Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 14 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः | तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८-१४||
Transliteration
ananyacetāḥ satataṃ yo māṃ smarati nityaśaḥ . tasyāhaṃ sulabhaḥ pārtha nityayuktasya yoginaḥ ||8-14||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
8.14 I am easily attainable by that ever-steadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time), not thinking of anything else (with a single mind or one-pointed mind), O Partha (Arjuna).
।।8.14।। हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
Key Message in One Line
“8.14 I am easily attainable by that ever-steadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time), not thinking of anything else (with a single mind or one-pointed mind), O Partha (Arjuna).”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
8.14 अनन्यचेताः with the mind not thinking of any other object? सततम् constantly? यः who? माम् Me? स्मरति remembers? नित्यशः daily? तस्य of him? अहम् I? सुलभः easily attainable? पार्थ O Partha? नित्ययुक्तस्य eversteadfast? योगिनः of Yogi.Commentary I am easily attainable by that eversteadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time)? not thinking of anything else (with a single mind or onepointed mind)? O Partha (Arjuna).Commentary Constantly remembering the Lord throughout the life is the most easy way of attaining Him.Ananyachetah He has no attachment for any other object. He will not think of any other object save his IshtaDevata or tutelary deity.Nityasah For a long time? i.e.? till the end of life.He who remembers the Lord by fits and starts or he who remembers Him for six montsh and then leaves the practice and then again remembers Him for six months and so on cannot attain Him. (Cf.IX.22?34)
Shri Purohit Swami
8.14 To him who thinks constantly of Me, and of nothing else, to such an ever-faithful devotee, O Arjuna, am I ever accessible.
Dr. S. Sankaranarayan
8.14. And whosoever constantly bears Me in mind never attached to any other object-for this Yogin, ever devout, I am easy to attain, O son of Prtha !
Swami Adidevananda
8.14 O son of Prtha, to that yogi of constant concentration and single-minded attention, who remembers Me uninterruptedly and for long, I am easy of attainment. 8.14 I am easily attainable by that ever-steadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time), not thinking of anything else (with a single mind or one-pointed mind), O Partha (Arjuna). 8.14 Partha, O son of Prtha, tasya yoginah, to that yogi; nitya-yuktasya, of constant concentration, who is ever absorbed (in God); and ananya-cetah, of single-minded attention, a yogi whose mind is not drawn to any other object; yah, who; smarati, remembers; mam, Me, the supreme God; satatam, uninteruptedly; and nityasah, for long-. By satatam, uninterrupteldy, is meant 'without any break'. By niryasah, is meant along duration. Not six months, nor even a year! What then? The meaning is: He who remembers Me for his whole life, continuously. To that yogi aham, I; am sulabhah, easy of attainment. Since this is so, therefore one should remain ever absorbed in Me, with mind given to nothing else. 'What follows from Your being easy of attainment?' This is being answered: 'Hear what follows from My being easy of attainment.'
