Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 12 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते | ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ||१२-१२||
Transliteration
śreyo hi jñānamabhyāsājjñānāddhyānaṃ viśiṣyate . dhyānātkarmaphalatyāgastyāgācchāntiranantaram ||12-12||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
12.12 Better indeed is knowledge than practice; than knowledge meditation is better; than meditation the renunciation of the fruits of actions: peace immediately follows renunciation.
।।12.12।। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है त्याग; से तत्काल ही शान्ति मिलती है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, instead of being solely fixated on promotions, bonuses, or external validation, focus on mastering your craft, delivering quality work, and contributing meaningfully. Embrace the process of learning and execution, allowing yourself to detach from excessive worry about the exact outcome of every project or negotiation, trusting in your best effort. This approach fosters a greater sense of purpose and resilience.
🧘 For Stress & Anxiety
Much of mental stress and anxiety stems from worrying about future results or outcomes beyond our control. By consciously focusing on your actions, effort, and the present moment, and detaching from the *fruits* (specific results) of those actions, you can significantly reduce mental clutter, disappointment, and anticipatory stress. Cultivate an inner peace that isn't dependent on external success or failure.
❤️ In Relationships
Engage in relationships with genuine care, love, and support, acting with kindness and integrity without rigid expectations of how the other person *should* respond or what specific benefits you *must* receive. This fosters healthier connections, reduces the sting of unmet expectations, and allows for unconditional giving, leading to deeper, more fulfilling bonds.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“True and lasting peace arises not from the acquisition of knowledge, disciplined practice, or deep meditation alone, but culminates in the profound liberation achieved by detaching from the fruits of your actions.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
12.12 श्रेयः better? हि indeed? ज्ञानम् knowledge? अभ्यासात् than practice? ज्ञानात् than knowledge? ध्यानम् meditation? विशिष्यते excels? ध्यानात् than meditation? कर्मफलत्यागः the renunciation of the fruits of actions? त्यागात् from renunciation? शान्तिः peace? अनन्तरम् immediately.Commentary Theoretical or indirect knowledge of Brahman gained from the scriptures is better than the practice (of restraining the modifications of the mind or worship of idols or selfmortification for the purpose of control of the mind and the senses) accompained with ignorance. Meditation is better than theoretical knowledge. Renunciation of the fruits of actions is bettern than meditation. Renunciation of the fruits of all actions as a means to the attainment of supreme peace or Moksha is merely eulogised here by the declaration of the superiority of one over the other to encourage Arjuna (and other spiritual aspirants) to practise Nishkama Karma Yoga? to create a strong desire in them to take up the Yoga of selfless action? in the same manner as by saying that the ocean was drunk by the Brahmana sage Agastya even the Brahmanas of this age are extolled because they are also Brahmanas.Desire is an enemy of peace. Desire causes restlessness of the mind. Desire is the source of all human miseries? sorrows and troubles. Stop the play of desire through discrimination? dispassion and eniry into the nature of the Self then you will enjoy supreme peace.Renunciation of the fruits of actions? is prescribed for the purification of the aspirants heart. It annihlates desire? the enemy of wisdom. The sage? too? renounces the fruits of actions. It has become natural to him to do so.
Shri Purohit Swami
12.12 Knowledge is superior to blind action, meditation to mere knowledge, renunciation of the fruit of action to meditation, and where there is renunciation peace will follow.
Dr. S. Sankaranarayan
