Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 24 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् | ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||४-२४||
Transliteration
brahmārpaṇaṃ brahma havirbrahmāgnau brahmaṇā hutam . brahmaiva tena gantavyaṃ brahmakarmasamādhinā ||4-24||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
4.24 Brahman is the oblation; Brahman is the melted butter (ghee); by Brahman is the oblation poured into the fire of Brahman; Brahman verily shall be reached by him who always sees Brahman in action.
।।4.24।। अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach every task, project, and interaction in your work with a mindset of sacred purpose, viewing your work, tools, colleagues, and the output as interconnected parts of a larger, meaningful contribution. This fosters deep engagement, transforms mundane tasks into purposeful actions, and promotes excellence born from a sense of divine participation, rather than mere obligation or personal gain.
🧘 For Stress & Anxiety
Alleviate stress and anxiety by reframing all activities as impersonal, divine processes rather than personal burdens. By seeing the 'doer,' the 'deed,' and the 'results' as manifestations of Brahman, you detach from ego-driven anxieties, reduce the pressure of perfectionism, and cultivate a sense of peace and presence in the moment, finding meaning and acceptance even amidst challenges.
❤️ In Relationships
Engage in all relationships with profound respect, empathy, and a spirit of selfless offering, recognizing the divine essence (Brahman) in every individual and interaction. This perspective transforms acts of service, communication, and mutual support into spiritual practices, fostering deeper connections, reducing conflict by transcending personal ego, and promoting unconditional love and understanding.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Recognize that every aspect of action—the doer, the deed, the instrument, and the outcome—is an expression of the Divine. By seeing Brahman in all, you transform your entire life into a sacred offering and attain ultimate unity.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
4.24 ब्रह्म Brahman? अर्पणम् the oblation? ब्रह्म Brahman? हविः the clarified butter? ब्रह्माग्नौ in the fire of Brahman? ब्रह्मणा by Brahman? हुतम् is offered? ब्रह्म Brahman? एव only? तेन by him? गन्तव्यम् shall be reached? ब्रह्मकर्मसमाधिना by the man who is absorbed in action which is Brahman.Commentary This is JnanaYajna or wisdomsacrifice wherein the idea of Brahman is substituted for the ideas of the instrument and other accessories of action? the idea of action itself and of its results. By entertaining such an idea the whole action melts away? as stated in the previous verse (No.23).When one attains to the knowledge of the Self or Selfrealisation his whole life becomes a wisdomsacrifice in which the oblation? the melted butter or the offering? the performer of the sacrifice? the action and the goal are all Brahman. He who meditates thus wholly upon Brahman shall verily attain to Brahman.The sage who has the knowledge of the Self knows that the oblation? the fire? the instrument by which the melted butter is poured into the fire and himself have no existence apart from that of Brahman. He who has realised through direct cognitio (Anubhava) that all is Brahman? does no action even if he performs actions. (Cf.III.15)
Shri Purohit Swami
4.24 For him, the sacrifice itself is the Spirit; the Spirit and the oblation are one; it is the Spirit Itself which is sacrificed in Its own fire, and the man even in action is united with God, since while performing his act, his mind never ceases to be fixed on Him.
Dr. S. Sankaranarayan
4.24. The Brahman-oblation that is to be offered ot the Brahman, is poured into the Brahman-fire by the Brahman; it is nothing but the Brahman that is to be attained by him whose deep contemplation is the [said] Brahman-action.
Swami Adidevananda
4.24 Brahman is the instrument to offer with; Brahman is the oblation. By Brahman is the oblation offered into the fire of Brahman; Brahman alone is to be reached by him who meditates on Him in his works.
Swami Gambirananda
4.24 The ladle is Brahman [Some translate as 'Brahman is the ladle৷৷.,' etc.-Tr.], the oblations is Brahman, the offering is poured by Brahman in the fire of Brahman. Brahman alone is to be reached by him who has concentration on Brahman as the objective [As an object to be known and attained. (Some translate brahma-karma-samadhina as, 'by him who sees Brahman in action'.)
