Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 15 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् | तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ||३-१५||
Transliteration
karma brahmodbhavaṃ viddhi brahmākṣarasamudbhavam . tasmātsarvagataṃ brahma nityaṃ yajñe pratiṣṭhitam ||3-15||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
3.15 Know thou that action comes from Brahma and Brahma comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervading (Brahma) ever rests in sacrifice.
।।3.15।। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्माजी से होती है और ब्रह्माजी अक्षर तत्त्व से व्यक्त होते हैं। इसलिये सर्व व्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your career, understand that your work isn't just a personal pursuit but an integral part of a larger system. Perform your duties with integrity and dedication, aligning with ethical principles (Dharma) and contributing to the collective good. View your professional actions as a form of 'yajna' or selfless service, connecting your daily tasks to a higher purpose beyond personal gain.
🧘 For Stress & Anxiety
To alleviate stress, recognize that your actions are part of a greater cosmic order, not isolated burdens. By performing your duties with a spirit of selfless contribution (yajna) and focusing on the integrity of the action itself, rather than solely on personal outcomes, you can reduce anxiety. Trust in the unfolding of a larger plan and find peace in purposeful, aligned engagement.
❤️ In Relationships
In relationships, understand that harmonious interactions arise from adhering to principles of right conduct (Dharma) and selfless giving. Recognize that your actions towards others, performed with integrity and a spirit of contribution (yajna), strengthen the fabric of connection. Foster relationships by acting from a place of universal good and mutual support, rather than purely personal expectations or transactional motives.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“All purposeful action originates from the universal cosmic order and the Divine, achieving its true meaning and sustaining existence when performed as selfless service.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
3.15 कर्म action? ब्रह्मोद्भवम् arisen from Brahma? विद्धि know? ब्रह्म Brahma? अक्षरसमुद्भवम् arisen from the Imperishable? तस्मात् therefore? सर्वगतम् allpervading? ब्रह्म Brahma? नित्यम् ever? यज्ञे in sacrifice? प्रतिष्ठितम् (is) established.Commentary Brahma may mean Veda. Just as the breath comes out of a man? so also the Veda is the breath of the Imperishable or the Omniscient. The Veda ever rests in the sacrifice? i.e.? it deals chiefly with sacrifices and the ways of their performance. (Cf.IV.24 to 32).Karma Action? Brahmodbhavam arisen from the injunctions of the Vedas.
Shri Purohit Swami
3.15 All action originates in the Supreme Spirit, which is Imperishable, and in sacrificial action the all-pervading Spirit is consciously present.
Dr. S. Sankaranarayan
3.15. Action arises from the Brahman, you should know this; the Brhaman arises from what does not stream forth; therefore the all-pervading Brahman is permanently based on the sacrifice.
Swami Adidevananda
3.15 Know that activity springs from 'Brahman', i.e., the physical body, 'Brahman' arises from the imperishable (self); therefore the all-pervading 'Brahman' is ever established in sacrifice.
Swami Gambirananda