12.12. For, knowledge is superior to practice; because of knowledge, meditation becomes pre-eminent; from meditation issues the renunciation of fruits of actions; and to renunciation, peace remains next.
Swami Adidevananda
12.12 Far better is knowledge of the self then the repeated practice (of remembrance of the Lord). Better is meditation than this knowledge; Better is renunciation of fruits of action than meditation. From such renunciation, peace ensues.
Swami Gambirananda
12.12 Knowledge is surely superior to practice; meditation surpasses knowledge. The renunciation of the results of works (excels) meditation. From renunciation, Peace follows immediately.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।12.12।। भ्रमित शिष्य को उपदेश देते समय गुरु के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि वह केवल दार्शनिक सत्यों का नाम निर्देश कर उनकी गणना करें। आवश्यकता होती है उन विचारों के एक ऐसी सुन्दर संयोजना की? जिससे विद्यार्थी को सभी विचार पुष्पगुच्छ के समान एक ही स्थान पर प्राप्त हो जायें। इससे तत्त्व को समझने में सहायता मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रवचन का विचाराधीन श्लोक एक ऐसा ही उदाहरण विशेष है? जिसमें अब तक किये सैद्धांतिक विवेचन को एक सुसंयोजित विचार पद्धति से प्रस्तुत किया गया है।इस श्लोक में सैद्धांतिक विचारों को उनके महत्त्व की दृष्टि से उतरते क्रम में रखा गया है। एक बार यदि साधना के इस सोपान को साधक भली भाँति समझ लेता है और इस सोपान पर आरोहण व अवरोहण की कला भी सीख लेता है? तो यह माना जा सकता है कि उसने इस अध्याय के विवेचित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों को पूर्णरूप से समझ लिया है।अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है आध्यात्मिक साधनाएं केवल शारीरिक क्रियायें नहीं हैं? वरन् उनका प्रय़ोजन हमारे मन और बुद्धि को अर्थात् हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व को सुगठित करना है। शरीर से की जाने वाली भक्ति साधना को अन्तकरण का सहयोग तब तक नहीं मिलेगा? जब तक कि साधक को उसके द्वारा की जा रही साधना का सम्यक् ज्ञान नहीं होता। शारीरिक क्रियाओं को मन का भक्तिभावनापूर्ण सहयोग प्राप्त कराने के पूर्व बुद्धि का परिवर्तन अत्यावश्यक होता है। हम जिसका अभ्यास कर रहे हैं और उसका प्रयोजन क्या है? इसका पूर्ण ज्ञान होना योग को सफल बनाने के लिए अपरिहार्य है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि केवल यन्त्रवत् साधनाभ्यास करने की अपेक्षा उसके मनोवैज्ञानिक? बौद्धिक और आध्यात्मिक आशयों का ज्ञान होना अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है।ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है श्रवणादि साधनों से प्राप्त किये गये ज्ञान पर ध्यान करना उस ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक साधनाओं की प्रक्रिया और प्रय़ोजन के शास्त्रीय ज्ञान को समझने की अपेक्षा उन्हें सीखना अधिक सरल होता है। श्रवण से प्राप्त ज्ञान को आत्मसात् करने के लिए उस पर विचारपूर्वक मनन और ध्यान की आवश्यकता होती है। शास्त्रवाक्यों के केवल शाब्दिक अर्थ को जानने से यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इसलिए मनन और निदिध्यासन अनिवार्य़ होते हैं। केवल श्रवण से किये गये ज्ञान से आत्मसात् किया हुआ ज्ञान निश्चित ही अधिक श्रेष्ठ होता है उसे आत्मसात् करने का साधन ध्यान है? इसलिए महत्व के अनुक्रम में ध्यान को ज्ञान की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ कहा गया है।ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है वर्तमान में प्राप्त ज्ञान की परिसीमा के परे सुदूर स्थित श्रेष्ठतर ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उड़ान भरने का बुद्धि का प्रयत्न ही ध्यान कहलाता है। इस उड़ान के लिए बुद्धि के पास शक्ति और सन्तुलन का होना आवश्यक है। उस व्यक्ति के लिए ध्यान का अभ्यास असंभव है? जिसके मन की शक्ति और स्थिरता? भावी फलों की चिन्ता व कल्पना के कारण छिन्नभिन्न हो गयी होती हैं। पूर्व श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार भविष्य के प्रति हमारी चिन्ता और व्याकुलता? वर्तमान में कार्य करने की हमारी क्षमता को नष्ट कर देती हैं। सभी कर्मफल भविष्य में ही आते हैं और इनकी चिन्ता करने का अर्थ है? असंख्य म्ाानसिक विक्षेपों को आमन्त्रित करना। इस प्रकार विक्षुब्ध अन्तकरण से कोई भी साधक शास्त्र प्रतिपादित सत्य पर न मनन कर सकता है और न ध्यान। इसलिए यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्मफल त्याग को श्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं।अपने कथन पर टिप्पणी को जोड़ते हुए भगवान् कहते हैं कि? त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है। हिन्दू धर्म में संन्यास का वास्तविक अर्थ यह है कि इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने से उत्पन्न होने वाले सुख भोग की बन्धनकारक आसक्तियों को त्याग देना।इस त्याग के परिणामस्वरूप साधक को अन्तकरण की प्रभावशाली शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती है। ऐसे शान्त वातावरण में बुद्धि शास्त्र के ज्ञान पर मनन करके उसमें वर्णित आत्मविकास के साधनों को सम्यक् प्रकार से समझ पाती है और इस प्रकार ज्ञानपूर्वक ध्यान का अभ्यास करने पर साधक को निश्चित ही सफलता मिलती है।अब? अक्षर और अव्यक्त की उपासना करने वाले ज्ञानी भक्तजनों के आंतरिक लक्षण? अगले श्लोक में बताये जा रहे हैं? जो साधकों के लिए पूर्णत्व प्राप्ति के उपायभूत साक्षात् साधन हैं
