Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 21 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Immortality of the Soul

Sanskrit Shloka (Original)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् | कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ||२-२१||

Transliteration

vedāvināśinaṃ nityaṃ ya enamajamavyayam . kathaṃ sa puruṣaḥ pārtha kaṃ ghātayati hanti kam ||2-21||

Word-by-Word Meaning

वेदknows
अविनाशिनम्indestructible
नित्यम्eternal
यःwho
एनम्this (Self)
अजम्unborn
अव्ययम्inexhaustible
कथम्how
सःhe (that)
पुरुषःman
पार्थO Partha (son of Pritha)
कम्whom
घातयतिcauses to be slain
हन्तिkills

📖 Translation

English

2.21 Whosoever knows It to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain?

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।2.21।। हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी,  नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है,  वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In professional pursuits, understanding the eternal nature of the Self helps us detach from the transient successes and failures of projects or roles. It fosters resilience, reduces fear of obsolescence, and promotes a focus on contribution and growth rather than egoic attachment to outcomes, knowing that our true essence remains untouched by external circumstances. It encourages a deeper sense of purpose beyond material gains.

🧘 For Stress & Anxiety

This verse offers profound relief from stress and anxiety by reminding us that our true 'Self' is beyond the perishable body and fleeting mental states. Fear of loss, failure, or even death diminishes when we realize the core of our being is indestructible. Cultivating this awareness brings inner peace and mental fortitude, helping us navigate life's inevitable changes with greater equanimity, knowing that one's true identity is secure.

❤️ In Relationships

In relationships, recognizing the eternal Self in ourselves and others allows for deeper, unconditional connection. It reduces the pain of separation or loss, as we understand that the essence of a loved one is not annihilated but merely changes form. It fosters forgiveness and empathy by seeing beyond temporary personalities and actions to the unchanging spirit within, promoting understanding and compassion.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Your true Self is eternal, indestructible, and unborn; therefore, no ultimate harm can be inflicted upon it, nor can you truly inflict ultimate harm upon another's essence. This profound understanding liberates from the illusion of ultimate loss and the burden of egoic doership.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

2.21 वेद knows? अविनाशिनम् indestructible? नित्यम् eternal? यः who? एनम् this (Self)? अजम् unborn? अव्ययम् inexhaustible? कथम् how? सः he (that)? पुरुषः man? पार्थ O Partha (son of Pritha)? कम् whom? घातयति causes to be slain? हन्ति kills? कम् whom.Commentary The enlightened sage who knows the immutable and indestructible Self through direct cognition or spiritual Anubhava (experience) cannot do the act of slaying. He cannot cause another to slay also.

Shri Purohit Swami

2.21 He who knows the Spirit as Indestructible, Immortal, Unborn, Always-the-Same, how should he kill or cause to be killed?

Dr. S. Sankaranarayan

2.21. Whosever realises This to be changeless, destructionless, unborn and immutable, how can that person be slain; how can he either slay [any one] ? O son of Prtha !

Swami Adidevananda

2.21 He who knows this (self) to be indestructible, unborn, unchanging and hence eternal - how and whom, O Arjuna, does he cause to be killed, and whom he kill?

Swami Gambirananda

2.21 O Partha, he who knows this One as indestructible, eternal, birthless and undecaying, how and whom does that person kill, or whom does he cause to be killed! [This is not a estion but only an emphatic denial.-Tr.]

