Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 35 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Mind Control & Discipline

Sanskrit Shloka (Original)

श्रीभगवानुवाच | असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||६-३५||

Transliteration

śrībhagavānuvāca . asaṃśayaṃ mahābāho mano durnigrahaṃ calam . abhyāsena tu kaunteya vairāgyeṇa ca gṛhyate ||6-35||

Word-by-Word Meaning

असंशयम्undoubtedly
महाबाहोO mightyarmed
मनःthe mind
दुर्निग्रहम्difficult to control
चलम्restless
अभ्यासेनby practice
तुbut
कौन्तेयO Kaunteya
वैराग्येणby dispassion
and

📖 Translation

English

6.35 The Blessed Lord said Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but by practice and by dispassion it may be restrained.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.35।। श्रीभगवान् कहते हैं --  हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate deep focus on tasks through consistent practice (e.g., skill development, project execution), viewing work as a craft to be honed rather than solely for immediate external rewards. Practice detachment from specific outcomes (e.g., success/failure of a pitch, promotion) to sustain long-term effort, reduce performance anxiety, and avoid professional burnout.

🧘 For Stress & Anxiety

Regularly practice mindfulness, meditation, or self-reflection (Abhyasa) to steady the restless mind and reduce mental chatter. Cultivate dispassion (Vairagya) by observing thoughts and emotions without strong attachment, reducing rumination, anxiety about future events, and the impact of external stressors on inner peace.

❤️ In Relationships

Apply consistent effort (Abhyasa) to empathetic listening, clear communication, and understanding others' perspectives. Practice dispassion (Vairagya) by releasing attachment to specific outcomes, reactions, or expectations in relationships, fostering unconditional connection and reducing emotional dependency or possessiveness.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

The inherently restless mind can be mastered by diligently applying consistent spiritual or mental practice and cultivating detachment from sensory distractions and the fruits of actions.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.35 असंशयम् undoubtedly? महाबाहो O mightyarmed? मनः the mind? दुर्निग्रहम् difficult to control? चलम् restless? अभ्यासेन by practice? तु but? कौन्तेय O Kaunteya? वैराग्येण by dispassion? च and? गृह्यते is restrained. Commentary The constant or repeated effort to keep the wandering mind steady by constant meditation on the Lakshya (centre? ideal? goal or object of meditation) is Abhyasa or practice. The same idea or thought of the Self or God is constantly repeated. This constant repetition destroys Vikshepa or the vacillation of the mind and desires? and makes it steady and onepointed.Vairagya is dispassion or indifference to senseobjects in this world or in the other? here or hereafter? seen or unseen? heard or unheard? achieved through constantly looking into the evil in them (DoshaDrishti). You will have to train the mind by constant reflection on the immortal? allblissful Self. You must make the mind realise the transitory nature of the wordly enjoyments. You must suggest to the mind to look for its enjoyment not in the perishable and changing external objects but in the immortal? changeless Self within. Gradually the mind will be withdrawn from the external objects.

Shri Purohit Swami

6.35 Lord Shri Krishna replied: Doubtless, O Mighty One, the mind is fickle and exceedingly difficult to restrain, but, O Son of Kunti, with practice and renunciation it can be done.

Dr. S. Sankaranarayan

6.35. The Bhagavat said O mighty-armed ! No doubt, the mind is unsteady and is hard to control. But it is controlled by practice and through an attitude of desirelessness, O son of Kunti !

Swami Adidevananda

6.35 The Lord said The mind is hard to subdue and fickle, no doubt, O mighty-armed one, but , O son of Kunti, by practice and by the exercise of dispassion it can be brought under control.