Swami Ramsukhdas
।।12.12।। व्याख्या--[भगवान्ने आठवें श्लोकसे ग्यारहवें श्लोकतक एक-एक साधनमें असमर्थ होनेपर क्रमशः समर्पण-योग, अभ्यासयोग, भगवदर्थ कर्म और कर्मफल-त्याग--ये चार साधन बताये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमशः पहले साधनकी अपेक्षा आगेका साधन नीचे दर्जेका है, और अन्तमें कहा गया कर्मफलत्यागका साधन सबसे नीचे दर्जेका है। इस बातकी पुष्टि इससे भी होती है कि पहलेके तीन साधनोंमें भगवत्प्राप्तिरूप फलकी बात ('निवसिष्यसि मय्येव' , मामिच्छाप्तुम्' तथा 'सिद्धिमवाप्स्यसि' -- इन पदोंद्वारा) साथ-साथ कही गयी; परन्तु ग्यारहवें श्लोकमें जहाँ कर्मफलत्याग करनेकी आज्ञा दी गयी है, वहाँ उसका फल भगवत्प्राप्ति नहीं बताया गया। उपर्युक्त धारणाओंको दूर करनेके लिये यह बारहवाँ श्लोक कहा गया है। इसमें भगवान्ने कर्मफलत्यागको श्रेष्ठ और तत्काल परमशान्ति देनेवाला बताया है, जिससे कि इस चौथे साधनको कोई निम्न श्रेणीका न समझ ले। कारण कि इस साधनमें आसक्ति, ममता और फलेच्छाके त्यागकी ही प्रधानता होनेसे जिस तत्त्वकी प्राप्ति समर्पणयोग, अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करनेसे होती है, ठीक उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्मफलत्यागसे भी होती है। वास्तवमें उपर्युक्त चारों साधन स्वतन्त्रतासे भगवत्प्राप्ति करानेवाले हैं। साधकोंकी रुचि, विश्वास और योग्यताकी भिन्नताके कारण ही भगवान्ने आठवेंसे ग्यारहवें श्लोकतक अलग-अलग साधन कहे हैं। जहाँतक कर्मफलत्यागके फल-(भगवत्प्राप्ति-) को अलगसे बारहवें श्लोकमें कहनेका प्रश्न है, उसमें यही विचार करना चाहिये कि समर्पणयोग, अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करनेसे भगवत्प्राप्ति होती है, यह तो प्रायः प्रचलित ही है; किंतु कर्मफलत्यागसे भी भगवत्प्राप्ति होती है, यह बात प्रचलित नहीं है। इसीलिये प्रचलित साधनोंकी अपेक्षा इसकी श्रेष्ठता बतानेके लिये बारहवाँ श्लोक कहा गया है और उसीमें कर्मफलत्यागका फल कहना उचित प्रतीत होता है।] 'श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात्'-- महर्षि पतञ्जलि कहते हैं -- 'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः।' (योगदर्शन 1। 13) अर्थात् किसी एक विषयमें स्थिति (स्थिरता) प्राप्त करनेके लिये बार-बार प्रयत्न करनेका नाम 'अभ्यास' है। यहाँ (इस श्लोकमें) 'अभ्यास' शब्द केवल अभ्यासरूप क्रियाका वाचक है, अभ्यासयोगका वाचक नहीं; क्योंकि इस (प्राणायाम, मनोनिग्रह आदि) अभ्यासमें शास्त्रज्ञान और ध्यान नहीं है तथा कर्मफलकी इच्छाका त्याग भी नहीं है। जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही योग होता है, जबकि उपर्युक्त अभ्यासमें जडता-(शरीर,इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि-) का आश्रय रहता है। यहाँ 'ज्ञान' शब्दका अर्थ शास्त्रज्ञान है, तत्त्वज्ञान नहीं; क्योंकि तत्त्वज्ञान तो सभी साधनोंका फल है। अतः यहाँ जिस ज्ञानकी अभ्याससे तुलना की जा रही है, उस ज्ञानमें न तो अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्मफलत्याग ही है। जिस अभ्यासमें न ज्ञान है, न ध्यान है और न कर्मफलत्याग ही है --ऐसे अभ्यासकी अपेक्षा उपर्युक्त ज्ञान ही श्रेष्ठ है। शास्त्रोंके अध्ययन और सत्सङ्गके द्वारा आध्यात्मिक जानकारीको तो प्राप्त कर ले, पर न तो उसके अनुसार वास्तविक तत्त्वका अनुभव करे और न ध्यान, अभ्यास और कर्मफलत्यागरूप किसी साधनका अनुष्ठान ही करे--ऐसी (केवल शास्त्रोंकी) जानकारीके लिये यहाँ 'ज्ञानम्' पद आया है। इस ज्ञानको उपर्युक्त अभ्यासकी अपेक्षा श्रेष्ठ कहनेका तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक ज्ञानसे रहित अभ्यास भगवत्प्राप्तिमें उतना सहायक नहीं होता, जितना अभ्याससे रहित ज्ञान सहायक होता है। कारण कि ज्ञानसे भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषा जाग्रत् हो सकती है, जिससे संसारसे ऊँचा उठना जितना सुगम हो सकता है, उतना अभ्यासमात्रसे नहीं। 'ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते'-- यहाँ 'ध्यान' शब्द केवल मनकी एकाग्रतारूप क्रियाका वाचक है, ध्यानयोगका वाचक नहीं। इस ध्यानमें शास्त्रज्ञान और कर्मफलत्याग नहीं है। ऐसा ध्यान उस