Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 27 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः | अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ||३-२७||
Transliteration
prakṛteḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ . ahaṅkāravimūḍhātmā kartāhamiti manyate ||3-27||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.27 All actions are wrought in all cases by the alities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks, "I am the doer."
।।3.27।। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, recognize that outcomes are a result of many factors beyond your individual 'doing' – team effort, market conditions, resources, and inherent capabilities (Gunas). This perspective fosters humility in success, resilience in failure, reduces burnout from shouldering excessive responsibility, and encourages collaborative spirit rather than ego-driven credit-taking.
🧘 For Stress & Anxiety
Understanding that actions are orchestrated by the qualities of Nature, not solely by your individual 'self,' significantly reduces self-imposed pressure, anxiety, and guilt. It helps in detaching from the need for perfect control, alleviating the burden of excessive self-criticism, and cultivating a more peaceful and accepting mindset regarding life's unfoldings.
❤️ In Relationships
When dealing with others or reflecting on your own interactions, acknowledge that behaviors, moods, and tendencies often arise from one's inherent nature (Gunas). This cultivates greater empathy, patience, and forgiveness, reducing judgment and blame in conflicts. It allows for healthier connections by diminishing the ego's need to control or be 'right,' fostering understanding of the diverse natures at play.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Release the ego's delusion of doership; all actions are nature's play. Find freedom and peace in this truth.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.27 प्रकृतेः of nature? क्रियमाणानि are performed? गुणैः by the alities? कर्माणि actions? सर्वशः in all cases? अहङ्कारविमूढात्मा one whose mind is deluded by egosim? कर्ता doer? अहम् I? इति thus? मन्यते thinks.Commentary Prakriti or Pradhana or Nature is that state in which the three Gunas? viz.? Sattva? Rajas and Tamas exist in a state of eilibrium. When this eilibrium is disturbed? creation begins body? senses? mind? etc.? are formed. The man who is deluded by egoism identifies the Self with the body? mind? the life force and the senses and ascribes to the Self all the attributes of the body and the senses. He? therefore? thinks through ignorance? I am the doer. In reality the Gunas of Nature perform all actions. (Cf.III.29V.9IX.9?10XIII.21?24?30?32XVIII.13?14).
Shri Purohit Swami
3.27 Action is the product of the Qualities inherent in Nature. It is only the ignorant man who, misled by personal egotism, says: I am the doer.'
Dr. S. Sankaranarayan
3.27. The actions are performed part by part, by the Strands of the Prakrti; [yet] the person, having his self (mind) deluded with egoity, imagines 'I am [alone] the doer'.
Swami Adidevananda
3.27 Actions are being performed in every way by the Gunas of Prakrti. He whose nature is deluded by egoism, thinks, 'I am the doer.'
Swami Gambirananda
3.27 While actions are being done in every way by the gunas (alities) of Nature, one who is deluded by egoism thinks thus: 'I am the doer.'
