Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 26 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् | जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ||३-२६||
Transliteration
na buddhibhedaṃ janayedajñānāṃ karmasaṅginām . joṣayetsarvakarmāṇi vidvānyuktaḥ samācaran ||3-26||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.26 Let no wise man unsettle the mind of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion.
।।3.26।। ज्ञानी पुरुष, कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर, उनसे भी वैसा ही कराये।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
As a leader or mentor, avoid demeaning or unsettling colleagues who are primarily motivated by outcomes (e.g., bonuses, promotions). Instead, lead by example, demonstrating diligent, high-quality work without personal attachment to results. Encourage their consistent engagement in tasks, gradually inspiring them towards a deeper sense of purpose and commitment to excellence beyond immediate rewards.
🧘 For Stress & Anxiety
When dealing with individuals experiencing stress due to their attachment to results, don't dismiss their struggles or beliefs abruptly. Instead, provide a calming influence by consistently demonstrating balanced action and a healthy perspective towards effort rather than outcome. This gradual modeling helps reduce anxiety and fosters a more resilient mindset without creating additional mental conflict.
❤️ In Relationships
In personal relationships, resist the urge to forcefully 'correct' or 'enlighten' others, especially if they are deeply attached to certain beliefs or ways of doing things. Rather than creating discord, demonstrate your values and a balanced approach through your own actions. Patiently engage them in shared duties and activities, showing them the benefit of dedicated effort and harmonious participation, allowing them to evolve at their own pace.
situations
Mentoring junior colleagues or new hires in a professional setting.Guiding family members through life decisions or daily responsibilities.Leading a volunteer group or community project.Teaching or coaching individuals with varying levels of understanding and motivation.Resolving interpersonal conflicts where differing fundamental approaches to life or work exist.
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Influence wisely through consistent, selfless action and patient understanding, fostering growth without disruptive criticism or judgment.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.26 न not? बुद्धिभेदम् unsettlement in the mind? जनयेत् should produce? अज्ञानाम् of the ignorant? कर्मसङ्गिनाम् of the persons attached to actions? जोषयेत् should engage? सर्वकर्माणि all actions? विद्वान् the wise? युक्तः balanced? समाचरन् performing.Commentary An ignorant may says to himelf? I shall do this action and thery enjoy its fruit. A wise man should not unsettle his belief. On the contrary he himself should set an example by performing his duties diligently but without attachment. The wise man should also persuade the ignorant never to neglect their duties. If need be? he should place before them in vivid colours the happiness they would enjoy here and hereafter by discharging such duties. When their hearts get purified in course of time? the wise man could sow the seeds of Karma Yoga (selfless service without deire) in them.
Shri Purohit Swami
3.26 But a wise man should not perturb the minds of the ignorant, who are attached to action; let him perform his own actions in the right spirit, with concentration on Me, thus inspiring all to do the same.
Dr. S. Sankaranarayan
3.26. Let the wise master of Yoga fulfil (or destroy) all actions by performing them all, and let him not creat any disturbance in the mind of the ingnorant persons attached to action.
Swami Adidevananda
3.26 He should not bewilder the minds of the ignorant who are attached to work; rather himself performing work with devotion, he should cause others to do so.