ज्ञानकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, जिस ज्ञानमें अभ्यास, ध्यान और कर्मफलत्याग नहीं है। कारण कि ध्यानसे मनका नियन्त्रण होता है, जब कि केवल शास्त्रज्ञानसे मनका नियन्त्रण नहीं होता। इसलिये मन-नियन्त्रणके कारण ध्यानसे जो शक्ति सञ्चित होती है, वह शास्त्रज्ञानसे नहीं होती। यदि साधक उस शक्तिका सदुपयोग करके परमात्माकी तरफ बढ़ना चाहे,तो जितनी सुगमता उसको होगी, उतनी शास्त्र-ज्ञानवालेको नहीं। इसके साथ-साथ ध्यान करनेवाले साधकको (अगर वह शास्त्रका अध्ययन करे, तो) मनकी एकाग्रताके कारण वास्तविक ज्ञानकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो सकती है, जबकि केवल शास्त्राध्यायी साधकको (चाहनेपर भी) मनकी चञ्चलताके का���ण ध्यान लगानेमें कठनिता होती है। [आजकल भी देखा जाय तो शास्त्रका अध्ययन करनेवाले आदमी जितने मिलते हैं, उतने मनकी एकाग्रताके लिये उद्योग करनेवाले नहीं मिलते।] 'ध्यानात्कर्मफलत्यागः'-- ज्ञान और कर्मफल-त्यागसे रहित 'ध्यान' की अपेक्षा ज्ञान और ध्यानसे रहित 'कर्म-फलत्याग' श्रेष्ठ है। यहाँ कर्मफलत्यागका अर्थ कर्मों तथा कर्मफलोंका स्वरूपसे त्याग नहीं है, प्रत्युत कर्मों और उनके फलोंमें ममता, आसक्ति और कामनाका त्याग ही है। उत्पत्ति-विनाशशील सब-की-सब वस्तुएँ कर्मफल हैं। उनकी आसक्तिका त्याग करना ही सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंका त्याग करना है। कर्मोंमें आसक्ति और फलेच्छा ही संसारमें बन्धनका कारण है। आसक्ति और फलेच्छा न रहनेसे कर्मफलत्यागी पुरुष सुगमतापूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य, पदार्थ आदि जो कुछ मनुष्यके पास है, वह सब-का-सब संसारसे ही मिला हुआ है, उसका व्यक्तिगत नहीं है। इसलिये कर्मफलत्यागी अर्थात् कर्मयोगी मिली हुई (शरीरादि) सब सामग्रीको अपनी और अपने लिये न मानकर उसको निष्कामभावपूर्वक संसारकी ही सेवामें लगा देता है। इस प्रकार मिली हुई साम्रगी-(जडता-) का प्रवाह संसार-(जडता-) की ही तरफ हो जानेसे उसका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और उसको परमात्मासे अपने स्वाभाविक और नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव हो जाता है। इसलिये कर्मयोगीके लिये अलगसे ध्यान लगानेकी जरूरत नहीं है। अगर वह ध्यान लगाना भी चाहे, तो कोई सांसारिक कामना न होनेके कारण वह सुगमतापूर्वक ध्यान लगा सकता है, जब कि सकाम-भावके कारण सामान्य साधकको ध्यान लगानेमें कठिनाई होती है। गीताके छठे अध्यायमें (ध्यानयोगके प्रकरणमें) भगवान्ने बताया है कि ध्यानका अभ्यास करते-करते अन्तमें जब साधकका चित्त एकमात्र परमात्मामें अच्छी तरहसे स्थित हो जाता है, तब वह सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो जाता है और चित्तके उपराम होनेपर वह स्वयंसे परमात्मतत्त्वमें स्थित हो जाता है (6। 18 -- 20)। परन्तु कर्मयोगी सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके तत्काल स्वयंसे परमात्मतत्त्वमें स्थित हो जाता है (गीता 2। 55)। कारण यह है कि ध्यानमें परमात्मामें चित्त लगाया जाता है, इसलिये उसमें चित्त-(जडता-) का आश्रय रहनेके कारण चित्त-(जडता-) के साथ बहुत दूरतक सम्बन्ध बना रहता है। परन्तु कर्मयोगमें ममता और कामनाका त्याग किया जाता है, इसलिये उसमें ममता और कामना-(जडता-) का त्याग करनेके साथ ही चित्त-(जडता-) का भी स्वतः त्याग हो जाता है। इसलिये परिणाममें समानरूपसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी ध्यानका अभ्यास करनेवाले साधकको ध्येयमें चित्त लगानेमें कठिनाई होती है तथा उसे परमात्मतत्त्वका अनुभव भी देरीसे होता है, जब कि कर्मयोगीको परमात्मतत्त्वका अनुभव सुगमतापूर्वक तथा शीघ्रतासे होता है। इससे सिद्ध होता है कि ध्यानकी अपेक्षा कर्मयोगका साधन श्रेष्ठ है। अपना कुछ नहीं, अपने लिये कुछ नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ नहीं करना है -- यही कर्मयोगका मूल महामन्त्र है, जिसके कारण यह सब साधनोंसे विलक्षण हो जाता है -- 'कर्मयोगो विशिष्यते' (गीता 5। 2)। 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' -- यहाँ 'त्यागात्' पद 'कर्मफलत्याग'के लिये ही आया है। त्यागके स्वरूपको विशेषरूपसे समझनेकी आवश्यकता है। त्याग न तो उसका हो सकता है, जो अपना स्वरूप है और न उसीका हो सकता है, जिसके साथ अपना सम्बन्ध नहीं है। जैसे, अपना स्वरूप होनेके कारण प्रकाश और उष्णतासे सूर्यका वियोग नहीं हो सकता, और जिससे वियोग नहीं हो सकता, उसका त्याग करना असम्भव है। इसके विपरीत अपना स्वरूप न होनेके कारण अन्धकार और शीतलतासे सूर्यका वियोग भी कहना नहीं बनता; क्योंकि अपना स्वरूप न होनेके कारण उनका वियोग अथवा त्याग नित्य और स्वतःसिद्ध है। इसलिये वास्तवमें त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर भूलसे अपना मान लिया गया है। जीव स्वयं चेतन और अविनाशी है तथा संसार जड और विनाशी है। जीव भूलसे (अपने अंशी परमात्माको भूलकर) विजातीय संसारको अपना मान लेता है। इसलिये संसारसे माने हुए सम्बन्धका ही त्याग करनेकी आवश्यकता है। त्याग असीम होता है। संसारके सम्बन्धमें तो सीमा होती है, पर संसारके त्याग-(सम्बन्ध-विच्छेद) में सीमा नहीं होती। तात्पर्य है कि जिन वस्तुओंसे हम अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं, उन वस्तुओंकी तो सीमा होती है, पर उन वस्तुओंका त्याग असीम होता है। त्याग करते ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति भी असीम होती है। कारण कि परमात्मतत्त्व देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिकी सीमासे रहित (असीम) है। सीमित वस्तुओंके मोहके कारण ही उस असीम परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं होता। 