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.27।। भगवान् श्रीकृष्ण निरन्तर इस बात पर बल देते हैं कि अनासक्त अथवा निष्काम कर्म ही आदर्श है। यह कहना सरल परन्तु करना कठिन होता है। बुद्धि से यह बात समझ में आने पर भी उसे कार्यान्वित करना सरल काम नहीं। हम सबके साथ कठिनाई यह है कि हम जानते नहीं कि कर्म में आसक्ति को त्याग कर फिर कर्म भी किस प्रकार करते रहें। यहाँ भगवान् विवेक की वह पद्धति बता रहें हैं जिसके द्वारा इस अनासक्ति को हम प्राप्त कर सकते हैं।आत्म अज्ञान बुद्धि और मन के स्तर पर क्रमश इच्छा और विचार के रूप में व्यक्त होता है। ये विचार मन की सात्त्विक राजसिक एवं तामसिक प्रवृत्तियों के अनुरूप होकर शरीर के स्तर पर कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इन तीनों गुणों में से जिस गुण का आधिक्य विचारों में होता है मनुष्य के कर्म भी ठीक उसी प्रकार के ही होते हैं। जैसे सत्त्व के कारण शुभ कर्म और रजोगुण तथा तमोगुण से क्रमश उत्पन्न होते हैं कामक्रोध से प्रेरित तथा क्रूर पाशविक कर्म। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन वासनाओं का ही जगत् में व्यक्त होने वाला स्थूल रूप कर्म कहलाता है।जहाँ मन है वहाँ कर्म भी है। कर्म मन से ही उत्पन्न होते हैं और मन से ही शक्ति प्राप्तकर मन की सहायता से ही किये जाते हैं। परन्तु मन के साथ अविद्याजनित मिथ्या तादात्म्य के कारण मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानता है। कर्तृत्व की भावना होने पर फल की चिन्ता व्याकुलता एवं आसक्ति होना स्वाभाविक ही है।स्वप्न में अपने ही संस्कारों से एक जगत् उत्पन्न करके मनुष्य उसके साथ तादात्म्य स्थापित करता है उसे ही स्वप्नद्रष्टा कहते हैं। स्वप्न के दुख स्वप्नद्रष्टा के लिए होते हैं और किसी के लिए नहीं। स्वप्नजगत् के साथ तादात्म्य को त्यागने पर द्रष्टा के सब दुख समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार वासना इच्छा कर्म अथवा फल स्वयं किसी भी प्रकार की आसक्ति को जन्म नहीं देते किन्तु जब हमारा तादात्म्य मन के साथ हो जाता है तो कर्तृत्व और आसक्ति दोनों की ही उत्पत्ति होती है। जिस क्षण इस विवेक का उदय होता है आसक्ति का अस्तित्व वहाँ नहीं रह पाता। जीवन शान्तिमय हो जाता है।परन्तु ज्ञानी पुरुष आसक्त नहीं होते क्योंकि
Swami Ramsukhdas
।।3.27।। व्याख्या--'प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः'-- जिस समष्टि शक्तिसे शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, गङ्गा आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं, मकान आदि पदार्थोंमें परिवर्तन होताहै, उसी समष्टि शक्तिसे मनुष्यकी देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं। परन्तु मनुष्य अहंकारसे मोहित होकर, अज्ञानवश एक ही समष्टि शक्तिसे होनेवाली क्रियाओंके दो विभाग कर लेता है-- एक तो स्वतः होनेवाली क्रियाएँ; जैसे-- शरीरका बनना, भोजनका पचना इत्यादि; और दूसरी, ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ; जैसे-- देखना, बोलना, भोजन करना इत्यादि। ज्ञानपूर्वक होनेवाली क्रियाओंको मनुष्य अज्ञानवश अपनेद्वारा की जानेवाली मान लेता है।प्रकृतिसे उत्पन्न गुणों-(सत्त्व, रज और तम-) का कार्य होनेसे बुद्धि, अहंकार, मन, पञ्चमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके शब्दादि पाँच विषय-- ये भी प्रकृतिके गुण कहे जाते हैं। उपर्युक्त पदोंमें भगवान् स्पष्ट करते हैं कि सम्पूर्ण क्रियाएँ (चाहे समष्टिकी हों या व्यष्टिकी) प्रकृतिके गुणों द्वारा ही की जाती हैं, स्वरूपके द्वारा नहीं। 'अहंकारविमूढात्मा'-- 'अहंकार' अन्तःकरणकी एक वृत्ति है। 'स्वयं' (स्वरूप) उस वृत्तिका ज्ञाता है। परन्तु भूलसे स्वयं को उस वृत्तिसे मिलाने अर्थात् उस वृत्तिको ही अपना स्वरूप मान लेनेसे यह मनुष्य विमूढात्मा कहा जाता है। जैसे शरीर 'इदम्' (यह) है ऐसे ही अहंकार भी इदम् (यह) है। 'इदम्'(यह) कभी 'अहम्' (मैं) नहीं हो सकता-- यह सिद्धान्त है। जब मनुष्य भूलसे 'इदम्' को 'अहम्' 'अर्थात्' 'यह' को 'मैं' मान लेता है, तब वह 'अहंकारविमूढात्मा' कहलाता है। यह माना हुआ अहंकार उद्योग करनेसे नहीं मिटता; क्योंकि उद्योग करनेमें भी अहंकार रहता है। माना हुआ अहंकार मिटता है-- अस्वीकृतिसे अर्थात् 'न मानने' से।विशेष बात'अहम्' दो प्रकारका होता है (1) वास्तविक (आधाररूप) 'अहम्' (टिप्पणी प0 161) जैसे मैं हूँ (अपनी सत्तामात्र)।