Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 36 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः | वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ||६-३६||
Transliteration
asaṃyatātmanā yogo duṣprāpa iti me matiḥ . vaśyātmanā tu yatatā śakyo.avāptumupāyataḥ ||6-36||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.36 I think Yoga is hard to be attained by one of uncontrolled self, but the self-controlled and striving one can attain to it by the (proper) means.
।।6.36।। असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Achieving significant career goals or mastering complex skills demands self-discipline, sustained effort, and the strategic application of proven methods. Without controlling distractions, procrastination, and impulses, consistent progress is challenging. Success becomes attainable for those who diligently manage their time, focus, and learning process.
🧘 For Stress & Anxiety
Mental peace and stress resilience are profoundly impacted by one's ability to control their mind and reactions. An uncontrolled mind amplifies anxiety and worry, making mental well-being 'hard to attain.' Through consistent practice of techniques like mindfulness, meditation, or cognitive reframing ('proper means'), and sustained effort in self-regulation, one can achieve greater calm and stability.
❤️ In Relationships
Building and maintaining healthy relationships requires significant self-control over emotions, impulses, and communication patterns. Consistent effort in empathy, active listening, and constructive conflict resolution ('proper means') is crucial. An individual who struggles with self-control (e.g., anger outbursts, passive-aggressiveness) will find harmonious relationships difficult to sustain, whereas the disciplined and striving individual can foster deeper connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Mastery in any endeavor, be it spiritual or worldly, hinges on self-control and diligent, methodical effort; an uncontrolled mind makes such attainment nearly impossible.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.36 असंयतात्मना by a man of uncontrolled self? योगः Yoga? दुष्प्रापः hard to attain? इति thus? मे My? मतिः opinion? वश्यात्मना by the selfcontrolled one? तु but? यतता by the striving one? शक्यः possible? अवाप्तुम् to obtain? उपायतः by (proper) means.Commentary Uncontrolled self he who has not controlled the senses and the mind by the constant practice of dispassion and meditation. Selfcontrolled he who has controlled the mind by the constant practice of dispassion and meditation. He can attain Selfrealisation by the right means and constant endeavour.
Shri Purohit Swami
6.36 It is not possible to attain Self-Realisation if a man does not know how to control himself; but for him who, striving by proper means, learns such control, it is possible.
Dr. S. Sankaranarayan
6.36. My belief is that attaining Yoga is difficult for a man of uncontrolled self (mind); but it is possible to attain by [proper] means by a person who exerts with his subdued self.
Swami Adidevananda
6.36 In my opinion Yoga is hard to attain by a person of unrestrained mind. However, it can be attained through right means by him, who strives for it and has a subdued mind.
Swami Gambirananda
