐसा प्रत्येक कर्मचारी दण्ड के योग्य अपराधी माना जायेगा जो अधिकतम अकुशलता से किये गये? न्यूनतम समय के कार्य के लिए उच्चतम वेतन की मांग करता है। इस प्रकार के वेतनार्थियों के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण की अप्रियता उनके उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है।वर्तमान क्षण में किया गया कर्म ही परिपक्व होकर भविष्य के क्षण में फल बनकर प्रकट होता है। आज? यदि कोई कृषक भूमि को जोतकर बीज बोता है? तो उसे वह फसल दोतीन महीनों के पश्चात् ही प्राप्त होगी। और यदि वह कृषक वर्तमान में करने योग्य कार्य को त्यागकर भविष्य में आने वाले फल की ही चिन्ता करने में समय का अपव्यय करे? तो निश्चय ही उसे कभी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि यह एक सुविदित तथ्य है? तथापि बहुसंख्यक लोग वर्तमान में प्राप्त अवसरों को केवल भविष्य की चिन्ता करने में ही खो देते हैं। भविष्य की चिन्ता एवं भय के कारण हमारी समस्त क्षमताएं नष्ट हो जाती हैं? और वह मनकल्पित अन्धकारमय भविष्य तो अभी आया ही नहीं हैं? और सम्भवत कभी आये भी नहीं यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण केवल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम भविष्य विषयक इन व्यर्थ कल्पनाओं को त्याग दें और वर्तमान काल में ही सजग परिपूर्ण और प्रभावी जीवन जियें। इस प्रकार का जीवन जीने से भी हमारा व्यक्तित्व सुगठित और मन एकाग्र और समर्थ बन सकता है।उपर्युक्त तीन श्लोकों में तीन प्रकार के साधकों के लिए तीन भिन्नभिन्न साधनाएं बतायी गयी हैं। सभी मनुष्य किसी सीमा तक बहिर्मुखी होते ही हैं। दो मनुष्यों के बीच जो अन्तर होता है? वह उन दोनों के अन्तकरण में स्थित वासनाओं की परतों की मोटाई के कारण होता है। यदि एक पीतल का पात्र हल्कासा मैला हुआ हो? तो उसे चमकाने के लिए केवल राख से मांजना ही पर्याप्त होता है यदि वह मैल अधिक घना हो तो उसकी स्वच्छता के लिए कुछ अम्ल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार? यदि मन में वासनाओं की पतली परत ही है तो उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों को अभ्यासयोग के द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु वासनाधिक्य होने पर कर्मयोग की आवश्यकता होगी? जिसमें साधक को समस्त कर्म ईश्वर को अर्पण करने का उपदेश दिया गया है। यदि किसी पुरुष के अन्तकरण में वासनाओं की परतें और भी घनी हों? तो उसे कर्मफल का त्याग करने को कहा जाता है। यहाँ कर्मफल त्याग का अर्थ यह है कि भविष्य में आने वाले फलों की व्यर्थ की चिन्ताओं और कल्पनाओं का सर्वथा त्याग कर देना और वर्तमान में कर्म करते रहना। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है? विश्व के किसी भी आध्यात्मिक ग्रन्थ में आत्मविकास के लिए इतने विविध और विस्तृत मार्गों का विवेचन नहीं किया गया है? जितना भगवद्गीता में हैं।उपर्य़ुक्त तीन साधनों का अभ्यास एक साथ नहीं हो सकता है। उन्हें क्रमवार करना है। इस बात को दर्शाते हुए? अगले श्लोक में? भगवान् सर्वकर्मफल त्याग की प्रशंसा करते हैं

