Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 48 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् | सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ||१८-४८||
Transliteration
sahajaṃ karma kaunteya sadoṣamapi na tyajet . sarvārambhā hi doṣeṇa dhūmenāgnirivāvṛtāḥ ||18-48||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
18.48 One should not abandon, O Arjuna, the duty to which one is born, though faulty; for, all undertakings are enveloped by evil, as fire by smoke.
।।18.48।। हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है, जैसे धुयें से अग्नि।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Embrace your chosen or inherent career path with dedication, even when faced with its inherent challenges, imperfections, or drawbacks. Instead of constantly seeking a 'perfect' job or abandoning your current role due to difficulties, focus on excelling within your natural aptitude and responsibilities, understanding that all professional endeavors have their 'smoke' (flaws).
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate a mindset of acceptance towards the imperfections inherent in all undertakings and life situations. Recognize that the pursuit of absolute flawlessness is a source of undue stress and anxiety. By accepting that your actions, projects, and life itself will never be entirely free of 'faults,' you can reduce mental pressure and focus on conscientious effort despite these natural limitations.
❤️ In Relationships
Apply this wisdom to your personal connections by accepting the imperfections in yourself, your partner, family, and friends, as well as in the dynamics of the relationship itself. Avoid the temptation to abandon a relationship solely because it presents difficulties or doesn't meet an idealized standard. True connection often grows through navigating challenges and accepting each other's 'faults'.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Embrace your authentic duties and the inherent imperfections of all endeavors; for like fire and smoke, flaws are an inseparable part of every undertaking, and true progress comes from engaging with reality, not escaping it.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
18.48 सहजम् which is born? कर्म action? कौन्तेय O Kaunteya? सदोषम् with fault? अपि even? न not? त्यजेत् (one) should abandon? सर्वारम्भाः all undertakings? हि for? दोषेण by evil? धूमेन by smoke? अग्निः fire? इव like? आवृताः are enveloped.Commentary Sahajam Born with oneself born with the birth of man.Sadosham Faculty for everything is constituted of the three Gunas.All undertakings Ones own as well as others duties.If a Vaisya or a Kshatriya does the duties of a Brahmana he will not in any way be benefited. Anothers duty brings in fear. Therefore it is not proper to perform anothers duty. It is not possible for any man who has no knowledge of the Self to relinish action totally therefore he should not abandon action.
