Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 29 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि | ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ||६-२९||
Transliteration
sarvabhūtasthamātmānaṃ sarvabhūtāni cātmani . īkṣate yogayuktātmā sarvatra samadarśanaḥ ||6-29||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
6.29 With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings in the Self; he sees the same everywhere.
।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, cultivate a sense of unity by recognizing the inherent worth and potential in every colleague, client, and competitor. This perspective fosters genuine collaboration, reduces ego-driven conflicts, and inspires ethical leadership, understanding that collective well-being contributes to individual success.
🧘 For Stress & Anxiety
When faced with stress or external chaos, practice stepping back to see the underlying unity. This helps to depersonalize challenges, reduce judgment of others' actions, and foster inner calm by realizing that all experiences are part of a larger, interconnected whole. It diminishes feelings of isolation and brings equanimity amidst life's ups and downs.
❤️ In Relationships
Apply this vision to deepen empathy and compassion in all relationships. By seeing the 'Self' in every person, whether a loved one or a stranger, you can transcend superficial differences, forgive more readily, and communicate with greater understanding. This fosters unconditional acceptance and builds stronger, more harmonious connections based on shared essence.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Through inner harmony, perceive the universal Self in all beings and experiences, dissolving division and fostering profound unity.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
6.29 सर्वभूतस्थम् abiding in all beings? आत्मानम् the Self? सर्वभूतानि all beings? च and? आत्मनि in the Self?,ईक्षते sees? योगयुक्तात्मा one who is harmonised by Yoga? सर्वत्र everywhere? समदर्शनः one who sees the same everywhere.Commentary The Yogi beholds through the eye of intuition (JnanaChakshus or DivyaChakshus) oneness or unity of the Self everywhere. This is a sublime and magnanimous vision indeed. He feels? All indeed is Brahman. He beholds that all beings are one with Brahman and that the Self and Brahman are identical.
Shri Purohit Swami
6.29 He who experiences the unity of life sees his own Self in all beings, and all beings in his own Self, and looks on everything with an impartial eye;
Dr. S. Sankaranarayan
6.29. He, who has yoked the self in Yoga and observes everything eally perceives the Self to be abiding in all beings and all beings to be abiding in the Self.
Swami Adidevananda
6.29 He whose mind is fixed in Yoga sees eality everywhere; he sees his self as abiding in all beings and all beings in his self.
Swami Gambirananda
6.29 One who has his mind Self-absorbed through Yoga, and who has the vision of sameness every-where, see this Self existing in everything, and every-thing in his Self.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।6.29।। विश्व के सभी धर्म महान हैं परन्तु यदि धर्म शब्द का अर्थ आत्मोन्नति का विज्ञान है तो उनमें से कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।हिन्दू धर्म में ऐसा कोई आत्मानुभवी पुरुष नहीं है जिसने दैवी करुणा से ही क्यों न होहे पापपुत्र जैसे अशोभनीय सम्बोधन द्वारा किसी को सम्बोधित किया हो। स्वामी रामतीर्थ के समान हिन्दू महात्मा पुरुष ने लोगों को हे अमृत के पुत्रों के अतिरिक्त किसी अन्य शब्द से संबोधित नहीं किया। अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है।गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नामरूपमय यह सृष्टि पारमार्थिक सत्य की अभिव्यक्ति है अथवा यह सृष्टि उस सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है।हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे ात्मस्वरूप ा साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है। मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है।इस ज्ञान को समझने से श्लोक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जिसने अनेकता में एक सत्य का दर्शन कर लिया वही आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समदृष्टि सेब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल को देख सकता है।अगले श्लोक में इस आत्मैकत्व दर्शन का फल बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।