Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 25 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते | ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ||४-२५||
Transliteration
daivamevāpare yajñaṃ yoginaḥ paryupāsate . brahmāgnāvapare yajñaṃ yajñenaivopajuhvati ||4-25||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.25 Some Yogies perform sacrifice to the gods alone; while others (who have realised the Self) offer the self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone.
।।4.25।। कोई योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही करते हैं ; और दूसरे (ज्ञानीजन) ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the workplace, some individuals diligently perform tasks to meet external demands, seeking approval or rewards (sacrifice to 'gods'). Others, however, view their work as an extension of their deeper purpose, pouring their authentic self into their endeavors, finding meaning and growth beyond mere output, thereby elevating their work into a form of self-realization or offering.
🧘 For Stress & Anxiety
When facing stress, some might diligently follow external advice or practices like exercise, therapy, or mindfulness techniques (performing sacrifice to 'gods'). A deeper approach involves recognizing that true tranquility comes from within, by transcending the ego's anxieties and identifying with one's unchanging, peaceful Self, thereby dissolving mental turmoil in the 'fire of Brahman'.
❤️ In Relationships
In relationships, one might engage primarily for personal gain, social acceptance, or emotional fulfillment (sacrificing to 'gods'). A more profound approach involves offering oneself fully and selflessly, seeing the relationship as a path to growth, understanding, and unconditional love, thereby transcending egoic expectations and realizing the interconnectedness of all beings in the 'fire of Brahman'.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Elevate your spiritual journey from external rituals to the ultimate internal sacrifice: realizing your individual self is one with the universal Brahman.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.25 दैवम् pertaining to Devas? एव only? अपरे some? यज्ञम् sacrifice? योगिनः Yogis? पर्युपासते perform? ब्रह्माग्नौ in the fire of Brahman? अपरे others? यज्ञम् sacrifice? यज्ञेन by sacrifice? एव verily? उपजुह्वति offer as sacrifice.Commentary Some Yogis who are devoted to Karma Yoga perform sacrificial rites to the shining ones or Devas (gods). The second Yajna is JnanaYajna or the wisdom sacrifice performed by those who are devoted to Jnana Yoga. The oblation in this sacrifice is the Self. Yajna here means the Self. The Upadhis or the limiting adjuncts such as the physical body? the mind? the intellect? etc.? which are superimposed on Brahman through ignorance are sublated and the identity of the individual soul with the Supreme Soul or Brahman is realised. To sacrifice the self in Brahman is to know through direct cognition (Aparoksha Anubhuti) that the individual soul is identical with Brahman. This is the highest Yajna. Those who are established in Brahman? those who have realised their oneness with the Supreme Soul or Paramatma perform this kind of sacrifice. This is superior to all other sacrifices.
Shri Purohit Swami
4.25 Some sages sacrifice to the Powers; others offer themselves on the alter of the Eternal.
Dr. S. Sankaranarayan
4.25. Certain other men of Yoga are completely devoted to yajna, connected with the devas and offer that yajna, simply as a yajna, into the insatiable fire of the Brahman.
Swami Adidevananda