Swami Gambirananda
3.26 The enlightened man should not create disturbance in the beliefs of the ignorant, who are attached to work. Working, while himself remaining deligen [Some translate yuktah as, 'in the right manner'. S. takes it in the sense of Yoga-yuktah, merged in yoga.-Tr.], he should make them do [Another reading is yojayet, meaning the same as josayet.-Tr.] all the duties.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.26।। यह संभव है कि आत्मानुभूति के पश्चात् ज्ञानी पुरुष जब कार्य क्षेत्र में प्रवेश करे तो तत्त्वज्ञान का सर्वोच्च उपदेश देना प्रारम्भ कर दे जिसे समझने की योग्यता लोगों में न हो। उस पीढ़ी के लोग उस विद्वान पुरुष के कथन का विपरीत अर्थ लगाकर यह समझ सकते हैं कि कर्म का संन्यास सत्य की प्राप्ति का सीधा मार्ग है। ऐसे गुरुओं को यहाँ सावधान किया गया है क्यांेकि इससे लोगों का कर्म करने में उत्साह कम हो सकता है।जीवन गतिशील है। कोई भी निष्क्रिय होकर बैठ नहीं सकता। जीवन की निरन्तर अग्रगामी कर्मरूपी गतिशील धारा के प्रवाह के मध्य में यदि कोई मार्गदर्शक गुरु दोनों हाथ उठाकर अपनी पीढ़ी के लोगों को अकस्मात रुकने का आदेश दें तो उस प्रवाह में वे स्वयं ही छिन्नभिन्न होकर रह जायेंगे। अनेक धर्मोपदेशकों ने यह गलती की और उन्हें उसका मूल्य भी चुकाना पड़ा। यहाँ श्रीकृष्ण मार्गदर्शन करते हुये कहते हैं कि ऐसे धर्मोपदेशकों को चाहिये कि वे समय की गति को पहचान कर कार्य करें जीवनी शक्ति का विरोध करके नहीं।समाज के मार्गदर्शन की पद्धति इस श्लोक में बताई गई है जो समस्त नेतृत्व वर्ग के लिये उपयोगी है। वे सामाजिक राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक किसी भी क्षेत्र में क्यों न कार्य कर रहे हों। यदि किसी काल में कोई समाज किसी विशेष दिशा में आगे बढ़ रहा हो तो नेता को अपनी पीढ़ी के साथ मिलकर स्वयं के उदाहरण के द्वारा धीरेधीरे लोगों को सही दिशा में ले जाने का प्रयत्न करना चाहिये।यदि कोई व्यक्ति हरिद्वार जाने के लिये कार को तेज गति से परन्तु विपरीत दिशा में चला रहा हो तो उसकी दिशा सुधारने का उपाय यह नहीं कि अचानक उसे रोक दें किन्तु उसकी दिशा मात्र को बदलें। कार के रुक जाने मात्र से वह किसी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगा।इसी प्रकार मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिये। यदि वह गलत दिशा में भी जा रहा हो तो केवल कर्म से ही वह सही दिशा में आगे बढ़ सकता है। विद्वान् पुरुष अज्ञानी को कर्म की प्रवृत्ति से विचलित न करे बल्कि स्वयं कुशलतापूर्वक कर्म का आचरण करे जिससे सामान्य जन उसका सरलता से अनुसरण कर सकें।किस प्रकार अज्ञानी पुरुष कर्म में आसक्त होता है
Swami Ramsukhdas
3.26।। व्याख्या--'सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो तथा कुर्वन्ति भारत'-- जिन मनुष्योंकी शास्त्र, शास्त्र-पद्धति और शास्त्र-विहित शुभकर्मोंपर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है-- इस बातपर पूरा विश्वास है; जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थोंमें आसक्त हैं, ऐसे मनुष्योंके लिये यहाँ 'सक्ताः अविद्वांसः' पद आये हैं। शास्त्रोंके ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं, पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं, इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं।ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म करते हैं; क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मोंको करनेमें कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी। भगवान् उनके इस प्रकार कर्म करनेकी रीतिको आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान्के लिये भी इसी विधिसे लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं। 'कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्'-- जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुषके लिये यहाँ 'असक्तः विद्वान्' पद आये हैं (टिप्पणी प0 158)।बीसवें 'श्लोकमें''लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्' कहकर फिर इक्कीसवें श्लोकमें जिसकी व्याख्या की गयी, उसीको यहाँ 'लोकसंग्रहं चिकीर्षुः'पदोंसे कहा गया है।