Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 30 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||६-३०||
Transliteration
yo māṃ paśyati sarvatra sarvaṃ ca mayi paśyati . tasyāhaṃ na praṇaśyāmi sa ca me na praṇaśyati ||6-30||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.30 He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he never becomes separated from Me, nor do I become separated from him.
।।6.30।। जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
By recognizing the divine spark or intrinsic value in every colleague, client, and task, one can approach work with greater empathy, integrity, and purpose. This perspective fosters collaboration, ethical decision-making, and transforms mundane duties into opportunities for service, seeing the interconnectedness of all roles within the larger organizational and societal ecosystem.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivating the vision of universal unity and divine presence helps alleviate stress by reframing challenges. Instead of feeling isolated, one perceives a greater interconnectedness and purpose, understanding that even difficult experiences are part of a larger, guiding order. This promotes inner calm, resilience, and a sense of being supported, as the 'Me' (divine Self) is seen as ever-present and unchanging amidst external flux.
❤️ In Relationships
Seeing 'Me' (the Self) in everyone naturally cultivates deep empathy, compassion, and non-judgment. It transforms relationships by fostering understanding, reducing conflict, and promoting unconditional love. Recognizing the divine essence in others helps one look beyond superficial differences, fostering genuine connection and mutual respect, thereby strengthening bonds and creating harmonious interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize the divine presence in all beings and experiences, for in this vision of universal unity, you discover an unbreakable, eternal connection to the Divine and to all of existence.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.30 यः who? माम् Me? पश्यति sees? सर्वत्र everywhere? सर्वम् all? च and? मयि in Me? पश्यति sees? तस्य of him? अहम् I? न not? प्रणश्यामि vanish? सः he? च and? मे to Me? न not? प्रणश्यति vanishes.Commentary In this verse the Lord describes the effect of the vision of the unity of the Self or oneness.He who sees Me? the Self of all? in all beings? and everything (from Brahma the Creator down to the blade of grass) in Me? I am not lost to him? nor is he lost to Me. I and the sage or seer of unity of the Self become identical or one and the same. I never leave his presence nor does he leave My presence. I never lose hold of him nor does he lose hold of Me. I dwell in him and he dwells in Me.
Shri Purohit Swami
6.30 He who sees Me in everything and everything in Me, him shall I never forsake, nor shall he lose Me.
Dr. S. Sankaranarayan
6.30. He who observes Me in all and observes all in Me-for him I am not lost and he too is not lost for me.
Swami Adidevananda
6.30 To him who sees Me in every self and sees every self in Me - I am not lost to him and he is not lost to Me.
Swami Gambirananda