(2) अवास्तविक (माना हुआ) 'अहम्' जैसे मैं शरीर हूँ। 'वास्तविक अहम्' स्वाभाविक एवं नित्य और 'अवास्तविक अहम्' अस्वाभाविक एवं अनित्य होता है। अतः 'वास्तविक अहम्' विस्मृत तो हो सकता है, पर मिट नहीं सकता; और 'अवास्तविक अहम्' प्रतीत तो हो सकता है, पर टिक नहीं सकता। मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह 'वास्तविक अहम्'-(अपने स्वरूप-) को विस्मृत करके 'अवास्तविक अहम्'-(मैं शरीर हूँ-) को ही सत्य मान लेता है। 'कर्ताहमिति मन्यते'-- यद्यपि सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिजन्य गुणोंके द्वारा ही किये जाते हैं, तथापि अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अज्ञानी मनुष्य कुछ कर्मोंका कर्ता अपनेको मान लेता है। कारण कि वह अहंकारको ही अपना स्वरूप मान बैठता है। अहंकारके कारण ही मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिमें 'मैं'-पन कर लेता है और उन-(शरीरादि) की क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है। यह विपरीत मान्यतामनुष्यने स्वयं की है, इसलिये इसको मिटा भी वही सकता है। इसको मिटानेका उपाय है-- इसे विवेक-विचारपूर्वक न मानना; क्योंकि मान्यतासे ही मान्यता कटती है।एक 'करना' होता है, और एक 'न करना'। जैसे 'करना' क्रिया है, ऐसे ही 'न करना' भी क्रिया है। सोना, जागना, बैठना, चलना, समाधिस्थ होना आदि सब क्रियाएँ हैं। क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है। 'स्वयं'-(चेतन स्वरूप-) में करना और न करना-- दोनों ही नहीं हैं; क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है। वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है। यदि 'स्वयं' में भी क्रिया होती, तो वह क्रिया (शरीरादिमें परिवर्तनरूपक्रियाओं) का ज्ञाता कैसे होता? करना और न करना वहाँ होता है, जहाँ 'अहम्' (मैं) रहता है। 'अहम्' न रहनेपर क्रियाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। करना और न करना--दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं, उस अक्रिय तत्त्व (अपने स्वरूप) में मनुष्यमात्रकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु 'अहम्' के कारण मनुष्य प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाओंसे अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्रकृति-(जड-) से माना हुआ सम्बन्ध ही 'अहम्' कहलाता है।विशेष बातजिस प्रकार समुद्रका ही अंश होनेके कारण लहर और समुद्रमें जातीय एकता है अर्थात् जिस जातिकी लहर है, उसी जातिका समुद्र है, उसी प्रकार संसारका ही अंश होनेके कारण शरीरकी संसारसे जातीय एकता है। मनुष्य संसारको तो 'मैं' नहीं मानता, पर भूलसे शरीरको 'मैं' मान लेता है।जिस प्रकार समुद्रके बिना लहरका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार संसारके बिना शरीरका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला मनुष्य जब शरीरको 'मैं' (अपना स्वरूप) मान लेता है, तब उसमें अनेक प्रकारकी कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं; जैसे-- मुझे स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थ मिल जायँ, लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा आदर-सम्मान करें, मेरे अनुकूल चलें इत्यादि। उसका इस ओर ध्यान ही नहीं जाता कि शरीरको अपना स्वरूप मानकर मैं पहलेसे ही बँधा बैठा हूँ अब कामनाएँ करके और बन्धन बढ़ा रहा हूँ-- अपनेको और विपत्तिमें डाल रहा हूँ।साधनकालमें 'मैं (स्वयं) प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा अतीत हूँ ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक ऐसा मान लेता है, तब उसे वैसा ही अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जैसे वह गलत मान्यता करके बँधा था, ऐसे ही सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है-- यह सिद्धान्त है। इसी बातको भगवान्ने पाँचवें अध्यायके आठवें श्लोकमें-- 'नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' पदोंमें 'मन्येत' पदसे प्रकट किया है कि 'मैं कर्ता हूँ'-- इस अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये 'मैं कुछ भी नहीं करता'--ऐसी वास्तविक मान्यता करना होगी। 'मैं शरीर हूँ; मैं कर्ता हूँ' आदि असत्य मान्यताएँ भी इतनी दृढ़ हो जाती हैं कि उन्हें छोड़ना कठिन मालूम देता है; फिर 'मैं शरीर नहीं हूँ; मैं अकर्ता हूँ' आदि सत्य मान्यताएँ दृढ़ कैसे नहीं होंगी ?और एक बार दृढ़ हो जानेपर फिर कैसे छूटेंगी?