Shri Purohit Swami
18.48 The duty that of itself falls to one's lot should not be abandoned, though it may have its defects. All acts are marred by defects, as fire is obscured by smoke.
Dr. S. Sankaranarayan
18.48. O son of Kunti ! One should not give up the nature-born duty, even if it is (appears to be) defective. For, all beginnings are enveloped by harm just as the fire by smoke.
Swami Adidevananda
18.48 One should not relinish one's works, O Arjuna, though it may be imperfect; for, all enterprises are enveloped by imperfections as fire by smoke.
Swami Gambirananda
18.48 O son of Kunti, one should not give up the duty to which one is born, even though it be faulty. For all undertakings are surrounded with evil, as fire is with smoke.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।18.48।। स्वभाव (वर्ण) और स्वधर्म (आश्रम) का इतना वर्णन करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण विचाराधीन सिद्धांत के एक अत्यन्त सूक्ष्म पक्ष का विवेचन करते हैं। उनका उपदेश सामान्य है? जिसकी उपादेयता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। भगवान् का यह उपदेश है कि सहज कर्म के सदोष होने पर भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए।शीघ्रता में केवल सतही दृष्टि से इस श्लोक का अध्ययन करने पर कोई भी पाठक इसे आध्यात्मिकता नहीं मानेगा। परन्तु ध्यानपूर्वक अध्ययन करने पर? सहज शब्द से इस श्लोक की गुत्थी सुलझ जाती है। सहज शब्द का अर्थ है जन्म के साथ। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म अपनी पूर्वार्जित वासनाओं के साथ ही होता है। अत सहज कर्म से तात्पर्य उन वासनाओं से है जिनके साथ मनुष्य का जन्म होता है। भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है कि उन कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए? जो मनुष्य की सहज अर्थात् स्वाभाविक वासनाओं से प्रेरित होते हैं? परन्तु उन्होंने यह नहीं कहा कि जिस दूषित वातावरण में मनुष्य का जन्म होता है उस वातावरण के दोषयुक्त कमर्ों को उसे करना चाहिए।दो प्रकार की शक्तियां हमारे कर्मों को प्रेरित और नियमित? सीमित और निश्चित करती हैं (1) आन्तरिक मानसिक स्वभाविक से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियाँ? तथा (2) बाह्य वातावरण तथा विषयों से उत्पन्न होने वाली नयेनये प्रलोभन। मनुष्य को अपनी स्वाभाविक वासनाओं के सदोष होने पर भी उनका अनुसरण करना चाहिए? परन्तु उसी समय? उसमें बाह्य प्रलोभनों का त्याग करने का साहस और क्षमता होनी चाहिए।