Bhagavad Gita Chapter 6 Verse 14 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Mindful Discipline

Sanskrit Shloka (Original)

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः | मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ||६-१४||

Transliteration

praśāntātmā vigatabhīrbrahmacārivrate sthitaḥ . manaḥ saṃyamya maccitto yukta āsīta matparaḥ ||6-14||

Word-by-Word Meaning

प्रशान्तात्माsereneminded
विगतभीःfearless
ब्रह्मचारिव्रतेin the vow of Brahmacharya
स्थितःfirm
मनःthe mind
संयम्यhaving controlled
मच्चित्तःthinking on Me
युक्तःbalanced
आसीतlet him sit

📖 Translation

English

6.14 Serene-minded, fearless, firm in the vow of a Brahmachari, having controlled the mind, thinking of Me and balanced in mind, let him sit, having Me as his supreme goal.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।6.14।। (साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Cultivate a calm, focused mind to navigate professional challenges, make clear decisions without fear of failure, and channel your energy and discipline towards your goals. Connect your work to a larger purpose beyond immediate rewards, fostering a sense of fulfillment and resilience in demanding environments.

🧘 For Stress & Anxiety

Practice mindfulness and self-control to achieve mental serenity, reducing anxiety and fear. Maintain a balanced perspective amidst life's ups and downs, anchoring your mind in a higher purpose to develop profound resilience against stress and emotional turbulence.

❤️ In Relationships

Approach interactions with a serene and fearless mindset, fostering open communication and authenticity. Exercise self-control and discipline to respond thoughtfully rather than react impulsively, building stronger, more meaningful connections based on mutual respect and clear intent.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Master your mind, cultivate fearlessness, and align your life with a supreme purpose to achieve unwavering serenity and inner strength.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

6.14 प्रशान्तात्मा sereneminded? विगतभीः fearless? ब्रह्मचारिव्रते in the vow of Brahmacharya? स्थितः firm? मनः the mind? संयम्य having controlled? मच्चित्तः thinking on Me? युक्तः balanced? आसीत let him sit? मत्परः Me as the supreme goal.Commentary The spiritual aspirant should possess serenity of mind. The Divine Light can descend only in a serene mind. Serenity is attained by the eradication of Vasanas or desires and cravings. He should be fearless. This is the most important alification. A timid man or a coward is very far from Selfrealisation.A Brahmachari (celibate) should serve his Guru or the spiritual preceptor wholeheartedly and should live on alms. This also constitutes the BrahmachariVrata. The aspirant should control the modifications of the mind. He should be balanced in pleasure and pain? heat and cold? honour and dishonour. He should ever think of the Lord and take Him as the Supreme Goal.Brahmacharya also means continence. Semen or the vital fluid tones the nerves and the brain? and energises the whole system. That Brahmachari who has preserved this vital force by the vow,of celibacy and sublimated it into Ojas Sakti or radiant spiritual power can practise steady meditation for a long period. Only he can ascend the ladder of Yoga. Without Brahmacharya or celibacy not an iota or spiritual progress is possible. Continence is the very foundation on which the superstructure of meditation and Samadhi can be built up. Many persons waste this vital energy -- a great spiritual treasure indeed -- when they become blind and lose their power of reason under sexual excitement. Pitiable is their lot They cannot make substantial progress in Yoga.

Shri Purohit Swami

6.14 With peace in his heart and nor fear, observing the vow of celibacy, with mind controlled and fixed on Me, let the student lose himself in contemplation of Me.

Dr. S. Sankaranarayan

6.14. Being calm-minded, fearless, firm in the vow of celibacy; controlling mind fully; let the master of Yoga remain, fixing his mind in Me and having Me [alone] as his supreme goal.

Swami Adidevananda

6.14 Serene and fearless, firm in the vow of celibacy, holding the mind in check and fixing the thought on Me, he should sit in Yoga, intent on Me.