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।4.24।। यह एक प्रसिद्ध श्लोक है जिसको भारत में भोजन प्रारम्भ करने के पूर्व पढ़ा जाता है किन्तु अधिकांश लोग न तो इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयत्न ही करते हैं। तथापि इसका अर्थ गंभीर है और इसमें सम्पूर्ण वेदान्त के सार को बता दिया गया है।वह अनन्त पारमार्थिक सत्य जो इस दृश्यमान नित्य परिवर्तनशील जगत् का अधिष्ठान है वेदान्त में ब्रह्म शब्द के द्वारा निर्देशित किया जाता है। यही ब्रह्म एक शरीर से परिच्छिन्नसा हुआ आत्मा कहलाता है। एक ही तत्त्व इन दो शब्दों से लक्षित किया है और वेदान्त केसरी की यह गर्जना है कि आत्मा ही ब्रह्म है।इस श्लोक में वैदिक यज्ञ का रूपक है। प्रत्येक यज्ञ में चार प्रमुख आवश्यक वस्तुएं होती हैं (1) यज्ञ का देवता जिसे आहुति दी जाती है (2) अग्नि (3) हवन के योग्य द्रव्य पदार्थ हवि (शाकल्य) और (4) यज्ञकर्ता व्यक्ति।यज्ञ भावना से कर्म करते हुए ज्ञानी पुरुष की मन की स्थिति एवं अनुभूति का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। उसके अनुभव की दृष्टि से एक पारमार्थिक सत्य ही विद्यमान है न कि अविद्या से उत्पन्न नामरूपमय यह जगत्। अत वह जानता है कि सभी यज्ञों की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है जिनमें देवता अग्नि हवि और यज्ञकर्ता सभी ब्रह्म हैं। जब एक तरंग दूसरी तरंग पर से उछलती हुई अन्य साथी तरंग से मिल जाती है तब इस दृश्य को देखते हुए हम जानते हैं कि ये सब तरंगे समुद्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। समुद्र में ही समुद्र का खेल चल रहा है।यदि कोई व्यक्ति जगत् के असंख्य नामरूपों कर्मों और व्यवहारों में अंतर्बाह्य व्याप्त अधिष्ठान स्वरूप परमार्थ तत्त्व को देख सकता है तो फिर उसे सर्वत्र सभी परिस्थितियों में वस्तुओं और प्राणियों का दर्शन अनन्त आनन्द स्वरूप सत्य का ही स्मरण कराता है। संत पुरुष ब्रह्म का ही आह्वान करके प्रत्येक कर्म करता है इसलिये उसके सब कर्म लीन हो जाते हैं।भोजन के पूर्व इस श्लोक के पाठ का प्रयोजन अब स्व��� स्पष्ट हो जाता है। शरीर धारण के लिये भोजन आवश्यक है और तीव्र क्षुधा लगने पर किसी भी प्रकार का अन्न स्वादिष्ट लगता है। इस प्रार्थना का भाव यह है कि भोजन के समय भी हमें सत्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए। यह ध्यान रहे कि भोक्तारूप ब्रह्म ब्रह्म का आह्वान करके अन्नरूप ब्रह्म की आहुति उदर में स्थित अग्निरूप ब्रह्म को ही दे रहा है। इस ज्ञान का निरन्तर स्मरण रहने पर मनुष्य भोगों से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।यज्ञ की सर्वोच्च भावना को स्पष्ट करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को समझाते हैं कि सम्यक् भावना के होने से किस प्रकार प्रत्येक कर्म यज्ञ बन जाता है
Swami Ramsukhdas
।।4.24।। व्याख्या--[यज्ञमें आहुति मुख्य होती है। वह आहुति तब पूर्ण होती है, जब वह अग्निरूप ही हो जाय अर्थात् हव्य पदार्थकी अग्निसे अलग सत्ता ही न रहे। इसी प्रकार जितने भी साधन हैं, सब साध्यरूप हो जायँ, तभी वे यज्ञ होते हैं।जितने भी यज्ञ हैं, उनमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करना भावना नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। भावना तोपदार्थोंकी है। इस चौबीसवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक जिन यज्ञोंका वर्णन किया गया है, वे सब 'कर्मयोग' के अन्तर्गत हैं। कारण कि भगवान्ने इस प्रकरणके उपक्रममें भी 'तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्' (4। 16) ऐसा कहा है; और उपसंहारमें भी 'कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' (4। 32)--ऐसा कहा है तथा बीचमें भी कहा है--'यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते' (4। 