Swami Gambirananda

6.35 The Blessed Lord said O mighty-armed one, undoubtedly the mind is untractable and restless. But, O son of Kunti, it is brought under control through practice and detachment.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.35।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को पूर्णरूप से जानते थे वह एक वीर योद्धा कर्मशील साहसी और यथार्थवादी पुरुष था। ऐसे असामान्य व्यक्तित्व का पुरुष जब गुरु के उपदिष्ट तत्त्वज्ञान से सहमत होकर उसकी सत्यता या व्यावहारिकता के विषय में सन्देह करता है तब गुरु में भी मन के सन्तुलन तथा शिष्य की विद्रोही बुद्धि को समझने और समझाने की असाधारण क्षमता का होना आवश्यक होता है। गीता में इस स्थान पर संक्षेप में स्थिति यह है कि भगवान् के उपदेशानुसार मन के स्थिर होने पर आत्मानुभूति होती है जबकि अर्जुन का कहना है कि चंचल मन स्थिर नहीं हो सकता अत आत्मानुभूति भी असंभव है।जब अर्जुन के समान समर्थ व्यक्ति किसी विचार को अपने मन में दृढ़ कर लेता है तो उसे समझाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रारम्भ में उसके विचार को मान लेना। विजय के लिए सन्धि दार्शनिक शास्त्रार्थ में सफलता का रहस्य है और विशेषकर इस प्रकार पूर्वाग्रहों से पूर्ण स्थिति में जो अज्ञानी के लिए स्वाभाविक होती है। इस प्रकार महान मनोवैज्ञानिक श्रीकृष्ण प्रश्न के उत्तर में असंशयं कहकर प्रथम शब्द से ही अपने शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी को निशस्त्र कर देते हैं और फिर महाबाहो के सम्बोधन से उसके अभिमान को जाग्रत करते हैं। भगवान् स्वीकार करते हैं कि मन का निग्रह करना कठिन है और इसलिए मन की स्थायी शान्ति और समता सरलता से प्राप्त नहीं हो सकती।इस स्वीकारोक्ति से अर्जुन प्रशंसित होता है। महाबाहो शब्द से उसे स्मरण कराते हैं कि वह एक वीर योद्धा है। भगवान् के कथन में व्यंग का पुट स्पष्ट झलकता है दुष्कर और असाध्य कार्य को सम्पन्न कर दिखाने में ही एक शक्तिशाली पुरुष की महानता होती है न कि अपने ही आंगन के उपवन के कुछ फूल तोड़कर लाने में निसन्देह मन एक शक्ति सम्पन्न शत्रु है परन्तु जितना बड़ा शत्रु होगा उस पर प्राप्त विजय भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण सावधानीपूर्वक चुने हुए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे अर्जुन का मन शान्त और स्थिर हो सके ।हे कौन्तेय मन को वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा प्रारम्भ में उसे वश में करके पूर्णतया आत्मसंस्थ कर सकते हैं यह भगवान् की आश्वासनपूर्ण स्पष्टोक्ति है।बाह्य विषयों में आसक्ति तथा कर्मफलों की हठीली आशा ये ही दो प्रमुख कारण मन में विक्षेप उत्पन्न होने के हैं। इसके कारण मन का संयमन कठिन हो जाता है। यहाँ वैराग्य शब्द से इनका ही त्याग सूचित किया गया है। श्री शंकराचार्य के अनुसार अभ्यास का अर्थ है ध्येय विषयक चित्तवृत्ति की पुनरावृत्ति। सामान्यत ध्यानाभ्यास में इच्छाओं के बारम्बार उठने से यह समान प्रत्यय आवृत्ति खण्डित होती रहती है। परिणाम यह होता है कि पुनपुन मन ध्येय वस्तु के अतिरिक्त अन्य विषयों में विचरण करने लगता है और मनुष्य का आन्तरिक सन्तुलन एवं व्यक्तित्व भी छिन्न भिन्न हो जाता है।इस दृष्टि से अभ्यास वैराग्य को दृढ़ करता है और वैराग्य अभ्यास को। दोनों के दृढ़ होने से सफलता निश्चित हो जाती है।शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों के क्रम की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि उनमें महत्व की उतरती सीढ़ी में शब्दों का क्रम रखा जाता है । कभीकभी साधकों के मन में यह प्रश्न आता है कि क्या वह मन में स्वाभाविक वैराग्य होने की प्रतीक्षा करें अथवा ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ कर दें। अधिकांश लोग व्यर्थ ही वैराग्य की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गीता में अभ्यास को प्राथमिकता देकर यह स्पष्ट किया गया है कि अभ्यास के पूर्व वैराग्य की प्रतीक्षा करना उतना ही हास्यास्पद है जितना कि बिना बीज बोये फसल की प्रतीक्षा करना।हमको जीवन का विश्लेषण और अनुभवों पर विचार करते रहना चाहिए और इस प्रकार जानते रहना चाहिए कि हमने जीवन में क्या किया और कितना पाया। यदि ज्ञात होता है कि लाभ से अधिक हानि हुई है तो स्वाभाविक ही हम विचार करेगें कि किस प्रकार जीवन को सुनियोजित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है और अधिकसेअधिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। इसी क्रम में फिर शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ होगा जो हमें जीवनादर्श के आश्चर्य नैतिक मूल्यों की शान्ति आत्मसंयम के आनन्द आत्मविकास के रोमान्च और अहंकार के परिच्छिन्न जीवन के घुटन भरे दुखों का ज्ञान करायेगा।जिस क्षण हम अपनी जीवन पद्धति के प्रति जागरूक हो जाते हैं उसी क्षण अभ्यास का आरम्भ समझना चाहिए। इसके फलस्वरूप सहज स्वाभाविक रूप से जो अनासक्ति का भाव उत्पन्न होता है वही वास्तविक और स्थायी वैराग्य है। अन्यथा वैराग्य तो मूढ़ तापसी जीवन का मिथ्या प्रदर्शन मात्र है जो मनुष्य को संकुचित प्रवृत्ति का बना देता है इतना ही नहीं उसकी बुद्धि को इस प्रकार विकृत कर देता है कि वह उन्माद तथा अन्य पीड़ादायक मनोरोगों का शिकार बन जाता है। विवेक के अभ्यास से उत्पन्न वैराग्य ही आत्मिक उन्नति का साधन है। बौद्धिक परिपक्वता एवं श्रेष्ठतर लक्ष्य के ज्ञान से तथा वस्तु व्यक्ति परिस्थिति और जीवन की घटनाओं के सही मूल्यांकन के द्वारा विषयों के प्रति हमारी आसक्ति स्वत छूट जानी चाहिए। जीवन में सम्यक् अभ्यास और स्थायी वैराग्य के आ जाने पर अन्य विक्षेपों के कारणों के अभाव में मन अपने वश में आ जाता है और तत्पश्चात् वह एक ही संसार को जानता है और वह है सन्तुलन और समता का संसार।तब फिर आत्मसंयमरहित पुरुष का क्या होगा