3.15 Know that actin has the veda as its origin; the Vedas has the Immutable as its source. Hence, the all-pervading Veda is for ever based on sacrifice.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।3.15।। विश्व में चल रहे सामूहिक यज्ञ कर्म के चक्र का वेदों की परिचित भाषा में यहाँ वर्णन किया गया है। प्राणियों की उत्पत्ति एवं पोषण का कारण अन्न है। पृथ्वी में स्थित खनिज सम्पत्ति पोषक अन्न का रूप तभी लेती है जब जल वृष्टि होती है। वर्षा के बिना न तो वनस्पति जीवन की वृद्धि होगी और न पशुओं का जीवन ही सम्भव होगा। यज्ञ के फलस्वरूप वर्षा होती है तथा यज्ञ का सम्पादन मनुष्य के कर्मों द्वारा होता है।सूक्ष्म विचार के अभाव में यह श्लोक विचित्र ही प्रतीत होता है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अन्न (पदार्थ) से प्राणियों की तथा वर्षा से पोषक अन्न की उत्पत्ति होने को तो समझ पाता है परन्तु उसे यह समझने में कठिनाई होती है कि यज्ञ से वर्षा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है।भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में हम यह मानने को बाध्य नहीं हैं कि वे अर्जुन को कर्मकाण्ड के अनुष्ठान का उपदेश दे रहे हैं। गीता में अनेक स्थानों पर वेद काल में प्रचलित और परिचित शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ भी पर्जन्य से केवल जलवृष्टि ही समझना उचित नहीं। पर्जन्य से तात्पर्य उस स्थिति से है जो पृथ्वी में स्थित तत्त्वों का भक्षण योग्य पोषक अन्न में रूपान्तर करने के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य क्षेत्र में उपभोग्य लाभ (अन्न) विद्यमान होता है जिसकी प्राप्ति तभी संभव है जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। इस प्रकार की अनुकूल परिस्थिति (पर्जन्य) का निर्माण सब लोगों के निस्वार्थ सेवाभाव से किये गये कर्मोंे (यज्ञ) से ही संभव होकर समाज के उपभोग्य वस्तुओं (अन्न) की उत्पत्ति होती है।उदाहरणार्थ नदी के व्यर्थ ही बहते हुये पानी को रोक कर बांध के निर्माण से उसका उपयोग नदी के तट की उपजाऊ किन्तु अब तक नहीं जोती गई भूमि की सिंचाई के लिये किया जा सकता है। त्याग और परिश्रम से ही बांध का निर्माण संभव होगा। उसके पूर्ण होने पर नदी के दोनों किनारों की भूमि को जोतने के लिये अनुकूल परिस्थिति बन जायेगी। सींची हुई भूमि से अन्न प्राप्त करने के लिये निरन्तर परिश्रम की आवश्यकता है जैस भूमि जोतना बीजारोपण सिंचन और रक्षण आदि।यहाँ हमें बताया गया है कि इस कर्म चक्र का सम्बन्ध परम सत्य (ब्रह्म) से किस प्रकार है और कैसे वह ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। सम्यक् कर्म का सिद्धांत (यज्ञ) तथा कर्म की क्षमता भी सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी से ही सबको प्राप्त हुई और स्वयं ब्रह्माजी अक्षरअविनाशी परम तत्त्व ब्रह्म से ही प्रगट हुये हैं। नवजात शिशु में कर्म की क्षमता है और वह क्षमता सृष्टिकर्त्ता का दिया हुआ उपहार है इसलिये सर्वगत ब्रह्म सदैव व्यक्ति के अथवा समूह के उन कर्मों में (यज्ञ) प्रतिष्ठित है जो विश्व के कल्याण के लिये सेवाभाव से किये गये हों।इस कर्मचक्र का पालन करने वाला पुरुष प्रकृति के सामंजस्य में अपना योगदान देता है। इसका उल्लंघन करने वाले के विषय में भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
3.15।। व्याख्या--'अन्नाद्भवन्ति भूतानि'--प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह 'अन्न' (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ 'अन्न' नामसे कहा गया है; जैसे--मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी सर्प चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि)--ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।'पर्जन्यादन्नसम्भवः'--समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकीसभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।'यज्ञाद्भवति पर्जन्यः'--'यज्ञ' शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ 'यज्ञ' शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख-भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है। अतः 'यज्ञ' शब्द यज्ञ (हवन), दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।