जिन संस्कारों के साथ हमारा जन्म हुआ है? उसके अनुसार हमको कर्म करने चाहिए। परन्तु स्मरण रहे कि ये कर्म निरहंकार और निस्वार्थ भाव से ही किये जाने चाहिए। बाह्य जगत् के प्रलोभन हमारे प्रलोभन को दूषित नहीं कर सकें? इसकी हमें सावधानी रखनी चाहिए। इस तथ्य पर भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देते हैं। गीता के अनुसार? मनुष्य परिस्थितियों का स्वामी है? दास नहीं। जिस मात्रा में मनुष्य अपने स्वामित्व को दृढ़तापूर्वक व्यक्त कर पायेगा? उसी मात्रा में उसका विकास संभव होगा।क्या सभी कर्म दोष से आवृत नहीं हैं भगवान् श्रीकृष्ण का युक्तिवाद यह है कि जब सभी कर्म दोषयुक्त हैं? तो स्वकर्म का त्याग कर परधर्म का आचरण क्यों करना चाहिए यह सर्वथा अनुपयुक्त है। दूसरी बात यह है कि अहंकारपूर्वक कर्म करने पर ही वे बन्धन कारक होते हैं? अन्यथा नहीं। अत साधक को निरहंकार भाव से सहज कर्म का पालन करना चाहिए। इस तथ्य को यहाँ आरम्भ शब्द से इंगित किया गया है। इसके पूर्व? हम आरम्भ शब्द का वास्तविक अर्थ देख चुके हैं कि कर्तृत्वाभिमान रहितकर्म। कर्तृत्व का अभिमान ही वासनाओं को उत्पन्न करके कर्म को दोषयुक्त बना देता है।अज्ञान अवस्था में यह दोष अपरिहार्य है? जैसे अग्नि के साथ धूम्र। परन्तु यदि चूल्हे को बाहर खुले वातावरण में रखा जाये? तो धुंआ नष्ट हो जाता है और अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार? ईश्वर का स्मरण करके निरहंकार भाव से जगत् कर्म करने पर अहंकार के अभाव में वासनाओं का आवरण नष्ट होकर स्वयं का शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्पष्ट अनुभव होता है।सहज कर्म के पालन का फल क्या है सुनो
Swami Ramsukhdas
।।18.48।। व्याख्या -- [पूर्वश्लोकमें यह कहा गया कि स्वभावके अनुसार शास्त्रोंने जो कर्म नियत किये हैं? उन कर्मोंको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि स्वभावनियत कर्मोंमें भी पापक्रिया होती है। अगर पापक्रिया न होती तो पापको प्राप्त नहीं होता यह कहना नहीं बनता। अतः यहाँ भगवान् कहते हैं कि जो सहज कर्म हैं? उनमें कोई दोष भी आ जाय तो भी उनका त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सबकेसब कर्म धुएँसे अग्निकी तरह दोषसे आवृत हैं। ]सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् -- स्वभावनियतकर्म सहजकर्म कहलाते हैं जैसे -- ब्राह्मणके शम? दम आदि क्षत्रियके शौर्य? तेज आदि वैश्यके कृषि? गौरक्ष्य आदि और शूद्रके सेवाकर्म -- ये सभी सहजकर्म हैं। जन्मके बाद शास्त्रोंने पूर्वके गुण और कर्मोंके अनुसार जिस वर्णके लिये जिन कर्मोंकी आज्ञा दी है? वे शास्त्रनियत कर्म भी सहजकर्म कहलाते हैं जैसे ब्राह्मणके लिये यज्ञ करना और कराना? पढ़ना और पढ़ाना आदि क्षत्रियके लिये यज्ञ करना? दान करना आदि वैश्यके लिये यज्ञ करना आदि और शूद्रके लिये सेवा।