23)। मुख्य बात यह है कि यज्ञकर्ताके सभी कर्म 'अकर्म' हो जायँ। यज्ञ केवल यज्ञ-परम्पराकी रक्षाके लिये किये जायँ तो सब-के-सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः इन सब यज्ञोंमें 'कर्ममें अकर्म' का ही वर्णन है।]'ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः'-- जिस पात्रसे अग्निमें आहुति दी जाती है, उस स्रुक्, स्रुवा आदिको यहाँ 'अर्पणम्' पदसे कहा गया है--'अर्प्यते अनेन इति अर्पणम्।' उस अर्पणको ब्रह्म ही माने।तिल, जौ, घी आदि जिन पदार्थोंका हवन किया जाता है, उन हव्य पदार्थोंको भी ब्रह्म ही माने। 'ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्'-- आहुति देनेवाला भी ब्रह्म ही है (गीता 13। 2), जिसमें आहुति दी जा रही है, वह अग्नि भी ब्रह्म ही है और आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म ही है--ऐसा माने।'ब्रह्मकर्मसमाधिना'-- जैसे हवन करनेवाला पुरुष स्रुवा, हवि, अग्नि आदि सबको ब्रह्मका ही स्वरूप मानता है, ऐसे ही जो प्रत्येक कर्ममें कर्ता, करण, कर्म और पदार्थ सबको ब्रह्मरूप ही अनुभव करता है, उस पुरुषकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होती है अर्थात् उसकी सम्पूर्ण कर्मोंमें ब्रह्मबुद्धि होती है। उसके लिये सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन जाते हैं। ब्रह्मके सिवाय कर्मोंका अपना कोई अलग स्वरूप रहता ही नहीं।'ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम्'-- ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि होनेसे जिसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन गये हैं, उसे फलके रूपमें निःसन्देह ब्रह्मकी ही प्राप्ति होती है। कारण कि उसकी दृष्टिमें ब्रह्मके सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं।इस (चौबीसवें) श्लोकको शिष्टजन भोजनके समय बोलते हैं, जिससे भोजनरूप कर्म भी यज्ञ बन जाय। भोजनरूप कर्ममें ब्रह्मबुद्धि इस प्रकार की जाती है-- (1) जिससे अर्पण किया जाता है, वह हाथ भी ब्रह्मरूप है--'सर्वतः पाणिपादं तत्' (गीता 13। 13)। (2) भोजनके पदार्थ भी ब्रह्मरूप हैं-- 'अहमेवाज्यम्' (गीता 9। 16)। (3) भोजन करनेवाला भी ब्रह्मरूप है-- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7)। (4) जठराग्नि भी ब्रह्मरूप है-- 'अहं वैश्वानरः' (गीता 15। 14)। (5) भोजन करनारूप क्रिया अर्थात् जठराग्निमें अन्नकी आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है--'अहं हुतम्' (गीता 9। 16)। (6) इस प्रकार भोजन करनेवाले मनुष्योंके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है--'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्' (गीता 4। 31)। मार्मिक बात प्रकृतिके कार्य संसारका स्वरूप है--क्रिया और पदार्थ। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो प्रकृति या संसार क्रियारूप ही है (टिप्पणी प0 255)। कारण कि पदार्थ एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता; उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः वास्तवमें पदार्थ परिवर्तनरूप क्रियाका पुञ्ज ही है। केवल 'राग' के कारण पदार्थकी मुख्यता दीखती है। सम्पूर्ण क्रियाएँ अभावमें जा रही हैं। अतः संसार अभावरूप ही है। भावरूपसे केवल एक अक्रिय-तत्त्व ब्रह्म ही है, जिसकी सत्तासे अभावरूप संसार भी सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। संसारकी अभावरूपताको इस प्रकारसे समझ सकते हैं--संसारकी तीन अवस्थाएँ दीखती हैं--उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय; जैसे--वस्तु उत्पन्न होती है, फिर रहती है और अन्तमें नष्ट हो जाती है अथवा मनुष्य जन्म लेता है ,फिर रहता है और अन्तमें मर जाता है। इससे आगे विचार करें तो केवल उत्पत्ति और प्रलयका ही क्रम है, स्थिति वस्तुतः है ही नहीं; जैसे--यदि मनुष्यकी पूरी आयु पचास वर्षकी है, तो बीस वर्ष बीतनेपर उसकी आयु तीस वर्ष ही रह जाती है। इससे आगे विचार करें तो केवल प्रलय-ही-प्रलय (नाश-ही-नाश) है, उत्पत्ति है ही नहीं; जैसे--आयुके जितने वर्ष बीत गये, उतने वर्ष मनुष्य मर ही गया। इस प्रकार मनुष्य प्रतिक्षण ही मर रहा है, उसका जीवन प्रतिक्षण ही मृत्युमें जा रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्यमें जा रहा है। प्रलय अभावका ही नाम है, इसलिये अभाव ही शेष रहा। अभावकी सत्ता भावरूप ब्रह्मपर ही टिकी हुई है। अतः भावरूपसे एक ब्रह्म ही शेष रहा--'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (छान्दोग्य0 3। 14। 1) 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता 7। 19)।
