Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 9 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Consistent Practice (Abhyasa)

Sanskrit Shloka (Original)

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् | अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||१२-९||

Transliteration

atha cittaṃ samādhātuṃ na śaknoṣi mayi sthiram . abhyāsayogena tato māmicchāptuṃ dhanañjaya ||12-9||

Word-by-Word Meaning

अथif
चित्तम्the mind
समाधातुम्to fix
not
शक्नोषि(thou) art able
मयिin Me
स्थिरम्steadily
अभ्यासयोगेनby the Yoga of constant practice
ततःthem
माम्Me
इच्छwish
आप्तुम्to reach

📖 Translation

English

12.9 If thou art unable to fix thy mind steadily on Me, then by the Yoga of constant practice do thou seek to reach Me, O Arjuna.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।12.9।। हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your career, if you find it hard to maintain deep, sustained focus on a major project or to master a new skill, apply the principle of 'Abhyasa Yoga'. Commit to consistent, even short, periods of focused work daily. Repeatedly bring your attention back to the task, learn from distractions, and steadily build expertise and productivity. This method applies to developing new competencies, overcoming procrastination, or achieving long-term professional goals.

🧘 For Stress & Anxiety

For stress and mental health, if sustained meditation or deep relaxation feels overwhelming, embrace 'Abhyasa' through regular, gentle practice. This could involve short daily mindfulness exercises, consistent deep breathing techniques, or repeatedly returning to a calming thought or mantra when your mind wanders. The constant, patient effort to redirect your mind from stressors builds mental resilience, reduces anxiety, and cultivates inner peace over time.

❤️ In Relationships

In relationships, if maintaining consistent presence, empathy, or connection is challenging amidst life's distractions, apply 'Abhyasa'. This means consistently making small, deliberate efforts: active listening, regular communication (even brief check-ins), performing acts of kindness, and repeatedly striving to understand your loved ones' perspectives. These persistent, gentle efforts build trust, deepen bonds, and foster lasting, healthy relationships.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Even if perfect focus is challenging, consistent and disciplined effort through 'Abhyasa' (constant practice) is a powerful, accessible path to achieving your goals and connecting with your higher purpose.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

12.9 अथ if? चित्तम् the mind? समाधातुम् to fix? न not? शक्नोषि (thou) art able? मयि in Me? स्थिरम् steadily? अभ्यासयोगेन by the Yoga of constant practice? ततः them? माम् Me? इच्छ wish? आप्तुम् to reach? धनञ्जय O Arjuna.Commentary Abhyasa Yoga Abhyasa is constant practice to steady the mind and fix it on one point the practice of repeatedly withdrawing the mind from all sorts of sensual objects and fixing it again and again on one particular object or the Self. The constant effort to separate or detach oneself from the illusory five sheaths and identify oneself with the Atman is also Abhyasa. If you are not able to fix your mind and intellect wholly on the Lord all the time? then do it for some time at least. If your mind wanders much? try to fix it on the Lord through the continous practice of remembrance. Resort to the worship of the images of God? feeling His Living Presence in them. This will also help you.Why did Lord Krishna address Arjuna by the name Dhananjaya here Surely there is some significance. Arjuna conered many people and brought immense wealth for the Rajasuya Yajna performed by Yudhishthira. For such a man of great powers and splendour? it is not difficult to coner this mind? and obtain the spiritual wealth of knowledge of the Self. This is what Lord Krishna meant when He addressed Arjuna by the name Dhananjaya.

Shri Purohit Swami

12.9 But if thou canst not fix thy mind firmly on Me, then, My beloved friend, try to do so by constant practice.

Dr. S. Sankaranarayan

12.9. In case you are not able to cause your mind to enter completley into Me, then, O Dhananjaya ! seek to attain Me by the practice-Yoga.