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।2.21।। आत्मा की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती परन्तु उसका संकेत नित्य अविनाशी आदि शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। यहाँ इस श्लोक में प्रश्नार्थक वाक्य के द्वारा पूर्व श्लोकों में प्रतिपादित सिद्धान्त की ही पुष्टि करते हैं कि जो पुरुष अविनाशी आत्मा को जानता है वह कभी जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में शोकाकुल नहीं होता।आत्मा के अव्ययअविनाशी अजन्मा और शाश्वत स्वरूप को जान लेने पर कौन पुरुष स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप कर लेगा भगवान् कहते हैं कि ऐसा पुरुष न किसी को मारता है और न किसी के मरने का कारण बनता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस वाक्य का सम्बन्ध स्वयं भगवान् तथा अर्जुन दोनों से ही है। यदि अर्जुन इस तथ्य को स्वयं समझ लेता है तो उसे स्वयं को अजन्मा आत्मा का हत्यारा मानने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है।किस प्रकार आत्मा अविनाशी है अगले श्लोक में एक दृष्टांत के द्वारा इसे स्पष्ट करते हैं

Swami Ramsukhdas

2.21।। व्याख्या-- वेदाविनाशिनम् ৷৷. घातयति हन्ति कम्-- इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता   इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है। यहाँ भगवान्ने शरीरीको अविनाशी नित्य अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है जैसे  अविनाशी  कहकर मृत्युरूप विकारका  नित्य  कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका  अज  कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका तथा  अव्यय  कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता। अगर भगवान्को  न हन्यते हन्यमाने शरीरे  और  कं घातयति हन्ति कम्  इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था तो फिर यहाँ करनेनकरनेकी बात न कहकर मरनेमारनेकी बात क्यों कही इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसङ्ग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता क्योंकि इसमेंकर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरनेमारनेमें शोक नहीं करना चाहिये प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्मका पालन करना चाहिये। सम्बन्ध --पूर्वश्लोकोंमें देहीकी निर्विकारताका जो वर्णन हुआ है आगेके श्लोकमें उसीका दृष्टान्तरूपसे वर्णन करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।2.21।। हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी,  नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है,  वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।2.21।।अतो य एवं वेद स कथं घातयति हन्ति वा अविनाशिनं नैमित्तिकविनाशरहितम्। नित्यं स्वाभाविकनाशरहितम्। अथवाऽविनाशिनं दोषयोगरहितम्। नित्यं सदाभाविनमिति सर्वत्र विवेकः दोषयुक्तपुरुषादिषु नष्टशब्दप्रयोगात्।