बृहदारण्यकउपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता मनुष्य और असुर--इन तीनोंको रचकर उन्हें 'द' इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दमन करो' समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दान करो' समझा। असुरोंमें हिंसा-(दूसरोंको कष्ट देने-) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दया करो' समझा। इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर--तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेमें ही है। वर्षाके समय मेघ जोद 'द द' की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो) के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 13)।अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी? वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है--'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'(गीता 3। 21)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा, जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पलन करेंगे, वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसान-बालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है; वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें? और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ? ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। 'यज्ञः कर्मसमुद्भवः'--निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम यज्ञ है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना 'यज्ञ' है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना 'यज्ञ' है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही 'यज्ञ' है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) 'यज्ञ' मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकीमर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म 'यज्ञ'-रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है।संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना, ममता आसक्ति पक्षपात विषमता स्वार्थ अभिमान आदि--ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकालदेनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही 'यज्ञ' कहलाते हैं।'कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि'--वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है। 'वेद' शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण महाभारत) एवं भिन्नभिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभववचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्शास्त्रोंको ग्रहण कर लेना चाहिये।'ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्'--यहाँ 'ब्रह्म' पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य-पालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है।'तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्'--यहाँ ब्रह्म पद अक्षर-(सगुण-निराकार परमात्मा-) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं।सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे 'यज्ञ' (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं--'स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः' (गीता 18। 46)। शङ्का--परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं? समाधान-- परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ 'सर्वगत' कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जमीनमें सर्वत��र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है, सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं।अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालनकरनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं। सम्बन्ध--सृष्टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।3.15।। कर्म की उत्पत्ति ब्रह्माजी से होती है और ब्रह्माजी अक्षर तत्त्व से व्यक्त होते हैं। इसलिये सर्व व्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।3.15।।कर्म ब्रह्मणो जायते एष ह्येव (एनं) साधु कर्म कारयति कौ.उ.3।9बुद्धिर्ज्ञानम् 10।4 इत्यादिभ्यः। न च मुख्ये सम्भाव्यमाने पारम्पर्येणौपचारिकं कल्प्यम्। न च जडानां स्वतः प्रवृत्तिः सम्भवति एतस्य वा अक्षरस्य बृ.उ.3।8।