Swami Gambirananda

6.14 He should remain seated with a placid mind, free from fear, firm in the vow of a celibate, and with the mind fixed on Me by controlling it through concentration, having Me as the supreme Goal.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।6.14।। कुछ काल तक ध्यान का निरन्तर अभ्यास करने के फलस्वरूप साधक को अधिकाधिक शांति और सन्तोष का अनुभव होता है अत्यन्त सूक्ष्म आन्तरिक शांति को प्राप्त पुरुष को यहाँ प्रशान्तात्मा कहा गया है। आत्मा को अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप में व्यक्त होने के लिए प्रशान्त अन्तकरण ही अत्यन्त उपयुक्त माध्यम है।ध्यानाभ्यास करने वाले साधक को केवल मानसिक भय के कारण आत्मानुभव की ऊँचाई नापने में कठिनाई होती है। शनैशनै योगी अपने मन की वैषयिक वासनाओं से मुक्त होता है और तदुपरांत यदि उसमें आवश्यक साधना की परिपक्वता न हो तो वह इस मन के अतीत आत्मतत्त्व के अनुभव से भयभीत हो जाता है। उसे लगता है कि वह शून्य में विलीन हो रहा है। अनादि काल से उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव में रहने से उसे विश्वास भी नहीं होता कि इन उपाधियों से परे किसी तत्त्व का अस्तित्व भी हो सकता है। यहाँ उन मछली बेचने वाली स्त्रियों की कथा का स्मरण होता है जिन्हें किसी कारणवश फूलों की दुकान मेें एक रात व्यतीत्ा करनी पड़ी। मछली की दुर्गन्ध की अभ्यस्त होने से वे फूलों की सुगन्ध के कारण तब तक नहीं सो पायीं जब तक कि मछली की टोकरियों को उन्होंने अपने सिरहाने नहीं रख लिया दुखदायी उपाधियों से दूर रहकर अनन्त आनन्द में प्रवेश करने से हम भयभीत हो जाते हैं।इस भय के कारण आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग ही अवरूद्ध हो जाता है। यदि सफलता प्राप्त भी होने लगे तो इसी मानसिक भय के कारण साधक उसकी उपेक्षा कर देगा। प्रशान्तचित्त होकर शास्त्राध्ययन के द्वारा निर्भय मन नित्य ध्यान का अभ्यास करने पर भी यदि ब्रह्मचर्य व्रत में दृढ़ स्थिति न हो तो सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य व्रत औपनिषदिक अर्थ के साथसाथ इस शब्द का यहाँ विशिष्ट अर्थ भी है। सामान्यत ब्रह्मचर्य का अर्थ किया जाता है मैथुन का त्याग। परन्तु इस शब्द का अर्थ अधिक व्यापक है। केवल संभोग की वृत्ति का संयम ही ब्रह्मचर्य नहीं वरन् समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण होना ब्रह्मचर्य है। परन्तु यह संयम विवेकपूर्वक होना चाहिए इच्छाओं का मूढ़ दमन नहीं। असंयमित मन विषयों की संवेदनाओं से विचलित और क्षुब्ध हो जाता है और अपनी सम्पूर्ण शक्ति को विनष्ट कर देता है।इन्द्रिय संयम के इस सामान्य अर्थ के अतिरिक्त भी ब्रह्मचर्य का विशेष प्रयोजन है। संस्कृत भाषा में ब्रह्मचारी का अर्थ है वह पुरुष जिसका स्वभाव ब्रह्म में विचरण करने का हो। इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा अपने मन को निरन्तर ब्रह्मविचार और निदिध्यासन में स्थिर करने का प्रयत्न करना। यही एकमात्र मुख्य उपाय है जिसके द्वारा हम मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को शांत एवं संयमित कर सकते हैं।मन का स्वभाव ही किसी न किसी विषय का चिन्तन करना है। जब तक उसे उत्कृष्ट लक्ष्य का ज्ञान नहीं कराया जाता तब तक उसकी विषयाभिमुखी प्रवृत्ति उनसे विमुख नहीं हो सकती। पूर्ण ब्रह्मचर्य की सफलता का रहस्य भी यही है। किसी योगी की ओर आश्चर्यचकित होकर देखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति उस योगी की सफलता को प्राप्त कर सकता है। उस सफलता के लिए आत्मसंयम की आवश्यकता है। इन्द्रियों के विषयों के आकर्षण से स्वयं को बचाने के निश्चयात्मक उपायों का ज्ञान न होने से ही मनुष्य उनके प्रलोभन में फँस जाता है और लोभ संवरण नहीं कर पाता।इस श्लोक में वर्णित तीनों गुणों से सम्पन्न साधक को ध्यान साधना में कठिनाई नहीं होती। प्रशान्ति निर्भयता और ब्रह्मचर्यये क्रमश बुद्धि मन और शरीर को ध्यान के योग्य बनाते हैं। इन तीनों के सुसंगठित होने पर साधक को अधिकतम शक्ति एवं शान्ति प्राप्त होती है जिनका उपयोग ध्यान के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार नवशक्ति सम्पन्न साधक क्षमतावान हो जाता है। वह अपने भटकने वाले मन को सहज ही विषयों से परावृत्त करके आत्मतत्त्व का ध्यान कर सकता है।इस श्लोक में दिया गया यह निर्देश अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि साधक को मुझे ही परम लक्ष्य समझकर ध्यान के लिए बैठना चाहिए। यह हम अपने अनुभव से जानते हैं कि जिस वस्तु को हम सर्वाधिक महत्त्व देते हैं उसकी प्राप्ति के लिए सर्व प्रथम प्रयत्न करते हैं। इसलिए जो पुरुष परमात्मा को ही सर्वोच्च लक्ष्य समझकर निरन्तर साधनारत रहता है वह शीघ्र ही अपने अनन्त सनातन शान्त और आनन्द स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है।