श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञके लिये, मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्यकी भोगोंमें, मोही मनुष्यकी कुटुम्बमें और लोभी मनुष्यकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्यकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है। उसके अन्तःकरणमें 'मैं लोकहित करता हूँ'-- ऐसा भाव भी नहीं होता, प्रत्युत उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी 'लोकसंग्रह' पदमें आये 'लोक' शब्दके अन्तर्गत आते हैं।दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, ध���, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतःस्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।इस श्लोकमें 'यथा' और 'तथा' पद कर्म करनेके प्रकारके अर्थमें आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थके लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो?-- इस भावसे कर्तव्य-कर्म करनेपर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है।अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, पर ज्ञानी पुरुषकी फलमें आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करनेके विषयमें ज्ञानी पुरुषको भी अज्ञानी (सकाम) पुरुषकी ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।इक्कीसवें श्लोकमें तो विद्वान्को 'आदर्श' बताया गया था पर यहाँ उसे 'अनुयायी' बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी, उसके द्वारा स्वतः लोगसंग्रह होता है। जैसे भगवान् श्रीराम प्रजाको उपदेश भी देते हैं और पिताजीकी आज्ञाका पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियोंमें उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है; क्योंकि उनका कर्मोंके करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था।जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म करता है, तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषोंके अन्तःकरणपर भी विद्वान्के कर्मोंका स्वतः प्रभाव पड़ता है, चाहे उन पुरुषोंको यह महापुरुष निष्कामभावसे कर्म कर रहा है'-- ऐसा प्रत्यक्ष दीखे या न दीखे। मनुष्यके निष्कामभावोंका दूसरोंपर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है-- यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान्के भावों आचरणोंका प्रभाव मनुष्योंपर ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी आदिपर भी पड़ता है।विशेष बातमनुष्य जबतक निष्कामभावपूर्वक विहित-कर्म नहीं करता, तबतक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता। वह जबतक अपने लिये कर्म करता है, तबतक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसका 'करना' समाप्त नहीं होता। कारण कि 'स्वयं' नित्य रहनेवाला है और कर्म एवं उसका फल नष्ट होनेवाला है। अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये स्वार्थ-त्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरोंके हितके लिये) कर्तव्य-कर्म करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग-(निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म-) के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं-- इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।वास्तवमें महत्ता पदार्थकी नहीं, प्रत्युत आचरण-(उसके उपयोग-) की ही होती है। आचरणकी महत्ता भी तब है, जब अन्तःकरणमें पदार्थकी महत्ता न हो। कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है; केवल उपयोगके लिये ही व्यक्तिगत है। पदार्थको व्यक्तिगत माननेसे ही परहितके लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है। कोई भीपदार्थ या क्रिया बन्धन-कारक नहीं, उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है।विद्वान् पुरुषोंसे भी लोकसंग्रहके लिये सब कर्म होते हैं। परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमें 'मैं लोगसंग्रह कर रहा हूँ'-- यह अभिमान नहीं रहता। कारण यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, विद्या, योग्यता, पद आदि सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं। संसारसे मिली सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देना ईमानदारी है। उस सामग्रीको बहुत सच्चाईसे, ईमानदारीसे संसारके अर्पण कर देना है। यह अर्पण करनाकोई बड़ा काम नहीं है। जैसे किसीने हमारे पास धरोहररूपसे रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगनेपर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये, तो कौन-सा बड़ा काम किया? हाँ, हमारा दायित्व समाप्त हो गया, हम ऋणमुक्त हो गये। इसी प्रकार संसारकी वस्तु संसारके अर्पण कर देनेसे हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है, हम ऋणमुक्त हो जाते हैं जन्ममरणके बन्धनसे सदाके लिये छूट जाते हैं। इसलिये सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दानपुण्य नहीं करना है प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है। 