Sri Anandgiri

।।2.21।।पूर्वश्लोकार्थस्यैवोत्तरत्रापि प्रतिभानात् पौनरुक्त्यमाशङक्य वृत्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकमवतारयति  य एनमित्यादिना।  कर्तृत्वाद्यभिमानविरोधादद्वैतकूटस्थात्मनिश्चयसामर्थ्यात्प्राप्तं विदुषः संन्यासं विद्यापरिपाकार्थमभ्यनुजानाति  वेदेति।  पदद्वयस्य पूर्वमेव पौनरुक्त्यपरिहारेऽपि प्रकारान्तरेणापौनरुक्त्यमाह  अविनाशिनमित्यादिना।  प्रश्नेऽपि संभवति किमिति नञुल्लेखेन व्याख्यायते तत्राह  उभयत्रेति।  उत्तरत्र प्रतिवचनादर्शनान्नात्र प्रश्नः संभवतीत्यर्थः। विवक्षितं प्रकरणार्थं निगमयति  हेत्वर्थस्येति।  अविक्रियत्वं हेत्वर्थस्तस्य विदुषः सर्वकर्मनिषेधे समानत्वादिति यावत्। यदि विदुषः सर्वकर्मनिषेधोऽभिमतस्तर्हि किमिति हन्त्यर्थ एवाक्षिप्यते तत्राह  हन्तेरिति।  उक्तं हेतुमाक्षेप्तुं पृच्छति  विदुष इति।  अभिप्रायमप्रतिपद्यमानो हेतुविशेषं पूर्वोक्तं स्मारयति  नन्विति।  उक्तमङ्गीकृत्याक्षिपति  सत्यमिति।  विदुषो विज्ञानात्मनो ब्रह्मणश्च वेद्यस्य विरुद्धधर्मत्वेन दहनतुहिनवद्भिन्नत्वाद्विदुषः सर्वकर्मत्यागेनासौ कारणविशेषः स्यादित्याह  अन्यत्वादिति।  अविक्रियत्वादिति च्छेदः। तथापि कूटस्थमविक्रियं ब्रह्म प्रतिपद्यमानस्य कुतो विक्रिया संभवेद्ब्रह्मप्रतिपत्तिविरोधादित्याशङ्क्याह  नहीति। अयमात्मा ब्रह्म इत्यादिश्रुत्या समाधत्ते  न विदुष   इति।  किञ्च विद्वत्ता विशिष्टस्य वा केवलस्य वा। नाद्यः। विशिष्टस्य विद्वत्तायां विशेषणस्यापि तत्प्रसङ्गान्न च विशेषणीभूतसंघातस्याचेतनत्वाद्विद्वत्ता युक्तेत्याह  न देहादीति।  द्वितीये तु जीवब्रह्मविभागासिद्धिरित्याह  असंहत इति।  किञ्च प्रामाणिकविरुद्धधर्मवत्त्वस्यासिद्धत्वात्प्रातिभासिकस्य च बिम्बप्रतिबिम्बयोरनैकान्त्याद्भेदानुमानायोगाज्जीवब्रह्मणोरभेदसिद्धिरित्यभिप्रेत्य फलितमाह  इति तस्येति।  नन्वविक्रियस्य ब्रह्मस्वरूपतया सर्वकर्मासंभवे विदुषो विद्वत्तापि कथं संभवति नहि ब्रह्मणोऽविक्रियस्य विद्यालक्षणा विक्रिया स्वक्रिया भवितुमर्हति तत्राह  यथेति।  अदृष्टेन्द्रियादिसहकृतमन्तःकरणं प्रदीपप्रभावद्विषयपर्यन्तं परिणतं बुद्धिवृत्तिरुच्यते। तत्र प्रतिबिम्बितं चैतन्यमभिव्यञ्जकबुद्धिवृत्त्यविवेकाद्विषयज्ञानमिति व्यवह्रियते। तेनात्मोपलब्धा कल्प्यते। तच्चाविद्याप्रयुक्तमिथ्यासंबन्धनिबन्धनं तथैवाध्यासिकसंबन्धेन ब्रह्मात्मैक्याभिव्यञ्जकवाक्योत्थबुद्धिवृत्तिद्वारा विद्वानात्मा व्यपदिश्यते नच मिथ्यासंबन्धेन पारमार्थिकाविक्रियत्वविहतिरस्तीत्यर्थः। अहं ब्रह्मेति बुद्धिवृत्तेर्मोक्षावस्थायामपि भावादात्मनः सविशेषत्वमाशङ्क्य तस्या यावदुपाधिसत्त्वमेवेत्याह  असत्येति।  