4.25 Some Yogins resort only to the sacrifice relating to gods. Others offer sacrifice into the fire of Brahman solely by means of sacrifice.
Swami Gambirananda
4.25 Other yogis undertake sacrifice to gods alone, Others offer the Self, as a sacrifice by the Self itself, in the fire of Brahman.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.25।। जगत् में कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष के हृदय के भाव को ही कुछ श्लोकों में बताया गया है। साधक के मन में एक शंका सदैव उठती है कि ध्यानावस्था में बुद्धि से भी परे अर्थात् उसकी द्रष्टा आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है परन्तु कुछ काल के लिये ही। गौतम बुद्ध जैसे कुछ महापुरुषों को हम कार्य में अत्याधिक व्यस्त देखते हैं जबकि कोई महात्मा एक स्थान पर ही रहकर अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करते देखे जाते हैं जैसे भगवान् रमण महर्षि। कुछ अन्य सन्त सामान्य जीवन ही व्यतीत करते हैं। साधक को यह जानने की उत्सुकता रहती है कि जगत् में अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर ज्ञानी पुरुष के मन की क्या भावना होती है।जो पुरुष सभी उपलब्ध साधनों के उपयोग से अपने आपको शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक अपूर्णताओं दुर्बलताओं से ऊँचा उठाने का सतत् प्रयत्न करता है वह योगी कहलाता है। इस दृष्टि से इस श्लोक के केवल सामान्य अर्थ को ही ग्रहण करना उचित नहीं होगा।जो प्रकाशरूप है उसे कहते हैं देव। अध्यात्म की दृष्टि से ये देव पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय प्रकाशित किये जाते हैं। साधक तथा सिद्ध पुरुष भी इन्द्रियों के माध्यम से ही विषय ग्रहण करते हैं परन्तु उनकी दृष्टि में यह भी एक यज्ञ है जिसमें विषयों की आहुतियाँ इन्द्रियरूप देवों को दी जारही हैं। अज्ञानी के लिये जो विषयग्रहण की क्रिया मात्र है वही ज्ञानियों की दृष्टि से विषयों की इन्द्रियों के प्रति भक्ति की साधना है।यज्ञ की भावना बनाये रखने से साधक को धीरेधीरे उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट सभी प्रकार के इन्द्रियोपभोगों से वैराग्य हो जाता है जो आन्तरिक समता बनाये रखने में सहायक होता है।देवयज्ञ के वर्णन के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं अन्य लोग ब्रह्मयज्ञ करते हैं जिसमें ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ (आत्मा) के द्वारा यज्ञ का (आत्मा का) हवन करते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से विचार करने पर इस कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जब तक हम शरीर धारण किये हुए इस जगत् में रहते हैं तब तक विषयों के साथ हमारा सम्पर्क अवश्य रहता है। परन्तु हमें जो सुखदुख का अनुभव होता है वह बाह्य जगत् के कारण नहीं वरन् हमारे विषयों के प्रति रागद्वेष के कारण होता है। विषयों में स्वयं सुख या दुख देने की क्षमता नहीं है।ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि इन्द्रियाँ विषय ग्रहण की साधन मात्र हैं और वे केवल चैतन्य आत्मा के सानिध्य से ही कार्य कर सकती हैं। इस ज्ञान के कारण वे इन्द्रियों की ब्रह्मज्ञान की अग्नि में स्वयं ही आहुति देते हैं। यहाँ साधकों को उपदेश हैं कि वे अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग स्वार्थ के लिये न करके जगत् की सेवार्थ करें इससे वे जगत् में रहकर कार्य करते हुए भी विषयासक्ति के बन्धन में नहीं पड़ सकते।अगले श्लोक में भगवान् दो प्रकार के यज्ञ बताते हैं
Swami Ramsukhdas
।।4.25।। व्याख्या--'दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते'-- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सर्वत्र ब्रह्मदर्शनरूप यज्ञ करनेवाले साधकका वर्णन किया। यहाँ भगवान् 'अपरे' पदसे उससे भिन्न प्रकारके यज्ञ करनेवाले साधकोंका वर्णन करते हैं।यहाँ 'योगिनः' पद यज्ञार्थ कर्म करनेवाले निष्काम साधकोंके लिये आया है।सम्पूर्ण क्रियाओं तथा पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें केवल भगवान्का और भगवान्के लिये ही मानना 'दैवयज्ञ' अर्थात् भगवदर्पणरूप यज्ञ है। भगवान् देवोंके भी देव हैं ,इसलिये सब कुछ उनके अर्पण कर देनेको ही यहाँ 'दैवयज्ञ' कहा गया है।