Swami Tejomayananda
।।3.27।। सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.27।।विद्वदविदुषोः कर्मभेदमाह प्रकृतेरिति। प्रकृतेर्गुणैरिन्द्रियादिभिः। प्रकृतिमपेक्ष्य गुणभूतानि हि तानि तत्सम्बन्धीनि च। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया।
Sri Anandgiri
।।3.27।।अज्ञानां कर्मसङ्गिनामित्युक्तं तेनोत्तरश्लोकस्य संगतिमाह अविद्वानिति। कर्तृत्वमात्मनो वास्तवमित्यभ्युपगमाद्विद्वान्कथं कुर्वन्नेव तस्याभावं पश्यतीत्याशङ्क्याह प्रकृतेरिति। कर्मस्वविदुषः सक्तिप्रकारं प्रकटयन्व्याकरोति प्रकृतेरित्यादिना। प्रधानशब्देन मायाशक्तिरुच्यते अविद्ययेत्युभयतः संबध्यते।
Sri Vallabhacharya
।।3.27 3.28।।कर्म कुर्वतोर्विद्वदविदुषोर्विशेषं स्पष्टं सन्दर्शयति प्रकृतेरिति द्वाभ्याम्। प्रकृते योगे साङ्खयरीत्या विशेषदर्शनमिति नाप्रकृतप्रसङ्गः। तथाहि ब्रह्मवादिसाङ्ख्ये जगतः कर्त्ता भोक्ता सर्वधर्माश्रयः पुरुषोत्तम एवांशतोऽक्षरः कालः प्रकृतिः पुरुष आत्मा भवति स (इममेव) आत्मानं द्वेधापातयत् (ततः) पतिश्च पत्नी चाभवत् बृ.उ.1।4।3 इति श्रुतेः। तत्र कर्त्री प्रकृतिस्तत्संसृष्टतया पुरुषश्च भोक्ता। वस्तुतः पुष्करपलाशवत्प्राकृतधर्मैरवशस्तथापि तद्गुणैः परिणतगुणैरिन्द्रियैरिन्द्रियनिष्ठैर्वा गुणैः क्रियमाणानि कर्मामि कर्त्ताऽहं पुरुष इति मन्यते विपरीतमतिः। गुणेः कर्माणि क्रियन्ते न केवलेनात्मनेति। विभागतत्त्ववित्तु न सज्जते। इन्द्रियनिष्ठा गुणा विषयगुणेषु वर्तन्ते इति मननात्साङ्ख्ययोगयोरेक एवार्थः।
Sridhara Swami
।।3.27।।ननु विदुषापि चेत्कर्म कर्तव्यं तर्हि विद्वदविदुषोः को विशेष इत्याशङक्योभयोर्विशेषं दर्शयति प्रकृतेरिति द्वाभ्याम्। प्रकृतेर्गुणैः प्रकृतिकार्यैरिन्द्रियैः सर्वप्रकारेण क्रियमाणानि यानि कर्माणि तान्यहमेव कर्ता करोमीति मन्यसे। तत्र हेतुः। अहंकारेणेन्द्रियादिष्वात्माध्यासेन विमूढ आत्मा बुद्धिर्यस्य सः।