Swami Ramsukhdas

।।6.35।। व्याख्या--'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्'--यहाँ 'महाबाहो' सम्बोधनका तात्पर्य शूरवीरता बतानेमें है अर्थात् अभ्यास करते हुए कभी उकताना नहीं चाहिये। अपनेमें धैर्यपूर्वक वैसी ही शूरवीरता रखनी चाहिये।अर्जुनने पहले चञ्चलताके कारण मनका निग्रह करना बड़ा कठिन बताया। उसी बातपर भगवान् कहते हैं कि तुम जो कहते हो, वह एकदम ठीक बात है, निःसन्दिग्ध बात है; क्योंकि मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है। 'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' अर्जुनकी माता कुन्ती बहुत विवेकवती तथा भोगोंसे विरक्त रहनेवाली थीं। कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था (टिप्पणी प0 370)। ऐसा वरदान माँगनेवाला इतिहासमें बहुत कम मिलता है। अतः यहाँ 'कौन्तेय' सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनको कुन्ती माताकी याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुन्ती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसारसे विरक्त होकर परमात्मामें लगो अर्थात् मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाओ।मनको बार-बार ध्येयमें लगानेका नाम 'अभ्यास' है। इस अभ्यासकी सिद्धि समय लगानेसे होती है। समय भी निरन्तर लगाया जाय, रोजाना लगाया जाय। कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया--ऐसा नहीं हो। तात्पर्य है कि अभ्यास निरन्तर होना चाहिये और अपने ध्येयमें महत्त्व तथा आदर-बुद्धि होनी चाहिये। इस तरह अभ्यास करनेसे अभ्यास दृढ़ हो जाता है। अभ्यासके दो भेद हैं--(1) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्तिको लगाये और दूसरी वृत्ति आ जाय अर्थात् दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय, उसकी अपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय। (2) जहाँ-जहाँ मन चला जाय, वहाँ-वहाँ ही अपने लक्ष्यको, इष्टको देखे।उपर्युक्त दो साधनोंके सिवाय मन लगानेके कई उपाय हैं; जैसे--(1) जब साधक ध्यान करनेके लिये बैठे, तब सबसे पहले दो-चार श्वास बाहर फेंककर ऐसी भावना करे कि मैंने मनसे संसारको सर्वथा निकाल दिया, अब मेरा मन संसारका चिन्तन नहीं करेगा, भगवान्का ही चिन्तन करेगा और चिन्तनमें जो कुछ भी आयेगा, वह भगवान्का ही स्वरूप होगा। भगवान्के सिवाय मेरे मनमेंदूसरी बात आ ही नहीं सकती। अतः भगवान्का स्वरूप वही है, जो मनमें आ जाय और मनमें जो आ जाय, वही भगवान्का स्वरूप है यह--'वासुदेवः सर्वम्' का सिद्धान्त है। ऐसा होनेपर मन भगवान्में ही लगेगा; और लगेगा ही कहाँ? (2) भगवान्के नामका जप करे, पर जपमें दो बातोंका ख्याल रखे--एक तो नामके उच्चारणमें समय खाली न जाने दे अर्थात् रा ৷৷. म ৷৷. रा ৷৷. म इस तरह नामका भले ही धीरे-धीरे उच्चारण करे, पर बीचमें समय खाली न जाने दे और दूसरे, नामको सुने बिना न जाने दे अर्थात् जपके साथसाथ उसको सुने भी। (3) जिस नामका उच्चारण किया जाय, मनसे उस नामकी निगरानी रखे अर्थात् उस नामको अंगुली अथवा मालासे न गिनकर मनसे ही नामका उच्चारण करे और मनसे ही नामकी गिनती करे। (4) एक नामका तो वाणीसे उच्चारण करे और दूसरे नामका मनसे जप करे; जैसे--वाणीसे तो 'राम-राम-राम' का उच्चारण करे और मनसे 'कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण' का जप करे। (5) जैसे राग-रागिनीके साथ बोलकर नामका कीर्तन करते हैं, ऐसे ही राग-रागिनीके साथ मनसे नामका कीर्तन करे। (6) चरणोंसे लेकर मुकुटतक और मुकुटसे लेकर चरणोंतक भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करे। (7) भगवान् मेरे सामने खड़े हैं--ऐसा समझकर भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करे। भगवान्के दाहिने चरणकी पाँच अंगुलियोंपर मनसे ही पाँच