6.29।। व्याख्या--'ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः'--सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खाँड़से बने हुए अनेक तरहके खिलौनोंके नाम, रूप, आकृति आदि भिन्न-भिन्न होनेपर भी उनमें समानरूपसे एक खाँड़को, लोहेसे बने हुए अनेक तरहके अस्त्र-शस्त्रोंमें एक लोहेको, मिट्टीसे बने हुए अनेक तरहके बर्तनोंमें एक मिट्टीको और सोनेसे बने हुए आभूषणोंमें एक सोनेको ही देखता है, ऐसे ही ध्यानयोगी तरह-तरहकी वस्तु, व्यक्ति आदिमें समरूपसे एक अपने स्वरूपको ही देखता है।'योगयुक्तात्मा'--इसका तात्पर्य है कि ध्यानयोगका अभ्यास करते-करते उस योगीका अन्तःकरण अपने स्वरूपमें तल्लीन हो गया है। [तल्लीन होनेके बाद उसका अन्तःकरणसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है जिसका संकेत 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' पदोंसे किया गया है।]'सर्वभूतस्थमात्मानम्'--वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनी आत्माको--अपने सत्स्वरूपको स्थित देखता है। जैसे साधारण प्राणी सारे शरीरमें अपने-आपको देखता है अर्थात् शरीरके सभी अवयवोंमें, अंशोंमें 'मैं' को ही पूर्णरूपसे देखता है, ऐसे ही समदर्शी पुरुष सब प्राणियोंमें अपने स्वरूपको ही स्थित देखता है।किसीको नींदमें स्वप्न आये, तो वह स्वप्नमें स्थावरजङ्गम प्राणी-पदार्थ देखता है। पर नींद खुलनेपर वह स्वप्नकी सृष्टि नहीं दीखती; अतः स्वप्नमें स्थावर-जङ्गम आदि सब कुछ स्वयं ही बना है। जाग्रत्-अवस्थामें किसी जड या चेतन प्राणी-पदार्थकी याद आती है, तो वह मनसे दीखने लग जाता है और याद हटते ही वह सब दृश्य अदृश्य हो जाता है; अतः यादमें सब कुछ अपना मन ही बना है। ऐसे ही ध्यानयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपने स्वरूपको स्थित देखता है। स्थित देखनेका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें सत्तारूपसे अपना ही स्वरूप है। स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं है; क्योंकि संसार एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता ही रहता है। संसारके किसी रूपको एक बार देखनेपर अगर दुबारा उसको कोई देखना चाहे, तो देख ही नहीं सकता; क्योंकि वह पहला रूप बदल गया। ऐसे परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति आदिमें योगी सत्तारूपसे अपरिवर्तनशील अपने स्वरूपको ही देखता है।'सर्वभूतानि चात्मनि'--वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने अन्तर्गत देखता है अर्थात् अपने सर्वगत, असीम, सच्चिदानन्दघन स्वरूपमें ही सभी प्राणियोंको तथा सारे संसारको देखता है। जैसे एक प्रकाशके अन्तर्गत लाल, पीला, काला, नीला आदि जितने रंग दीखते हैं, वे सभी प्रकाशसे ही बने हुए हैं और प्रकाशमें ही दीखते हैं और जैसे जितनी वस्तुएँ दीखती हैं वे सभी सूर्यसे ही उत्पन्न हुई हैं और सूर्यके प्रकाशमें ही दीखती हैं ऐसे ही वह योगी सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपसे ही पैदा हुए, स्वरूपमें ही लीन होते हुए और स्वरूपमें ही स्थित देखता है। तात्पर्य है कि उसको जो कुछ दीखता है, वह सब अपना स्वरूप ही दीखता है।इस श्लोकमें प्राणियोंमें तो अपनेको स्थित बताया है, पर अपनेमें प्राणियोंको स्थित नहीं बताया। ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि प्राणियोंमें तो अपनी सत्ता है पर अपनेमें प्राणियोंकी सत्ता नहीं है। कारण कि स्वरूप तो सदा एकरूप रहनेवाला है, पर प्राणी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं।इस श्लोकका तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारमें तो प्राणियोंके साथ अलग-अलग बर्ताव होता है, परन्तु अलगअलग बर्ताव होनेपर भी उस समदर्शी योगीकी स्थितिमें कोई फरक नहीं पड़ता। सम्बन्ध--भगवान्ने चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोकोंमें सगुण-साकारका ध्यान करनेवाले जिस भक्तियोगीका वर्णन किया था, उसके अनुभवकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।6.29।।ध्येयमाह सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थमात्मानं परमेश्वरम् सर्वभूतानि चात्मनि परमेश्वरे तं च परमेश्वरं चतुर्मुखब्रह्मतृणादावैश्वर्यादिना साम्येन पश्यति। तच्चोक्तम् आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम्। अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि भाग.3।24।46 इति।समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् इति च।
Sri Anandgiri
।।6.29।।योगमनुतिष्ठतो ब्रह्मभूतस्य सर्वानर्थनिवृत्तिनिरतिशयसुखप्राप्तिलक्षणो द्विविधो मोक्षो हेतुना केन स्यादिति शङ्कमानं प्रत्याह इदानीमिति। स्वमात्मानमीक्षत इति संबन्धः। सर्वभूतान्यपि तद्विशेषणत्वेन पश्यति चेन्न शुद्धवस्तुज्ञानमिति नाविद्यानिवृत्तिरित्याशङ्क्याह सर्वभूतानीति। उक्ते दर्शने चित्तसमाधानमुपायं दर्शयति योगेति। विषमेषूपाधिषु तदनुरोधाद्विषममेव दर्शनं तदुपदर्शितदर्शनप्रतिबन्धकं प्रत्युदस्यति सर्वत्रेति।
Sri Vallabhacharya
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।
Sridhara Swami
।।6.29।।ब्रह्मसाक्षात्कारमेव दर्शयति सर्वभूतस्थमिति। योगेनाभ्यस्यमानेन युक्तात्मा समाहितचित्तः सर्वत्र समं ब्रह्मैव पश्यतीति समदर्शनः। स्वमात्मानमविद्याकृतदेहादिपरिच्छेदशून्यं सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेष्ववस्थितं पश्यति। तानि चात्मन्यभेदेन पश्यति।