ननु कूटस्थस्यात्मनो मिथ्याविद्यावत्त्वेऽपि तस्य कर्माधिकारनिवृत्तौ कस्य कर्माणि विधीयन्ते नहि निरधिकाराणां तेषां विधिरित्याशङ्क्याह  विदुष इति।  कर्माण्यविदुषो विहितानीति विशेषमाक्षिपति  नन्विति।  कर्मविधानमविदुषो विदुषश्च विद्याविधानमिति विभागे का हानिरित्याशङ्क्याह  विदितेति।  विद्याया विदितत्वं लब्धत्वम्। कर्मविधिरविदुषो विदुषो विद्याविधिरिति विभागासंभवे फलितमाह  तत्रेति।  धर्मज्ञानानन्तरमनुष्ठेयस्य भावात् ब्रह्मज्ञानोत्तरकालं च तदभावाद् ब्रह्मज्ञानहीनस्यैव कर्मविधिरिति समाधत्ते  नानुष्ठेयस्येति।  विशेषोपपत्तिमेव प्रपञ्चयति  अग्निहोत्रादीति।  ननु देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानं विना पारलौकिकेषु कर्मसु प्रवृत्तेरनुपपत्तेस्तथाविधज्ञानवता कर्मानुष्ठेयमिति चेत्तत्राह  कर्ताहमिति।  आत्मनि कर्ता भोक्तेत्येवं विज्ञानवत्त्वेऽपि ब्रह्मज्ञानविहीनत्वेनाविदुषोऽनुष्ठेयं कर्मेत्यर्थः। देहादिव्यतिरेकज्ञानवद्ब्रह्मज्ञानमपि ज्ञानत्वाविशेषात् कर्मप्रवृत्तावुपकरिष्यतीत्याशङ्क्याह  नत्विति।  अनुष्ठेयविरोधित्वादविक्रियात्मज्ञानस्येति शेषः। ननु ब्रह्मात्मैकत्वज्ञानादुत्तरकालमपि कर्ताहमित्यादिज्ञानोत्पत्तौ कर्मविधिः सावकाशः स्यादिति नेत्याह  नाहमिति।  कारणाभावादिति शेषः। कर्तृत्वादिज्ञानमन्यदित्युक्तम्। अनुष्ठानाननुष्ठानयोरुक्तविशेषादविदुषोऽनुष्ठानं विदुषो नेत्युपसंहरति  इत्येष इति।  नन्वात्मविदो न चेदनुष्ठेयं किंचिदस्ति कथं तर्हि विद्वान्यजेतेत्यादिशास्त्रात्तं प्रति कर्माणि विधीयन्ते तत्राह  यः पुनरिति।  आत्मनि कर्तृत्वादिज्ञानापेक्षया कर्मस्वधिकृतत्वज्ञाने तथाविधं पुरुषं प्रति कर्माणि विधीयन्ते। स च प्राचीनवचनादविद्वानेवेति निश्चीयते। न खल्वकर्तृत्वादिज्ञानवतस्तद्विपरीतकर्तृत्वादिज्ञानद्वारा कर्मसु प्रवृत्तिरित्यर्थः। कर्मासंभवे ब्रह्मविदो हेत्वन्तरमाह  विशेषितस्येति। वेदाविनाशिनम् इत्यादिनेति शेषः। यद्यपि विदुषो नास्ति कर्म तथापि विविदिषोः स्यादित्याशङ्क्याह  तस्मादिति।  विद्यया विरुद्धत्वादिष्यमाणमोक्षप्रतिपक्षत्वाच्च कर्मणामित्यर्थः। यद्यपि मुमुक्षोराश्रमकर्माण्यपेक्षितानि तथापि विद्यातत्फलाभ्यामविरुद्धान्येव तान्यभ्युपगतान्यन्यथा विविदिषासंन्यासविधिविरोधादित्यभिप्रेत्योक्तेऽर्थे भगवतोऽनुमतिमाह  अतएवेति।  