Bhagavad Gita Chapter 8 Verse 13 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८-१३||
Transliteration
omityekākṣaraṃ brahma vyāharanmāmanusmaran . yaḥ prayāti tyajandehaṃ sa yāti paramāṃ gatim ||8-13||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
8.13 Uttering the one-syllabled Om the Brahman and remembering Me, he who departs, leaving the body, attains to the Supreme Goal.
।।8.13।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate focused intent and ethical purpose in your professional life. Approach tasks with mindfulness, like uttering 'Om' with precision, and connect your work to a higher vision or integrity ('remembering Me'). Be prepared to 'leave the body' of old projects or roles gracefully, facilitating smooth transitions and striving for a 'supreme goal' in your career path.
🧘 For Stress & Anxiety
Employ grounding practices like mindful breathing or a personal mantra (e.g., 'Om') to steady your mind amidst chaos, akin to controlling your Prana. Cultivate a sense of connection to a higher purpose or inner peace ('remembering Me') to gain perspective and reduce anxiety. Practice consciously 'letting go' of worries, attachments to outcomes, and negative thought patterns ('leaving the body') to foster mental resilience and calm.
❤️ In Relationships
Approach relationships with a conscious awareness of the deeper connection or divine spark in others ('remembering Me' in everyone). Practice detachment from egoic demands and expectations ('leaving the body' of attachment) to foster unconditional love and understanding. Communicate with mindfulness and a higher purpose, and gracefully navigate transitions or endings in relationships, carrying forward only the lessons and love rather than clinging to suffering.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Cultivate unwavering focus on the divine and consciously align your inner state with your highest purpose, especially during moments of transition, to achieve ultimate liberation and lasting peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
8.13 Om? इति thus? एकाक्षरम् onesyllabled? ब्रह्म Brahman? व्याहरन् uttering? माम् Me? अनुस्मरन् remembering? यः who? प्रयाति departs? त्यजन् leaving? देहम् the body? सः he? याति attains? परमाम् supreme? गतिम् goal.Commentary Having controlled the thoughts the Yogi ascends by the Sushumna? the Nadi (subtle psychic nervechannel) which passes upwards from the heart. He fixes his whole Prana or lifreath in the crown of the head in the Brahmarandhra or the hole of Brahman. He utters the sacred monosyllable Om? meditates on Me and leaves the body.
Shri Purohit Swami
8.13 Repeating Om, the Symbol of Eternity, holding Me always in remembrance, he who thus leaves his body and goes forth reaches the Spirit Supreme.
Dr. S. Sankaranarayan
8.13. Reciting the single-syllabled Om, the very Brahman; meditating on Me; whosoever travels well, casting away [his] body-surely he attains My State.
Swami Adidevananda
