Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 15 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Mind Control & Discipline

Sanskrit Shloka (Original)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः | शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ||६-१५||

Transliteration

yuñjannevaṃ sadātmānaṃ yogī niyatamānasaḥ . śāntiṃ nirvāṇaparamāṃ matsaṃsthāmadhigacchati ||6-15||

Word-by-Word Meaning

युञ्जन्balancing
एवम्thus
सदाalways
आत्मानम्the self
योगीYogi
नियतमानसःone with the controlled mind
शान्तिम्to peace
निर्वाणपरमाम्that which culminates in Nirvana (Moksha)
मत्संस्थाम्abiding in Me

📖 Translation

English

6.15 Thus always keeping the mind balanced, the Yogi, with the mind controlled, attains to the peace abiding in Me, which culminates in liberation.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.15।। इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

By consistently practicing mental balance and discipline, one can maintain deep focus, make clear decisions under pressure, and approach work challenges with a calm demeanor. This leads to increased productivity, resilience against setbacks, and a more fulfilling work experience, free from unnecessary stress and distraction.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse directly offers a solution to stress and mental agitation. Through diligent control and balancing of the mind, individuals can cultivate profound inner peace, significantly reducing anxiety, promoting mental clarity, and building emotional resilience. It's about developing a stable internal state that can withstand external pressures.

❤️ In Relationships

A controlled and balanced mind fosters greater patience, empathy, and understanding in interactions. By maintaining inner peace, one can respond thoughtfully rather than react impulsively, leading to more harmonious relationships, constructive conflict resolution, and the ability to build deeper, more meaningful connections with others.

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Consistent self-discipline and mastery over the mind are the direct paths to profound inner peace, culminating in spiritual liberation and union with the Divine.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.15 युञ्जन् balancing? एवम् thus? सदा always? आत्मानम् the self? योगी Yogi? नियतमानसः one with the controlled mind? शान्तिम् to peace? निर्वाणपरमाम् that which culminates in Nirvana (Moksha)? मत्संस्थाम् abiding in Me? अधिगच्छति attains.Commentary Thus in the manner prescribed in the previous verse.The Supreme Self is an embodiment of peace. It is an ocean of peace. When one attains to the supreme peace of the Eternal? by controlling the modifications of the mind and keeping it always balanced? he attains to liberation or perfection.

Shri Purohit Swami

6.15 Thus keeping his mind always in communion with Me, and with his thoughts subdued, he shall attain that Peace which is mine and which will lead him to liberation at last.

Dr. S. Sankaranarayan

6.15. Yoking his self (mind) incessantly in this manner, My devotee, with mind not attached to anything else, realises peace which culminates in the nirvana and is in the form of ending in Me.

Swami Adidevananda

6.15 Ever applying his mind in this way, the Yogin of controlled mind, attains the peace which is the summit of beatitude and which abides in Me.

Swami Gambirananda

6.15 Concentrating the mind thus for ever, the yogi of controlled mind achieves the Peace which culminates in Liberation and which abides in Me.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.15।। शरीर का आसन मन का भाव बुद्धि के द्वारा चिन्तन का वर्णन करने के पश्चात् अब भगवान् ध्यानविधि के अन्तिम चरण का वर्णन अपने प्रिय मित्र अर्जुन के लिए करते हैं। उक्त गुणों से सम्पन्न साधक अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन में सामञ्जस्य स्थापित करके एक अलौकिक क्षमता को प्राप्त करता है। ऐसा संयमित मन का पुरुष सतत साधनारत हुआ परम पद को प्राप्त होता है।सदा का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि साधक को अपने परिवार एवं समाज के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा करने की सीख यहाँ दी गयी है। ऐसा करना समाज के प्रति अपराध होगा। सदा का तात्पर्य प्रतिदिन के ध्यान के अभ्यास के समय से है। पूरी लगन से ध्यान करने पर साधक पूर्ण शांति का अनुभव करता है।यह शांति ही परमात्मा का स्वरूप है क्योंकि आत्मा में शरीर मन और बुद्धि की उत्तेजना चंचलता और विक्षेपों का सर्वथा अभाव है। आत्मा इन उपाधियों से परे है। भगवान् के इस कथन से कि योगी मुझमें स्थित परम शांति को प्राप्त होता है ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यहाँ श्रीकृष्ण द्वैतवाद के मत का प्रतिपादन कर रहे हैं। परन्तु परम सत्य को गुण युक्त मानने का अर्थ होगा उसे एक द्रव्य पदार्थ समझना जो कि परिच्छिन्न और विकारी होगा। उसी प्रकार उस शांति की प्राप्ति एक विषय की प्राप्ति के समान होगी।भगवान् श्रीकृष्ण तत्त्व का ज्ञान कराने में भाषा की असमर्थता एवं सीमित योग्यता को जानते हैं इसलिए वे उक्त दोष का परिहार करने के लिए शांति को एक विशेषण देते हैं निर्वाण परमाम् अर्थात् मोक्ष स्वरूप शांति।तात्पर्य यह है कि जब योगी का मन विषयों से पूर्णतया निवृत्त होता है तब वह उस शांति का अनुभव करता है जो उसने बाह्य जगत् में कभी अनुभव नहीं की थी। शीघ्र ही वह पुरुष परम सत्य स्वरूप के साथ एक हो जाता है जिसकी सुगंध पूर्वानुभूत शांति होती है। ध्यान के अन्तिम चरण में योगी अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव तद्रूप होकर ही करता है। इसी अद्वैतानुभूति का वर्णन सम्पूर्ण गीता में किया गया है।अब योगी के लिए आहारादि के नियम का वर्णन करते हैं