Swami Tejomayananda
।।4.24।। अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।4.24।।ज्ञानावस्थितचेतस्त्वं स्पष्टयति ब्रह्मार्पणमिति। सर्वमेतद्ब्रह्मेत्युच्यते तदधीनसत्ताप्रवृत्तिमत्त्वात् न तु तत्स्वरूपत्वात्। उक्तं हित्वदधीनं यतः सर्वमतः सर्वो भवानिति। वदन्ति मुनयः सर्वे न तु सर्वस्वरूपतः इति पाद्मे। सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रम् ऐ.उ.5।3 इति च एतं ह्येव बह्वृचः ऐ.आ.3।2।9 इत्यादि च। समाधिना सह ब्रह्मैव कर्म।
Sri Anandgiri
।।4.24।।नाभुक्तं क्षीयते कर्म इति स्मृतिमाश्रित्य शङ्कते कस्मादिति। समस्तस्य क्रियाकारकफलात्मकस्य द्वैतस्य ब्रह्ममात्रत्वेन बाधितत्वाद्ब्रह्मविदा ब्रह्ममात्रस्य कर्म प्रविलीयते सर्वमिति युक्तमित्याह उच्यत इति। ब्रह्मविदो ब्रह्मैव सर्वक्रियाकारकफलजातं द्वैतमित्यत्र हेतुत्वेनानन्तरश्लोकमवतारयति यत इति। अर्पणशब्दस्य करणाविषयत्वं दर्शयन्नर्पणं ब्रह्मेति पदद्वयपक्षे सामानाधिकरण्यं साधयति येनेति। यद्रजतं सा शुक्तिरितिवद्बाधायामिदं सामानाधिकरण्यमित्याह तस्येति। तत्र दृष्टान्तमाह यथेति। उक्तेऽर्थे पदद्वयमवतारयति तद्वदुच्यत इति। उक्तमेवार्थं स्पष्टयति यथा यदिति। समाससंख्यां व्यावर्तयति ब्रह्मेति। पदद्वयपक्षे विवक्षितमर्थं कथयति यदर्पणेति। ब्रह्महविरिति पदद्वयमवतार्य व्याचष्टे ब्रह्मेत्यादिना। यदर्पणबुद्ध्या गृह्यते तद्ब्रह्मविदो ब्रह्मैवेति यथोक्तं तथेहापीत्याह तथेति। अस्येति षष्ठी ब्रह्मविदमधिकरोति। पर्ववदसमासमाशङ्क्य व्यावर्तयन्पदान्तरमवतार्य व्याकरोति तथेति। प्रागुक्तासमासवदिति व्यतिरेकः। तत्र विवक्षितमर्थमाह अग्निरपीति। ब्रह्मणेति पदस्याभिमतमर्थमाह ब्रह्मणेति। कर्त्रा हूयत इति संबन्धः। कर्ता ब्रह्मणः सकाशाद्व्यतिरिक्तो नास्तीत्येतदभिमतमित्याह ब्रह्मैवेति। हुतमित्यस्य विवक्षितमर्थमाह यत्तेनेति। ब्रह्मैव तेनेत्यादि भागं विभजते ब्रह्मैवेत्यादिना। ब्रह्म कर्मेत्याद्यवतार्य व्याकरोति ब्रह्मेति। कर्मत्वं ब्रह्मणो ज्ञेयत्वात्प्राप्यत्वाच्च प्रतिपत्तव्यम्। एवं ब्रह्मार्पणमन्त्रस्याक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह एवमिति। निवृत्तकर्माणं संन्यासिनं प्रति कथमस्य मन्त्रस्य प्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह निवृत्तेति। यथा बाह्ययज्ञानुष्ठानासमर्थस्याज्ञस्य संकल्पात्मकयज्ञो दृष्टस्तथा ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादनं स्तुत्यर्थं सुतरामुपपद्यते तेन स्तुतिलाभात्कल्पनायाः स्वाधीनत्वाद्वेत्यर्थः।ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादनमभिनयति यदर्पणादीति। केन प्रमाणेनात्र यज्ञत्वसंपादनमवगतमित्याशङ्क्य अर्पणादीनां विशेषतो ब्रह्मत्वाभिधानानुपपत्त्येत्याह अन्यथेति। ज्ञानस्य यज्ञत्वे संपादिते फलितमाह तस्मादिति। आत्मैवेदं सर्वमित्यात्मव्यतिरेकेण सर्वस्यावस्तुत्वं प्रतिपाद्यमानस्य कर्माभावे हेत्वन्तरमाह कारकेति। कारकबुद्धेस्तेष्वभिमानस्याभावेऽपि किमिति कर्म न स्यादित्याशङ्क्याह नहीति। उक्तमेवान्वयव्यतिरेकाभ्यां द्रढयति सर्वमेवेति। इन्द्रायेत्यादिना शब्देन समर्पितो देवताविशेषः संप्रदानं कारकम् आदिशब्दाद् व्रीह्यादिकरणकारकं तद्विषयबुद्धिमत्कर्तास्मीत्यभिमानपूर्वकं मोक्षफलमस्येति फलाभिसंधिमच्च कर्म दृष्टमिति योजना। अन्वयमुक्त्वा व्यतिरेकमाह नेत्यादिना। उपमृदिता क्रियादिभेदविषया बुद्धिर्यस्य तत्कर्म तथा कर्तृत्वाभिमानपूर्वको मोक्षे