विदुषो विविदिषोश्च संन्यासेऽधिकारोऽविदुषस्तु कर्मणीति विभागस्येष्टत्वादित्यर्थः। अधिकारिभेदेन निष्ठाद्वयं भगवता वेदव्यासेनापि दर्शितमित्याह  तथाचेति।  अध्ययनविधिना स्वाध्यायपाठे त्रैवर्णिकस्य प्रवृत्त्यनन्तरं तत्र क्रियामार्गो ज्ञानमार्गश्चेति द्वौ मार्गावधिकारिभेदेनावेदितावित्यर्थः। आदिशब्दाद्यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः इत्यादि गृह्यते। उक्तयोर्मार्गयोस्तुल्यतां परिहर्तुमुदाहरणान्तरमाह  तथेति।  बुद्धिशुद्धिद्वारा कर्मतत्फलयोर्वैराग्योदयात्पूर्वं कर्ममार्गो विहितो विरक्तस्य पुनः संन्यासपूर्वको ज्ञानमार्गो दर्शितः। स चेतरस्मादतिशयशालीति श्रुतिमित्यर्थः। उक्ते विभागे पुनरपि वाक्यशेषानुकूल्यमादर्शयति  एवमेवेति।  अहंकारविमूढात्मेत्यस्य व्याख्यानं  अतत्त्वविदिति।  तत्त्ववित्त्विति श्लोकमवतार्य तात्पर्यार्थं संगृह्णाति  नाहमिति।  पूर्वेण क्रियापदेनेतिशब्दः संबध्यते। विरक्तमधिकृत्य वाक्यान्तरं पठति  तथाचेति।  आदिशब्दस्तस्यैव श्लोकस्य शेषसंग्रहार्थः। अविक्रियात्मज्ञानात्कर्मसंन्यासे दर्शिते मीमांसकमतमुत्थापयति  तत्रेति।  आत्मनो ज्ञानक्रियाशक्त्याधारत्वेनाविक्रियत्वाभावादविक्रियात्मज्ञानं संन्यासकारणीभूतं न संभवतीत्यर्थः। यथोक्तज्ञानाभावो विषयाभावाद्वा मानाभावाद्वेति विकल्प्याद्यं दूषयति  नेत्यादिना।  न तावदविक्रियात्माभावो न जायते म्रियते वेत्यादिशास्त्रस्याप्तवाक्यतया प्रमाणस्यान्तरेण कारणमानर्थक्यायोगादित्यर्थः। द्वितीयं प्रत्याह  यथाचेति।  पारलौकिककर्मविधिसामर्थ्यसिद्धं विज्ञानमुदाहरति  कर्तुश्चेति।  कर्मकाण्डादज्ञाते धर्मादौ विज्ञानोत्पत्तिवज्ज्ञानकाण्डादज्ञाते ब्रह्मात्मनि विज्ञानोत्पत्तिरविरुद्धा प्रमाणत्वाविशेषादित्यर्थः। ज्ञानस्य मनःसंयोगजन्यत्वादात्मनश्च श्रुत्या मनोगोचरत्वनिरासान्नात्मज्ञाने साधनमस्तीति शङ्कते  करणेति।  श्रुतिमाश्रित्य परिहरति  न। मनसेति।  तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थमनोवृत्त्यैव शास्त्राचार्योपदेशमनुसृत्य द्रष्टव्यं तत्त्वमिति श्रूयते स्वरूपेण स्वप्रकाशमपि ब्रह्मात्मवस्तु वाक्योत्थबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्तं सविकल्पकव्यवहारालम्बनं भवतीति मनोगोचरत्वोपचारादसिद्धं करणागोचरत्वमित्यर्थः। कथं तर्हि ब्रह्मात्मनो मनोविषयत्वनिषेधश्रुतिरित्याशङ्क्यासंस्कृतमनोवृत्त्यविषयत्वविषया सेति मन्वानः सन्नाह  शास्त्रेति।  