8.13 He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the supreme Goal. 8.13 Uttering the one-syllabled Om the Brahman and remembering Me, he who departs, leaving the body, attains to the Supreme Goal. 8.13 Yah, he who; prayati, departs, dies; tyajan, by leaving; deham, the body-the phrase 'leaving the body' is meant for alifying departure; thery it is implied that the soul's departure occurs by abandoning the body, and not through the destruction of its own reality, having abandoned thus-; vyaharan, while uttering; the eka-adsaram, single syllable; om iti brahma, viz Om, which is Brahman, Om which is the name of Brahman; and anusmaran, thinking; mam, of Me, of God who is implied by that (syllable); sah, he; yati, attains; the paramam, supreme, best; gatim, Goal. Further,
Swami Gambirananda
8.13 He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the supreme Goal.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।8.13।। ध्यान के अभ्यास में मन को सफलता और कुशलतापूर्वक एकाग्र करने के लिए साधक को तीन कार्यों को सम्पादित करना होता है। इन तीनों का वर्णन इन श्लोकों में किया गया है जो उक्त क्रम में अभ्यसनीय है।(क) इन्द्रियों के द्वारा मन को संयमित करके इन्द्रिय अवयव स्थूल शरीर में स्थित हैं। श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय (नाक) ये वे पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं मन में प्रवेश करके उसे विक्षुब्ध करती हैं। विवेक और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को अवरुद्ध अथवा संयमित करना प्रथम साधना है जिसके बिना ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। इनके द्वारा न केवल बाह्य विषय मन में प्रवेश करते हैं वरन् इन्हीं के माध्यम से मन बाह्य विषयों में विचरण एवं भ्रमण करता है। विक्षेपों की इन सुरंगों को अवरुद्ध करने पर नयेनये विक्षेपों का प्रवाह ही रुद्ध हो जाता है।(ख) मन को हृदय में स्थापित करके यद्यपि इन्द्रियों के संयमित होने पर मन बाह्य विषयों से क्षुब्ध नहीं हो सकता तथापि भूतकाल के विषयोपभोगों से अर्जित वासनाओं के स्मरण से वह स्वयं ही विक्षुब्ध हो सकता है। इसलिए मन को हृदय में स्थापित करने का उपदेश दिया गया है।वेदान्त में हृदय का अर्थ शरीर में स्थित रक्त संचालक अवयव से नहीं है। साहित्य और दर्शन में हृदय का अर्थ स्नेह और सहृदयता करुणा और कृपा भक्ति और प्रपत्ति जैसी आदर्श एवं रचनात्मक भावनाओं का अनवरत् उद्गम स्थल है। बाह्य स्थूल विषयों की संवेदनाओं का मन में प्रवेश अवरुद्ध करने के पश्चात् साधक को चाहिये कि वह भावनाओं के साधनरूप मन को दिव्य एवं पवित्र बनाये न कि उसका दमन करे। हृदय के उच्च और श्रेष्ठ वातावरण में ही मन को स्थिर करना चाहिये। इसका विवेचन किया जा चुका है कि रचनात्मक विचारों की सहायता से मन के विक्षेपों को न्यूनतम किया जा सकता है। नकारात्मक विचार वह है जिसके कारण मन क्षुब्ध और चंचल हो जाता है।(ग) प्राणशक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इनसे तादात्म्य रहता है। सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है। उपर्युक्त तीन कार्यों के सम्पन्न होने पर मन की आत्मानुसंधान में जो दृढ़ स्थिति होती है उसे ही यहाँ योगधारणा कहा गया है।जो साधक अपने आसपास के वैषयिक वातावरण को भूलकर आनन्द और संतोष से पूर्ण हृदय से मन को बुद्धि के अनुशासन में ला सकता है वह मन में ओंकार का उच्चारण सरलता और उत्साह के साथ कर सकता है। शान्त मन में उठ रहीं ओंकार वृत्तियों को जो साक्षी होकर देख सकता है वही पुरुष प्रणवोपासना के योग्य है। श्लोक की अगली पंक्ति इस तथ्य को स्पष्ट करती है।देह त्याग कर जो जाता है ँ़ के उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ पर मनन करने के फलस्वरूप साधक मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है। यही वास्तविक मृत्यु है। देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग। प्रणव के लक्ष्यार्थ पर ध्यान करते हुये साधक परम गति को प्राप्त होता है क्योंकि उसका लक्ष्यार्थ है सम्पूर्ण विश्व का वह अधिष्ठान जिस पर जन्म और मृत्यु का मनः कल्पित नाटक खेला जाता है।क्या ध्यानमार्ग पर चलने वाले सभी साधकों को आत्मसाक्षात्कार समानरूप से कठिन है भगवान् कहते हैं --