फलमस्येति योऽभिसंधिस्तेन रहितं च न कर्म दृष्टमित्यन्वयः। तथापि ब्रह्मविदो भासमानकर्माभावे किमायातमित्याशङ्क्याह इदमिति। यदिदं ब्रह्मविदो दृश्यमानं कर्म तदहमस्मि ब्रह्मेति बुद्ध्या निराकृतकारकादिभेदविषयबुद्धिमदतश्च कर्मैव न भवति तत्त्वज्ञाने सति व्यापकं कारकादिव्यावर्तमानं व्याप्यं कर्मापि व्यावर्तयति तत्त्वविदः शरीरादिचेष्टाकर्माभावः कर्म व्यापकरहितत्वात्सुषुप्तचेष्टावदित्यर्थः। ज्ञानवतो दृश्यमानं कर्माकर्मैवेत्यत्र भगवदनुमतिमाह तथाचेति। ब्रह्मविदो दृष्टं कर्म नास्तीत्युक्तेऽपि तत्कारणानुपमर्दात्पुनर्भविष्यतीत्याशङ्क्याह तथाच दर्शयन्निति। अविद्वानिव विद्वानपि कर्मणि प्रवर्तमानो दृश्यते तथापि तस्य कर्माकर्मैवेत्यत्र दृष्टान्तमाह दृष्टा चेति। विद्वत्कर्मापि कर्मत्वाविशेषादितरकर्मवत्फलारम्भकमित्यपि शङ्का न युक्तेत्याह तथेति। इदं कर्मैव कर्तव्यमस्य च फलं भोक्तव्यमिति मतिस्तत्पूर्वकाण्यतत्पूर्वकाणि च कर्माणि तेषामवान्तरभेदसंग्रहार्थमादिपदम्। दार्ष्टान्तिकमाह तथेति। सप्तम्या विद्वत्प्रकरणं परामृष्टम्। षष्ठ्यौ समानाधिकरणे। उक्तेऽर्थे पूर्ववाक्यमनुकूलयति अत इति। ब्रह्मार्पणमन्त्रस्य स्वव्याख्यानमुक्त्वा स्वयूथ्यव्याख्यानमनुवदति अत्रेति। प्रसिद्धोद्देशेनाप्रसिद्धविधानस्य न्याय्यत्वादप्रसिद्धोद्देशेन प्रसिद्धविधानं कथमित्याशङ्क्याह ब्रह्मैवेति। किलेत्यस्मिन्व्याख्याने सिद्धान्तिनोऽसंप्रतिपत्तिं सूचयति। कर्तृकर्मकरणसंप्रदानाधिकरणरूपेण पञ्चविधेन ब्रह्मैव व्यवस्थितं कर्म करोतीत्यङ्गीकारात्तदप्रसिद्ध्यभावात्तदनुवादेनार्पणादिष्वविरुद्धस्तद्दृष्टिविधिरित्यर्थः। दृष्टिविधिपक्षे सिद्धान्ताद्विशेषं दर्शयति तत्रेति। अर्पणादिषु कर्तव्यां ब्रह्मबुद्धिं दृष्टान्ताभ्यां स्पष्टयति यथेत्यादिना। दृष्टिविधाने विधेयदृष्टेर्मानसक्रियात्वेन सम्यग्ज्ञानत्वाभावात्प्रकरणभङ्गः स्यादित्यभिप्रेत्य परिहरति सत्यमेवमिति। विधित्सितदृष्टिस्तुतिपरमेव प्रकरणं न ज्ञानस्तुतिपरमित्याशङ्क्य प्रकरणपर्यालोचनया ज्ञानस्तुतिरेवात्र प्रतिभातीति प्रतिपादयति अत्र त्विति। किञ्च ब्रह्मार्पणमन्त्रस्यापि सम्यग्ज्ञानस्तुतौ सामर्थ्यं प्रतिभातीत्याह अत्र चेति। नन्वर्पणादिषु ब्रह्मदृष्टिं कुर्वतामपि ब्रह्मविद्यैवात्र विवक्षितेति पक्षभेदासिद्धिरिति चेत्तत्राह येत्विति। यथा ब्रह्मदृष्ट्या नामादिकमुपास्यं तथार्पणादिषु ब्रह्मदृष्टिकरणे सत्यर्पणादिकमेव प्राधान्येन ज्ञेयमिति ब्रह्मविद्या यथोक्तेन वाक्येन विवक्षिता न स्यादित्यर्थः। किञ्च ब्रह्मैव तेन गन्तव्यमिति ब्रह्मप्राप्तिफलाभिधानादपि दृष्टिविधानमश्लिष्टमित्याह नचेति। नचार्पणाद्यालम्बना दृष्टिर्ब्रह्म प्रापयत्यप्रतीकालम्बनान्नयतीति न्यायविरोधादिति भावः। दृष्टिविधानेऽपि नियोगबलादेव स्वर्गवददृष्टो मोक्षो भविष्यतीत्याशङ्क्याह विरुद्धं चेति। ज्ञानादेव कैवल्यमुक्त्वा मार्गान्तरापवादिन्या श्रुत्या विरुद्धं मोक्षस्याविद्यानिवृत्तिलक्षणस्य दृष्टस्य नैयोगिकत्ववचनमित्यर्थः। दृष्टिनियोगान्मोक्षो भवतीत्येतत्प्रकरणविरुद्धं चेत्याह प्रकृतेति। तदेव प्रपञ्चयति सम्यग्दर्शनं चेति। अन्ते च सम्यग्दर्शनं प्रकृतमिति संबन्धः। तत्र हेतुः तस्यैवेति। सम्यग्ज्ञानेनोपक्रम्य तेनैवोपसंहारेऽपि मध्ये किंचिदन्यदुक्तमिति प्रकरणस्यातद्विषयत्वमित्याशङ्क्याह श्रेयानिति। प्रकरणे सम्यग्ज्ञानविषये सत्यनुपपन्नो दर्शनविधिरिति फलितमाह फलितमाह तत्रेति। ब्रह्मार्पणमन्त्रे परकीयव्याख्यानासंभवे स्वकीयव्याख्यानं व्यवस्थितमित्युपसंहरति तस्मादिति।
Sri Vallabhacharya