'न बुद्धिभेदं ৷৷. विद्वानयुक्तः समाचरन्'-- पचीसवें श्लोकमें असक्तः विद्वान् पदोंसे जिसका वर्णन हुआ है, उसी आसक्तिरहित विद्वान्को यहाँ 'युक्तः विद्वान्' पदोंसे कहा गया है।जिसके अन्तःकरणमें स्वतःस्वाभाविक समता है जिसकी स्थिति निर्विकार है, जिसकी समस्त इन्द्रियाँ अच्छी तरह जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष ही 'युक्तः विद्वान्' कहलाता है (गीता 6। 8)।पीछेके (पचीसवें) श्लोकमें 'सक्ताः अविद्वांसः' पदोंसे जिनका वर्णन हुआ है, उन्हीं शास्त्रविहित शुभकर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानी पुरुषोंको यहाँ 'कर्मसङ्गिनाम् अज्ञानम्' पदोंसे कहा गया है।शास्त्रविहित कर्मोंको अपने लिये (सुख-भोग, मान, बड़ाई आदिकी प्राप्तिके लिये) करनेके कारण इन पुरुषोंको 'कर्मसङ्गी' और 'अज्ञानी' कहा गया है।श्रेष्ठ पुरुषपर विशेष जिम्मेवारी होती है; क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं। इसलिये भगवान् उपर्युक्त पदोंसे विद्वानको आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये, जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषोंका वर्तमान स्थितिसे पतन हो जाय। अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिसे उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना) ही उनमें 'बुद्धिभेद' उत्पन्न करना है। अतः विद्वान्को सबके हितका भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार शास्त्रविहत शुभ-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये, जिससे दूसरे पुरुषोंको भी निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा मिलती रहे। समाज एवं परिवारके मुख्य व्यक्तियोंपर भी यही बात लागू होती है। उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मोंका अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये, जिससे समाज और परिवारपर अच्छा प्रभाव पड़े।बुद्धिभेद पैदा करनेके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-- 1-'कर्मोंमें क्या रखा है? कर्मोंसे जो जीव बँधता है; कर्म निकृष्ट हैं' कर्म छोड़कर ज्ञानमें लगना चाहिये' आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकारके अपने आचरणों और वचनोंसे दूसरोंमें कर्तव्यकर्मोंके प्रति अश्रद्धाअविश्वास उत्पन्न करना।2- जहाँ देखो वहीं स्वार्थ है स्वार्थके बिना कोई रह नहीं सकता सभी स्वार्थके लिये कर्म करते हैंमनुष्य कोई कर्म करे तो फलकी इच्छा रहती ही है फलकी इच्छा न रहे तो सभी कर्म करेगा ही क्यों आदि उपदेश देना।3-' फलकी इच्छा रखकर (अपने लिये) कर्म करनेसे (फल भोगनेके लिये) बार-बार जन्म लेना पड़ता है' आदि उपदेश देना। इस प्रकारके उपदेशोंसे कामनावाले पुरुषोंका कर्मफलपर विश्वास नहीं रहता। फलस्वरूप उनकी (फलमें) आसक्ति तो छूटती नहीं; शुभ-कर्म जरूर छूट जाते हैं। बन्धनका कारण आसक्तिही है, कर्म नहीं। इस प्रकार लोगोंमें बुद्धि-भेद उत्पन्न न करके तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रम-धर्मके अनुसार स्वयं कर्तव्य-कर्म करे और दूसरोंसे भी वैसे ही करवाये। उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनोंके द्वारा अज्���ानियोंकी बुद्धिमें भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थितिसे क्रमशः ऊँचे उठाये। जिन शास्त्रविहित शुभ-कर्मोंको अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं, उनकी वह विशेषरूपसे प्रशंसा करे और उनके कर्मोंमें होनेवाली त्रुटियोंसे उन्हें अवगत कराये, जिससे वे उन त्रुटियोंको दूर करके साङ्गोपाङ्ग विधिसे कर्म कर सकें। इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ, दान, पूजा पाठ आदि शुभ-कर्म करना तो बहुत अच्छा है, पर उन कर्मोंमें फलकी इच्छा रखना उचित नहीं; क्योंकि हीरेको कंकड़-पत्थरोंके बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सकामभावका त्याग करके शुभ-कर्म करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है। इस प्रकार सकामभावसे निष्कामभावकी ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है।