Swami Ramsukhdas

।।6.14।। व्याख्या--'प्रशान्तात्मा'--जिसका  अन्तःकरण राग-द्वेषसे रहित है, वह '��्रशान्तात्मा' है। जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करनेका, ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करनेका उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्तिका ही दृढ़ उद्देश्य होता है, उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं। राग-द्वेष मिटनेपर स्वतः शान्ति आ जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है। तात्पर्य है कि संसारके सम्बन्धके कारण ही हर्ष, शोक, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वोंके कारण शान्ति भङ्ग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं, तब स्वतःसिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है। उस स्वतःसिद्ध शान्तिको प्राप्त करनेवालेका नाम ही 'प्रशान्तात्मा' है।'विगतभीः'--शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेसे ही रोगका, निन्दाका, अपमानका, मरने आदिका भय पैदा होता है। परन्तु जब मनुष्य शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरे'-पनकी मान्यताको छोड़ देता है, तब उसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं रहता। कारण कि उसके अन्तःकरणमें यह भाव दृढ़ हो जाता है कि इस शरीरको जीना हो तो जीयेगा ही, इसको कोई मार नहीं सकता और इस शरीरको मरना हो तो मरेगा ही, फिर इसकोकोई बचा नहीं सकता। यदि यह मर भी जायगा तो बड़े आनन्दकी बात है; क्योंकि मेरी चित्तवृत्ति परमात्माकी तरफ होनेसे मेरा कल्याण तो हो ही जायगा! जब कल्याणमें कोई सन्देह ही नहीं, तो फिर भय किस बातका? इस भावसे वह सर्वथा भयरहित हो जाता है।'ब्रह्मचारिव्रते स्थितः'--यहाँ 'ब्रह्मचारिव्रत' का तात्पर्य केवल वीर्यरक्षासे ही नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मचारीके व्रतसे है। तात्पर्य है कि जैसे ब्रह्मचारीका जीवन गुरुकी आज्ञाके अनुसार संयत और नियत होता है, ऐसे ही ध्यानयोगीको अपना जीवन संयत और नियत रखना चाहिये। जैसे ब्रह्मचारी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पाँच विषयोंसे तथा मान, बड़ाई और शरीरके आरामसे दूर रहता है, ऐसे ही ध्यानयोगीको भी उपर्युक्त आठ विषयोंमेंसे किसी भी विषयका भोगबुद्धिसे, रसबुद्धिसे सेवन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निर्वाहबुद्धिसे ही सेवन करना चाहिये। यदि भोगबुद्धिसे उन विषयोंका सेवन किया जायगा, तो ध्यानयोगकी सिद्धि नहीं होगी। इसलिये ध्यायोगीको ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित रहना बहुत आवश्यक है।व्रतमें स्थित रहनेका तात्पर्य है कि किसी भी अवस्था, परिस्थिति आदिमें किसी भी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखबुद्धिसे पदार्थोंका सेवन न हो, चाहे वह ध्यानकाल हो, चाहे व्यवहारकाल हो। इसमें सम्पूर्ण इन्द्रियोंका ब्रह्मचर्य आ जाता है।'मनः संयम्य मच्चित्तः'--मनको संयत करके मेरेमें ही लगा दे अर्थात् चित्तको संसारकी तरफसे सर्वथा हटाकर केवल मेरे स्वरूपके चिन्तनमें, मेरी लीला, गुण, प्रभाव, महिमा आदिके चिन्तनमें ही लगा दे। तात्पर्य है कि सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिको लेकर मनमें जो कुछ संकल्प-विकल्परूपसे चिन्तन होता है, उससे मनको हटाकर एक मेरेमें ही लगाता रहे।मनमें जो कुछ चिन्तन होता है, वह प्रायः भूतकालका होता है और कुछ भविष्यकालका भी होता है तथा वर्तमानमें साधक मन परमात्मामें लगाना चाहता है। जब भूतकालकी बात याद आ जाय, तब यह समझे कि वह घटना अभी नहीं है और भविष्यकी बात याद आ जाय, तो वह भी अभी नहीं है। वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर जितने संकल्प-विकल्प हो रहे हैं, वे उन्हीं वस्तु, व्यक्ति आदिके हो रहे हैं, जो अभी नहीं हैं। हमारा लक्ष्य परमात्माके चिन्तनका है, संसारके चिन्तनका नहीं। अतः जिस संसारका चिन्तन हो रहा है, वह संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा और अभी भी नहीं है। परन्तु जिन परमात्माका चिन्तन करना है, वे परमात्मा पहले भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। इस तरह सांसारिक वस्तु आदिके चिन्तनसे मनको हटाकर परमात्मामें लगा देना चाहिये। कारण कि भूतकालका कितना ही चिन्तन किया जाय, उससे लाभ तो कुछ होगा नहीं और भविष्यका चिन्तन किया जाय तो वह काम अभी कर सकेंगे नहीं तथा भूत-भविष्यका चिन्तन होता रहनेसे जो अभी ध्यान करते हैं, वह भी होगा नहीं तो सब ओरसे रीते ही रह जायँगे।'युक्तः'--ध्यान करते समय सावधान रहे अर्थात् मनको संसारसे हटाकर भगवान्में लगानेके लिये सदा सावधान, जाग्रत् रहे। इसमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न करे। तात्पर्य है कि एकान्तमें अथवा व्यवहारमें भगवान्में मन लगानेकी सावधानी सदा बनी रहनी चाहिये; क्योंकि चलते-फिरते, काम-धन्धा करते समय भी सावधानी रहनेसे एकान्तमें मन अच्छा लगेगा और एकान्तमें मन अच्छा लगनेसे व्यवहार करते समय भी मन लगानेमें सुविधा होगी। अतः ये दोनों एक-दूसरेके सहायक हैं अर्थात् व्यवहारकी सावधानी एकान्तमें और एकान्तकी सावधानी व्यवहारमें सहायक है।'आसीत मत्परः'--केवल भगवत्परायण होकर बैठे अर्थात् उद्देश्य, लक्ष्य, ध्येय केवल भगवान्का ही रहे। भगवान्के सिवाय कोई भी सांसारिक वासना, आसक्ति, कामना, स्पृहा, ममता आदि न रहे।इसी अध्यायके दसवें श्लोकमें 'योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः' पदोंसे ध्यानयोगका जो उपक्रम किया था, उसीको यहाँ'युक्त आसीत मत्परः' पदोंसे कहा गया है।