6.36 My conviction is that Yoga is difficult to be attained by one of uncontrolled mind. But it is possible to be attained through the (above) means by one who strives and has a controlled mind.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.36।। पूर्व श्लोक के अभ्यास में अत्याधिक बल दिया गया था परन्तु अभ्यास क्या है इसका निर्देश नहीं किया गया। किसी शब्द की परिभाषा तर्क या युक्ति के अभाव में कोई भी शास्त्रीय ग्रन्थ पूर्ण नहीं माना जा सकता। विचाराधीन श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अभ्यास का अर्थ स्पष्ट करते हैं।असंयत मन का अर्थात् विघटित व्यक्तित्व का पुरुष अध्यात्म साधना के लिए आवश्यक सजगता उत्साह और सार्मथ्य से रहित होता है और इस कारण वह आत्मसाक्षात्कार के शिखर तक नहीं पहुँच पाता।जो व्यक्ति शारीरिक सुखों में आसक्त होकर विषयों का दास बन जाता है अथवा कामुक मन के गाये मृत्युगीत की शोकधुन पर नृत्य करता है अथवा मदोन्मत्त बुद्धि की विकृत दुष्ट और अन्तहीन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु इतस्तत भ्रमण करता रहता है उस पुरुष में न वह शान्ति होती है और न स्फूर्ति जो उसे अन्तरात्मा के मन्दिर तक पहुँचाने के लिए उद्यत कर सके।जब तक इन्द्रियां वश में नहीं होतीं तब तक मन के विक्षेप शान्त नहीं हो सकते। विक्षेपयुक्त मन के द्वारा न श्रवण हो सकता है न मनन और न निदिध्यासन ही। इन तीनों के बिना आवरण शक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती। आवरण और विक्षेप ये क्रमश तमोगुण और रजोगुण के कार्य हैं। हम देख चुके हैं कि इन दो गुणों को वश में किये बिना सत्वगुण का प्रभाव साधक में दृष्टिगोचर नहीं होता।वादविवाद की सामान्य पद्धति के अनुसार अपना मत प्रस्तुत करते समय प्रतियोगी के तर्कों का खण्डन इस प्रकार करना होता है कि वह दोनों मतों के अन्तर को देखकर हमारे दृष्टिकोण की युक्तियुक्तता एवं स्वीकार्यता को समझ सके। इसी पद्धति का उपयोग करते हुए दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा किये गये उपाय से योग प्राप्त होना संभव है। इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङमुख करना आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है जो मन को सत्याभिमुख किये बिना संभव नहीं हो सकता।लौकिक जीवन में भी त्याग और तप के बिना कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । चुनाव के समय एक प्रत्याशी का और परीक्षा के पूर्व एक विद्यार्थी का जीवन अथवा एक अभिनेता या नर्तकी का रंगमंच पर प्रथम कार्यक्रम प्रस्तुत करने के पूर्व का जीवनये कुछ उदाहरण हैं जिनमें हम देखते हैं कि अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए ये सभी लोग सामान्य भोगमय जीवन को त्यागकर कठिन परिश्रम करते हैं। यदि केवल सामान्य और अनित्य लौकिक वस्तु या कीर्ति प्राप्त करने के लिए भी इतने बड़े त्याग तप और संयम की आवश्यकता होती है तब नित्य अनन्त अखण्ड आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए कितने अधिक आत्मसंयम की आवश्यकता होगी इसकी कोई भी व्यक्ति सहज ही कल्पना कर सकता है।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि साधक को सभी विषयों को पूर्णतया त्याग देना चाहिए। परन्तु प्राय साधकों की यही धारणा बन जाती है।धर्म या साधना के नाम पर अनेक साधक कुछ काल तक अत्यन्त कठोर तप का जीवन जीते हैं जिसमें शरीर को क्लेश देना शारीरिक आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग और दमन करना सम्मिलित है। इस प्रकार स्वयं पर आसुरी और आत्मघातक अत्याचार करने पर निश्चय ही एक समय यही दमित प्रवृत्तियां भयंकर रूप में फूटकर बाहर निकल पड़ती हैं।कहीं ऐसा न हो कि गीता का अध्येतावर्ग भी इसी भ्रामक विचार की बलि बन जाये भगवान् कहते हैं कि इस योग को प्रयत्नशील साधक उचित उपाय के द्वारा प्राप्त कर सकता है। केवल चित्रपट देखने न जाने अथवा खेलकूद को त्यागने से ही कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ ही अध्ययन में समय का सदुपयोग करना नितान्त आवश्यक होता है। एक बात और भी है कि गणित की परीक्षा हो और विद्यार्थी भूगोल का अध्ययन कर रहा हो तो उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती। उचित प्रयत्न के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है।इसी प्रकार वैषयिक भोग के त्यागरूप तप के द्वारा संचित शक्ति का उपयोग साधक को निदिध्यासन में करना चाहिए जिसका फल आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वस्वरूप की पहचान है। ऐसा साधनसम्पन्न व्यक्ति इस योग को प्राप्त कर सकता है आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण का यह आशावादी तत्त्वज्ञान है।इन दो श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं और आगे के प्रकरण से यह सिद्ध होता है कि अर्जुन उनके उत्तर से सन्तुष्ट हो जाता है।एक प्रश्न फिर भी रह जाता है कि उस पुरुष की गति क्या होती है जो संयमित होकर योगाभ्यास करता है परन्तु योगफल प्राप्त करने के पूर्व ही योग से विचलित हो जाता है