नाम लिख दे। अंगुलियोंके ऊपरका जो भाग है, उसपर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। चरणोंकी पिण्डीका जो आरम्भ है, उस पिण्डीकी सन्धिपर दो नामोंके कड़े बना दे। फिर पिण्डीपर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। घुटनेके नीचे और ऊपर एक-एक नामका गोल कड़ा बना दे अर्थात् गोलाकार नाम लिख दे। ऊरु (जंघा) पर लम्बाईमें तीन नाम लिख दे। आधी (दाहिने तरफकी) कमरमें दो नामोंकी करधनी बना दे। तीन नाम पसलीपर लिख दे। दो नाम कन्धेपर और तीन नाम बाजूपर (भुजाके ऊपरके भागपर) लिख दे। कोहनीके ऊपर और नीचे दो-दो नामोंका कड़ा बना दे। फिर तीन नाम (कोहनीके नीचे) पहुँचासे ऊपरके भागपर लिख दे। पहुँचामें दो नामोंका कड़ा बना दे तथा पाँच अंगुलियोंपर पाँच नाम लिख दे। गलेमें चार नामोंका आधा हार और कानमें दो नामोंका कुण्डल बना दे। मुकुटके दाहिने आधे भागपर छः नाम लिख दे अर्थात् नीचेके भागपर दो नामोंका कड़ा, मध्यभागपर दो नामोंका कड़ा और ऊपरके भागपर दो नामोंका कड़ा बना दे।तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्के दाहिने अङ्गमें चरणसे लेकर मुकुटतक चौवन नाम अथवा मन्त्र आने चाहिये और बायें अङ्गमें मुकुटसे लेकर चरणतक चौवन नाम अथवा मन्त्र आने चाहिये। इससे भगवान्की एक परिक्रमा हो जाती है, भगवान्के सम्पूर्ण अङ्गोंका चिन्तन हो जाता है और एक सौ आठ नामोंकी एक माला भी हो जाती है। प्रतिदिन ऐसी कम-से-कम एक माला करनी चाहिये। इससे अधिक करना चाहें, तो अधिक भी कर सकते हैं।इस तरह अभ्यास करनेके अनेक रूप, अनेक तरीके हैं। ऐसे तरीके साधक स्वयं भी सोच सकता है। अभ्यासकी सहायताके लिये 'वैराग्य' की जरूरत है। कारण कि संसारके भोगोंसे राग जितना हटेगा, मन उतना परमात्मामें लगेगा। संसारका राग सर्वथा हटनेपर मनमें संसारका रागपूर्वक चिन्तन नहीं होगा। अतः पुराने संस्कारोंके कारण कभी कोई स्फुरणा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा कर दे अर्थात् उसमें न राग करेऔर न द्वेष करे। फिर वह स्फुरणा अपने-आप मिट जायगी। इस तरह अभ्यास और वैराग्यसे मनका निग्रह हो जाता है, मन पकड़ा जाता है।वैराग्य होनेके कई उपाय हैं जैसे-- 1 संसार प्रतिक्षण बदलता है और स्वरूप कभी भी तथा किसी भी क्षण बदलता नहीं। अतः संसार हमारे साथ नहीं है और हम संसारके साथ नहीं हैं। जैसे, बाल्यावस्था ,युवावस्था हमारे साथ नहीं रही, परिस्थिति हमारे साथ नहीं रही, आदि। ऐसा विचार करनेपर संसारसे वैराग्य होता है। 2 अपने कहलानेवाले जितने कुटुम्बी, सम्बन्धी हैं, वे हमारेसे अनुकूलताकी इच्छा रखते हैं तो अपनी शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता, समझके अनुसार उनकी न्याययुक्त इच्छा पूरी कर दे और परिश्रम करके उनकी सेवा कर दे; परन्तु उनसे अपनी अनूकूलताकी तथा कुछ लेनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दे। इस तरह अपनी सामर्थ्यके अनुसार वस्तु देनेसे और परिश्रम करके सेवा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और उनसे कुछ भी न चाहनेसे नया राग पैदा नहीं होता। इससे स्वाभाविक संसारसे वैराग्य हो जाता है। 3 जितने भी दोष, पाप, दुःख पैदा होते हैं, वे सभी संसारके रागसे ही पैदा होते हैं और जितना सुख, शान्ति मिलती है, वह सब राग-रहित होनेसे ही मिलती है। ऐसा विचार करनेसे वैराग्य हो ही जाता है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें अभ्यास और वैराग्यद्वारा मनके निग्रहकी बात कहकर अब आगेके श्लोकमें भगवान् ध्यानयोगकी प्राप्तिमें अन्वयव्यतिरेकसे अपना मत बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.35।। श्रीभगवान् कहते हैं --  हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.35।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.