सहज कर्ममें ये दोष हैं --,(1) परमात्मा और परमात्माका अंश -- ये दोनों ही स्व हैं तथा प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीर आदि -- ये दोनों ही पर हैं। परन्तु परमात्माका अंश स्वयं प्रकृतिके वश होकर परतन्त्र हो जाता है अर्थात् क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है और उस क्रियाको यह अपनेमें मान लेता है तो परतन्त्र हो जाता है। यह प्रकृतिके परतन्त्र होना ही महान् दोष है।(2) प्रत्येक कर्ममें कुछनकुछ आनुषङ्गिक अनिवार्य हिंसा आदि दोष होते ही हैं।(3) कोई भी कर्म किया जाय? वह कर्म किसीके अनुकूल और किसीके प्रतिकूल होता ही है। किसीके प्रतिकूल होना भी दोष है।(4) प्रमाद आदि दोषोंके कारण कर्मके करनेमें कमी रह जाना अथवा करनेकी विधिमें भूल हो जाना भी दोष है।अपने सहजकर्ममें दोष भी हो? तो भी उसको नहीं छोड़ना चाहिये। इसका तात्पर्य है कि जैसे ब्राह्मणके कर्म जितने सौम्य हैं? उतने ब्राह्मणेतर वर्णोंके कर्म सौम्य नहीं हैं। परन्तु सौम्य न होनेपर भी वे कर्म दोषी नहीं,माने जाते अर्थात् ब्राह्मणके सहज कर्मोंकी अपेक्षा क्षत्रिय? वैश्य आदिके सहज कर्मोंमें गुणोंकी कमी होनेपर भी उस कमीका दोष नहीं लगता और अनिवार्य हिंसा आदि भी नहीं लगते? प्रत्युत उनका पालन करनेसे लाभ होता है। कारण कि वे कर्म उनके स्वभावके अनुकूल होनेसे करनेमें सुगम हैं और शास्त्रविहित हैं।ब्राह्मणके लिये भिक्षा बतायी गयी है। देखनेमें भिक्षा निर्दोष दीखती है? पर उसमें भी दोष आ जाते हैं। जैसे किसी गृहस्थके घरपर कोई भिक्षुक खड़ा है और उसी समय दूसरा भिक्षुक वहाँ आ जाता है तो गृहस्थको भार लगता है। भिक्षुकोंमें परस्पर ईर्ष्या होनेकी सम्भावना रहती है। भिक्षा देनेवालेके घरमें पूरी तैयारी नहीं है तो उसको भी दुःख होता है। यदि कोई गृहस्थ भिक्षा देना नहीं चाहता और उसके घरपर भिक्षुक चला जाय तो उसको बड़ा कष्ट होता है। अगर वह भिक्षा देता है तो खर्चा होता है और नहीं देता है तो भिक्षुक निराश होकर चला जाता है। इससे उस गृहस्थको पाप लगता है और बेचारा उसमें फँस जाता है। इस प्रकार यद्यपि भिक्षामें भी दोष होते हैं? तथापि ब्राह्मणको उसे छोड़ना नहीं चाहिये।क्षत्रियके लिये न्याययुक्त युद्ध प्राप्त हो जाय तो उसको करनेसे क्षत्रियको पाप नहीं लगता। यद्यपि युद्धरूप कर्ममें दोष हैं क्योंकि उसमें मनुष्योंको मारना पड़ता है? तथापि क्षत्रियके लिये सहज और शास्त्रविहित होनेसे दोष नहीं लगता। ऐसे ही वैश्यके लिये खेती करना बताया गया है। खेती करनेमें बहुतसे जन्तुओंकी हिंसा होती है। परन्तु वैश्यके लिये सहज और शास्त्रविहित होनेसे हिंसाका इतना दोष नहीं लगता। इसलिये सहज कर्मोंको छोड़ना नहीं चाहिये।सहज कर्मोंको करनेमें दोष (पाप) नहीं लगता -- यह बात ठीक है परन्तु इन साधारण सहज कर्मोंसे मुक्ति कैसे हो जायगी वास्तवमें मुक्ति होनेमें सहज कर्म बाधक नहीं हैं। कामना? आसक्ति? स्वार्थ? अभिमान आदिसे ही बन्धन होता है और पाप भी इन कामना आदिके कारणसे ही होते हैं। इसलिये मनुष्यको निष्कामभावपूर्वक भगवत्प्रीत्यर्थ सहज कर्मोंको करना चाहिये? तभी बन्धन छूटेगा।सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः -- जितने भी कर्म हैं? वे सबकेसब सदोष ही हैं जैसे -- आग सुलगायी जाय तो आरम्भमें धुआँ होता ही है। कर्म करनेमें देश? काल? घटना? परिस्थिति आदिकी परतन्त्रता और दूसरोंकी प्रतिकूलता भी दोष है? परन्तु स्वभावके अनुसार शास्त्रोंने आज्ञा दी है। उस आज्ञाके अनुसार निष्कामभावपूर्वक कर्म करता हुआ मनुष्य पापका भागी नहीं होता। इसीसे भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि भैया तू जिस युद्धरूप क्रियाको घोर कर्म मान रहा है? वह तेरा धर्म है क्योंकि न्यायसे प्राप्त हुए युद्धको करना क्षत्रियोंका धर्म है? इसके सिवाय क्षत्रियके लिये दूसरा कोई श्रेयका साधन नहीं है (गीता 2। 31)। सम्बन्ध -- अब भगवान् सांख्ययोगका प्रकरण आरम्भ करते हुए पहले सांख्ययोगके अधिकारीका वर्णन करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।18.48।। हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है, जैसे धुयें से अग्नि।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।18.48।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
Sri Anandgiri
।।18.48।।इतश्च विहितं कर्म दोषवदपि कर्तव्यं प्रकारान्तरासंभवादित्युक्तानुवादपूर्वकं कथयति -- स्वभावेत्यादिना। नहि कृमिर्विषजो विषनिमित्तं मरणं प्रतिपद्यते तथायऽमधिकृतः पुरुषो दोषवदपि विहितं कर्म कुर्वन्पापं नाप्नोतीत्युक्तमित्यर्थः। तर्हि दोषरहितमेव भिक्षाटनादि सर्वैरनुष्ठीयतामतो न पापप्राप्त्याशङ्केत्याशङ्क्याह -- परेति। उक्तमित्यनुवर्तते। तर्हि पापप्राप्तिशङ्कां परिहर्तुमकर्मनिष्ठत्वमेव सर्वेषां स्यादित्याशङ्क्य ज्ञानाभावान्नैवमित्याह -- अनात्मज्ञ इति। पूर्ववदत्रापि संबन्धः। प्रकारान्तरासंभवकृतं फलमाह -- अतइति। सह जायत इति सहजं स्वभावनियतं नित्यं कर्म तद्विहितत्वान्निर्दोषमपि हिंसात्मकतया सदोषमित्यत्र हेतुमाह -- त्रिगुणेति। सत्त्वादिगुणत्रयारब्धतया हिंसादिदोषवदपि कर्म विहितमत्याज्यमित्यर्थः। कर्मणां दोषवत्त्वं प्रपञ्चयति -- सर्वेति। आरम्भशब्दस्य कर्मव्युत्पत्त्या स्वपरसर्वकर्मार्थत्वे कर्मणां प्रकृतत्वं हेतुमाह -- प्रकरणादिति। दोषेणेत्यादि व्याचष्टे -- ये केचिदिति। ते सर्वे दोषेणावृता इति संबन्धः। सर्वकर्मणां दोषावृतत्वे हिशब्दोपात्तं यस्मादित्युक्तं हेतुमेवाभिनयति -- त्रिगुणात्मकत्वमिति। स्वभावनियतस्य कर्मणो दोषवत्त्वात्तत्त्यागद्वारा परधर्ममातिष्ठमानस्यापि नैव दोषाद्विमोकः संभवति। न च परधर्मोऽनुष्ठातुं शक्यते भयावहत्वान्नच तर्हि कर्मणोऽशेषतोऽननुष्ठानमेवाज्ञस्याशेषकर्मत्यागायोगादतः सहजं कर्म सदोषमपि न त्याज्यमिति वाक्यार्थमाह -- सहजस्येति। सहजं कर्म सदोषमपि न त्यजेदित्यत्र विचारमवतारयति -- किमिति। नहि कश्चिदिति न्यायादिति शेषः। दोषो विहितनित्यत्यागे प्रत्यवायः। संदिग्धस्य प्रयोजनस्य विचार्यत्वादुक्ते संदेहे प्रयोजनं पृच्छति -- किञ्चात इति। तत्राद्यमनूद्य फलं दर्शयति -- यदीति। अशक्यार्थानुष्ठानस्य गुणत्वेन प्रसिद्धत्वात्प्रसिद्धं हि महोदधिमगस्त्यस्य चुलुकीकृत्य पिबतो गुणवत्त्वं तदाह -- एवं तर्हीति। अशेषकर्मत्यागस्य गुणवत्त्वेऽपि प्रागुक्तन्यायेन तदयोगात्तस्याशक्यानुष्ठानतेति शङ्कते -- सत्यमिति। चोद्यमेव विवृण्वन्नाद्यं,विभजते -- किमिति। सत्त्वादिगुणवदात्मनो नित्यप्रचलितत्वेनाशेषतस्तेन न कर्म त्यक्तुं शक्यं नापि रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंज्ञानां क्षणध्वंसिनां स्कन्धानामिव क्रियाकारकभेदाभावात्कारकस्यैवात्मनः क्रियात्वमित्युक्ते कर्माशेषतस्त्यक्तुं शक्यमुभयत्रापि स्वभावभङ्गादित्याह -- उभयथेति। पक्षद्वयानुरोधेनाशेषकर्मत्यागायोगे वैशेषिकश्चोदयति -- अथेति। कदाचिदात्मा सक्रियो निष्क्रियश्च कदाचिदिति स्थिते फलितमाह -- तत्रेति। उक्तमेव पक्षं पूर्वोक्तपक्षद्वयाद्विशेषदर्शनेन विशदयति -- अयं त्विति। आगमापायित्वे क्रियायास्तद्वतो द्रव्यस्य कथं स्थायितेत्याशङ्क्याह -- शुद्धमिति। क्रियाशक्तिमत्त्वेऽपि क्रियावत्त्वाभावे कथं कारकत्वं क्रियां कुर्वत् कारणं कारकमित्यभ्युपगमादित्याशङ्क्याह -- तदेवेति। क्रियाशक्तिमदेव कारकं न क्रियाधिकरणं परस्पराश्रयादित्यर्थः। वैशेषिकपक्षे दोषाभावादस्ति सर्वैः स्वीकार्यतेत्युपसंहरति -- इत्यस्मिन्निति। भगवन्मतानुसारित्वाभावादस्य पक्षस्य त्याज्यतेति दूषयति -- अयमेवेति। भगवन्मताननुसारित्वमस्याप्रामाणिकमिति शङ्कते -- कथमिति। भगवद्वचनमुदाहरन् परपक्षस्य तदनुगुणत्वाभावमाह -- यत इति। परेषामपि मतमेतदनुगुणमेव किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- काणादानां हीति। भगवन्मतानुगुणत्वाभावेऽपि न्यायानुगुणत्वेन दोषरहितं काणादानां मतमुपादेयमेव तर्हि काणादमतविरोधादुपेक्ष्यते भगवन्मतमिति शङ्कते -- अभागवतत्वेऽपीति। न्यायवत्त्वमसिद्धमिति दूषयति -- उच्यत इति। सर्वप्रमाणानुसारिणो मतस्य न तद्विरोधितेत्याक्षिपति -- कथमिति। वैशेषिकमतस्य सर्वप्रमाणविरोधं प्रकटयन्नादौ तन्मतमनुवदति -- यदीति। असतो जन्म सतश्च नाश इति स्थिते फलितमाह -- तथाचेति। उक्तमेव वाक्यं व्याकरोति -- अभाव इति। सदेवासत्त्वमापद्यत इत्युक्तं व्याचष्टे -- भावश्चेति। इति मतमिति शेषः। तत्रैवाभ्युपगमान्तरमाह -- तत्रेति। प्रकृतं मतं सप्तम्यर्थः। इत्यभ्युपगम्यत इति शेषः। परकीयमभ्युपगमं दूषयति -- नचेति। एवमिति परपरिभाषानुसारेणेत्यर्थः। अदर्शनादुत्पत्तेरपेक्षायाश्चेति शेषः। कथं तर्हि त्वन्मतेऽपि घटादीनां कारणापेक्षाणामुत्पत्तिर्न हि भावानां कारणापेक्षोत्पत्तिर्वा युक्तेति तत्राह -- भावेति। घटादीनामस्मत्पक्षे प्रागपि कारणात्मना सतामेवाव्यक्तनामरूपाणामभिव्यक्तिसामग्रीमपेक्ष्य पृथगभिव्यक्तिसंभवान्न किंचिदनवद्यमित्यर्थः। असत्कार्यवादे दोषान्तरमाह -- किञ्चेति। परमते मानमेयव्यवहारे क्वचिदपि विश्वासो न कस्यचिदित्यत्र हेतुमाह -- सत्सदेवेति। नहि सत्तथैवेति निश्चितं तस्यैव पुनरसत्त्वप्राप्तेरिष्टत्वान्न चासत्तथैवेति निश्चयस्तस्यैव सत्त्वप्राप्तेरुपगमादतो यन्मानेन सदसद्वा निर्णीतं तत्तथेति विश्वासाभावान्मानवैफल्यमित्यर्थः। इतश्चासत्कार्यवादो न युक्तिमानित्याह -- किञ्चेति। तदेव हेत्वन्तरं स्फोरयितुं परमतमनुवदति -- उत्पद्यत इतीति। परकीयं वचनमेव व्याचष्टे -- प्रागिति। संबद्धं सदित्यनेन कारणसंबन्धे सति कार्यस्य सत्तासंबन्धो भवतीत्युक्तं तदेव स्फुटयति -- कारणेति। परमतमेवमनुभाष्य दूषयति -- तत्रेति। कार्यस्यासतोऽपि