Swami Ramsukhdas
।।6.36।। व्याख्या--असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः--मेरे मतमें तो जिसका मन वशमें नहीं है उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है उतनी मनकी चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगीको अपना मन वशमें करना चाहिये। मन वशमें होनेपर वह मनको जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँसे हटाना चाहे वहीँसे हटा सकता है।प्रायः साधकोंकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धापूर्वक करते हैं पर उनके प्रयत्नमें शिथिलता रहती है जिससे साधकमें संयम नहीं रहता अर्थात् म��� इन्द्रियाँ अन्तःकरणका पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते।भगवान्की तरफ चलनेवाले वैष्णव संस्कारवाले साधकोंकी मांस आदिमें जैसी अरुचि होती है वैसी अरुचि साधककी विषयभोगोंमें नहीं होती अर्थात् विषयभोग उतने निषिद्ध और पतन करनेवाले नहीं दीखते। कारण कि विषयभोगोंका ज्यादा अभ्यास होनेसे उनमें मांस आदिकी तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगनेसे। कारण कि मांस आदिमें तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगोंको भोगनेसे यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगोंके जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा। परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं वे जन्मजन्मान्तरतक विषयभोगोंमें और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पातामनइन्द्रियोंको अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।'वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः'--परन्तु जो तत्परतापूर्वक साधनमें लगा हुआ है अर्थात् जो ध्यानयोगकी सिद्धिके लिये ध्यानयोगके उपयोगी आहारविहार सोनाजागना आदि उपायोंका अर्थात् नियमोंका नियतरूपसे और दृढ़तापूर्वक पालन करता है और जिसका मन सर्वथा वशमें है ऐसे वश्यात्मा साधकके द्वारा योग प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् उसको ध्यानयोगकी सिद्धि मिल सकती है ऐसा मेरा मत है--'इति मे मतिः। वश्यात्मा होनेका उपाय है--सबसे पहले अपने-आपको यह समझे कि 'मैं भोगी नहीं हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ तो केवल तत्त्वको जानना ही मेरा काम है; मैं भगवान्का हूँ तो केवल भगवान्के अर्पित होना ही मेरा काम है; मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा करना ही मेरा काम है। किसीसे कुछ भी चाहना मेरा काम नहीं है'--इस तरह अपनी अहंताका परिवर्तन कर दिया जाय तो मन बहुत जल्दी वशमें हो जाता है।जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वशमें हो जाता है। मनमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका राग रहना ही मनकी अशुद्धि है। जब साधकका एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओंका राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।व्यवहारमें साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंशमें पराया हक न आ जाय; क्योंकि पराया हक लेनेसे मन अशुद्ध हो जाता है। कहीँ नौकरी, मजदूरी करे, तो जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक काम करे। व्यापार करे तो वस्तुका तौल नाप या गिनती औरोंकी अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जाय, पर कम न हो। मजदूर आदिको पैसे दे तो उसके कामके जितने पैसे बनते हों, उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे। इस प्रकार व्यवहार करनेसे मन शुद्ध हो जाता है। मार्मिक बात ध्यानयोगमें अर्जुनने मनकी चञ्चलताको बाधक माना और उसको रोकना वायुको रोकनेकी तरह असम्भव बताया। इसपर भगवान्ने मनके निग्रहके लिये अभ्यास और वैराग्य--ये दो उपाय बताये। इन दोनोंमें भी ध्यानयोगके लिये 'अभ्यास' मुख्य है (गीता 6। 