Sri Anandgiri

।।6.35।।प्रश्नमङ्गीकृत्य प्रतिवचनमुत्थापयति श्रीभगवानिति। कुत्र संशयराहित्यं तत्राह मन इति। कथं तर्हि मनोनिरोधो भवति तत्राह किं त्विति। अभ्यासस्वरूपं सामान्येन निदर्शयति अभ्यासो नामेति। कस्यांचिच्चित्तभूमावित्यविशेषितो ध्येयो विषयो निर्दिश्यते समानप्रत्ययावृत्तिर्विजातीय��्रत्ययान्तरितेति शेषः। चित्तस्येति षष्ठी प्रत्ययस्य तद्विकारत्वद्योतनार्था। वैराग्यस्वरूपं निरूपयति वैराग्यमिति। तेषु वैतृष्ण्यं वैराग्यं नामेति संबन्धः। तत्र हेतुं सूचयति दोषेति। विषयेषु तृष्णाविषयेषु दोषदर्शनमभ्यस्यते तेन वैतृष्ण्यं जायते। निगृह्यमाणं निर्दिशति विक्षेपेति। तस्मिन्गृहीते निरुद्धे मनोनिरोधेऽस्य किं स्यादित्यपेक्षायामाह एवमिति। अभ्यासहेतुकवैराग्यद्वारा चित्तप्रचारनिरोधे निरुद्धवृत्तिकं मनो विषयविमुखमन्तर्निष्ठं भवतीत्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।6.35।।एवं तदुक्तमङ्गीकृत्य तन्निग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। तथाप्यभ्यासवैराग्याभ्यां निग्रहो भवति।

Sridhara Swami

।।6.35।।तदुक्तं चञ्चलत्वादिकमङ्गीकृत्यैव मनोनिग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। चञ्चलत्वादिना मनो निरोद्धुमशक्यमिति यद्वदसि एतन्निःसंशयमेव तथापि तु विषयाचिन्तनपूर्वकमभ्यासेन परमात्माकारप्रत्ययया वृत्त्या विषयवैतृष्ण्येन च गृह्यते निगृह्यते। अभ्यासेन लयप्रतिबन्धाद्वैराग्येण च विक्षेपप्रतिबन्धादुपरतवृत्तिकं सत्परमात्माकारेण परिणतं तिष्ठतीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रे मनसो वृत्तिशून्यस्य ब्रह्माकारतया स्थितिः। या संप्रज्ञातनामासौ समाधिरभिधीयते।। इति।

Explore More