'कर्मफलत्याग' में संसारसे माने हुए सम्बन्धका त्याग हो जाता है। इसलिये यहाँ 'त्यागात्' पद कर्मों और उनके फलों (संसार) के साथ भूलसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेके अर्थमें ही आया है। यही त्यागका वास्तविक स्वरूप है। त्यागके अन्तर्गत जप, भजन, ध्यान, समाधि आदिके फलका त्याग भी समझना चाहिये। कारण कि जबतक जप, भजन, ध्यान, समाधि अपने लिये की जाती है, तबतक व्यक्तित्व बना रहनेसे बन्धन बना रहता है। अतः अपने लिये किया हुआ ध्यान, समाधि आदि भी बन्धन ही है। इसलिये किसी भी क्रियाके साथ अपने लिये कुछ भी चाह न रखना ही 'त्याग' है। वास्तविक त्यागमें त्याग-वृत्तिसे भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।यहाँ 'शान्तिः' पदका तात्पर्य परमशान्तिकी प्राप्ति है। इसीको भगवत्प्राप्ति कहते हैं। अभ्यास, ज्ञान और ध्यान -- तीनों साधनोंसे वस्तुतः कर्मफलत्यागरूप साधन श्रेष्ठ है। जबतक साधकमें फलकी आसक्ति रहती है, तबतक वह (जडताका आश्रय रहनेसे) मुक्त नहीं हो सकता ( गीता 5। 12)। इसलिये फलासक्तिके त्यागकी जरूरत अभ्यास, ज्ञान और ध्यान-- तीनों ही साधनोंमें है। जडता अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका सम्बन्ध ही अशान्तिका खास कारण है। कर्मफलत्याग अर्थात् कर्मयोगमें आरम्भसे ही कर्मों और उनके फलोंमें आसक्तिका त्याग किया जाता है (गीता 5। 11)। इसलिये जडताका सम्बन्ध न रहनेसे कर्मयोगीको शीघ्र परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 5। 12)। कर्मफलत्यागसम्बन्धी विशेष बात 'कर्मफलत्याग' कर्मयोगका ही दूसरा नाम है। कारण कि कर्मयोगमें 'कर्मफलत्याग' ही मुख्य है। यह कर्मयोग भगवान् श्रीकृष्णके अवतारसे बहुत पहले ही लुप्तप्राय हो गया था (गीता 4। 2)। भगवान्ने अर्जुनको निमित्त बनाकर कृपापूर्वक इस कर्मयोगको पुनः प्रकट किया (गीता 4। 3)। भगवान्ने इसको प्रकट करके प्रत्येक परिस्थितिमें प्रत्येक मनुष्यको कल्याणका अधिकार प्रदान किया, अन्यथा अध्यात्ममार्गके विषयमें कभी यह सोचा ही नहीं जा सकता कि एकान्तके बिना, कर्मोंको छोड़े बिना, वस्तुओंका त्याग किये बिना, स्वजनोंके त्यागके बिना -- प्रत्येक परिस्थितिमें मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है कर्मयोगमें फलासक्तिका त्याग ही मुख्य है। स्वस्थता-अस्वस्थता, धनवत्ता-निर्धनता, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ कर्मोंके फलरूपमें आती हैं। इनके साथ राग-द्वेष रहनेसे कभी परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती (गीता 2। 42 -- 44)। उत्पन्न होनेवाली मात्र वस्तुएँ कर्मफल हैं। जो फलरूपमें मिला है, वह सदा रहनेवाला नहीं होता; क्योंकि जब कर्म सदा नहीं रहता, तब उससे उत्पन्न होनेवाला फल सदा कैसे रहेगा? इसलिये उसमें आसक्ति, ममता करना भूल ही है। जो फल कभी नहीं मिला है, उसकी कामना करना भी भूल है। अतः फलासक्तिका त्याग कर्मयोगका बीज है। कर्मयोगमें क्रियाओं��ी प्रधानता प्रतीत होती है और शरीरादि जड पदार्थोंके बिना क्रियाओंका होना सम्भव नहीं है, इसलिये कर्मों एवं फलोंसे छुटकारा पाना कठिन मामूल देता है। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो मिली हुई कर्म-सामग्री-(शरीरादि जड-पदार्थों-) को अपनी तथा अपने लिये माननेसे ही फलासक्तिका त्याग कठिन मालूम देता है। शरीरादि प्राप्त-सामग्रीमें किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर कर्तव्य-कर्म करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (गीता 3। 19)। वास्तवमें क्रियाएँ कभी बन्धनकारक नहीं होतीं। बन्धनका मूल हेतु कामना और फलासक्ति है। कामना और फलासक्तिके मिटनेपर सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं ( गीता 4। 19 -- 23)। भगवान्ने कर्मयोगको कर्मसंन्याससे भी श्रेष्ठ बताया है (गीता 5। 2)। भगवान्के मतमें स्वरूपसे कर्मोंका त्याग करनेवाला व्यक्ति संन्यासी नहीं है, प्रत्युत कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करनेवाला कर्मयोगी ही संन्यासी है (गीता 6। 1)। आसक्तिरहित कर्मयोगी सभी संकल्पोंसे मुक्त होकर सुगमतापूर्वक योगारूढ़ हो जाता है (गीता 6। 4)। इसके विपरीत जो कर्मों तथा उनके फलोंको अपना और अपने लिये मानकर सुख-भोगकी इच्छा रखते हैं, वे वास्तवमें पापका ही भोग करते हैं (गीता 3। 