9 इति सर्वनियमनश्रुतेश्चद्रव्यं कर्म च कालश्च इत्यादेश्च। अचिन्त्यशक्तिश्चोक्ता। जीवस्य च प्रतिबिम्बस्य बिम्बपूर्वैव चेष्टान कर्तृत्वम् 5।14 इत्यादिनिषेधाच्च। अक्षराणि प्रसिद्धानि तेभ्यो ह्यभिव्यज्यते परं ब्रह्म। अन्यथाऽनादिनिधनमचिन्त्यं परिपूर्णमपि ब्रह्म को जानाति। न च रूढिं विना योगाङ्गीकारो युक्तः परामर्शाच्च तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मेति।न ह्येकशब्देन द्विरुक्तेन भेदश्रुतिं विना वस्तुद्वयं कुत्रचिदुच्यते। तानि चाक्षराणि नित्यानि वाचा विरूपनित्यया। वृष्णे चोदस्व सुष्टुतिम् ऋक्सं.6।5।25तै.सं.5।6।11अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा म.भा.12।232।24अत एव च नित्यत्वम् ब्र.सू.1।3।29 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभगवद्वचनेभ्यः। दोषश्चोक्तः सकंर्तृत्वे। मा.भा.2।13 न चाबुद्धिपूर्वमुत्पन्नानि तत्प्रमाणाभावात्। निश्श्वसितशब्दस्त्वक्लेशाभिप्रायः नाबुद्धिपूर्वाभिप्रायः। सोऽकामयत बृ.उ.1।2।45 इत्यादेश्चइष्टं हुतं इत्यादिरूपप्रपञ्चेन सहाभिधानाच्च महातात्पर्यविरोधाच्च तच्चोक्तं पुरस्तात्।न ह्यस्वातन्त्र्येण चोत्पत्तिकर्तुः प्राधान्यम्। अस्वातन्त्र्यं च तदमतिपूर्वकत्वेन भवति यथा रोगादीनां पुरुषस्य तज्जत्वेऽपि। उत्पत्तिवचनान्यभिव्यक्त्यर्थानि अभिमानिदेवताविषयाणि चनित्या उत्सृष्टा इति वचनात्।अभिव्यञ्जके कर्तृवचनं चास्तिकृत्स्नं शतपथं चक्रे इति। कथमादित्यस्था वेदास्तेनैव क्रियन्ते वचनमात्राच्च निर्णयात्मकशारीरकोक्तं बलवत् शास्त्रं योनिर्यस्य तत् शास्त्रयोनित्वम्।जन्माद्यस्य ब्रू.सू.1।1।2 इत्युक्ते प्रमाणं हि तत्रापेक्षितम् न तु तस्य जातत्वं वेदकारणत्वं वा न हि वेदकारणत्वं जगत्कारणत्व हेतुः। न हि विचित्रजगत्सृष्टेर्वेदसृष्टिरशक्या सृज्यत्वे। न च सर्वज्ञत्वे। यदि वेदस्रष्टा सर्वज्ञः किमिति न जगत्स्रष्टा सर्वज्ञः तस्माद्वेदप्रमामकत्वमेवात्र विवक्षितम् अतो नित्यान्यक्षराणि। यत एवं परम्परया यज्ञाभिव्यङ्ग्यं ब्रह्म तस्मात्तन्नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।
Sri Anandgiri
।।3.15।।यदपूर्वहेतुत्वेन कर्मोक्तं तत्किं चैत्यवन्दनादि किं वाग्निहोत्रादीति संदिहानं प्रत्याह कर्मेति। किमिति कर्मणो ब्रह्मोद्भवत्वमुच्यते सर्वस्य तदुद्भवत्वाविशेषादित्याशङ्क्याह ब्रह्म वेद इति। ब्रह्म तर्हि वेदाख्यमनादिनिधनमिति तत्राह ब्रह्म पुनरिति। अक्षरात्मनो वेदस्य पुनरक्षरेभ्यः सकाशादेव समुद्भवो न संभवतीत्याशङ्क्याह अक्षरमिति। ब्रह्मेत्यक्षरमेवोक्तं तत्कथं तस्मादेवोद्भवतीत्याशङ्क्य ब्रह्मशब्दार्थमुक्तमेव स्मारयति ब्रह्म वेद इति। ननु ब्रह्मशब्दितस्य वेदस्यापि पौरुषेयत्वात्प्रामाण्यसंदेहात्कथं त्वदुक्तमग्निहोत्रादिकं कर्म निर्धारयितुं शक्यते तत्राह यस्मादिति। कथं तर्हि तस्य यज्ञे प्रतिष्ठितत्वं सर्वगतत्वे विशेषायोगादित्याशङ्क्याह सर्वगतमपीति।
Sri Vallabhacharya
।।3.15।।कर्म ब्रह्मोद्भवमिति। ब्रह्म वेदः प्रजापतिर्वा तस्यापि ब्रह्मतया निरूपणं ब्रह्मवादानुरोधात्। तदक्षरसमुद्भवं कूटस्थं प्रणवसम्भूतम्। यद्वा पुरुषोद्भूतम् ब्रह्मणः सर्वगतत्वात् सर्वं ब्रह्म इति वेदे निरूपणात्। ब्रह्मवाद एवाभिमत इत्याह। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितमिति। पुरुष एवेदं सर्वं ऋक्सं.6।4।17।2य.सं.31।2 यज्ञो वै विष्णुः तै.सं.1।7।4 इति पुरुषावयवेषु यज्ञसम्भारकल्पनात्। ब्रह्मणोऽभिन्नो यज्ञः पूर्वं प्रजापतिना कृत्वोपदिष्ट इति यज्ञे ब्रह्म प्रतिष्ठितम्। एतच्च निबन्धे सुबोधिन्यां च विस्तृतम्।
Sridhara Swami
।।3.15।। तथा कर्मब्रह्मोद्भवमिति। तच्च यजमानादिव्यापाररुपं कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्म वेदस्तस्मात्प्रवृत्तं जानीहि। तच्च ब्रह्म वेदाख्यमक्षरात्परब्रह्मणः समुद्भूतं विद्धि।अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः इति श्रुतेः। यत एवमक्षरादेव यज्ञप्रवृत्तेरत्यन्तं तस्याभिप्रेतो यज्ञः तस्मात्सर्वगतमप्यक्षरं ब्रह्म नित्यं सर्वदा यज्ञे प्रतिष्ठितम्। यज्ञेनोपायभूतेन प्राप्यत इति यज्ञे प्रतिष्ठितमुच्यते। उद्यमस्था सदा लक्ष्मीरितिवत्। यद्वा यस्माज्जगच्चक्रमूलं कर्मं तस्मात्सर्वगतं मन्त्रार्थवादैः सर्वेषु सिद्धार्थप्रतिपादकेषु भूतार्थाख्यानादिषु गतं स्थितमपि वेदाख्यं ब्रह्म सर्वदा यज्ञे च तात्पर्यरुपेण प्रतिष्ठितम्। अतो यज्ञादि कर्म कर्तव्यमित्यर्थः।