Swami Ramsukhdas

।।12.11।। व्याख्या--'अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेसे अपनी प्राप्ति बतायी और अब इस श्लोकमें वे सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागरूप साधनकी बात बता रहे हैं। वहाँ भगवान्के लिये समस्त कर्म करनेमें भक्तिकी प्रधानता होनेसे उसे 'भक्तियोग' कहेंगे और यहाँ सर्वकर्मफलत्यागमें केवल फलत्यागकी मुख्यता होनेसे इसे 'कर्मयोग' कहेंगे। इस प्रकार भग���त्प्राप्तिके ये दोनों ही स्वतन्त्र (पृथक्-पृथक्) साधन हैं।  इस श्लोकमें 'मद्योगमाश्रितः' पदका सम्बन्ध 'अथैतदप्यशक्तोऽसि' के साथ मानना ही ठीक मालूम देता है; क्योंकि यदि इसका सम्बन्ध 'सर्वकर्मफलत्यागं कुरु' के साथ माना जाय, तो भगवान्के आश्रयकी मुख्यता हो जानेसे यहाँ 'भक्तियोग' ही हो जायगा। ऐसी दशामें दसवें श्लोकमें कहे हुए भक्तियोगके साधनसे इसकी भिन्नता नहीं रहेगी, जबकि भगवान् दसवें और ग्यारहवें श्लोकमें क्रमशः 'भक्तियोग' और 'कर्मयोग' -- दो भिन्न-भिन्न साधन बताना चाहते हैं।  दूसरी बात? भगवान्ने इस श्लोकमें 'यतात्मवान्' (मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके सहित शरीरपर विजय प्राप्त करनेवाला) पद भी दिया है। आत्मसंयमकी विशेष आवश्यकता कर्मयोगमें ही है; क्योंकि आत्मसंयमके बिना सर्वकर्म-फलत्याग होना असम्भव है। इसलिये भी 'मद्योगमाश्रितः' पदका सम्बन्ध 'अथैतदप्यशक्तोऽसि' के साथ मानना चाहिये, न कि सर्वकर्मफलत्याग करनेकी आज्ञाके साथ।   जिसका भगवान्पर तो उतना विश्वास नहीं है, पर भगवान्के विधानमें अर्थात् देश-समाजकी सेवा आदि करनेमें अधिक विश्वास है, उसके लिये भगवान् इस श्लोकमें सर्वकर्मफलत्याग-रूप साधन बताते हैं। तात्पर्य है कि अगर वह सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण न कर सके, तो जिस फलको प्राप्त करना उसके हाथकी बात नहीं है, उस फलकी इच्छाका त्याग कर दे--'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' (गीता 2। 47)। फलकी इच्छाका त्याग करके कर्तव्य कर्म करनेसे उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा।,  'सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्'--कर्मयोगके साधनमें स्वाभाविक ही कर्मोंका विस्तार होता है; क्योंकि योगकी प्राप्तिमें अनासक्त भावसे कर्म करना ही हेतु कहा गया है (गीता 6। 3 )। इससे कर्मोंमें फलासक्ति होनेके कारण बँधनेका भय रहता है। अतः 'यतात्मवान्' पदसे भगवान् कर्मफलत्यागके साधनमें मन-इन्द्रियों आदिके संयमकी आवश्यकता बताते हैं। यह ध्यान देनेकी बात है कि मन-इन्द्रियोंका संयम होनेपर कर्मफलत्यागमें भी सुगमता होती है। अगर साधक मन-बुद्धि-इन्द्रियों आदिका संयम नहीं करता, तो स्वाभाविक ही उसके मनद्वारा विषयोंका चिन्तन होगा और उसकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जायगी। इससे उसका पतन होनेकी बहुत सम्भावना रहेगी (गीता 2। 62 63)। त्यागका उद्देश्य होनेसे साधक मन-इन्द्रियोंका संयम सुगमतासे कर सकता है।  यहाँ 'सर्वकर्म' पद यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रमके अनुसार जीविका तथा शरीर-निर्वाहके लिये किये जानेवाले शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंका वाचक है। सर्वकर्मफलत्यागका अभिप्राय स्वरूपसे कर्मफलका त्याग न होकर कर्मफलमें ममता, आसक्ति, कामना, वासना आदिका त्याग ही है।  कर्मफलत्यागके साधनमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी बात नहीं कही गयी; क्योंकि कर्म करना तो जरूरी है (गीता 6। 3)। जैसा कि पहले कह चुके हैं, आवश्यकता केवल कर्मों और उनके फलोंमें ममता, आसक्ति, कामना आदिके त्यागकी ही है। कर्मयोगके साधकको अकर्मण्य नहीं होना चाहिये; क्योंकि कर्मफल-त्यागकी बात सुनकर प्रायः साधक सोचता है कि जब कुछ लेना ही नहीं है, तो फिर कर्मोंको करनेकी क्या जरूरत! इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगकी बात कहते हुए 'मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' 'तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो' -- यह कहकर साधकके लिये अकर्मण्यता-(कर्मके त्याग-) का निषेध किया है।  अठारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने सात्त्विक त्याग के लक्षण बताते हुए कर्मोंमें फलासक्तिके त्यागको ही 'सात्त्विक' त्याग कहा है, न कि स्वरूपसे कर्मोंके त्यागको।फलासक्तिका त्याग करके क्रियाओंको करते रहनेसे क्रियाओंको करनेका वेग शान्त हो जाता है और पुरानी आसक्ति मिट जाती है। फलकी इच्छा न रहनेसे कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और नयी आसक्ति पैदा नहीं होती। फिर साधक कृतकृत्य हो जाता है। पदार्थोंमें राग, आसक्ति, कामना, ममता, फलेच्छा आदि ही क्रियाओंका वेग पैदा करनेवाली है। इनके रहते हुए हठपूर्वक क्रियाओंका त्याग करनेपर भी क्रियाओंका वेग शान्त नहीं होता। राग-द्वेष रहनेके कारण साधककी प्रकृति पुनः उसे कर्मोंमें लगा देती है। अतः राग-द्वेषादिका त्याग करके निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे ही क्रियाओंका वेग शान्त होता है।  जिन साधकोंकी सगुण-साकार भगवान्में स्वाभाविक श्रद्धा और भक्ति नहीं है, प्रत्युत व्यावहारिक और लोकहितके कार्य करनेमें ही अधिक श्रद्धा और रुचि है, ऐसे साधकोंके लिये यह (सर्वकर्मफलत्याग-रूप) साधन बहुत उपयोगी है। भगवान्ने जहाँ भी कर्मफलत्यागकी बात कही है, वहाँ आसक्ति और फलेच्छाके त्यागका अध्याहार कर लेना चाहिये; क्योंकि भगवान्के मतमें आसक्ति और फलेच्छाका पूरी तरह त्याग होनेसे ही कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होता है (गीता 18। 6)।  सम्पूर्ण कर्मोंके फल-(फलेच्छा-) का त्याग भगवत्- प्राप्प्तिरका स्वतन्त्र साधन है। कर्मफलत्यागसे विषयासक्तिका नाश होकर शान्ति-(सात्त्विक सुख-) की प्राप्ति हो जाती है। उस शान्तिका उपभोग न करनेसे (उसमें,सुख-बुद्धि करके उसमें न अटकनेसे) वह शान्ति परमतत्त्वका बोध कराकर उससे अभिन्न करा देती है। ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने साधक भक्तके पाँच लक्षणोंमें एक लक्षण 'सङ्गवर्जितः' (आसक्तिसे रहित) बताया था। इस श्लोकमें भगवान् सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागकी बात कहते हैं, जो संसारकी आसक्तिके सर्वथा त्यागसे ही सम्भव है। इस-(सर्वकर्म-फलत्याग-)का फल भगवान्ने इसी अध्यायके बारहवें श्लोकमें तत्काल परमशान्तिकी प्राप्ति होना बताया है। अतः यह समझना चाहिये कि केवल आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेसे भी परमशान्ति अथवा भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।  सम्बन्ध--भगवान्ने आठवें श्लोकसे ग्यारहवें श्लोकतक एक साधनमें असमर्थ होनेपर दूसरा, दूसरे साधनमें असमर्थ होनेपर तीसरा और तीसरे साधनमें असमर्थ होनेपर चौथा साधन बताया। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या अन्तमें बताया गया 'सर्वकर्मफलत्याग' साधन सबसे निम्न श्रेणीका है? क्योंकि उसको सबसे अन्तमें कहा गया है तथा भगवान्ने उस-(सर्वकर्मफलत्याग-)का कोई फल भी नहीं बताया। इस शङ्का निवारण करते हुए भगवान् सर्वकर्मफलत्यागरूप साधनकी श्रेष्ठता तथा उसका फल बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।12.11।। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।12.11।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।12.11।।भगवत्कर्मपरत्वमप्यशक्यमिति शङ्कते -- अथेति। बहिर्विषयाकृष्टचेतस्त्वादित्यर्थः। तर्हि भगवत्प्राप्त्युपायत्वेन संयतचित्तो भूत्वा कर्मफलसंन्यासं कुर्वित्याह -- मद्योगमिति।