6.30 One who sees Me in everything, and sees all things in Me-I do not out of his vision, and he also is not lost to My vision.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.30।। पहले यह कहा गया था कि ब्रह्मसंस्पर्श से योगी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। ब्रह्मसंस्पर्श से तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म के एकत्व से है जो उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। इस ज्ञान को स्वयं भगवान् ही यहाँ स्पष्ट दर्शा रहे हैं। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है अन्य स्थानों के समान ही यहाँ प्रयुक्त मैं शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीपुत्र कृष्ण। इस व्याख्या के प्रकाश में जो पुरुष पूर्व श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ेगा उसे प्रसिद्ध ईशावास्योपनिषद् की इस घोषणा का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जायेगा ।वह मुझसे वियुक्त नहीं होता बुद्धि से अतीत आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है। स्वप्नद्रष्टा पुरुष जागने पर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता।और न मैं उससे वियुक्त होता हूँ द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते । जिस स्पष्टता से यहाँ जीव के दिव्य स्वरूप की घोषणा की गयी है उसे और अधिक स्पष्ट नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ किसी भी प्रकार से इस तथ्य को गूढ़ और गोपन नहीं रखना चाहते कि अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है। हो सकता है कि किन्हींकिन्हीं लोगों के लिए यह सत्य चौंका देने वाला हो तथापि है तो वह सत्य ही। जिन्हें इसे स्वीकार करने में संकोच होता हो वे अपने जीव भाव को ही दृढ़ बनाये रख सकते हैं। परन्तु भारत में गुरुओं की परम्परा ने तथा विश्व के अन्य अनुभवी सन्तों ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र नामरूपों में स्थित है।वर्तमान दशा में हम अपने आप से ही दूर हो चुके हैं अहंकार एक राजद्रोही है जिसने आत्मसाम्राज्य से स्वयं का निष्कासन कर लिया है। आत्मप्राप्ति पर अहंकार उसमें पूर्णतया विलीन हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा के जागने पर वह जाग्रत् पुरुष से भिन्न नहीं रह सकता। भगवान् यहाँ कहते हैं कि साधक और मैं एक दूसरे से कभी वियुक्त नहीं होते।वास्तव में यदि हम यह समझ लेते हैं कि आत्मविस्मृति के कारण परमात्मा जीवभाव को प्राप्त सा हुआ है तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुन परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। जैसे एक अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुन स्वरूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। वेदान्त की यह साहसिक घोषणा समझनी कठिन नहीं है परन्तु सामान्य अज्ञानी जन इससे स्तब्ध होकर रह जाते हैं और अपने दोषों के कारण इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। उनमें इतना साहस और विश्वास नहीं कि वे दिव्य जीवन जीने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकें। इस श्लोक में भगवान् का कथन परमार्थ सत्य के स्वरूप के संबंध में उपनिषदों के निष्कर्ष के विषय में रंचमात्र भी सन्देह नहीं रहने देता।पूर्व श्लोक में कथित सम्यक् दर्शन को पुन बताकर कहते हैं
Swami Ramsukhdas
।।6.30।। व्याख्या--'यो मां पश्यति सर्वत्र'--जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिमें मेरेको देखता है। जैसे, ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये (टिप्पणी प0 364)। यह लीला एक वर्षतक चलती रही, पर किसीको इसका पता नहीं चला। बछड़ोंमेंसे कई बछ़ड़े तो केवल दूध ही पीनेवाले थे, इसलिये वे घरपर ही रहते थे और बड़े बछड़ोंको भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वनमें ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ोंवाली गायें भी अपने पहलेके (बड़े) बछड़ोंको देखकर उनको दूध पिलानेके लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपोंने उन गायोंको बहुत रोका, पर वे रुकी नहीं। इससे गोपोंको उन गायोंपर बहुत गुस्सा आ गया। परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बालकोंको देखा, तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकोंको हृदयसे लगाने लगे, उनका माथा सूँघने लगे। इस लीलाको देखकर दाऊ दादाने सोचा कि यह क्या बात है; उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान्का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान्को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें भगवत्सत्ताके सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। 'सर्वं च मयि पश्यति'--और जो भक्त देश, काल. वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिको मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे, गीताका उपदेश देते समय अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसारको मेरे एक अंशमें स्थित देख--'इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे' ৷৷. (11। 7) तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देख रहा हूँ--'पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्' (11। 15)। सञ्जयने भी कहा कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सारे संसारको देखा--'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा' (11। 13)। तात्पर्य है कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्त देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आता है, उसको भगवान्में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है।'तस्याहं न प्रणश्यामि'--भक्त जब सब जगह मुझे ही देखता है, तो मैं उससे कैसे छिपूँ, कहाँ छिपूँ और किसके पीछे छिपूँ? इसलिये मैं उस भक्तके लिये अदृश्य नहीं रहता अर्थात् निरन्तर उसके सामने ही रहता हूँ। 'स च मे न प्रणश्यति'--जब भक्त भगवान्को सब जगह देखता है, तो भगवान् भी भक्तको सब जगह देखते हैं; क्योंकि भगवान्का यह नियम है कि 'जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं भी उसी प्रकार उनको आश्रय देता हूँ--'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता 4। 11)। तात्पर्य है कि भक्त भगवान्के साथ घुल-मिल जाते हैं, भगवान्के साथ उनकी आत्मीयता, एकता हो जाती है; अतः भगवान् अपने स्वरूपमें उनको सब जगह देखते हैं। इस दृष्टिसे भक्त भी भगवान्के लिये कभी अदृश्य नहीं होता। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान्के लिये तो कोई भी अदृश्य नहीं है--'वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि' ৷৷. (गीता 7। 26), फिर यहाँ केवल भक्तके लिये ही 'वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता'--ऐसा क्यों कहा है? इसका समाधान है कि यद्यपि भगवान्के लिये कोई भी अदृश्य नहीं है, तथापि जो भगवान्को सब जगह देखता है, उसके भावके कारण भगवान् भी उसको सब जगह देखते हैं। परन्तु जो भगवान्से विमुख होकर संसारमें आसक्त है, उसके लिये भगवान् अदृश्य रहते हैं--'नाहं प्रकाशः सर्वस्य'(गीता 7। 25)। अतः (उसके भावके कारण) वह भी भगवान्के लिये अदृश्य रहता है। जितने अंशमें उसका भगवान्के प्रति भाव नहीं है, उतने अंशमें वह भगवान्के लिये अदृश्य रहता है। ऐसे ही बात भगवान्ने नवें अध्यायमें भी कही है कि 'मैं सब प्राणियोंमें समान हूँ। न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ।' सम्बन्ध--अब भगवान् ध्यान करनेवाले सिद्ध भक्तियोगीके लक्षण बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.30।। जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.30।।फलमाह यो मामिति। तस्याहं न प्रणश्यामीति सर्वदा योगक्षेमवहः स्यामित्यर्थः। स च मे न प्रणश्यति सर्वदा मद्भक्तो भवति। सत्यपि स्वामिन्यरक्षत्यनाथः एवं भृत्येऽप्यभजत्यभृत्य इति हि प्रसिद्धिः। उक्तं चसर्वदा सर्वभूतेषु समं मां यः प्रपश्यति। अचला तस्य भक्तिः स्याद्योगक्षेमं वहाम्यहम् (৷৷.वहोऽस्म्यम्) इति गारुडे।
Sri Anandgiri
।।6.30।।उक्तस्यैकत्वज्ञानस्य फलविकल्पत्वशङ्कां शिथिलयति एतस्येति। तत्रैकत्वदर्शनमनुवदति यो मामिति। तत्फलमिदानीमुपन्यस्यति तस्येति। ज्ञानानुवादभागं विभजते यो मामिति। तत्फलोक्तिभागं व्याचष्टे तस्यैवमिति। अनेकत्वदर्शिनोऽपीश्वरो नित्यत्वान्न प्रणश्यतीत्याशङ्क्याह नेति। अहं परमानन्दो न तं प्रति परोक्षीभवामीत्यर्थः। स चेत्यादि व्याचष्टे विद्वानिति। विद्वानिवाविद्वानपीश्वरस्य न नश्यतीत्याशङ्क्योक्तं नेत्यादिना। अविदुषश्च स्वरूपेण सतोऽपि व्यवहितत्वादविद्यया नष्टप्रायतेत्यर्थः। ईश्वरस्य विदुषस्च परस्परमपरोक्षत्वे हेतुमाह तस्य चेति। आत्मैकत्वेऽपि कथं मिथोऽपरोक्षत्वं तत्राह स्वात्मेति। विद्वदीश्वरयोरेकत्वानुवादेन विद्याफलं विवृणोति यस्माच्चेति। तस्मादेकत्वदर्शनार्थं प्रयतितव्यमिति शेषः।
Sri Vallabhacharya
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।6.30।।एवंभूतात्मज्ञानस्य सर्वभूतात्मतया मदुपासनं मुख्यं कारणमित्याह य इति। मां परमेश्वरं सर्वत्र भूतमात्रे यः पश्यति सर्वं च प्राणिमात्रं मयि यः पश्यति तस्याहं न प्रणश्याम्यदृश्यो न भवामि स च ममादृश्यो न भवति। प्रत्यक्षो भूत्वा कृपादृष्ट्या तं विलोक्यानुगृह्णामीत्यर्थः।