इसी तरह उपासनाके विषयमें भी तत्त्वज्ञ पुरुषको बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये। जैसे, प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नाम-जप करते समय भगवान्में मन नहीं लगा तो नाम-जप करना व्यर्थ है। परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुषको ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नाम-जप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान्के प्रति कुछ-न-कुछ भाव रहनेसे ही नाम-जप होता है। भावके बिना नाम-जपमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। अतः नाम-जपका किसी भी अवस्थामें त्याग नहीं करना चाहिये। जो यह कहा गया है कि 'मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै यह तो सुमिरन नाहिं' इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगनेसे यह 'सुमिरन' (स्मरण) नहीं है, 'जप' तो है ही। हाँ, मन लगाकर ध्यानपूर्वक नाम-जप करनेसे बहुत जल्दी लाभ होता है। कोई भी मनुष्य सर्वथा गुण-रहित नहीं होता। उसमें कुछ-न-कुछ गुण रहते ही हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुषको चाहिये कि अगर किसी व्यक्तिको (उसकी उन्नतिके लिये) कोई शिक्षा देनी हो, कोई बात समझानी हो, तो उस व्यक्तिकी निन्दा या अपमान न करके उसके गुणोंकी प्रशंसा करे। गुणोंकी प्रसंशा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी, उस शिक्षाका उसपर विशेष असर पड़ेगा। समाज और परिवारके मुख्य व्यक्तियोंको भी इसी रीतिसे दूसरोंको शिक्षा देनी चाहिये। 'समाचरन्' और 'जोषयेत्' पदोंसे भगवान् विद्वान्को दो आज्ञाएँ देते हैं-- (1) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मोंको अच्छी तरह करे और (2) कर्मोंमें आसक्त अज्ञानी पुरुषोंसे भी वैसे ही कर्म करवाये। लोगोंको दिखानेके लिये कर्म करना 'दम्भ' है, जो पतन करनेवाली आसुरी-सम्पत्तिका लक्षण है (गीता 16। 4)। अतः भगवान् लोगोंको दिखानेके लिये नहीं, प्रत्युत लोकसंग्रहके लिये ही कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि कर्म करनेसे अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी वह समस्त कर्तव्य-कर्मोंको सुचारुरूसे करता रहे, जिससे कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंकी निष्काम-कर्मोंके प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत् हो और वे भी निष्कामभावसे कर्म करने लगें। तात्पर्य यह है कि उस महापुरुषके आसक्तिरहित आचरणोंको देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेकी चेष्टा करने लगेंगे।इस प्रकार ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त पुरुषोंको आदरपूर्वक समझाकर उनसेनिषिद्धकर्मोंका स्वरूपसे (सर्वथा) त्याग करवाये, और विहित-कर्मोंमेंसे सकाम-भावका त्याग करनेकी प्रेरणा करे। सम्बन्ध-- ज्ञानी और अज्ञानीमें क्या अन्तर है-- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.26।। ज्ञानी पुरुष, कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर, उनसे भी वैसा ही कराये।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.26।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।3.26।।वृत्तमनूद्योत्तरश्लोकमवतारयति एवमिति। कर्तव्यं कर्मेति शेषः। पूर्वार्धमेवं व्याख्यायोत्तरार्धं प्रश्नपूर्वकमवतार्य व्याचष्टे किंतु कुर्यादिति। सर्वकर्माणि कारयेत्तेषु प्रीतिं कुर्वन्निति शेषः। कथं कारयेदित्याकाङ्क्षायामाह तदेवेति।
Sri Vallabhacharya
।।3.26।।नन्वज्ञेषु तु सक्ततया कर्मनिष्ठेषु कृपया साङ्ख्यप्रकारभेद उपदेष्टुं युक्तो विदुषा नहिनहीत्याह न बुद्धिभेदमिति। प्रकारभेदोपदेशे तेषां बुद्धिभेद एव भवति फलादिसङ्गितया ज्ञातत्वात्। अतो जोषयेत्प्रीणयेत्सेवयेच्च स्वयं कृत्वा परिसङ्खयातात्पर्येण शनैः शनैः शिक्षयेत्। अन्यथा बुद्धिभेदः।
Sridhara Swami
।।3.26।।ननु कृपया तत्त्वज्ञानमेवोपदेष्टुं युक्तं नेत्याह नेति। अज्ञानामतएव कर्मसङिगनां कर्मासक्तानामकर्तात्मोपदेशेन बुद्धेर्भेदमन्यथात्वं न जनयेत्कर्मणः सकाशाद्बुद्धिचालनं न कुर्यादपि तु जोषयेत्सेवयेत्।जुषी प्रीतिसेवनयोः अज्ञान्कर्माणि कारयेत्। कथम्। युक्तोऽवहितो भूत्वा स्वयं च समाचरन्। बुद्धिचालने कृते सति कर्मसु श्रद्धानिवृत्तेर्ज्ञानस्य चानुत्पत्तेस्तेषामुभयभ्रंशः स्यादिति भावः।