।।4.24।।प्रविलयस्वरूपमाह ब्रह्मार्पणमिति। भावाद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं उच्यते भगवता स्वमुखेन अग्निहोत्रं तथा दर्शपूर्णमासः पशुस्तथा। चातुर्मास्यानि सोमश्च क्रमात्प़ञ्चात्मको हरिः। तत्साधनं च स हरिः प्रयाजादिस्रुगादि यत्। प्राकृतं रूपमेतद्धि नित्यं काम्यं तु वैकृतम्। ज्ञानिनस्तदभिव्यक्तौ कर्तुर्मोक्षः क्रमाद्भवेत् इति निबन्धोक्तेः। तथाहि ज्ञानिनः सर्वं कर्म ब्रह्मार्पणं भवति। अर्पणं स्रुगादि ब्रह्म भवति हविर्ब्रह्म ब्रह्मणि अग्नौ ब्रह्मणा कर्त्रा हुतं ब्रह्मैव यज्ञस्तत्र फलं ब्रह्मैव प्राप्तव्यम्। केन ब्रह्मैव कर्म तत्समाधिनेति। प्रकृतिनिविष्टं सच्चिदानन्दकं पुरुषाभिधं ब्रह्मैव यद्यप्यप्राकृतं सर्वं भवति तथापि न जानात्यज्ञस्तत् विज्ञस्तु तदिदं ज्ञानयज्ञेन ब्रह्मोपासीताभेदभावात्। ननु ब्रह्मात्मैक्यस्य भेदात्यन्ताभावरूपत्वात् अंशत्वात् त्यागो भगवन्नियम्यत्वं च कथं इति चेत् उच्यते ब्रह्मात्मैक्येऽप्यभेदोऽस्य किं भेदसहनक्षमः। किंवा तदक्षमः श्रुत्या सिद्ध्यत्येतद्विचार्यते।अत्र केचिदाहुः तदक्षम इति। स्वमते तु भेदसहनक्षम एव। कुतः सत्कार्यवादस्यैव श्रौतत्वेन सृष्टिपूर्वदशायामपि सर्वसत्त्वात्। तथाहि सदेव सोम्येदमग्र आसीत् छा.उ.6।2।1 इति श्रुताविदमापुरोवर्त्तिनं प्रपञ्चं निर्दिश्य पूर्वकाले तस्य सद्रूपतामुक्त्वा ततो ब्रह्मरूपत्वं जगत्कारणत्वं च बोधयित्वा तस्माद्वितीयत्वं वक्ति। ततः तद्धैक आहुः छा.उ.6।2।1 इत्यादिनाऽसत्कार्यवादमाशङ्क्य कुतस्तु खलु सौम्यैवं स्यात् छां0उ06।2।2 इत्यादिना तन्निषेधति। एवं सति आकारकार्यत्वप्रभृतयो धर्मा यदि ब्रह्मणि पूर्वं न स्युस्तदाऽसत्कार्यवादनिरासिका सत्कार्यबोधिका च श्रुतिः पीड्येत। अत उभयसामञ्जस्यार्थं तत्तद्धर्मादिविशिष्टमेकमेव ब्रह्म कारणमिति मन्तव्यम्। तता सति यथेदानीं कार्याणां तत्तदाकाराणां च परस्परं भेदः कारणेन सह चाभेदः कार्यत्वादिरूपेण भेदश्च लोके कटककुण्डलसुवर्णप्रभृतीनां दृश्यते तथा ब्रह्मजगतोरपीति मन्तव्यः।एवंमंशांशिनोर्जीवब्रह्मणोरपि सुवर्णखण्डसुवर्णयोरिव सृष्टिप्राकट्याविर्भावतिरोभावाभ्यामेव तदुपपत्तिः अन्यथाऽव्याकृतश्रुतिविरोधापत्तिः। पुरुषविधब्राह्मणे हि सृष्टिमुक्त्वाऽग्रे तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतेऽसौ नामाऽयमिति इद ँ् रूप इति (नामाऽयमिद ँ् रूप इति) तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियतेऽसौ नामाऽयमिद ँ् रूप इति बृ.उ.1।4।7 इति। अत्र नामरूपत्र्याकरणे लौकिकमेवोदाहरणं तत्साधनायाह। लोके च सिद्धमेव वस्तु नामरूपाभ्यां व्याक्रियते इति सृष्टिपूर्वदशायामपि तस्य सिद्धत्वमेव व्यक्तीभवतीति नासत्कार्यवादः प्रामाणिकः। भागवते तृतीयस्कन्धे 10।1213 चविश्वं वै ब्रह्म तन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया। ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना। यथेदानीं तथाऽग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम् इति कालत्रये एकरूपामेव सर्वस्य स्थितिमाह। इदमेवाविरोधाध्यायेऽसद्व्यपदेशाधिकरणे व्यासचरणैरपि व्युत्पादितम्। असद्वा इदमग्र आसीत् तै.उ.2।7 इति श्रुतौ सृष्टिपूर्वदशायां यो जगतोऽसत्त्वेन व्यपदेशः सोऽव्याकृतत्वेन धर्मान्तरेण विद्यमानत्वेऽपि व्याकृतत्वेनाविद्यमानत्वात् तदा��्मानं स्वयमकुरुत तै.उ.2।7 इति वाक्यशेषेण तथाऽवगमात्इदं इति प्रयोगात्आसीत् इति प्रयोगाच्च अन्यथा तद्विरोधापत्तेः नित्यस्य समवायस्य सम्बन्धस्य द्विनिष्ठत्वेन कार्याभावे तदभावापत्तेः तन्नित्यताहानेश्च। असम्बद्धोत्पत्तौ जगद्दृष्टान्तेन घटपटादीनामपि कार्याणां नियतावधिकत्वहानेश्च।न च यत्र यत्प्रागभावस्तदेव कार्यं ततः करणादुत्पद्यत इति नियमात् न नियतावधिकत्वभङ्ग इति वाच्यम् कारणावस्थातिरिक्तस्य प्रागभावस्यैवं वक्तुमशक्यत्वात् कपालावस्थां पश्यत् एवेह कपाले घटो भविष्यतीति प्रत्ययेन तथा निश्चयात् तदवस्थाव्यङ्ग्यस्य तदतिरिक्तस्य प्रागभावस्यैवाङ्गीकारे गौरवाच्च। न च उत्पत्तेः पूर्वं कार्यस्य सत्त्वे कर्तृव्यापारबाधप्रसक्तिरिति शङ्क्यम् कार्याभिव्यञ्जनार्थतया सार्थक्यात् तथा ब्रह्मवाक्याच्च। संवेष्टितपटप्रसारणादौ तथा निश्चयात्। न चैवमनुद्भूतसत्ताङ्गीकारेऽदृश्यप्रेतादिजनितदुःखवत् ततः क्वचिदर्थक्रियापत्तिरिति शङ्क्यम् अनुद्भूतगन्धरूपादौ व्यभिचारात्। योगेनाकुञ्चनप्राणायामादिनियमने जीवनमात्रस्य नियमनत्यागे आकुञ्चनप्रसारणादिरूपकार्यस्य च दर्शनेन तथा निश्चयादिति।