Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 10 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव | मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ||१२-१०||

Transliteration

abhyāse.apyasamartho.asi matkarmaparamo bhava . madarthamapi karmāṇi kurvansiddhimavāpsyasi ||12-10||

Word-by-Word Meaning

अभ्यासेin practice
अपिalso
असमर्थःnot capable
असि(thou) art
मत्कर्मपरमःintent on doing actions for My sake
भवbe
मदर्थम्for My sake
अपिalso
कर्माणिactions
कुर्वन्by doing
सिद्धिम्perfection

📖 Translation

English

12.10 If thou art unable to practise even this Abhyasa Yoga, be thou intent on doing actions for My sake; even by doing actions for My sake, thou shalt attain perfection.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।12.10।। यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach your work, no matter how mundane, as an offering of service. Focus on excellence, integrity, and contributing positively to your team or customers, seeing your effort as a larger contribution, not solely for personal gain. This imbues your profession with deeper meaning and reduces attachment to external outcomes.

🧘 For Stress & Anxiety

When overwhelmed by the pressure to achieve specific results or master complex practices, shift your focus to simply performing your immediate tasks with dedication and good intent. Engaging in acts of selfless service or uplifting activities (like listening to inspiring content or connecting with community) can calm the mind by directing energy outwards, reducing self-imposed pressure and ego-driven anxiety.

❤️ In Relationships

In your interactions, act with unconditional love and service, seeing the divine in others. Whether with family, friends, or community, offer support, kindness, and understanding without expecting immediate reciprocity. This fosters stronger, more fulfilling relationships and transforms daily interactions into opportunities for spiritual growth.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even if deep meditation is challenging, dedicate your daily actions to a higher purpose or divine will; by acting with selfless intent and devotion, you will surely attain ultimate perfection and peace.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

12.10 अभ्यासे in practice? अपि also? असमर्थः not capable? असि (thou) art? मत्कर्मपरमः intent on doing actions for My sake? भव be? मदर्थम् for My sake? अपि also? कर्माणि actions? कुर्वन् by doing? सिद्धिम् perfection? अवाप्स्यसि thou shalt attain.Commentary Even if thou doest mee actions for My sake without practising Yoga thou shalt attain perfection. Thou shalt first attain purity of mind? then Yoga (concentration and meditation)? then knowledge and then ultimately perfection (Moksha or liberation). Serving humanity with Narayana Bhava (feeling that one is serving the Lord in all) is also doing actions for the sake of the Lord. such service should go hand in hand with worship of God and meditation.If you are not able to practise the Yoga of meditation mentioned in verse 8 or the Yoga of constant practice mentioned in verse 9? hear the glorious stories connected with the Lord by attending religious discourses? conducted by the devotees of the Lord? sing Kirtan and the praises of the Lord.Practise the nine kinds of Bhagavata Dharma (the nine modes of devotion). viz.? (1) hearing the Lilas (glorious and divine sports) of the Lord (Sravana)? (2) singing His Names (Kirtana)? (3) constant remembrance of the Lord and constant repetition of His Names or Mantras (Smarana)? (4) service of His feet (Padasevana)? (5) offering flowers in worship (Archana)? (6) doing prostrations to the Lord (Vandana)? (7) becoming His servant (Dasya)? (8) friendship with Him (Sakhya)? and (9) doing total selfsurrender to the Lord (Atmanivedana). (Cf.III.19XI.55)

Shri Purohit Swami

12.10 And if thou are not strong enough to practise concentration, then devote thyself to My service, do all thine acts for My sake, and thou shalt still attain the goal.

Dr. S. Sankaranarayan

12.10. If you are incapable of doing a [steady] practice, then have, your chief aim, of performing actions for Me. Even by performing actions for Me, You shall attain success.

Swami Adidevananda

12.10 If you are incapable of even this practice of repetition, then devote yourself to My deeds (service). For even by working for My sake, you will attain perfection.

Swami Gambirananda

12.10 If you are unable even to practise, be intent on works for Me. By undertaking works for Me as well, you will attain perfection. [Identity with Brahman.]