Swami Ramsukhdas
।।8.13।। व्याख्या--'सर्वद्वाराणि संयम्य'--(अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-- इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-- इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, मूत्र-त्याग और मल-त्याग -- इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी, हाथ, चरण, उपस्थ और गुदा--इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।'मनो हृदि निरुध्य च' -- मनका हृदयमें ही निरोध कर ले अर्थात् मनको विषयोंकी तरफ न जाने दे। इससे मन अपने स्थान-(हृदय-) में रहेगा।'मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणम्' --प्राणोंको मस्तकमें धारण कर ले अर्थात् प्राणोंपर अपना अधिकार प्राप्त करके दसवें द्वार--ब्रह्मरन्ध्रमें प्राणोंको रोक ले।'आस्थितो योगधारणाम्'-- इस प्रकार योगधारणामें स्थित हो जाय। इन्द्रियोंसे कु��� भी चेष्टा न करना, मनसे भी संकल्प-विकल्प न करना और प्राणोंपर पूरा अधिकार प्राप्त करना ही योगधारणामें स्थित होना है। 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्'--इसके बाद एक अक्षर ब्रह्म ँ़ (प्रणव) का मानसिक उच्चारण करे और मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्मका (जिसका वर्णन इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें हुआ है), स्मरण करे (टिप्पणी प0 464)। सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सत्तारूपसे परिपूर्ण हैं--ऐसी धारणा करना ही मेरा स्मरण है।'यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्'--उपर्युक्त प्रकारसे निर्गुण-निराकारका स्मरण करते हुए जो देहका त्याग करता है अर्थात् दसवें द्वारसे प्राणोंको छोड़ता है वह परमगतिको अर्थात् निर्गुण-निराकार परमात्माको प्राप्त होता है। सम्बन्ध--जिसके पास योगका बल होता है और जिसका प्राणोंपर अधिकार होता है उसको तो निर्गुण-निराकारकी प्राप्ति हो जाती है; परन्तु दीर्घकालीन अभ्यास-साध्य होनेसे यह बात सबके लिये कठिन पड़ती है। इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें अपनी अर्थात् सगुण-साकारकी सुगमता-पूर्वक प्राप्तिकी बात कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।8.13।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।8.12 -- 8.13।।ब्रह्मनाडीं विना यद्यन्यत्र गच्छति तर्हि विना मोक्षं स्थानान्तरं प्राप्नोतीति सर्वद्वाराणि संयम्यनिर्गच्छंश्चक्षुषा सूर्यं दिशः श्रोत्रेण चैव हि इत्यादिवचनात् व्यासयोगे मोक्षधर्मे च। हृदि नारायणे।ह्रियते त्वया जगद्यस्माद्धृदित्येवं प्रभाषसे इति पाद्मे। नहि मूर्धनि प्राणे स्थिते हृदि मनसः स्थितिः सम्भवति।यत्र प्राणो मनस्तत्र तत्र जीवः परस्तथा इति व्यासयोगे। योगधारणामास्थितः योगभरण एवाभियुक्त इत्यर्थः।
Sri Anandgiri
।।8.13।।यथोक्तयोगधारणार्थं प्रवृत्तो मूर्धनि प्राणमाधाय धारयन्किं कुर्यादित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तत्रैवेति। एकं च तदक्षरं चेत्येकाक्षरमोमित्येवंरूपं तत्कथं ब्रह्मेति विशिष्यते तत्राह -- ब्रह्मण इति। यः प्रयातीति मरणमुक्त्वा त्यजन्देहमिति ब्रुवता पुनरुक्तिराश्रिता स्यादित्याशङ्क्य विशेषणार्थं विवृणोति -- देहेति। एवमोंकारमुच्चारयन्नर्थं चाभिध्यायन्ध्याननिष्ठः स पुमानित्यर्थः। परमामिति गतिविशेषणं क्रममुक्तिविवक्षया द्रष्टव्यम्।
Sri Vallabhacharya
।।8.12 -- 8.13।।तत्प्राप्तौ साङ्गमुपायमाह -- सर्वद्वाराणीति द्वाभ्याम्। ब्रह्मवादे ममैव नामरूपात्मकत्वादिति योगी मां ँ़इत्येकाक्षररूपमनुस्मरन् तथा व्याहरन्नन्तकाले परमामेतां पदत्वेन निर्दिष्टां गतिं याति।
Sridhara Swami
।।8.13।। ओमिति। ओमित्येकं यदक्षरं तदेव ब्रह्मवाचकत्वाद्वा प्रतिमादिवद्ब्रह्मप्रतीकत्वाद्वा ब्रह्म तद्व्याहरन्नुच्चारयन् तद्वाच्यं च मामनुस्मरन्नेव देहं त्यजन्यः प्रकर्षेण याति अर्चिरादिमार्गेण स परमां श्रेष्ठां मद्गतिं याति प्राप्नोति।