एवं स्थिते सत्कार्यवादे सृष्टिपूर्वदशायामपि जगज्जीवयोः सत्त्वात् एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म छां.उ.6।2।12 इत्याद्युक्तोऽभेदः तद्भिन्नतया जगज्जीवप्रतीत्यभावे पर्यवस्यन् भेदसहनक्षममेवाभेदं साधयतीति सृष्टिदशायां जगद्ब्रह्मणोः कार्यकारणभावात् जगज्जीवयोरंशांशिभावाच्च औपचारिको भवन्नपि न वास्तवं तमभेदं निहन्ति। तेनेदानीमपि भेदसहिष्णुरेवाभेदः। एवं सति नानात्वदर्शनभेददर्शनयोः भेदनिन्दाश्रवणमप्यभेदविरुद्धभेददर्शन एव पर्यवस्यतीति बोध्यम्। (यदा ह्येवैष) य एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते तै.उ.2।7 इति श्रुतौकुरुते इतिपदेन क्रियारब्धस्य एव भेदनिन्दनात् आरम्भस्य च असतः सत्तायामेव पर्यवसानात् अभेदविरुद्ध एव क्रियमाणे भेद एव पर्यवस्यतीत्यभेदाविरुद्धभेददर्शने तु न निन्द्यत्वलेशोऽपीति बोध्यम्। एवं च परममुक्तिदशायामपि यथोदकं शुद्धे निषिक्तं (शुद्धमासिक्त) तादृगेव भवति एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम इति काठकश्रुत्या 4।15 आत्मनो ब्रह्मसाम्यश्रवणात् भिन्नप्रतीत्यभावस्वरूप एवाभेदः न तु भेदाभावस्वरूप इति सिध्यति। अत एव मैत्रेयीब्राह्मणे यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत् बृ.उ.4।5।15 इत्यादिना यदितरज्ञानश्रवणं तदपि द्वैतदृष्टिनिवृत्तावेव पर्यवस्यति न तु द्वैताभावे। एतदग्रे द्वैतीयकमैत्रेयीब्राह्मणे यद्वैतन्न पश्यति पश्यन् वै तत् (द्रष्टत्वं) न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो भवति (विद्यते) अविनाशित्वात् न तु तद्वितीयमस्ति (ततोऽन्यद्वितीयमस्ति) ततोऽन्यद्विभक्तं (यत्) पश्येत् बृ.उ.4।3।23 इत्यादिभिरन्यादर्शने पश्यत एव अदर्शनस्य द्वितीयत्वाभावस्य विभागभावस्य अन्यत्वाभावस्य च हेतुतया श्रावणेन तथा निश्चयात्। अग्रे च यत्र वाऽन्यदिव स्यात् बृ.उ.4।3।31 इत्यादिना वैलक्षण्यहेतुकमन्यदर्शनमनूद्य यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत् केन৷৷. बृ.उ.4।5।15 इत्यादिना स्वस्य द्रष्टृविभागेन विज्ञातृविज्ञाने तं केन विजानीयात् सैवश्रु. इति अनेन ज्ञानकरणाभावं हेतुत्वेन वक्ति इत्यतोऽपि तथा निश्चयात्। अन्यथा पूर्वब्राह्मण एव मैत्रेयीमोहनिवृत्त्या पुनर्द्वितीयं ब्राह्मणं न वदेत्। अतस्तत्र यः सन्दिग्धोऽर्थः तन्निश्चायनार्थमेव द्वितीयं ब्राह्मणमिति भेददर्शनाभावरूप एव अभेदः न तु भेदाभावरूप इति भेदसहिष्णुरेवाभेदः।यत्तु बहु स्यां छां.उ.6।2।3 इति श्रुतौ सृष्ट्यारम्भे एकस्य बहुत्वश्रावणात् पूर्व जगदाद्यभाव एव श्रुत्यभिमतःन तु कार्यस्यापि सत्त्वम्। तथा सति इदं सर्वमसृजत् बृ.उ.1।2।5 इति श्रुतिविरोधः अतः सृष्टितः पूर्वमसत्त्वादभेदविरोध्येव स इत्यर्द्धवैनाशिकमतमेव साधीय इति तन्मन्दम् तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीत् छा.उ.6।2।1 इत्याद्यनूद्य कुतः खलु (सोम्यैमाः प्रजाः) सोम्यैवं स्यात् छां.उ.6।2।2 इति श्रुत्यैव तन्निषेधात्। न च तत्र कारणसत्ताया एव निषेधः न तु कार्यसत्तायाः कथमसतः सज्जायेत इति श्रुत्या तथा निश्चयादिति वाच्यम् पूर्वं कार्यस्यासत्त्वे तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् बृ.उ.1।4।7 इति श्रुतिविरोधापत्तेः। अत्रतर्हि इत्यनेन सृष्टिपूर्वकालं लक्षीकृत्य इदमानिर्दिष्टस्य जगतस्तदानीमव्याकृतत्वमपि नानुवदेत् स्वरूपस्यैवाभावात्। अतः बहु स्यां छा.उ.6।2।3 इत्यत्रापि बहुत्वादेरव्याकृतत्वमेवोच्यते सतः न त्वसतः सत्ता सृजनमपि नामरूपव्याकरणमेव अन्यथा प्रागिव सृष्टिदशायामपि व्यवहाराभावप्रसङ्गात्।एवं सिद्धे सर्वदासत्वेऽद्वैतश्रुतिविरोधाय तदानीमपि परापरभावघटित एव ब्रह्मत्वेनैव रूपेणाविरोध इदानीमि वेति मन्तव्यम्। एतावान् परं विशेषः यदिदानीमविद्यावलिप्ताल्पबुद्धित्त्वान्न प्रतीयते तदानीं तु करणग्रामलयादिति। एवं च परममुक्तावपि परापरभावघटितो भेदसहनक्षम एवाभेदः ब्रह्मरूपस्यैव तथात्वात्। अत एव दशमस्कन्धे 85।