सत्यपि श्रुत्यादौ   तदनुग्राहकाभावान्नास्माकमविक्रियात्मकज्ञानमुत्पत्तुमर्हतीत्याशङ्क्याह  तथेति।  तस्याविक्रियस्यात्मनोऽधिगत्यर्थं विमतो विकारो नात्मधर्मो विकारत्वादुभयाभिमतविकारवदित्यनुमाने पूर्वोक्तश्रुतिस्मृतिरूपागमे च सत्येव तस्मिन्नोत्पद्यते ज्ञानमिति वचः साहसमात्रं सत्येव माने मेयं न भातीतिवदित्यर्थः। ननु यथोक्तं ज्ञानमुत्पन्नमपि हानायोपादानाय वा न भवतीति कुतोऽस्य फलवत्त्वं तत्राह  ज्ञानं चेति।   अवश्यमिति।  प्रकाशप्रवृत्तेस्तमोनिवृत्तिव्यतिरेकेणानुपपत्तिवदात्माज्ञाननिवृत्तिमन्तरेणात्मज्ञानोत्पत्तेरनुपपत्तेरित्यर्थः। नन्वज्ञानस्य ज्ञानप्रागभावत्वात्तन्निवृत्तिरेव ज्ञानं नतु तन्निवर्तकमिति तत्राह  तच्चेति।  कथं पुनर्भगवतापि ज्ञानाभावातिरिक्तमज्ञानं दर्शितमित्याशङ्क्याह  अत्रचेति।  विमतं ज्ञानाभावो न भवत्युपादानत्वान्मृदादिवदिति भावः। ननु हननक्रियाया न हिंस्यादिति निषिद्धत्वात् तत्कर्तृत्वादेरज्ञानकृतत्वेऽपि विहितक्रियाकर्तृत्वादेर्न तथात्वमिति नेत्याह  तच्चेति।  न तावदात्मनि कर्तृत्वादि नित्यम् अमुक्तिप्रसङ्गान्न चानित्यमपि निरुपादानं भावकार्यस्योपादाननियमान्न चानात्मा तदुपादानमात्मनि तत्प्रतिभानान्न चात्मैव तदुपादानं कूटस्थस्य तस्याविद्यां विना तदयोगादित्याह  अविक्रियत्वादिति।  कर्तृत्वाभावेऽपि कारयितृत्वं स्यादित्याशङ्क्याह  विक्रियावानिति।  आत्मनि कर्तृत्वादिप्रतिभानस्यानाद्यनिर्वाच्यमज्ञानमुपादानं तन्निवृत्तिश्च तत्त्वज्ञानादित्युक्तम् इदानीं कर्तृत्वकारयितृत्वयोरविद्याकृतत्वे भगवतोऽनुमतिं दर्शयति  तदेतदिति।  विदुषो यदि कर्माधिकाराभावो भगवतोऽभिमतस्तर्हि कुत्र तस्य जीवतोऽधिकारः स्यादिति पृच्छति  क्व पुनरिति।  ज्ञाननिष्ठायामित्युक्तं स्मारयति  उक्तमिति।  तदङ्गभूते सर्वकर्मसंन्यासे च तस्याधिकारोऽस्तीत्याह  तथेति।  वक्ष्यमाणे वाक्ये सर्वकर्मसंन्यासो न प्रतिभाति मानसानामेव कर्मणां विशेषणवशात्त्यागावगमादिति शङ्कते  नन्विति।  विशेषणान्तरमाश्रित्य दूषयति  न सर्वेति।  मनसेतिविशेषणान्मानसेष्वेव कर्मसु सर्वशब्दः संकुचितः स्यादिति शङ्कते  मानसानामिति।  सर्वात्मना मनोव्यापारत्यागे व्यापारान्तराणामनुपपत्तेः सर्वकर्मसंन्यासः सिध्यतीति परिहरति  नेत्यादिना।  मानसेष्वपि कर्मसु संन्यासे संकोचान्न वागादिव्यापारानुपपत्तिरिति शङ्कते  शास्त्रीयाणामिति।   अन्यानीति।  अशास्त्रीयवाक्कायकर्मकारणान्यशास्त्रीयाणि मानसानि तानि च सर्वाणि कर्माणीत्यर्थः। वाक्यशेषमादाय दूषयति  न। नैवेति।  