13)। अतः फलासक्ति ही संसारमें बन्धनका मुख्य कारण है -- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता 5। 12)। इसका त्याग ही वास्तवमें त्याद है (गीता 18। 11)। गीता फलासक्तिके त्यागपर जितना जोर देती है, उतना और किसी साधनपर नहीं। दूसरे साधनोंका वर्णन करते समय भी कर्मफलत्यागको उनके साथ रखा गया है। भगवान्के मतानुसार त्याग वही है, जिसमें निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन हो और फलोंमें किसी प्रकारकी आसक्ति न हो (गीता 18। 6)। उत्तम-से-उत्तम कर्मोंमें भी आसक्ति न हो और साधारण-से-साधारण कर्मोंमें भी द्वेष न हो; क्योंकि कर्म तो उत्पन्न होकर समाप्त हो जायँगे, पर उनमें होनेवाली आसक्ति (राग) और द्वेष रह जायगा? जो बन्धनका हेतु है। इसके विपरीत अहंभाव तथा रागद्वेषसे रहित मनुष्यके सामने समस्त प्राणियोंका संहाररूप कर्तव्यकर्म भी आ जाय, तो भी वह बँध नहीं सकता (गीता 18। 17)। इसीलिये भगवान् कर्मफलत्याग को तप, ज्ञान, कर्म, अभ्यास, ध्यान आदि साधनोंसे श्रेष्ठ बताते हैं। दूसरे साधनोंमें क्रियाएँ तो उत्तम प्रतीत होती हैं, पर विशेष लाभ दिखायी नहीं देता तथा श्रम भी करना पड़ता है। परन्तु फलासक्तिका त्याग कर देनेपर न तो कोई नये कर्म करने पड़ते हैं, न आश्रम, देश आदिका परिवर्तन ही करना पड़ता है, प्रत्युत साधक जहाँ है, जो करता है, जैसी परिस्थितिमें है, उसीमें (फलासक्तिके त्यागसे) बहुत सुगमतासे अपना कल्याण कर सकता है। नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है, प्राप्ति नहीं। जहाँ 'परमात्माकी प्राप्ति' कहा जाता है, वहाँ उसका अर्थ नित्यप्राप्तकी प्राप्ति या अनुभव ही मानना चाहिये। वह प्राप्ति साधनोंसे नहीं होती, प्रत्युत जडताके त्यागसे होती है। ममता, कामना और आसक्ति ही जडता है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदिको मैं या मेरा मानना ही जडता है। ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदि साधन करते-करते जब जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, तभी नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है। इस जडताका त्याग जितना कर्मफलत्यागसे अर्थात् कर्मयोगसे सुगम होता है, उतना ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदिसे नहीं। कारण कि ज्ञानादि साधनोंमें शरीरादिको अपना और साधनको अपने लिये मानते रहनेसे जडता(शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ) से विशेष सम्बन्ध बना रहता है। इन साधनोंका लक्ष्य परमात्मप्राप्ति होनेसे आखिरमें सफलता तो मिल जाती है; किन्तु उसमें देरी और कठिनाई होती है। परन्तु कर्मयोगमें आरम्भसे ही जडताके त्यागका लक्ष्य रहता है। जडताका सम्बन्ध ही नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूतिमें प्रधान बाधा है-- यह बात अन्य साधनोंमें स्पष्ट प्रतीत नहीं होती। जब साधक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि मेरेको कभी किसी परिस्थितिमें मन, वाणी अथवा क्रियासे चोरी, झूठ, व्यभिचार, हिंसा, छल, कपट, अभक्ष्य-भक्षण आदि कोई शास्त्र-विरुद्ध कर्म नहीं करने हैं, तब उसके द्वारा स्वतः विहित कर्म होने लगते हैं। साधकको निषिद्ध कर्मोंके त्यागका ही निश्चय करना चाहिये, न कि विहित कर्मोंको करनेका। कारण कि अगर साधक विहित कर्मोंको करनेका निश्चय करता है, तो उसमें विहित कर्म करनेका अभिमान आ जायगा, जिससे उसका 'अहम्' सुरक्षित रहेगा। विहित कर्म करनेका अभिमान रहनेसे निषिद्ध कर्म होते हैं। परन्तु 'मैं निषिद्ध कर्म नहीं करूँगा' इस निषेधात्मक निश्चयमें किसी योग्यता, सामर्थ्यकी अपेक्षा न रहनेके कारण साधकमें अभिमान नहीं आता। निषिद्ध कर्मोंके त्यागमें भी मूर्खतासे अभिमान आ सकता है। अभिमान आनेपर विचार करे कि जो नहीं करना चाहिये, वह नहीं किया तो इसमें विशेषता किस बातकी? फलकी कामना भी तभी होती है, जब कुछ किया जाता है। जब कुछ किया ही नहीं, केवल निषिद्ध कर्मका त्याग ही किया है (टिप्पणी प0 646)? तब फलकी कामना क्यों होगी? अतः करनेका अभिमान न रहनेसे फलासक्तिका त्याग स्वतः हो जाता है। फलासक्तिका त्याग होनेपर शान्ति स्वतःसिद्ध है। साधनसम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने नवें, दसवें और ग्यारहवें श्लोकमें क्रमशः जो तीन साधन (अभ्यासयोग, भगवदर्थकर्म और कर्मफलत्याग) बताये हैं, विचारपूर्वक देखा जाय तो उनमेंसे (कर्मफलत्यागको छोड़कर) प्रत्येक साधनमें शेष दोनों साधन भी आ जाते हैं; जैसे -- (1) अभ्यासयोगमें भगवान्के लिये भजन, नाम-जप आदि क्रियाएँ करनेसे वह भगवदर्थ है ही और नाशवान् फलकी कामना न होनेसे उसमें कर्मफलत्याग भी है, (2) भगवदर्थ-कर्ममें भगवान्के लिये कर्म होनेसे अभ्यासयोग भी है और नाशवान् फलकी कामना न होनेसे कर्मफलत्याग भी है। वास्तवमें साधकको सबसे पहले अपने लक्ष्य, ध्येय अथवा उद्देश्यको दृढ़ करना चाहिये। इसके बाद उसे यह पहचानना चाहिये कि उसका सम्बन्ध वास्तवमें किसके साथ है। फिर चाहे कोई भी साधन करे -- अभ्यास करे, भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करे अथवा कर्मफलत्याग करे, वही साधन उसके लिये श्रेष्ठ हो जायगा। जब साधकका यह लक्ष्य हो जायगा कि उसे भगवान्को ही प्राप्त करना है और वह यह भी पहचान लेगा कि अनादिकालसे उसका भगवान्के साथ स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है, तब कोई भी साधन उसके लिये छोटा नहीं रह जायगा। किसी साधनका छोटा या बड़ा होना लौकिक दृष्टिसे ही है। वास्तवमें मुख्यता उद्देश्यकी ही है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने उद्देश्यमें कभी किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता न आने दे। किसी साधनकी सुगमता या कठिनता साधककी 'रुचि' और 'उद्देश्य' पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान्का होनेसे साधन सुगम होता है तथा रुचि संसारकी और उद्देश्य भगवान्का होनेसे साधन कठिन हो जाता है। जैसे, भूख सबकी एक ही होती है और भोजन करनेपर तृप्तिका अनुभव भी सबको एक ही होता है, पर भोजनकी रुचि सबकी भिन्न-भिन्न होनेके कारण भोज्य-पदार्थ भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह साधकोंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं, पर भगवान्की अप्राप्तिका दुःख तथा भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषा (भूख) सभी साधकोंमें एक ही होती है। साधक चाहे किसी भी श्रेणीका क्यों न हो, साधनकी पूर्णताके बाद भगवत्प्राप्तिरूप आनन्दकी अनुभूति (तृप्ति) भी सबको एकजैसी ही होती है। इस प्रकरणमें अर्जुनको निमित्त बनाकर भगवान्ने मनुष्यमात्रके कल्याणके लिये चार साधन बताये हैं -- (1) समर्पणयोग, (2) अभ्यासयोग, (3) भगवान्के लिये ही सम्पूर्ण कर्मोंका अनुष्ठान और (4) सर्वकर्मफल-त्याग। यद्यपि चारों साधनोंका फल भगवत्प्राप्ति ही है, तथापि साधकोंमें रुचि, श्रद्ध���-विश्वास और योग्यताकी भिन्नताके कारण ही भिन्न-भिन्न साधनोंका वर्णन हुआ है। वास्तवमें चारों ही साधन समानरूपसे स्वतन्त्र और श्रेष्ठ हैं। इसलिये साधक जो भी साधन अपनाये, उसे उस साधनको सर्वोपरि मानना चाहिये। अपने साधनको किसी भी तरह हीन (निम्नश्रेणीका) नहीं मानना चाहिये और साधनकी सफलता-(भगवत्प्राप्ति-) के विषयमें कभी निराश भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि कोई भी साधन निम्नश्रेणीका नहीं होता। अगर साधकका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति हो, साधन उसकी रुचि, विश्वास तथा योग्यताके अनुसार हो, साधन पूरी सामर्थ्य और तत्परता-(लगन-) से किया जाय और भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा भी तीव्र हो तो सभी साधन एक समान हैं। साधकको उद्देश्य, सामर्थ्य और तत्परताके विषयमें कभी हतोत्साह नहीं होना चाहिये। भगवान् साधकसे इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी सामर्थ्य और योग्यताको साधनमें लगा दे। साधक चाहे भगवत्तत्त्वको ठीक-ठीक न जाने, पर सर्वज्ञ भगवान् तो उसके उद्देश्य, भाव, सामर्थ्य, तत्परता आदिको अच्छी तरह जानते ही हैं। यदि साधक अपने उद्देश्य, भाव, चेष्टा, तत्परता, उत्कण्ठा आदिमें किसी प्रकारकी कमी न आने दे तो भगवान् स्वयं उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। वास्तवमें अपने उद्योग, बल, ज्ञान आदिकी कीमतसे भगवान्की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। अगर भगवान्के दिये हुए बल, ज्ञान आदिको भगवान्की प्राप्तिके लिये ही लगा दिया जाय तो वे साधकको कृपापूर्वक अपनी प्राप्ति करा देते हैं। संसारमें भगवत्प्राप्ति ही सबसे सुगम है और इसके सभी अधिकारी हैं; क्योंकि इसीके लिये मनुष्यशरीर मिला,है। सब प्राणियोंके कर्म भिन्न-भिन्न होनेके कारण किन्हीं दो व्यक्तियोंको भी संसारके पदार्थ एक समान नहीं मिल सकते, जब कि (भगवान् एक होनेसे) भगवत्प्राप्ति सबको एक समान ही होती है; क्योंकि भगवत्प्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। भगवान्की प्राप्तिमें संसारसे वैराग्य और भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा -- ये दो बातें ही मुख्य हैं। इन दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनके तीव्र होनेपर भगवत्प्राप्ति हो जाती है। फिर भी भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठामें विशेष शक्ति है। ऊपर जो चार साधन बताये गये हैं, उनमेंसे प्रथम तीन साधन तो मुख्यतः भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा जाग्रत् करनेवाले हैं, और चौथा साधन (कर्मफल-त्याग) मुख्यतः संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेवाला है। साधन कोई भी हो; जब सांसारिक भोग दुःखदायी प्रतीत होने लगेंगे तथा भोगोंका हृदयसे त्याग होगा, तब (लक्ष्य भगवान् होनेसे) भगवान्की ओर स्वतः प्रगति होगी और भगवान्की कृपासे ही उनकी प्राप्ति हो जायगी। इसी तरह जब भगवान् परमप्रिय लगने लगेंगे, उनके बिना रहा नहीं जायगा, उनके वियोगमें व्याकुलता होने लगेगी, तब शीघ्र ही भगवान्की प्राप्ति हो जायगी। सम्बन्ध--भगवान्ने निर्गुण-निराकार ब्रह्म और सगुण-साकार भगवान्की उपासना करनेवाले उपासकोंमें सगुण-उपासकोंको श्रेष्ठ बताकर अर्जुनको सगुण-उपासना करनेकी आज्ञा दी। सगुण-उपासनाके अन्तर्गत भगवान्ने आठवेंसे ग्यारहवें श्लोकतक अपनी प्राप्तिके चार साधन बताये। अब तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक भगवान् पाँच प्रकरणोंमें चारों साधनोंसे सिद्धावस्थाको प्राप्त हुए अपने प्रिय भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। पहला प्रकरण तेरहवें और चौदहवें दो श्लोकोंका है, जिसमें सिद्ध भक्तके बारह लक्षण बताये गये हैं।,