Swami Adidevananda

12.9 If now you are unable to focus your mind on Me, then seek to reach Me, O Arjuna, by the practice of repetition.

Swami Gambirananda

12.9 If, however, you are unable to establish the mind steadily on Me, then, O Dhananjaya, seek to attain Me through the Yoga of Practice.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।12.9।। आत्म विकास की जो साधना भगवान् ने पूर्व श्लोक में बतायी है वह अपरिवर्तनीय है। साधक को अपना मन भगवान् के चरणों में स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उस सगुण रूप के पारमार्थिक स्वरूप को पहचानना चाहिए। इन दोनों प्रक्रियाओं का सम्पादन करने के लिए अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि और मन की एकाग्रता की आवश्यकता होती है। सम्भवत एक सामान्य पुरुष के समान अर्जुन को यह अनुभव हुआ कि इस मार्ग का सफलतापूर्वक अनुकरण करना उसके लिए असंभव ही है। करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य के मुख के भावों को समझकर यहाँ एक अन्य उपाय का वर्णन करते हैं।यदि तुम स्थिरतापूर्वक अपने चित्त को मुझमें समाहित नहीं कर सकते हो? तब एक उपाय यह है कि तुम अभ्यासयोग का पालन करो। इस अभ्यासयोग को पूर्व में इस प्रकार बताया गया था कि? जहाँ कहीं यह चंचल और अस्थिर मन विचरण करता है? उसे वहीं संयमित करके आत्मा के ही वश में लाना चाहिए। संक्षेप में? जब कभी कोई साधक अपने मन को चुने हुए ध्येय विषय में समाहित करना चाहता है? तो उसका चंचल मन ध्येय से हटकर विजातीय प्रवृत्तियों के प्रवाह में विचरण करने लगता है। यहाँ उपदेश यह दिया गया है कि जब कभी मन इस प्रकार विचरण करना प्रारम्भ करे साधक उसी क्षण उसके ध्यान को एकत्र कर पुन भगवान् के दिव्य रूप में स्थिर करने का प्रयत्न करे।प्रत्येक साधक को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ध्यानाभ्यास के समय? किसी एक अवधि तक भी? मन सर्वथा ध्येय वस्तु का ही चिन्तन करने में सफल नहीं होता है। कुछ ही क्षणों में मन का अपने कल्पना जगत् में विहार करना प्रारम्भ हो जाता है। उसका यह विहार करना अपने आप में इतनी बड़ी समस्या नहीं हैं? जितनी बड़ी वह बन जाती है? जब यह साधक भी मन के द्वारा अपहृत हुआ उसी कल्पना लोक में ले जाया जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण केवल यही उपदेश देते हैं कि हमको अपने दिव्य पथ को त्यागकर मन के लुभाने में नहीं आना चाहिए।यत्रतत्र विचरण करने वाले उपद्रवी मन का ध्यान ध्येय बिन्दु में ही समाहित करने के लिए साधक में मन से अलग रहकर उसे साक्षीभाव से देखते रहने की क्षमता होनी चाहिए। मन के साथ तादात्म्य हो जाने पर तो जहाँ मन वहाँ हम? ऐसी स्थिति हो ही जायेगी। इसलिए? मन को संयमित करने के लिए साधक को मन से अलग होकर अपने में ही निहित उस क्षमता के साथ तादात्म्य करना चाहिए? जो मन से भी श्रेष्ठ है और उस पर शासन करके उसे अनुशासित कर सकती है। मन से श्रेष्ठ उसका शासक है? विवेक अर्थात् बुद्धि। बुद्धि की विवेकसार्मथ्य के द्वारा ही हम उससे निम्नतर मन को अनुशासित कर सकते हैं।यह उपाय उन लोगों को लिए बताया गया है जो पूर्व श्लोक में वर्णित विहंगम मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते हैं। दीर्घकाल तक अभ्यासयोग की साधना करने पर हमारा मन इस प्रकार अनुशासित हो जायेगा कि हम आत्मविकास के साक्षात् साधन का अभ्यास करने में समर्थ हो जायेंगे? जिसका वर्णन पूर्व के श्लोक में किया गया है।यदि यह भी सम्भव न हो तो