Swami Gambirananda
8.14 O son of Prtha, to that yogi of constant concentration and single-minded attention, who remembers Me uninterruptedly and for long, I am easy of attainment.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।8.14।। उस नित्ययुक्त योगी के लिए आत्मप्राप्ति सहज साध्य होती है जो मुझ चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनन्यभाव से नित्यप्रतिदिन स्मरण करता है। पूर्व श्लोकों में कथित सिद्धान्त को ही यहाँ संक्षेप में किन्तु स्पष्ट एवं प्रभावशाली भाषा में कहा गया है।प्रार्थना कोई कीटनाशक दवाई नहीं कि जिसका यदकदा छिड़काव करना ही पर्याप्त है उसी प्रकार पूजागृह को स्नानगृह के समान नहीं समझना चाहिये जिसमें हम अशुद्ध प्रवेश करते हैं और फिर स्वच्छ होकर बाहर आते हैं यहाँ श्रीकष्ण अत्यन्त सावधानी से विशेष बल देकर आग्रह करते हैं कि यह आत्मानुसंधान या ईश्वर स्मरण नित्य निरन्तर और अखण्ड होना चाहिये।उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न योगी को हे अर्जुन मैं सुलभ हूँ। भगवान् का यह कथन विशेष महत्व एवं अभिप्राय रखता है क्योंकि इन गुणों के अभाव में ध्यान में सफलता की आशा नहीं की जा सकती।आत्मप्राप्ति के लिए प्रयत्न क्यों किया जाय इस पर कहते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।8.14।। व्याख्या--[सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें जो सगुण-साकार परमात्माका वर्णन हुआ था, उसीको यहाँ चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।] 'अनन्यचेताः'--जिसका चित्त भगवान्को छोड़कर किसी भी भोगभूमिमें, किसी भी ऐश्वर्यमें किञ्चिन्मात्र भी नहीं जाता; जिसके अन्तःकरणमें भगवान्के सिवाय अन्य किसीका कोई आश्रय नहीं है, महत्त्व नहीं है वह पुरुष अनन्य चित्तवाला है। जैसे, पतिव्रता स्त्रीका पतिका ही व्रत, नियम रहता है। पतिके सिवाय उसके मनमें अन्य किसी भी पुरुषका रागपूर्वक चिन्तन कभी होता ही नहीं। शिष्य गुरुके और सुपुत्र माँ-बापके परायण रहता है, उनका दूसरा कोई इष्ट नहीं होता। इसी तरहसे भक्त भगवान्के ही परायण रहता है। यहाँ 'अनन्यचेताः' पद सगुण-उपासना करनेवालेका वाचक है। सगुण-उपासनामें विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि जो भगवान्के स्वरूप हैं, उनमेंसे जो जिस स्वरूपकी उपासना करता है, उसी स्वरूपका चिन्तन हो। परन्तु दूसरे स्वरूपोंको अपने इष्टसे अलग न माने और अपने-आपको भी अपने इष्टके सिवाय और किसीका न माने, तो उसका अन्यकी तरफ मन नहीं जाता। तात्पर्य यह हुआ कि 'मैं केवल भगवान्का हूँ और भगवान् ही मेरे हैं; मेरा और कोई नहीं है तथा मैं और किसीका नहीं हूँ' ऐसा भाव होनेसे वह 'अनन्यचेताः' हो जाता है। 'सततं यो मां स्मरति नित्यशः'--'सततम्' का अर्थ होता है-- निरन्तर अर्थात् जबसे नींद खुले, तबसे लेकर गाढ़ नींद आनेतक जो मेरा स्मरण करता है; और 'नित्यशः' का अर्थ होता है--सदा अर्थात् इस बातको जिस दिनसे पकड़ा, उस दिनसे लेकर मृत्युतक जो मेरा स्मरण करता है।'तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः'--ऐसे नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। यहाँ 'नित्ययुक्त' पद चित्तके द्वारा निरन्तर चिन्तन करनेवालेका वाचक नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निष्कामभावसे खुद भगवान्में लगनेवालेका वाचक है। जैसे कोई ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपनेमें स्थित रहता है कि 'मैं ब्राह्मण हूँ; क्षत्रिय, वैश्य आदि नहीं हूँ।' वह अपने ब्राह्मणपनेको याद करे, या न करे पर उसके ब्राह्मणपनेमें कोई फरक नहीं पड़ता। ऐसे ही 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं'-- इस नित्य-सम्बन्धमें दृढ़ रहनेवाला ही नित्ययुक्त है। ऐसे नित्ययुक्त योगीको भगवान् सुगमतासे मिल जाते हैं। भगवान्के सिवाय शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि अपने नहीं हैं, केवल भगवान् ही अपने हैं--ऐसा दृढ़तासे माननेपर भगवान् सुलभ हो जाते हैं। परन्तु शरीर आदिको अपना मानते रहनेसे भगवान् सुलभ नहीं होते।