Swami Ramsukhdas

।।6.15।। व्याख्या--'योगी नियतमानसः' जिसका मनपर अधिकार है, वह 'नियतमानसः' है। साधक 'नियतमानस' तभी हो सकता है, जब उसके उद्देश्यमें केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्माके सिवाय उसका और किसीसे सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि जबतक उसका सम्बन्ध संसारके साथ बना रहता है, तबतक उसका मन नियत नहीं हो सकता।साधकसे यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने-आपको गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोगका करता है। जिससे ध्यानयोगकी सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने-आपको गृहस्थ, साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि किसी वर्ण-आश्रमका न मानकर ऐसा माने कि 'मैं तो केवल ध्यान करनेवाला हूँ। ध्यानसे परमात्माकी प्राप्ति करना ही मेरा काम है। सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि आदिको प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं है।' इस प्रकार अहंताका परिवर्तन होनेपर मन स्वाभाविक ही नियत हो जायगा; क्योंकि जहाँ अहंता होती है, वहाँ ही अन्तःकरण और बहिःकरणकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।'युञ्जन्नेवं सदात्मानम्'--दसवें श्लोकके 'योगी युञ्जीत सततम्' पदोंसे लेकर चौदहवें श्लोकके 'युक्त आसीत मत्परः' पदोंतक जितना ध्यानका, मन लगानेका वर्णन हुआ है, उस सबको यहाँ 'एवम्' पदसे लेना चाहिये।'युञ्जन् आत्मानम्' का तात्पर्य है कि मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाते रहना चाहिये।'सदा' का तात्पर्य है कि प्रतिदिन नियमितरूपसे ध्यानयोगका अभ्यास करना चाहिये। कभी योगका अभ्यास किया और कभी नहीं किया--ऐसा करनेसे ध्यानयोगकी सिद्धि जल्दी नहीं होती। दूसरा तात्पर्य यह है कि परमात्माकी प्राप्तिका लक्ष्य एकान्तमें अथवा व्यवहारमें निरन्तर बना रहना चाहिये।'शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति'--भगवान्में जो वास्तविक स्थिति है, जिसको प्राप्त होनेपर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता, उसको यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति' कहा गया है। ध्यानयोगी ऐसी निर्वाणपरमा शान्तिको प्राप्त हो जाता है।एक 'निर्विकल्प स्थिति' होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है। ध्यानयोगमें पहले निर्विकल्प स्थिति होती है फिर उसके बाद निर्विकल्प बोध होता है। इसी निर्विकल्प बोधको यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति नामसे कहा गया है।शान्ति दो तरहकी होती है--शान्ति और परमशान्ति। संसारके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से 'शान्ति' होती है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर 'परमशान्ति' होती है। इसी परमशान्तिको गीतामें 'नैष्ठिकी शान्ति' (5। 12), 'शश्वच्छान्ति' (9। 31) आदि नामोंसे और यहाँ निर्वाणपरमा शान्ति नामसे कहा गया है।  सम्बन्ध--अब आगेके दो श्लोकोंमें ध्यानयोगके लिये उपयोगी नियमोंका क्रमशः व्यतिरेक और अन्वय-रीतिसे वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।6.15।। इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.15।।निर्वाणपरमां शरीरत्यागोत्तरकालीनाम्।

Sri Anandgiri

।।6.15।।संप्रति परमफलकथनपरत्वेनानन्तरश्लोकमादत्ते अथेति। योगस्वरूपं तदङ्गमासनद्वयं तत्कर्तृविशेषणमित्यस्यार्थस्य प्रकथनानन्तरमित्यथशब्दार्थः। आत्मानं युञ्जन्निति संबन्धः। आत्मशब्दो मनोविषयः। यथोक्तो विधिरासनादिः। उक्तविशेषणत्रयद्योतनार्थं सदेत्युक्तम्। योगी ध्यायी संन्यासीत्यर्थः। मनःसंयमस्य योगं प्रत्यसाधारणत्वं दर्शयति नियतेति। शान्तिशब्दितोपरतेः सर्वसंसारनिवृत्तिपर्यवसायित्वं मत्वा विशिनष्टि निर्वाणेति। यथोक्ताया मुक्तेर्ब्रह्मस्वरूपावस्थानादनर्थान्तरत्वमाह मत्संस्थामिति। मदधीनां मदात्मिकामित्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।6.15।।एवं सदा योगी युक्तः सिद्धः स मयि संस्थां लयं मोक्षादक्षरतादात्म्यरूपादपि परमं प्रवेशं प्राप्नोति।

Sridhara Swami

।।6.15।।योगाभ्यासफलमाह युञ्जन्नेवमिति। एवमुक्तप्रकारेण सदात्मानं मनो युञ्जन्समाहितं कुर्वन्नियतं निरुद्धं मानसं चित्तं यस्य सः। शान्तिं संसारोपरतिं प्राप्नोति। कथंभूताम्। निर्वाणं परमं प्राप्यं यस्यां तां मत्संस्थां मद्रूपेणावस्थितिम्।

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