Swami Ramsukhdas

।।12.9।। व्याख्या--अथ चित्तं समाधातुं ৷৷. मामिच्छाप्तुं धनञ्जय--यहाँ 'चित्तम्' पदका अर्थ 'मन' है। परन्तु इस श्लोकका पीछेके श्लोकमें वर्णित साधनसे सम्बन्ध है, इसलिये 'चित्तम्' पदसे यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है।   भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि अगर तू मन-बुद्धिको मेरेमें अचलभावसे स्थापित करनेमें अर्थात् मेरे अर्पण करनेमें अपनेको असमर्थ मानता है, तो अभ्यासयोगके द्वारा मेरेको प्राप्त करनेकी इच्छा कर।  'अभ्यास' और 'अभ्यासयोग' पृथक्-पृथक् हैं। किसी लक्ष्यपर चित्तको बार-बार लगानेका नाम 'अभ्यास' है और समताका नाम 'योग' है। समता रखते हुए अभ्यास करना ही 'अभ्यासयोग' कहलाता है। केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे किया गया भजन, नाम-जप आदि 'अभ्यासयोग' है।  अभ्यासके साथ योगका संयोग न होनेसे साधकका उद्देश्य संसार ही रहेगा। संसारका उद्देश्य होनेपर स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, नीरोगता, अनूकूलता आदिकी अनेक कामनाएँ उत्पन्न होंगी। कामनावाले पुरुषकी क्रियाओंके उद्देश्य भी (कभी पुत्र, कभी धन, कभी मानबड़ाई आदि) भिन्न-भिन्न रहेंगे (गीता 2। 41)। इसलिये ऐसे पुरुषकी क्रियामें योग नहीं होगा। योग तभी होगा, जब क्रियामात्रका उद्देश्य (ध्येय) केवल परमात्मा ही हो। साधक जब भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य रखकर बारबार नामजप आदि करनेकी चेष्टा करता है, तब उसके मनमें दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं, अतः साधकको मेरा ध्येय भगवत्प्राप्ति ही है -- इस प्रकारकी दृढ़ धारणा करके अन्य सब संकल्पोंसे उपराम हो जाना चाहिये।'मामिच्छाप्तुम्' पदोंसे भगवान् 'अभ्यासयोग' को अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताते हैं।  पीछेके श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मन-बुद्धि अर्पण करनेके लिये कहा। अब इस श्लोकमें अभ्यासयोगके लिये कहते हैं। इससे यह धारणा हो सकती है कि अभ्यासयोग भगवान्में मन-बुद्धि अर्पण करनेका साधन है; अतः पहले अभ्यासके द्वारा मन-बुद्धि भगवान्के अर्पण होंगे, फिर भगवान्की प्राप्ति होगी। परन्तु मनबुद्धिको अर्पण,करनेसे ही भगवत्प्राप्ति होती हो, ऐसा नियम नहीं है। भगवान्के कथनका तात्पर्य यह है कि यदि उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही हो अर्थात् उद्देश्यके साथ साधककी पूर्ण एकता हो तो केवल अभ्याससे ही उसे भगवत्प्राप्ति हो जायगी। जब साधक भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे बार-बार नाम-जप, भजन-कीर्तन, श्रवण आदिका अभ्यास करता है, तब उसका अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है और भगवत्प्राप्तिकी इच्छा जाग्रत् हो जाती है। सांसारिक सिद्ध-असिद्धिमें सम होनेपर भगवत्प्राप्तिकी इच्छा तीव्र हो जाती है। भगवत्प्राप्तिकी तीव्र इच्छा होनेपर भगवान्से मिलनेके लिये व्याकुलता पैदा हो जाती है। यह व्याकुलता उसकी अवशिष्ट सांसारिक आसक्ति एवं अनन्त जन्मोंके पापोंको जला डालती है। सांसारिक आसक्ति तथा पापोंका नाश होनेपर उसका एकमात्र भगवान्में ही अनन्य प्रेम हो जाता है और वह भगवान्के वियोगको सहन नहीं कर पाता। जब भक्त भगवान्के बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उस भक्तके बिना नहीं रह सकते अर्थात् भगवान् भी उसके वियोगको नहीं सह सकते और उस भक्तको मिल जाते हैं।साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जा, तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी। भगवान्की देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिसे दूरी है ही नहीं। जहाँ साधक है, वहाँ भगवान् हैं ही। भक्तमें उत्कण्ठाकी कमीके कारण ही भगवत्प्राप्तिमें देरी होती है। सांसारिक सुखभोगकी इच्छाके कारण ही ऐसी आशा कर ली जाती है कि भगवत्प्राप्ति भविष्यमें होगी। जब भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता और तीव्र उत्कण्ठा होगी, तब सुख-भोगकी इच्छाका स्वतः नाश हो जायगा और वर्तमानमें ही भगवत्प्राप्ति हो जायगी।साधकका यदि आरम्भसे ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मेरेको तो केवल भगवत्प्राप्ति ही करनी है (चाहे लौकिक दृष्टिसे कुछ भी बने या बिगड़े) तो कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग--किसी भी मार्गसे उसे बहुत जल्दी भगवत्प्राप्ति हो सकती है।

Swami Tejomayananda

।।12.9।। हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।12.9।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।12.9।।मतप्रदर्शनपूर्वकं भगवत्प्राप्तावुपायान्तरमाह -- अथेत्यादिना। एकमालम्बनं स्थूलं प्रतिमादि समाधानं ततोऽभ्यन्तरे विश्वरूपे चित्तैकाग्र्यम्।

Sri Vallabhacharya

।।12.9।।अथेति पक्षान्तरे। मुख्यकल्पासम्भवेऽनुकल्पमुपदिशति। चेन्मयि चित्तं स्थिरं समाधातुं न शक्तोऽसि अनिषिद्धो योगो न निष्पद्यते तर्हि अभ्यासयोगेन तत्स्थिरीकृत्य मामाप्तुमिच्छ।

Sridhara Swami

।।12.9।।अत्राशक्तं प्रति सुगमोपायमाह -- अथेति। स्थिरं यथाभवत्येवं मयि चित्तं धारयितुं यदि शक्तो न भवसि तर्हि विक्षिप्तं चित्तं पुनः प्रत्याहृत्य ममानुस्मरणलक्षणो योगाभ्यासस्तेन मां प्राप्तुमिच्छ प्रयत्नं कुरु।

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