Swami Tejomayananda

।।6.14।। (साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।6.12 6.14।।योगं समाधियोगं युञ्ज्यात्।

Sri Anandgiri

।।6.14।।योगं युञ्जानस्य विशेषणान्तराणि दर्शयति किञ्चेति। अन्तःकरणस्य प्रशान्ती रागद्वेषादिदोषराहित्यं तस्याश्च प्रकर्षो रागादिहेतोरपि निवृत्तिः विगतभयत्वं सर्वकर्मपरित्यागे शास्त्रीयनिश्चयवशान्निःसंदिग्धबुद्धित्वम्। भिक्षाभुक्त्यादीत्यादिशब्देन त्रिषवणस्नानशौचाचमनादि गृह्यते। विशेषणान्तरमाह किञ्चेति। उपसंहृत्य योगनिष्ठो भवेदिति शेषः। मनोवृत्त्युपसंहारे ध्यानमपि न सिध्येत्तस्य तद्वृत्त्यावृत्तिरूपत्वादित्याशङ्क्याह मच्चित्त इति। विषयान्तरविषयमनोवृत्त्युपसंहारेणात्मन्येव तन्नियमनान्न ध्यानानुपपत्तिरित्यर्थः। मच्चित्तत्वेनैव मत्परत्वस्य सिद्धत्वान्मत्पर इति पृथग्विशेषणमनर्थकमित्याशङ्क्याह भवतीति। अन्तःकरणशुद्धिर्योगस्यावान्तरफलम्।

Sri Vallabhacharya

।।6.14।।प्रशान्तात्मेति। मैत्र्यादिचित्तपरिकर्मवित्त्वात् अविद्यादिपञ्चक्लेशभयरहितः। सबीजयोगिनस्तस्य सम्प्रज्ञातसमाधिप्रकारमाह मनः संयम्य मच्चित्त इति। मनश्च तादृशं संयतं वासुदेवाधिष्ठितं चित्तरूपेण परिणमते इति तच्चित्तं तदधिष्ठातरि मयि यस्य स इति युक्तस्य भक्तिसम्बन्धिंत्वमुक्तम्। तदाह युक्तः सन्मत्पर आसीत।

Sridhara Swami

।।6.14।। प्रशान्तेति। प्रशान्त आत्मा चित्तं यस्य विगता भीर्भयं यस्य ब्रह्मचारिव्रते ब्रह्मचर्ये स्थितः सन् मनः संयम्य प्रत्याहृत्य। मय्येव चित्तं यस्य अहमेव परः पुरुषार्थो यस्य स मत्परः एवं युक्तो भूत्वा आसीत तिष्ठेत्।

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