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।12.10।। आत्मविकास के विविध और विस्तृत उपायों का वर्णन करने के कारण ही हिन्दू धर्मशास्त्रों में पूर्णता है। उसमें बतायी गई साधनाओं का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से? जो कोई पुरुष जितना ही अधिक अध्ययन करेगा वह उतना ही इस अध्यात्म मार्ग की उपादेयता को दृढ़ विश्वास के साथ स्वीकार करेगा। हमारे महान् धर्म ग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार की धमकी नहीं दी गई है कि? इसे स्वीकार करो? अन्यथा नरक में जाओ। जो कोई भी पुरुष बौद्धिक निश्चय और वैज्ञानिक मूल्यांकन के लिए तत्पर है? वह हिन्दू जीवन पद्धति की श्रेष्ठता के प्रति पूर्णतया आश्वस्त हो जायेगा।यदि कोई साधक मानसिक दृष्टि से विक्षुब्ध और असंयमित है? तो वह अभ्यासयोग का पालन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि ऐसे साधकों को ध्यानाभ्यास में व्यर्थ संघर्ष नहीं करते रहना चाहिए। बलपूर्वक मन को शान्त करने के कारण वे मानसिक दमन और निग्रह के शिकार हो सकते हैं। मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व फूल की एक अनखिली कली की अपेक्षा लक्षगुना अधिक कोमल है। उसके खिलने में शीघ्रता करने का अर्थ है उसकी सुन्दरता और सुरभि का नाश करना। निदिध्यासन में हमारा प्रयत्न तो केवल ऐसे अनुकूल वातावरण को निर्मित करने के लिए है? जिसमें हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व शीघ्र किन्तु स्वत खिल उठे। स्वाभाविक है कि यदि कोई व्यक्ति एक प्रकार की साधना करने में असमर्थ है? तो उसके विकास के लिए अन्य उपाय बताना आवश्यक होता है।यदि साधक का मन पूर्वाजित वासनाओं के कारण यदाकदा ही तुच्छ विषयों की ओर जाता है? तो उसे संयमित करना कुछ सरल कार्य है। परन्तु यदि किसी पुरुष का मन इन विषयवासनाओं से पूर्ण है तथा अत्यन्त बहिर्मुखी है? तो उसका ध्यानाभ्यास केवल ध्यानाभास ही होगा भगवान् कहते हैं कि ऐसे पुरुष को ध्यान छोड़कर कर्म करना चाहिये। परन्तु वे कर्म ईश्वर के लिए अर्पण की भावना से होने चाहिये। यही? मत्कर्मपरमो भव वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार के कर्मानुष्ठान से? अत्यन्त बहिर्मुखी प्रवृत्ति के पुरुष को भी अपने समस्त दैनिक कर्मों में ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रह सकता है।सभी पिता अपने नवजात शिशु के प्रति इसी पद्धति को ग्रहण कर उसका पालन करते हैं। प्रत्येक पुत्र का जन्म पिता के लिये एक अपरिचित शिशु के रूप में ही होता है। परन्तु कुछ ही दिनों में उस पिता का अपने शिशु के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। व्यतीत होते हुये समय के साथ उस प्रेम का परिणाम इतना विशाल हो जाता है कि वह पिता शब्दश अपने पुत्र में ही जीता है। इसका कारण यह है पुत्र के जन्म के पश्चात्? वह पिता जब कोई कर्म करता है या अनुभव प्राप्त करता है? तो वे सब मन की पार्श्वभूमि में स्थित पुत्र की स्मृति से भयभीत होते रहते हैं? और यही है पुत्र के प्रति अर्पण की भावना।योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ सामान्य पुरुषों के लिए अत्यन्त व्यावहारिक उपाय का उपदेश देते हैं। उनका उपदेश हममें से अत्यधिक बहिर्मुखी पुरुष के लिए भी आशा का संदेश देने वाला है। बहुसंख्यक साधकों के लिए यह? निश्चित ही? राजमार्ग है। जिस प्रकार किसी व्यवसाय संस्था प्रतिष्ठान का प्रतिनिधि व्यवहार में कहता है कि? हम वस्तु पूर्ति का प्रयत्न करेंगे? हम इन वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं? हम इसके लिए उत्तरदायी नहीं है इत्यादि। वह अपने प्रतिष्ठान के साथ तादात्म्य करके ऐसे व्यवहार करता है? मानो वह प्रतिष्ठान का प्रबन्धकर्ता या संचालक हो? जबकि वास्तव में वह एक प्रतिनिधि मात्र होता है। इसी प्रकार यदि हममें से कोई व्यक्ति निश्चयात्म्ाक रूप से स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर ईश्वर के ही संकल्प को अपने कर्मों के द्वारा पूर्ण करने का प्रयत्न करे? तो उसे सदैव ईश्वर का स्मरण बना रहेगा और वह स्वयं में कर्मकुशलता की अलौकिक शक्ति? संगठनसार्मथ्य और आत्मविश्वासपूर्ण साहस को पायेगा।प्राचीन वैदिक विद्या के विद्यार्थी को? जैसा कि अर्जुन था? इस सरल से प्रतीत होने वाले उपदेश को सुनकर उसके वास्तविक प्रभाव के विषय में संदेह हो सकता है। रूढ़िवादी लोग किसी मौलिक विचार को सन्देह की दृष्टि से ही देखते हैं? भले ही वह विचार उस युग के सबसे महान् जीवित पुरुष के द्वारा अथवा ईश्वर के अवतार के द्वारा ही क्यों न प्रतिपादित किया गया हो। इस कारण से? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण साधकों को इस मार्ग के प्रभाव के प्रति आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि? मेरे लिए कर्म करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त होओगे।लोकव्यवहार में भी जब हम चाय बनाने के उद्देश्य से जल को उबलने के लिए रखते हैं? तब किसी के प्रश्न करने पर हम यही कहते हैं कि? मैं चाय बना रहा हूँ। वस्तुस्थिति की दृष्टि से यह कथन असत्य है? परन्तु लक्ष्य की दृष्टि से पूर्ण सत्य है? क्योंकि एक बार जल के उबल जाने पर चाय बनाने में न परिश्रम की आवश्यकता होती है और न अधिक समय की। इसी प्रकार? ईश्वर को समस्त कर्म अर्पण करने की कला के द्वारा? हम अपने दैनिक? व्यावहारिक कर्म करते हुए भी मन में दैवी संस्कारों का विकास करते रहेंगे। इसा प्रक्रिया में हमारी पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय़ भी होता रहेगा। इस प्रकार चित्त की शुद्धि प्राप्त हो जाने पर हम अभ्यासयोग के अधिकारी हो जायेंगे और शीघ्र ही पर्याप्त समता और सन्तुलन को प्राप्त कर सत्य आत्मा का ध्यान कर तत्स्वरूप बन जायेंगे।यदि कोई व्यक्ति इसे भी करने में असमर्थ हो? तो उसके लिए भी उपाय अगले श्लोक में बताते हैं