कारणं संभवति तस्य च कार्येण संबन्धः सिध्यतीत्याशङ्क्याह -- नहीति। असत्त्वादेवासतः संबन्धाभावे कारणस्य सतोऽपि न तेन संबन्धोऽनुमातुं शक्यते सदसतोः संबन्धासंभवादित्यर्थः। कार्यस्यात्यन्तासत्त्वानभ्युपगमात्कारणसंबन्धः स्यादिति शङ्कते -- नन्विति। सतामेव द्व्यणुकादीनां कारणसंबन्धं शङ्कितं दूषयति -- न संबन्धादिति। अनभ्युपगममेव विशदयति -- नहीति। सदेव कारणं कार्याकारमापद्य कार्यव्यवहारं निर्वहतीत्यभ्युपगमान्नास्ति संबन्धानुपपत्तिरित्याशङ्क्यापराद्धान्तान्मैवमित्याह -- नचेति। कार्यस्य कारणसंबन्धात्पूर्वं सत्त्वाभावे परिशेषसिद्धमर्थं दर्शयति -- ततश्चेति। तत्र चानुपपत्तिरुक्तेति शेषः। संबन्धिनोः सदसतोरेवासंयोगेऽपि समवायः सदसतोः संभवेदिति तस्य नित्यत्वादन्यतरसंबन्धाभावेऽपि स्थितेरावश्यकत्वादिति शङ्कते -- नन्विति। सदसतोर्मिथः संबन्धस्यादृष्टत्वान्नेति निराचष्टे -- न वन्ध्येति। घटादिप्रागभावस्यात्यन्ताभावत्वाभावाद्वन्ध्यापुत्रादिविलक्षणतया स्वकारणसंबन्धः सिध्यतीत्याशङ्क्याह -- घटादेरिति। उभयत्राभावस्वभावाविशेषेऽपि कस्यचित्कारणसंबन्धो नेतरस्येति विशेषे हेत्वभावान्न प्रागभावस्य कारणसंबन्धः संभवतीत्यर्थः। घटादिप्रागभावस्य सप्रतियोगिकत्वं वन्ध्यापुत्रादेर्नैवमिति विशेषमाशङ्क्य दूषयति -- एकस्येति। प्रागभावस्यैवप्रध्वंसाभावादेरपि सप्रतियोगिकत्वाविशेषे स्वकारणेन संबन्धाविशेषः स्यादित्यर्थः। प्रागभावप्रध्वंसाभावयोर्विशेषाभावे फलितमाह -- असति चेति। कपालशब्दो घटकारणीभूतमृदवयवविषयः? सर्वो व्यवहारो घटाश्रितो जन्मनाशादिव्यवहारः। प्रध्वंसाभावस्तु घटस्यैवाभावत्वे सत्यपि न घटत्वमापद्यते नापि कारणेन संबध्यते न चोत्पत्त्यादिव्यवहारयोग्यो भवतीत्येतदयुक्तं प्रागभावेनास्य विशेषाभावादित्याह -- नत्विति। असमञ्जसमित्यनेनेतिशब्दः संबध्यते। असमञ्जसान्तरमाह -- प्रध्वंसादीति। अन्योन्याभावात्यन्ताभावावादिपदार्थौ। क्वचिदिति देशकालयोर्ग्रहणं? व्यवहारो जन्मादिरेव? प्रागभावो,नोत्पत्त्यादिव्यवहारयोग्योऽभावत्वात्प्रध्वंसादिवदित्यर्थः। प्रागभावस्य घटाभावानभ्युपगमादनुमानं सिद्धसाधनमिति शङ्कते -- नन्विति। अभावस्य भावापत्त्यनभ्युपगमे भावस्यैव भावापत्तिरित्यनिष्टं स्यादिति दूषयति -- भावस्यैवेति। तस्य तदापत्तेरयोग्यत्वे दृष्टान्तमाह -- यथेति। अभावस्य भावापत्तिरनिष्टेति दार्ष्टान्तिकं स्पष्टयति -- एतदपीति। आरम्भवादोक्तं दोषं परिणामवादेऽपि संचारयति -- सांख्यस्येति। धर्मः परिणामः। असतोऽपूर्वपरिणामस्योत्पत्तेः सतश्च पूर्वपरिणामस्य नाशादसदसदेव सच्च सदेवेति व्यवस्थात्रापि दुर्घटेत्यर्थः। ननु कार्यं कारणात्मना प्रागपि सदेवाव्यक्तं कारकव्यापाराद्व्यज्यते तेन व्यक्त्यव्यक्त्योर्जन्मनाशव्यवहारान्मतान्तराद्विशेषसिद्धिस्तत्राह -- अभिव्यक्तीति। कारकव्यापारात्प्रागनभिव्यक्तिवदभिव्यक्तेः सत्त्वमसत्त्वं वा सत्त्वे कारकव्यापारवैयर्थ्यात्तद्विषयप्रमाणविरोधो द्वितीये पक्षान्तरवदत्यन्तासतस्तन्निर्वर्त्यत्वायोगे स एव दोषः कारकव्यापारादूर्ध्वं व्यक्तिवदव्यक्तेरपि सत्त्वे स एव दोषोऽसत्त्वेपि सतोऽसत्त्वानङ्गीकारान्मानमेयव्यवहारे न क्वापि