नहि विवेकबुद्ध्या सर्वाणि कर्माण्यशास्त्रीयाणि संन्यस्य तिष्ठतीति युक्तं नैव कुर्वन्नित्यादिविशेषणस्य विवेकबुद्धेश्च त्यागहेतोस्तुल्यत्वादित्यर्थः। भगवदभिमतसर्वकर्मसंन्यासस्यावस्थाविशेषे संकोचं दर्शयन्नाशङ्कते  मरिष्यत इति।  संन्यासो जीवदवस्थायामेवात्र विवक्षित इत्यत्र लिङ्गं दर्शयन्नुत्तरमाह  न। नवेति।  अनुपपत्तिमेव स्फोरयति  नहीति।  अन्वयविशेषान्वाख्यानेन लिङ्गासिद्धिं चोदयति  अकुर्वत इति।  विवेकवशादशेषाण्यपि धर्माणि देहे यथोक्ते निक्षिप्याकुर्वन्नकारयंश्च विद्वानवतिष्ठते। तथाच देहे कर्माणि संन्यस्याकुर्वतोऽकारयतश्च सुखमासनमिति संबन्धसंभवाद् विशेषणस्य सति देहे कर्मत्यागविषयत्वाभावाज्जीवतः सर्वकर्मत्यागो नास्तीत्यर्थः। अथवा कुर्वत इत्यादि पूर्वत्रैव संबन्धनीयम् लिङ्गासिद्धिचोद्यं तु देहे संन्यस्येत्यारभ्योन्नेयम्। आत्मनः सर्वत्राविक्रियत्वनिर्धारणाद्देहसंबन्धमन्तरेण कर्तृत्वकारयितृत्वाप्राप्तेरप्राप्तप्रतिषेधप्रसङ्गपरिहारार्थमस्मदुक्त एव संबन्धः साधीयानिति समाधत्ते  न सर्वत्रेति।  श्रुतिषु स्मृतिषु चेत्यर्थः। किञ्च संबन्धस्याकाङ्क्षासंनिधियोग्यताधीनत्वा���ाकाङ्क्षावशादस्मदभिमतसंबन्धसिद्धिरित्याह  आसनेति।  भवदिष्टस्तु संबन्धो न सिध्यत्याकाङ्क्षाभावादित्याह  तदनपेक्षत्वाच्चेति।  संन्यासशब्दस्य निक्षेपार्थत्वात्तस्य चाधिकरणसापेक्षत्वादस्मदिष्टसंबन्धसिद्धिरित्याशङ्क्याह  संपूर्वस्त्विति।  अन्यथोपसर्गवैयर्थ्यादित्यर्थः। मनसा विवेकविज्ञानेन सर्वकर्माणि परित्यज्यास्ते देहे विद्वानित्यस्यैव संबन्धस्य साधुत्वं मत्वोपसंहरति  तस्मादिति।  सर्वव्यापारोपरमात्मनः संन्यासस्याविक्रियात्मज्ञानाविरोधित्वात् प्रयोजकज्ञानवतो वैधे संन्यासेऽधिकारः सम्यग्ज्ञानवतस्त्ववैधे स्वाभाविके फलात्मनीति विभागमभ्युपेत्योक्तेऽर्थे वाक्यशेषानुगुण्यं दर्शयति  इति तत्र   तत्रेति।

Sri Vallabhacharya

।।2.21।।निर्विकारात्मज्ञानोत्पन्नं फलमाह वेदाविनाशिनमिति। कथमिति प्रकारनिषेधः। कं हन्तीति कर्मकर्तृत्वम् घातयतीति प्रयोजकत्वं च निषिध्यते।

Sridhara Swami

।।2.21।।अतएव हन्तृत्वाभावोऽपि पूर्वोक्तः प्रसिद्ध इत्याह  वेदेति।  नित्यं वृद्धिशून्यम् अव्ययमपक्षयशून्यम् अजमविनाशिनं च यो वेद स पुरुषः कं हन्ति कथं वा हन्ति। एवंभूतस्य वधे साधनाभावात्। तथा स्वयं प्रयोजको भूत्वाऽन्येन कं घातयति। न कंचिदपि कथंचिदपीत्यर्थः। अनेन मय्यपि प्रयोजकत्वाद्दोषदृष्टिं मा कार्षीरित्युक्तं भवति।

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