Swami Ramsukhdas

।।12.10।। व्याख्या--'अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव'-- यहाँ 'अभ्यासे' पदका अभिप्राय पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णित अभ्यासयोग से है। गीताकी यह शैली है कि पहले कहे हुए विषयका आगे संक्षेपमें वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मन-बुद्धि लगानेके साधनको नवें श्लोकमें पुनः 'चित्तं समाधातुम्' पदोंसे कहा अर्थात् 'चित्तम्' पदके अन्तर्गत मन-बुद्धि दोनोंका समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोकमें आये हुए अभ्यासयोगके लिये यहाँ (दसवें श्लोकमें) 'अभ्यासे' पद आया है।भगवान् कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोकमें वर्णित अभ्यासयोगमें भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेके परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों-(वर्णाश्रमधर्मानुसार) शरीरनिर्वाह और आजीविका-सम्बन्धी लौकिक एवं भजन, ध्यान, नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों-) का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्प्राप्तिके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं, उनको 'मत्कर्म' कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मोंके परायण हैं, वे 'मत्कर्मपरम' कहे जाते हैं। साधकका अपना सम्बन्ध भी भगवान्से हो और कर्मोंका सम्बन्ध भी भगवान्के साथ रहे, तभी मत्कर्मपरायणता सिद्ध होगी। साधकका ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा, तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जायँगी; क्योंकि निषिद्ध क्रियाओंके अनुष्ठानमें संसारकी 'कामना' ही हेतु है (गीता 3। 37)। अतः भगवत्प्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधककी सम्पूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी।'मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि' -- भगवान्ने जिस साधनकी बात इसी श्लोकके पूर्वार्धमें 'मत्कर्मपरमो भव' पदोंसे कही है, वही बात इन पदोंमें पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्माका उद्देश्य होनेसे उस साधककी और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती है?   जिस प्रकार भगवान्ने आठवें श्लोकमें मन-बुद्धि अपनेमें अर्पण करनेके साधनको तथा नवें श्लोकमें अभ्यासयोगके साधनको अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया, उसी प्रकार यहाँ भगवान् 'मत्कर्मपरमो भव'  (केवल मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो) -- इस साधनको भी अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं।  जैसे धन-प्राप्तिके लिये व्यापार आदि कर्म करनेवाले मनुष्यको ज्यों-ज्यों धन प्राप्त होता है, त्यों-त्यों उसके मनमें धनका लोभ और कर्म करनेका उत्साह बढ़ता है, ऐसे ही साधक जब भगवान्के लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसके मनमें भी भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा और साधन करनेका उत्साह बढ़ता रहता है। उत्कण्ठा तीव्र होनेपर जब उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाता है, तब सर्वत्र परिपूर्ण भगवान् उससे छिपे नहीं रहते। भगवान् अपनी कृपासे उसको अपनी प्राप्ति करा ही देते हैं। यदि साधकका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है और सम्पूर्ण क्रियाएँ वह भगवान्के लिये ही करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि उसने अपनी सारी समझ, सामग्री,सामर्थ्य और समय भगवत्प्राप्तिके लिये ही लगा दिया। इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता है? भगवान् उस साधकसे इससे अधिक अपेक्षा भी नहीं रखते। अतः उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। इसका कारण यह है कि भगवान् किसी साधन-विशेषसे खरीदे नहीं जा सकते। भगवान्के महत्त्वके सामने सृष्टिमात्रका महत्त्व भी कुछ नहीं है, फिर एक व्यक्तिके द्वारा अर्पित सीमित सामग्री और साधनसे उनका मूल्य चुकाया ही कैसे जा सकता है! अतः अपनी प्राप्तिके लिये भगवान् साधकसे इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी योग्यता, सामर्थ्य आदिको मेरी प्राप्तिमें लगा दे अर्थात् अपने पास बचाकर कुछ न रखे और इन योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपना भी न समझे।

Swami Tejomayananda

।।12.10।। यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।12.10।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।12.10।।द्वैताभिनिवेशादभ्यासाधीने योगेऽपि सामर्थ्याभावे पुनरुपायान्तरमाह -- अभ्यासेऽपीति। अभ्यासयोगेन विना भगवदर्थं कर्माणि कुर्वाणस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह -- अभ्यासेनेति। सिद्धिर्ब्रह्मभावः। अपिरुक्���व्यवधिसूचनार्थः।

Sri Vallabhacharya

।।12.10।।यदि पुनः अभ्यासेऽप्यसङ्गसाधनेऽसमर्थोऽसि तर्हि पूजायां मत्सेवापरो भव? सेवापूर्वं मदर्थं कर्माणि कुरु।

Sridhara Swami

।।12.10।।यदि पुनर्नैवं तत्राह -- अभ्यास इति। अभ्यासेऽति यद्यशक्तोऽसि तर्हि मत्प्रीत्यार्थानि यानि कर्माण्येकादश्युपवासव्रतचर्यानामसंकीर्तनादीनि तदनुष्ठानमेव परमं यस्य तादृशो भव। एवंभूतानि कर्माण्यपि मदर्थं कुर्वन्मोक्षं प्राप्स्यसि।

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