Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 22 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२-२२||
Transliteration
vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛhṇāti naro.aparāṇi . tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāni anyāni saṃyāti navāni dehī ||2-22||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
2.22 Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others which are new.
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In the professional realm, this verse encourages a perspective beyond the transient nature of a specific job, role, or even an entire career path. Just as bodies are changed, career trajectories can evolve. It fosters resilience in the face of job loss or career changes, promoting the understanding that one's essential worth or 'Self' is not tied to a particular professional identity or external achievements. It can inspire focusing on the deeper purpose and values one brings to work, rather than getting overly attached to the 'form' of the job itself.
🧘 For Stress & Anxiety
For stress and mental health, this verse offers immense relief by decoupling identity from the perishable body. Fear of aging, illness, and death, which are major sources of stress and anxiety, can be mitigated by understanding the eternal nature of the Self. Physical setbacks, illnesses, or the natural decay of the body become less terrifying when viewed as the 'shedding of worn-out clothes,' rather than the end of existence. It promotes acceptance of the impermanence of physical conditions and fosters a more detached yet compassionate outlook towards one's own physical form and its limitations.
❤️ In Relationships
In relationships, this verse provides a profound framework for understanding loss and connection. While the physical presence of loved ones is temporary, the essence of the connection and the love shared is viewed as transcending the physical form. It helps in coping with grief by recognizing that the 'Self' of a departed loved one continues, even if their physical 'body-garment' has been cast off. It encourages valuing the spiritual and emotional connection over superficial physical attributes, fostering deeper empathy and a sense of shared, eternal consciousness amongst all beings.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The true Self is eternal and transcends the temporary nature of the body, which is merely a garment to be shed and renewed.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
2.22 वासांसि clothes? जीर्णानि worn out? यथा as? विहाय having cast away? नवानि new? गृह्णाति takes? नरः man? अपराणि others? तथा so? शरीराणि bodies? विहाय having cast away? जीर्णानि wornout? अन्यानि others? संयाति enters? नवानि new? देही the embodied (one).No commentary.
Shri Purohit Swami
2.22 As a man discards his threadbare robes and puts on new, so the Spirit throws off Its worn-out bodies and takes fresh ones.
Dr. S. Sankaranarayan
2.22. Just as rejecting the tattered garments, a man takes other new ones, in the same way, rejecting the decayed bodies, the embodied (Self) rightly proceeds to other new ones.
Swami Adidevananda
2.22 As a man casts off worn-out garments and puts on others that are new, so does the embodied self cast off Its worn-out bodies and enter into others that are new.
Swami Gambirananda
2.22 As after rejecting wornout clothes a man takes up other new ones, likewise after rejecting wornout bodies the embodied one unites with other new ones.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।2.22।। गीता के प्राय उद्धृत किये जाने वाले अनेक प्रसिद्ध श्लोकों में यह एक श्लोक है जिसमें एक अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार जीवात्मा एक देह को छोड़कर अन्य देह के साथ तादात्म्य करके नई परिस्थितियों में नए अनुभव प्राप्त करता है। व्यास जी द्वारा प्रयुक्त यह दृष्टान्त अत्यन्त सुपरिचित है।जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति रात्रिपरिधान (नाईट गाउन) पहने अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है। यही बात मृत्यु के विषय में भी है।यह दृष्टांत इतना सरल और बुद्धिग्राह्य है कि इसके द्वारा न केवल अर्जुन वरन् दीर्घ कालावधि के पश्चात भी गीता का कोई भी अध्येता या श्रोता देह त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है।अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है। शरीर के इस जीर्णत्व का निश्चय इसको धारण करने वाला ही कर सकता है क्योंकि जीर्णत्व का सम्बन्ध न धारणकर्त्ता की आयु से है और न उसकी शारीरिक अवस्था से है।जीर्ण शब्द के तात्पर्य को न समझकर अनेक आलोचक इस श्लोक का विरोध करते हैं। उनकी मुख्य युक्ति यह है कि जगत् में अनेक बालक और युवक मरते देखे जाते हैं जिनका शरीर जीर्ण नहीं था। शारीरिक दृष्टि से यह कथन सही होने पर भी जीव की विकास की दृष्टि से देखें तो यदि जीव के लिये वह शरीर अनुपयोगी हुआ तो उस शरीर को जीर्ण ही माना जायेगा। कोई धनी व्यक्ति प्रतिवर्ष अपना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही घर नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है।यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है जिसकी विवेचना हम 12वें श्लोक में पहले ही कर चुके हैं।इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता और न ही एक वस्त्र के त्याग के बाद हम सदैव विवस्त्र अवस्था में ही रहते हैं। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।आत्मा अविकारी अपरिवर्तनशील क्यों है भगवान् कहते हैं