किसी भी क्रिया और पदार्थमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति, ममता और कामना न रखकर उन्हें सर्वथा भगवान्का मानना ही दैवयज्ञका भलीभाँति अनुष्ठान करना है।'ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति'--इस श्लोकके पूर्वार्धमें बताये गये दैवयज्ञसे भिन्न दूसरे यज्ञका वर्णन करनेके लिये यहाँ 'अपरे' पद आया है।चेतनका जडसे तादात्म्य होनेके कारण ही उसे जीवात्मा कहते हैं। विवेक-विचारपूर्वक जडसे सर्वथा विमुख होकर परमात्मामें लीन हो जानेको यहाँ यज्ञ कहा गया है। लीन होनेका तात्पर्य है--परमात्मतत्त्वसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता किञ्चिन्मात्र न रखना।
Swami Tejomayananda
।।4.25।। कोई योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही करते हैं ; और दूसरे (ज्ञानीजन) ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.25।।यज्ञभेदानाह दैवमित्यादिना। दैवं भगवन्तम् स एव तेषां यज्ञः। भगवदुपासनं यज्ञमिति क्रियाविशेषण्। नान्यत्तेषामस्ति यतीनां केषाञ्चित्। यज्ञं भगवन्तम्। यज्ञेन यज्ञम् ऋक्सं.8।4।19।6 यजुस्सं.31।16 यज्ञो विष्णुर्देवता इत्यादिश्रुतिः। यज्ञेन प्रसिद्धेनैव यज्ञं प्रति जुह्वतीति सर्वत्र समम्। तं यज्ञं ऋक्सं.8।4।18।2 यजुस्सं.31।9 इत्यादौ। उक्तं चविष्णुं रुद्रेण पशुना ब्रह्मा ज्येष्ठेन सूनुना। अयजन्मानसे यज्ञे पितरं प्रपितामहः इति।
Sri Anandgiri
।।4.25।।ज्ञानस्य यज्ञत्वं संपाद्य पूर्वश्लोके स्थिते सत्यधुना तस्यैव ज्ञानस्य स्तुत्यर्थं यज्ञान्तरनिर्देशार्थमुत्तरग्रन्थप्रवृत्तिरित्याह तत्रेति। सर्वस्य श्रेयःसाधनस्य मुख्यगौणवृत्तिभ्यां यज्ञत्वं दर्शयन्नादौ यज्ञद्वयमादर्शयति दैवमेवेत्यादिना। प्रतीकमादाय दैवयज्ञं व्याचष्टे देवा इति। सम्यग्ज्ञानाख्यं यज्ञं विभजते ब्रह्माग्नाविति। तत्र ब्रह्मशब्दार्थं श्रुत्यवष्टम्भेन स्पष्टयति सत्यमिति। यदजमनृतं विपरीतमपरिच्छिन्नं ब्रह्म तस्य परमानन्दत्वेन परमपुरुषार्थत्वमाह विज्ञानमिति। तस्य ज्ञानाधिकरणत्वेनज्ञानत्वमौपचारिकमित्याशङ्क्याह यत्साक्षादिति। जीवब्रह्मविभागे कथमपरिच्छिन्नत्वमित्याशङ्क्य विशिनष्टि य आत्मेति। परस्यैवात्मत्वं सर्वस्माद्देहादेरव्याकृतान्तादान्तरत्वेन साधयति सर्वान्तर इति। विधिमुखं सर्वमेवोपनिषद्वाक्यं ब्रह्मविषयमादिशब्दार्थः। निषेधमुखं ब्रह्मविषयमुपनिषद्वाक्यमशेषमेवार्थतो निबध्नाति अशनायेति। ब्रह्मण्यग्निशब्दप्रयोगे निमित्तमाह स होमेति। बुद्ध्यारूढतया सर्वस्य दाहकत्वाद्विलयस्य वा हेतुत्वादिति द्रष्टव्यम्। यज्ञशब्दस्यात्मनि त्वंपदार्थे प्रयोगे हेतुमाह आत्मनामस्विति। आधाराधेयभावेन वास्तवभेदं ब्रह्मात्मनोर्व्यावर्तयति परमार्थत इति। कथं तर्हि होमो नहि तस्यैव तत्र होमः संभवतीत्याशङ्क्याह बुद्ध्यादीति। उपाधिसंयोगफलं कथयति अध्यस्तेति। उपाध्यध्यासद्वारा तद्धर्माध्यासे प्राप्तमर्थं निर्दिशति आहुतीति। इत्थंभूतलक्षणां तृतीयामेव व्याकरोति उक्तेति। अशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितेन निर्विशेषेण स्वरूपेणेति यावत्। आत्मनो ब्रह्मणि होममेव प्रकटयति सोपाधिकस्येति। अपर इत्यस्यार्थं स्फोरयति ब्रह्मेति। उक्तस्य ज्ञानयज्ञस्य दैवयज्ञादिषु ब्रह्मार्पणमित्यादिश्लोकैरुपक्षिप्यमाणत्वं दर्शयति सोऽयमिति। उपक्षेपप्रयोजनमाह श्रेयानिति।
Sri Vallabhacharya
।।4.25।।एवं तत्कर्मणो ब्रह्मभावज्ञानकारणतां प्रतिपाद्यधिकारिभेदेन प्रसङ्गादन्यानपि बहून् यज्ञानाह दैवमेवापरे इति। तत्तद्देवाराधनात्मकं योगिनो योगकर्मिणः ब्रह्माग्नाविति ज्ञानिनो ब्रह्मवादिन उक्तप्रकारकं ब्रह्माग्नौ यज्ञं कर्म भावितेन ब्रह्मणा यज्ञेनोपजुह्वति प्रविलापयन्ति।
Sridhara Swami
।।4.25।।एतदेव यज्ञत्वेन संपादितं सर्वत्र ब्रह्मदर्शनलक्षणं ज्ञानं सर्वयज्ञोपायप्राप्यत्वात्सर्वयज्ञेभ्यः श्रेष्ठमित्यवं स्तोतुं अधिकारिभेदेन ज्ञानोपायभूतान्बहून्यज्ञानाह दैवमित्यष्टभिः। देवा इन्द्रवरुणादय इज्यन्ते यस्मिन्। एवकारेणेन्द्रादिषु ब्रह्मबुद्धिराहित्यं दर्शितम्। तं दैवं यज्ञं अपरे कर्मयोगिनः पर्युपासते श्रद्धयानुतिष्ठन्ति। अपरे तु ज्ञानयोगिनो ब्रह्मरूपेऽग्नौ यज्ञेनैवोपायभूतेन ब्रह्मार्पणमित्युक्तप्रकारेण यज्ञमुपजुह्वति। यज्ञादिसर्वकर्माणि प्रविलापयन्तीत्यर्थः। सोऽयं ज्ञानयज्ञः।