Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 14 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Interconnectedness

Sanskrit Shloka (Original)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः | यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ||३-१४||

Transliteration

annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ . yajñādbhavati parjanyo yajñaḥ karmasamudbhavaḥ ||3-14||

Word-by-Word Meaning

अन्नात्from food
भवन्तिcome forth
भूतानिbeings
पर्जन्यात्from rain
अन्नसम्भवःproduction of food
यज्ञात्from sacrifice
भवतिarises
पर्जन्यःrain
यज्ञःsacrifice

📖 Translation

English

3.14 From food come forth beings; from rain food is produced; from sacrifice arises rain and sacrifice is born of action.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।3.14।। समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से। पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Recognize your role as a vital link in a larger system. Perform your tasks with a sense of duty and contribution, understanding that the quality of your work (action) impacts the entire organization and its stakeholders (beings). Focus on collaborative efforts and the long-term, systemic impact of your professional actions, rather than just immediate personal gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Alleviate stress by understanding that your individual efforts contribute to a larger, meaningful cycle. By focusing on performing your actions/duties responsibly without excessive attachment to specific outcomes, you can reduce anxiety. Embracing your role in the interconnected web can provide a sense of purpose, reducing feelings of insignificance or isolation.

❤️ In Relationships

Understand that healthy relationships are sustained by consistent, purposeful actions and mutual contribution (sacrifice). Recognize that your positive actions (like kindness, support, empathy) are the 'rain' that nourishes the 'food' of the relationship, allowing all 'beings' (individuals involved) to thrive. This fosters a sense of responsibility and selfless giving.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Every action, when performed with awareness of its interconnectedness and as a selfless contribution, fuels the cosmic cycle and sustains all life.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

3.14 अन्नात् from food? भवन्ति come forth? भूतानि beings? पर्जन्यात् from rain? अन्नसम्भवः production of food? यज्ञात् from sacrifice? भवति arises? पर्जन्यः rain? यज्ञः sacrifice? कर्मसमुद्भवः born of action.Commentary Here Yajna means Apurva or the subtle principle or the unseen form which a sacrifice assumes between the time of its performance and the time when its fruits manifest themselves.

Shri Purohit Swami

3.14 All creatures are the product of food, food is the product of rain, rain comes by sacrifice, and sacrifice is the noblest form of action.

Dr. S. Sankaranarayan

3.14. From food arise the things that are born; from the rain-cloud the food arises; from the sacrifice the rain-cloud arises; the sacrifices arises from action;

Swami Adidevananda

3.14 From food arise all beings (i.e., their bodies); from rain food is produced; from sacrifice comes rain; and sacrifice springs from activity.

Swami Gambirananda

3.14 From food are born the creatures; the origin of food is from rainfall; rainfall originates from sacrifice; sacrifice has action as its origin.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।3.14।। No commentary.