26)। 'वैराग्य' ज्ञानयोगके लिये विशेष उपयोगी होता है। यद्यपि वैराग्य ध्यानयोगमें भी सहायक है, तथापि ध्यानयोगमें रागके रहते हुए भी मनको रोका जा सकता है। अगर यह कहा जाय कि रागके रहते हुए मन नहीं रुकता, तो एक आपत्ति आती है। पातञ्जलयोगदर्शनके अनुसार चित्त-वृत्तियोंका निरोध अभ्याससे ही हो सकता है। अगर उसमें वैराग्य ही कारण हो, तो सिद्धियोंकी प्राप्ति कैसे होगी? (जिसका वर्णन पातञ्जलयोगदर्शनके विभूतिपादमें किया गया है।) तात्पर्य है कि अगर भीतर राग रहते हुए चित्त एकाग्र और निरुद्ध होता है, तो उसमें रागके कारणसे सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। कारण कि संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) किसी-न-किसी सिद्धिके लिये किया जाता है और जहाँ सिद्धिका उद्देश्य है, वहाँ रागका अभाव कैसे हो सकता है? परन्तु जहाँ केवल परमात्मतत्त्वका उद्देश्य होता है, वहाँ ये धारणा, ध्यान और समाधि भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक हो जाते हैं।एकाग्रताके बाद जब चित्तकी निरुद्ध-अवस्था आती है, तब समाधि होती है। समाधि कारणशरीरमें होती है और समाधिसे भी व्युत्थान होता है। जबतक समाधि और व्युत्थान--ये दो अवस्थाएँ हैं, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर तो सहजावस्था होती है, जिससे व्युत्थान होता ही नहीं। अतः चित्तकी चञ्चलताको रोकनेके विषयमें भगवान् ज्यादा नहीं बोले; क्योंकि चित्तको निरुद्ध करना भगवान्का ध्येय नहीं है अर्थात् भगवान्ने जिस ध्यानका वर्णन किया है, वह ध्यान साधन है, ध्येय नहीं।भगवान्के मतमें संसारमें जो राग है, यही खास बाधा है और इसको दूर करना ही भगवान्का उद्देश्य है। ध्यान तो एक शक्ति है, एक पूँजी है, जिसका लौकिक-पारलौकिक सिद्धियों आदिमें सम्यक् उपयोग किया जा सकता है।स्वयं केवल परमात्मतत्त्वको चाहता है, तो उसको मनको एकाग्र करनेकी इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता प्रकृतिके कार्य मनसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी, मनसे अपनापन हटानेकी है। अतः जब समाधिसे भी उपरति हो जाती है, तब सर्वातीत तत्त्वकी प्राप्ति होती है। तात्पर्य है कि जबतक समाधि-अवस्थाकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक उसमें एक आकर्षण रहता है। जब वह अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब उसमें आकर्षण न रहकर सच्चे जिज्ञासुको उससे उपरति हो जाती है। उपरति होनेसे अर्थात् अवस्थामात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे अवस्थातीत चिन्मय-तत्त्वकी अनुभूति स्वतः हो जाती है। यही योगकी सिद्धि है। चिन्मय-तत्त्वके साथ स्वयंका नित्ययोग अर्थात् नित्य-सम्बन्ध है। सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि जिसका अन्तःकरण पूरा वशमें नहीं है अर्थात् जो शिथिल प्रयत्नवाला है, उसको योगकी प्राप्ति कठिनता होती है। इसका अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें प्रश्न करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.36।। असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.36।।न च कदाचित्स्वयमेव मनो नियम्यते।शुभेच्छारहितानां च द्वेषिणां च रमापतौ। नास्तिकानां च वै पुंसां तदा मुक्तिर्न युज्यते इति निषेधाद्ब्राह्मे।
Sri Anandgiri
।।6.36।।संयतात्मनो योगप्राप्तिः सुलभेत्युक्त्वा व्यतिरेकं दर्शयति यः पुनरिति। व्यतिरेकोपन्यासपरं पूर्वार्धमनूद्य व्याकरोति असंयतेति। पूर्वोक्तान्वयव्याख्यानपरमुत्तरार्धं व्याचष्टे यस्त्वित्यादिना। अन्तःकरणस्य स्ववशत्वे सिद्धेऽपि वैराग्यादावास्थावता भवितव्यमित्याह यततेति। उपायो वैराग्यादिपूर्वको मनोनिरोधः।
Sri Vallabhacharya
।।6.36।।एवं मनसो निरोधे साम्येन स योगो घटते नान्यथेत्याह असंयतात्मन इति। स्पष्टमेतत्।
Sridhara Swami
।।6.36।।एतावांस्त्विह निश्चय इत्याह असंयतात्मनेति। असंयतात्मा उक्तप्रकारेणाभ्यासवैराग्याभ्यामसंयत आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेणायं योगो दुष्प्रापः प्राप्तुमशक्यः। अभ्यासवैराग्याभ्यां वश्यो वशवर्ती आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेण पुनश्चानेनैवोपायेन प्रयत्नं कुर्वता योगः प्राप्तुं शक्यः।