Sri Vallabhacharya

।।12.11।।अथैतदपि न कर्त्तुं त्वं शक्तोसि चेत्तर्हि मद्योगं मत्सम्बन्धसेव्यसेवकत्वरूपमाश्रितः सन् सर्वकर्मफलत्यागं कुरु। एतदुक्तं भवति -- ईश्वराज्ञया परमाचार्योपदिष्टशरणमार्गतः यथाशक्ति स्वधर्माचरणं फलादित्यागपूर्वकं सुखावहमिति मयि भारमारोप्य अन्यज्ञानयोगधर्मपरित्यागेन मदाश्रये कृतार्थतेति। विशेषस्त्वग्रे स्पष्टीकरिष्यते।

Sridhara Swami

।।12.11।। अत्यन्तं भगवद्धर्मपरिनिष्ठायामशक्तस्य पक्षान्तरमाह -- अथैतदपीति। अथैतदपि कर्तुमशक्तोऽसि तर्हि मद्योगं मदेकशरणत्वमाश्रितः सर्वेषां दृष्टादृष्टार्थानामावश्यकानां चाग्निहोत्रादिकर्मणां फलानि नियतचित्तो भूत्वा परित्यज। एतदुक्तं भवति। मया तावदीश्वराज्ञया यथाशक्ति कर्माणि कर्तव्यानि? फलं पुनर्दृष्टमदृष्टं वा परमेश्वराधीनमित्येवं मयि भारमारोप्य फलासक्तिं परित्यज्य वर्तमानो मत्प्रसादेन कृतार्थो भविष्यसीति तात्पर्यम्।

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