भगवान्के साथ अपनी भिन्नता तथा संसारके साथ अपनी एकता कभी हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। इस रीतिसे मनुष्यकी भगवान्के साथ स्वतःस्वाभाविक अभिन्नता है और संसारके साथ स्वतःस्वाभाविक भिन्नता है। परन्तु भूलके कारण मनुष्य अपनेको भगवान्से और भगवान्को अपनेसे अलग मान लेता है तथा अपनेको शरीरका तथा शरीरको अपना मान लेता है। इस विपरीत धारणाके कारण ही यह मनुष्य जन्म-मरणके चक्रमें फँसा रहता है। जब यह विपरीत धारणा सर्वथा मिट जाती है, तब भगवान् स्वतः सुलभ हो जाते हैं।आठवेंसे तेरहवें श्लोकतक सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकारका स्मरण बताया गया। इन दोनों स्मरणोंमें प्राणायामकी मुख्यता रहती है, जिसको सिद्ध करना कठिन है। अन्तकाल-जैसी विकट अवस्थामें भी प्राणायामके बलसे प्राणोंको भ्रुवोंके मध्यमें स्थापित कर सकें अथवा मूर्धा-(दशम द्वार-) में लगा सकें--ऐसा प्राणोंपर अधिकार रहनेकी आवश्यकता है। परन्तु भगवान्के स्मरणमें यह कठिनता नहीं है, क्योंकि यहाँ प्राणोंका खयाल नहीं है। यहाँ तो भगवान्के साथ साधकका स्वयंका अनादि��ालसे स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है। इस सम्बन्धमें इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिकी भी जरूरत नहीं है। अतः इसमें अन्तकालमें प्राण आदिको लगानेकी जरूरत नहीं है। जैसे किसी वस्तुका बीमा होनेपर वस्तुके बिगड़ने, टूटने-फूटनेकी चिन्ता नहीं रहती, ऐसे ही शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देनेपर साधकको अपनी गतिके विषयमें कभी किञ्चिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती। कारण कि यह साधन क्रियाजन्य अथवा अभ्यासजन्य नहीं है। इसमें तो वास्तविक सम्बन्धकी जागृति है। अतः इसमें कठिनताका नामोनिशान नहीं है। इसीसे भगवान्ने अपने-आपको सुलभ बताया है। सम्बन्ध--अब दो श्लोकोंमें भगवान् अपनी प्राप्तिका माहात्म्य बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।8.14।। हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.14।।नित्ययुक्तस्य नित्योपायवतः। योगिनः परिपूर्णयोगस्य।
Sri Anandgiri
।।8.14।।ननु वायुनिरोधविधुराणामुदीरितया रीत्या स्वेच्छाप्रयुक्तोत्क्रमणासंभवाद्दुर्लभा परमा गतिरापतेदिति तत्राह -- किञ्चेति। इतश्च भगवदनुस्मरणे प्रयतितव्यमित्यर्थः। सततं नित्यश इति विशेषणयोरपुनरुक्तत्वमाह -- सततमित्यादिना। उक्तमेवापौनरुक्त्यं व्यक्तीकरोति -- नेत्यादिना। जितासुरिच्छया देहं त्यजति तदितरस्तु कर्मक्षयेणैवेति विशेषं विवक्षयन्नाह -- यत इति। अनन्यचेतसं समाहितचेतसं प्रतीश्वरस्य सौलभ्यमेवमित्युच्यते।
Sri Vallabhacharya
।।8.14।।एवं परमात्मचिन्तकानां त्रिधा प्राप्तिमुक्त्वा स्वचिन्तकस्य भक्तस्य स्वप्राप्तिमाह -- अनन्येति। नान्यस्मिन्पुत्रदारादिके (किन्तु अक्षरादिके स्वरूपे) चेतो यस्य तथा मां भगवन्तं लीलापुरुषोत्तमं नित्यशः स्मरति सततं तस्य नित्ययुक्तस्य मदनुरक्तस्य योगिनो मत्सम्बन्धतो वाऽहं निरुपममहिमा वासुदेवः पुरुषोत्तमो भगवान्सुलभो़ऽस्मि।
Sridhara Swami
।।8.14।।एवं चान्तकाले धारणया मत्प्राप्तिर्नित्याभ्यासवशत एव भवति नान्यस्येति पूर्वोक्तमेवानुस्मारयति -- अनन्येति। नास्त्यन्यस्मिंश्चेतो यस्य तथाभूतः सन् यो मां सततं निरन्तरं नित्यशः प्रतिदिनं स्मरति तस्य नित्ययुक्तस्य समाहितस्याहं सुखेन लभ्योऽस्मि नान्यस्य।