विश्वासः सत्सदेवासदसदेवेत्यनिर्धारणादित्यर्थः। सांख्यपक्षप्रतिक्षेपन्यायेन पक्षान्तरमपि प्रतिक्षिप्तमित्याह -- एतेनेति। कारणस्यैव कार्यरूपापत्तिरुत्पत्तिस्तस्यैव तद्रूपत्यागेन स्वरूपापत्तिर्नाश इत्येतदपि न पूर्वरूपे स्थिते नष्टे च परस्य पररूपापत्तेरनुपपत्तेः? न च प्राप्तं रूपं स्थितेन नष्टेन वा त्यक्तुं शक्यमित्यर्थः। आरम्भवादे परिणामवादेषु चोत्पत्त्यादिव्यवहारानुपपत्तौ परिशेषायातं दर्शयति -- पारिशैष्यादिति। एकस्यानेकविधविकल्पानुपपत्तिमाशङ्क्याह -- अविद्ययेति। अस्यापि मतस्य भगवन्मतानुरोधित्वाभावादविशिष्टा त्याज्यतेत्याशङ्क्याह -- इतीदमिति। उक्तमेव भगवन्मतं विशदयति -- सत्प्रत्ययस्येति। सदेकमेव वस्तु स्यादिति शेषः। इतरेषां विकारप्रत्ययानां रजतादिधीवदर्थव्यभिचारादविद्यया तदेव सद्वस्त्वनेकधा विकल्प्यत इत्याह -- व्यभिचाराच्चेति। इति मतं श्लोके दर्शितमिति संबन्धः। आत्मनश्चेदविक्रियत्वं भगवतेष्टं तर्हि सर्वकर्मपरित्यागोपपत्तेः सहजस्यापि कर्मणस्त्यागसिद्धिरिति शङ्कते -- कथमिति। किं कार्यकारणात्मनां गुणानामकल्पितानां कल्पितानां वा कर्म धर्मत्वेनेष्टं द्विधापि निःशेषकर्मत्यागो विदुषोऽविदुषो वा नाद्य इत्याह -- यदीत्यादिना। अविद्यारोपितमेव गुणशब्दितकार्यकारणारोपद्वारा कर्मेति शेषः। द्वितीयं प्रत्याह -- विद्वांस्त्विति। आरोपशेषवशाद्विदुषोऽपि नाशेषकर्मत्यागसिद्धिरित्याशङ्क्याह -- अविद्येति। तामेवानुपपत्तिं दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- नहीति। विदुषोऽशेषकर्मत्यागे पाञ्चमिकमपि वचोऽनुकूलमित्याह -- एवंचेति। अविदुषः सर्वकर्मत्यागायोगे च प्रकृताध्यायस्थमेव वाक्यमनुगुणमित्याह -- स्वे स्व इति। वाक्यान्तरमपि तत्रैवार्थे युक्तार्थमित्याह -- स्वकर्मणेति।
Sri Vallabhacharya
।।18.48।।यदि पुनः साङ्ख्यदृष्ट्या स्वधर्मे हिंसालक्षणं दोषं मत्वा परधर्मं श्रेयांसं मन्यसे तर्हि परधर्मेऽपि सदोषत्वं तुल्यमेव भवतीत्यतः कर्मनिष्ठैव ज्यायसीति पूर्वोक्तं स्मारयति -- सहजमिति। भगवता वर्णोद्भावेन सहैव सृष्टम्मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह इति भागवतात् [11।5।2] सहजं कर्म सदोषमपि न त्यजेत्। ज्ञानित्वेऽपि कर्मकरणं श्रेयः लोकसङ्ग्रहस्य सिद्धत्वात्। यद्वा दोषपदं दुःखवचनम्? तथा च सर्वस्य ज्ञानस्य कर्मणो वाऽऽरम्भाः पूर्वं दुःखेनावृताः हीत्युक्तम्। यतःयत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपोमं [18।37] इति। तत्र दृष्टान्तः -- धूमेनावृतः पूर्वमग्निरिवान्ते प्रकाश एवेति तथेति।
Sridhara Swami
।।18.48।।यदि पुनः सांख्यदृष्ट्या स्वधर्मे हिंसालक्षणं दोषं मत्वा परधर्मं श्रेष्ठं मन्यसे तर्हि सदोषत्वं परधर्मेऽपि तुल्यमित्याशयेनाह -- सहजमिति। सहजं स्वभावविहितं कर्म सदोषमपि न त्यजेत्। हि यस्मात् सर्वेऽप्यारम्भा दृष्टादृष्टार्थानि सर्वाण्यपि कर्माणि दोषेण केनचिदावृता व्याप्ता एव। यथा सहजेन धूमेनाग्निरावृतस्तद्वत्। अतो यथाग्नेर्धूमरूपं दोषमपाकृत्य प्रताप एव तमःशीतादिनिवृत्तये सेव्यते तथा कर्मणोऽपि दोषांशं विहाय गुणांश एव सत्त्वशुद्धये सेव्यत इत्यर्थः।