Swami Ramsukhdas

3.14।। व्याख्या--'अन्नाद्भवन्ति भूतानि'--प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह 'अन्न'(टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ 'अन्न' नामसे कहा गया है; जैसे--मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी, सर्प, चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि)--ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)।'पर्जन्यादन्नसम्भवः'--समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकी सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।'यज्ञाद्भवति पर्जन्यः'--'यज्ञ' शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ 'यज्ञ' शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख-भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है। अतः 'यज्ञ' शब्द यज्ञ (हवन), दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।बृहदारण्यक-उपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर--इन तीनोंको रचकर उन्हें 'द' इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दमन करो' समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दान करो' समझा। असुरोंमें हिंसा-(दूसरोंको कष्ट देने-) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दया करो' समझा। इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर--तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेमें ही है। वर्षाके समय मेघ जोद 'द द' की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो) के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 13)।अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी? वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है--'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः' (गीता 3। 21)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा, जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पलन करेंगे, वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसान-बालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है; वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें?ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें? और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ?ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। 'यज्ञः कर्मसमुद्भवः'--निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम 'यज्ञ' है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना 'यज्ञ' है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना 'यज्ञ' है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही यज्ञ है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) 'यज्ञ' मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकीमर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म 'यज्ञ' रूप हो���े हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है।संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि--ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकालदेनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही 'यज्ञ' कहलाते हैं।'कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि'--वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है। 'वेद' शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभव-वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्-शास्र को ग्रहण कर लेना चाहिये।'ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्'--यहाँ 'ब्रह्म' पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य-पालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है, और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है।'तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्'--यहाँ ब्रह्म पद अक्षर-(सगुण-निराकार परमात्मा-) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं।सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे 'यज्ञ' (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं-- 'स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः' (गीता 18। 46)। 'शङ्का'--परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं?  समाधान--परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ 'सर्वगत' कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है; सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं।अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालनकरनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं। सम्बन्ध--सृष्टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।3.14।। समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से। पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।3.14।।हेत्वन्तरमाह अन्नादिति। यज्ञः पर्जन्यत्वात्तत्कारणमुच्यते। पूर्वयज्ञविवक्षायां तस्य चक्रप्रवेशो न भवति तद्व्यापाद्यं कर्मविधये। न तु साम्यमात्रेणेदानीं कार्यम्। मेघचक्राभिमानी पर्जन्यः। तच्च यज्ञाद्भवति।अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठति। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः 3।76 इति (मनु) स्मृतेश्च। उभयवचनाच्चादित्यात्समुद्राच्चाविरोधः। अतश्च यज्ञात्पर्जन्योद्भवः सम्भवति। यज्ञो देवतामुद्दिश्य द्रव्यपरित्यागः। कर्म इतरक्रिया।

Sri Anandgiri

।।3.14।।देवयज्ञादिकं कर्माधिकृतेन कर्तव्यमित्यत्र हेत्वन्तरमितःशब्दोपात्तमेव दर्शयति जगदिति। ननु भुक्तमन्नं रेतोलोहितपरिणतिक्रमेण प्रजारूपेण जायते तच्चान्नं वृष्टिसंभवं प्रत्यक्षदृष्टं तत्कथं कर्मणो जगच्चक्रप्रवर्तकत्वमिति शङ्कते कथमिति। पारंपर्येण कर्मणस्तद्धेतुत्वं साधयति उच्यत इति। उक्तेऽर्थे स्मृत्यन्तरं संवादयति अग्नाविति। तत्र हि देवताभिध्यानपूर्वकं तदुद्देशेन प्रहिताहुतिरपूर्वतां गता रश्मिद्वारेणादित्यमारुह्य वृष्ट्यात्मना पृथिवीं प्राप्य व्रीहियवाद्यन्नभावमापद्य संस्कृतोपभुक्ता शुक्रशोणितरूपेण परिणता प्रजाभावं प्राप्नोतीत्यर्थः। यज्ञः कर्मसमुद्भव इत्ययुक्तं स्वस्यैव स्वोद्भवे कारणत्वायोगादित्याशङ्क्याह ऋत्विगिति। द्रव्यदेवतयोः संग्राहकश्चकारः।

Sri Vallabhacharya

।।3.14।।उत्पत्तिशिष्टत्वेन तत्रापि तदावश्यकतां दर्शयति द्वाभ्यां अन्नादिति।

Sridhara Swami

।।3.14।। जगच्चक्रप्रवृत्तिहेतुत्वादपि कर्म कर्तव्यमित्याह अन्नादिति त्रिभिः। अन्नाच्छुकशोणितरुपेण परिणताद्भूतान्युत्पद्यन्ते। अन्नस्य च संभवः पर्जन्यादृष्टेः। स च पर्जन्यो यज्ञाद्भवति। स च यज्ञः कर्मसमुद्भवः। कर्मणा यजमानादिव्यापारेण सम्यङ्निष्पद्यत इत्यर्थः।अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः इति स्मृतेः।

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