Swami Ramsukhdas
2.22।। व्याख्या-- 'वासांसि जीर्णानि ৷৷. संयाति नवानि देही'-- इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये। कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें 'नरः' पद दिया है। यह 'नरः' पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको 'मरना' कह देते हैं, और नया शरीर धारण करनेको 'जन्मना' कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नये-नये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है। यहाँ 'शरीराणि' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता, तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर 'शरीराणि' पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'देही' पद आया है। यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है (टिप्पणी प0 62) । शरीर चाहे बच्चोंका हो, चाहे जवानोंका हो, चाहे वृद्धोंका हो, आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे। इस श्लोकमें भगवान्ने 'यथा' और 'तथा' पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपने-आप होती है (2। 13) यहाँ तो 'यथा' (जैसे) और 'तथा' (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है, पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्का तात्पर्य स्वतन्त्रता-परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं हैं, प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपडे धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्यों-का-त्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है; अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है। दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता है, पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे? इसका समाधान .यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। 'मैं जीता रहूँ'--ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है, तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, उसको मरनेमें दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनन्द होता है! जैसे, मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय, तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे, नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ 'यथा' और 'तथा' पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है। यहाँ भगवान्ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो 'गृह्णाति' (धारण करता है) क्रिया दी, पर शरीरोंके धारण करनेमें संयाति (जाता है) क्रिया दी, ऐसा क्रियाभेद भगवान्ने क्यों किया? लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उन-उन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान्ने क्रियाभेद किया है। 'विशेष बात' गीतामें 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17), 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुः' (2। 24) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा 'संयाति नवानि देही' (2। 22) 'शरीरं यदवाप्नोति' (15। 8) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देशमें न हो, उस देशमें चला जाय, तो इसको 'जाना' कहते हैं; और जो दूसरे देशमें है, वह इस देशमें आ जाय, तो इसको 'आना' कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं! इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि 'मैं जवान हो गया हूँ'। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था, युवावस्थामें भी वह था ,युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तवमें शरीरका धर्म है, पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आना-जाना नहीं होता केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है। अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्म-मरण होता है, ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्म-मरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्की विमुखताके कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान्ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है, उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे (टिप्पणी प0 63) जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। भगवान्से विमुख होनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः भगवान्के सम्मुख होनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। सम्बन्ध-- पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।2.22।।देहात्मविवेकानुभवार्थं दृष्टान्तमाह वासांसीति।
Sri Anandgiri
।।2.22।।आत्मनोऽविक्रियत्वेन कर्मासंभवं प्रतिपाद्याविक्रियत्वहेतुसमर्थनार्थमेवोत्तरग्रन्थमवतारयति प्रकृतं त्विति। किं तत्प्रकृतमिति शङ्कमानं प्रत्याह तत्रेति। अविनाशित्वमित्युपलक्षणमविक्रियत्वमित्यर्थः। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयितुमुत्तरश्लोकमुत्थापयति तदित्यादिना। आत्मनः स्वतो विक्रियाभावेऽपि पुरातनदेहत्यागे नूतनदेहोपादाने च विक्रियावत्त्वध्रौव्यादविक्रियत्वमसिद्धमिति चेत्तत्राह वासांसीति। शरीराणि जीर्णानि वयोहानिं गतानि वलीपलितादिसंगतानीत्यर्थः। वाससां पुरातनानां परित्यागे नवानां चोपादाने त्यागोपादानकर्तृभूतलौकिकपुरुषस्याप्यविकारित्वेनैकरूपत्ववदात्मनो देहत्यागोपादानयोरविरुद्धमविक्रियत्वमिति वाक्यार्थमाह पुरुषवदिति।
Sri Vallabhacharya
।।2.22।।नन्वात्मनोऽविनाशेऽपि तदीयभोगसाधनदेहानां विनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। यथेति दृष्टान्तः। नरो जीर्णानि वासांसि विहायापराणि नवानि गृह्णाति तथा देही जीव आत्मा जीर्णानि शरीराणि त्यक्त्वाऽन्यानि नवानि प्राप्नोति। कर्मनिबन्धनानां नूतनानां देहानामवश्यम्भावात् न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इति भावः।
Sridhara Swami
।।2.22।। नन्वात्मनोऽविनाशित्वेऽपि तदीयशरीरनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। कर्मनिबन्धनभूतानां देहानामवश्यंभावित्वान्न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इत्यर्थः।