Swami Tejomayananda
।।12.12।। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है त्याग; से तत्काल ही शान्ति मिलती है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।12.12।।अज्ञानपूर्वादभ्यासाज्ज्ञानमेव विशिष्यते। ज्ञानमात्रात्सज्ञानं ध्यानम्। तथा च सामवेदे अनभिम्लानशाखायाम् -- अधिकं केवलाभ्यासाज्ज्ञानं तत्सहितं ततः। ध्यानं ततश्चापरोक्षं ततः शान्तिर्भविष्यति इति। ध्यानात्कर्मफलत्यागः इति तु स्तुतिः। अन्यथा कथमसमर्थोऽसीत्युच्यतेतयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते [5।2] इति चोक्तम्। सर्वाधिकं ध्यानमुदाहरन्ति ध्यानाधिके ज्ञानभक्ती परात्मन्। कर्माफलाकाङ्क्षमथो विरागस्त्यागश्च न ज्ञानकलाफलार्हाश्च इति च काषायणशाखायाम्।वाक्यसाम्येऽप्यसमर्थविषयत्वोक्तेस्तात्पर्याभाव इतरत्र प्रतीयते। ध्यानादिप्राप्तिकारणत्वाच्च त्यागस्तुतिर्युक्ता। केवलध्यानात्फलत्यागयुक्तं ध्यानमधिकम्। ध्यानयुक्तत्याग एव चात्रोक्तः। अन्यथा कथंत्यागाच्छान्तिरनन्तरं इत्युच्यते कथं च ध्यानादाधिक्यम् तथा च गौपवनशाखायाम् -- ध्यानात्तु केवलात्त्यागयुक्तं तदधिकं भवेत् इति। न हि त्यागमात्रानन्तरमेव मुक्तिर्भवति भवति च ध्यानयुक्तात्। केवलत्यागस्तुतिरेवमपि भवति। यथाऽनेन युक्तो जेता? नान्यथेत्युक्तेः।
Sri Anandgiri
।।12.12।।उत्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- इदानीमिति। ज्ञानं शब्दयुक्तिभ्यामात्मनिश्चयः। अभ्यासो ज्ञानार्थश्रवणाभ्यासो निश्चयपूर्वको ध्यानाभ्यासो वा। तस्य विशिष्यमाणत्वे साक्षात्कारहेतुत्वं हेतुः। त्यागस्य विशिष्टत्वे हेतुमाह -- एवमिति। प्रीणातु भगवानिति तस्मिन्कर्मसंन्यासपूर्वकमित्यर्थः। पूर्वविशेषणवतो नियतचित्तस्य पुंसो यथोक्तत्यागादित्यर्थः। अनन्तरमेवेत्युक्तं व्यनक्ति -- नत्विति। नतु कर्मफलत्यागस्य सद्यःशान्तिकरत्वे सम्यग्धीरेव तथेति श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धिर्विरुध्येत तत्राह -- अज्ञस्येति। दीर्घेण कालेनादरनैरन्तर्यानुष्ठिताद्ध्यानाद्वस्तुसाक्षात्कारद्वारा संसारदुःखोपशान्तेस्तथाविधाद्ध्यानात्त्यागस्य विशिष्टत्वोक्तेस्तदीयस्तुतिरत्रेष्टेत्याह -- अतश्चेति। तत्र हेतुमाह -- संपन्नेति। संपन्नानि प्राप्तानिसाधनान्यक्षरोपासनादीनि तेषां मध्ये पूर्वपूर्वस्यानुष्ठानाशक्तावुत्तरोत्तरस्यानुष्ठेयत्वेनोपदेशात्त्यागे चोपदेशपर्यवसानादित्यर्थः। त्यागे विशिष्टत्ववचनस्य केन साधर्म्येण तं प्रति स्तुतित्वमिति पृच्छति -- केनेति। उत्तरमाह -- यदेति। अमृतत्वमुक्तम्अथ मर्त्योऽमृतो भवति इति शेषादिति शेषः। कामप्रहाणस्यामृतत्वार्थत्वमथाकामयमान इत्यादावपि सिद्धमित्याह -- तदिति। कामत्यागस्यामृतत्वहेतुत्वेऽपि कथं कर्मफलत्यागस्य तद्धेतुत्वमित्याशङ्क्याह -- कामाश्चेति। कर्मफलत्यागादेव शान्तिश्चेज्ज्ञाननिष्ठोपेक्षितेत्याशङ्क्याह -- तत्त्यागे चेति। तथापि कथमज्ञस्य कर्मफलत्यागस्तुतिरित्याशङ्क्याह -- इति सर्वेति। विद्यावतस्त्यागवदविद्वत्त्यागस्यापि त्यागत्वाविशेषाद्विशिष्टत्वोक्तिर्युक्तेति स्तुतिमुपसंहरति -- इति,तत्सामान्यादिति। किमर्था स्तुतिरित्याशङ्क्य त्यागे रुचिमुत्पाद्य प्रवर्तयितुमित्याह -- प्ररोचनार्थेति। त्यागस्तुतिं दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- यथेति। फलत्यागः श्रेयोहेतुश्चेत्कर्मत्यागादपि फलत्यागसिद्धेरलं कर्मानुष्ठानेनेत्याशङ्क्याह -- एवं कर्मेति। फलाभिलाषं त्यक्त्वा कर्मानुष्ठानस्यार्पितस्येश्वरे श्रेयोहेतुतया विवक्षितत्वान्नानुष्ठानानर्थक्यमित्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।12.12।।तमिमं फलादित्यागं स्तौति -- श्रेयो हीति। अभ्यासादुक्तपूर्वात् युक्तिसहितोपदेशपूर्वकं सर्वज्ञानं श्रेष्ठं? ततो ध्यानं निषेवणं? ततश्च फलत्यागः? ततोऽनन्तरं शान्तिः स्वास्थ्यमेव भवतीति विशिष्यते। शान्तिर्हि लाभेऽलाभे जये़ऽजये च मनस उपशमस्वरूपा? ततश्च कृतार्थतेत्यर्थसिद्धम्।
Sridhara Swami
।।12.12।। तमिमं फलत्यागं स्तौति -- श्रेयो हीति। सम्यग्ज्ञानरहितादभ्यासाद्युक्तिसहितोपदेशपूर्वकं ज्ञानं श्रेष्ठं। तस्मादपि तत्पूर्वकं ध्यानं श्रेष्ठं।ततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इति श्रुतेः। तस्मादप्युक्तलक्षणः कर्मफलत्यागः श्रेष्ठः? तस्मादेवं,भूतात्कर्मफलत्यागात्कर्मसु तत्फलेषु चासक्तिनिवृत्त्या मत्प्रसादेन च समनन्तरमेव संसारशान्तिर्भवति।