23 भागवते यत्र भगवता श्रीवसुदेवं प्रति अखण्डब्रह्मज्ञानोपदेशः कृतस्तत्र वसुदेवोक्तमङ्गीकृत्य अहं यूयमसावार्यः इत्यनेन सर्वेषां तथात्वमुक्त्वा ब्रह्माण्डानन्त्यमारोपितज्ञानदृष्टिं च निवारयितुं आत्मा ह्येकः स्वयञ्ज्योतिः भाग.10।85।24 इत्यनेन सर्वत्रात्मैक्यनानात्वदृष्टेश्चौपाधिकत्वेन भ्रान्तत्वं निरूप्य खं वायुर्ज्योतिरापो भूः इति द्वितीये (श्लोके 26) स्वादिपञ्चमहाभूतदृष्टान्तेन नानात्वस्य वास्तवत्वमुपाधिव्यङ्ग्यत्वं च वदति अन्यथा पूर्वश्लोक एव नानात्वदृष्टेर्गुणोपाधिकत्वेन भ्रान्तत्वे बोधिते तत एव नानात्वस्य निवृत्तत्वात् खादिपञ्चमहाभूतदृष्टान्तेन पुनर्नानात्वप्राप्तिं न स्थापयेत्। अतोऽखण्डब्रह्मवादेऽप्यंशादिनानात्वस्य विद्यमानत्वात् परापरभावादिभेदसहिष्णुरेवाभेदो भगवदभिमतो भातीति बोध्यम्।किञ्च इदं सर्वं यदयमात्मा बृ.उ.2।4।64।5।7 इत्यन्तेन सर्वस्य ब्रह्मत्वे बोधिते कथं सर्वस्य ब्रह्मत्वं इत्याकाङ्क्षायां दुन्दुभ्यादिदृष्टान्तैरवान्तरसर्वग्रहणं दुन्दुभ्यादिशब्दग्रहणेनैव अवान्तरसर्वशब्दग्रहणवत् आत्मग्रहणेनैव तदभिन्नावान्तरसर्वग्रहणम्। अग्निधूमदृष्टान्तेन ब्रह्मणः सकाशाद्वैदादिसर्वोत्पत्तिं चोक्त्वा स यथा सर्वासामपां समुद्र एकायनं बृ.उ.2।4।11 इत्यादिभिर्बहुदृष्टान्तैः सर्वाधारत्वं निरूपयति। यदि सृष्ट्यभावदशायां सर्वस्यैकरूप्यमेव स्यात् तदा दुन्दुभिशब्दादीन् समुद्रादींश्च नानादृष्टान्तान्न वदेत् दुन्दुभिशब्ददृष्टान्तेन सर्वस्य ब्रह्मरूपतया एकेनैव समुद्रदृष्टान्तेन ब्रह्मणः सर्वाधारत्वस्य च सिद्धेः। अतः सृष्ट्यभावदशायामपि नानात्वाविरुद्धमेव स्वरूपैक्यं एवं वाऽरे (अयमात्मा) इदं महद्भूतं बृ.उ.2।4।12 इत्यादिना प्रेत्यसंज्ञाभावकथनेन पूर्वसंज्ञानस्यैव बोधनात्। तच्च ज्ञानं भेदाविरुद्धसम्पदात्मकमभेदमेव बोधयतीति प्रागुपपादितं अतो न कोऽपि संशयः। एवं सति तद्गुणसारत्वात्तद्व्यपदेश इत्यत्र ब्रह्मांशे जीवे ब्रह्मत्वव्यपदेश औपचारिकः स च मुक्तावपि तुल्यः पूर्वोक्तसत्कारणतावादसिद्धस्य भेदस्यानपायादिति। एवं प्रलयदशायां जडस्यापि बोध्यम्। एवं ब्रह्मणो निरंशत्वेऽपि सांशत्वं विरुद्धधर्माश्रयत्वादुपपन्नं एवं जगतो हविरादेश्च प्रकृतस्य ब्रह्मत्वं भावनीयं तथात्वेऽपि कार्यत्वमपीति सर्वं सुस्थम्। अयमेव भावाद्वैतपदार्थः कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनं पटतन्तुवदिति निरूपितम्। अक्षरार्थस्तु भावमात्रस्य जगत्कारणेन सहैक्यमर्शनं पटतन्तुवदिति।यद्यपि नैकविधं जगत्तथापि भगवत ईश्वरादुद्भूतं न ततोऽतिरिच्यते तद्योगमायात एव तत्सच्चिदान्दांशप्रपञ्चरूपं सर्वं तत्त्वतः परिणतम् यथोक्तं तात्त्विकोऽन्यथाभावः परिणामः अतात्त्विकोऽन्यथाभावोविवर्तः इति। कार्यं न विवर्त्तात्मकं भूमितो घटपटादिकमिव वस्तुतः पार्थिवं न ततोऽतिरिच्यते प्रलयेऽव्याकृततया तदभिन्नरूपतावगमात्। एवमत्रापि कार्यदशायां सर्वं न ततोऽतिरिक्तं भाव्यम्। यद्यपि साङ्ख्ये क���रणत्वं प्रकृतेरिति प्राकृतमेव घटादिजगदित्युक्तं तथाप्यत्र जगतः प्राकृतत्वमस्तु इत्यतो मतान्तरेऽभ्युपेताया अपि प्रकृतेः स्वमते तदंशत्वात् कारणत्वमेव न मुख्यकारणमिति सङ्क्षेपः। तदिदमनेकविधब्रह्मोपासनायामभेदभावनायां भगवतः सच्चिदानन्दांशप्रपञ्चभूतं कार्यं कारणानन्यत्वेन भातंब्रह्मवादिनां ज्ञानिनां ब्रह्मयज्ञ एवेति निरूपितम्।
Sridhara Swami
।।4.24।।तदेवं परमेश्व राराधनलक्षणं कर्म ज्ञानहेतुत्वेन बन्धकत्वाभावादकर्मैव। आरूढावस्थायां त्वकर्त्रात्मज्ञानेन बाधितत्वात्स्वाभाविकमपि कर्माकर्मैवेतिकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यनेनोक्तः कर्मप्रविलयः प्रपञ्चितः। इदानीं कर्मणि तदङ्गेषु च ब्रह्मैवानुस्यूतं पश्यतः कर्मप्रविलयमाह ब्रह्मार्पणमिति। अर्प्यतेऽनेनेत्यर्पणं स्रुवादि तदपि ब्रह्मैव। अर्प्यमाणं हविरपि घृतादिकं ब्रह्मैव। ब्रह्मैवाग्निस्तस्मिन्ब्रह्मणा कर्त्रा च हुतं ब्रह्मैव। होमः अग्निश्च कर्ता च क्रिया च ब्रह्मैवेत्यर्थः। एवं ब्रह्मण्येव कर्मात्मके समाधिश्चित्तैकाग्र्यं यस्य तेन ब्रह्मैव गन्तव्यं प्राप्यं नतु फलान्तरमित्यर्थः।