Bhagavad Gita Chapter 18 Verse 47 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Svadharma (Authentic Duty)

Sanskrit Shloka (Original)

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ||१८-४७||

Transliteration

śreyānsvadharmo viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt . svabhāvaniyataṃ karma kurvannāpnoti kilbiṣam ||18-47||

Word-by-Word Meaning

श्रेयान्better
स्वधर्मःones own duty
विगुणः(though) destitute of merits
परधर्मात्that the duty of another
स्वनुष्ठितात्(than) well performed
स्वभावनियतम्ordained by his own nature
कर्मaction
कुर्वन्doing
not
आप्नोति(he) incurs
किल्बिषम्sin.Commentary Just as a poisonous substance does not harm the worm born in that substance

📖 Translation

English

18.47 Better is one's own duty (though) destitute of merits, than the duty of another well performed. He who does the duty ordained by his own nature incurs no sin.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।18.47।। सम्यक् अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। (क्योंकि) स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Choose a career path and approach to work that genuinely aligns with your intrinsic talents, personality, and values (your 'svabhava'). Even if your role seems less glamorous or your progress appears slower than others', staying true to your authentic self in your work will bring greater fulfillment, prevent burnout, and lead to success on your own terms. Avoid blindly pursuing careers or strategies that seem successful for others but don't resonate with your core strengths.

🧘 For Stress & Anxiety

Reduce stress and anxiety by letting go of the constant need to compare yourself to others or fulfill external expectations that don't align with your inner nature. Embrace and accept your unique strengths and limitations. Focus your energy on developing your own path and responsibilities, finding peace in your authentic journey rather than struggling to be someone you're not.

❤️ In Relationships

In your relationships, understand and embrace your natural way of relating, communicating, and contributing. Don't try to adopt a persona or fulfill a role that feels unnatural to you, just to please others or fit in. Being authentic in your interactions, even if your approach seems 'imperfect' to some, fosters genuine connections and prevents resentment or inauthenticity in the long run. Respect the unique 'svadharma' of others as well.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Align your actions with your authentic nature; your unique path, however imperfect it seems, is superior to flawlessly imitating another's, leading to genuine peace and freedom from karmic entanglement.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

18.47 श्रेयान् better? स्वधर्मः ones own duty? विगुणः (though) destitute of merits? परधर्मात् that the duty of another? स्वनुष्ठितात् (than) well performed? स्वभावनियतम् ordained by his own nature? कर्म action? कुर्वन् doing? न not? आप्नोति (he) incurs? किल्बिषम् sin.Commentary Just as a poisonous substance does not harm the worm born in that substance? so he who does his Svadharma (the duty ordained according to his own nature) does not incur any sin.What is poison to the whole world is sweet to a worm and yet sugarcane juice that is sweet causes its death. So a mans appointed duty which frees him from bondage must? therefore? be practised however difficult it may seem to be. If you try to do the duty of another it will bring,danger. He who has no knowledge of the Self cannot remain even for a moment without doing action. (Cf.III.35)

Shri Purohit Swami

18.47 It is better to do one's own duty, however defective it may be, than to follow the duty of another, however well one may perform it. He who does his duty as his own nature reveals it, never sins.

Dr. S. Sankaranarayan

18.47. Better is one's own prescribed duties, [born of one's nature, even though] it is devoid of ality, than another's duty well executed; the doer of duty, dependent on (or prescribed according to) one's own nature, does not incur sin.

Swami Adidevananda

18.47 Better is one's own duty, though ill done, than the duty of another, though well-performed৷৷৷৷৷৷ When one does the duty ordained by his own nature, he incurs no stain.

Swami Gambirananda

18.47 One's own duty, (though) defective, is superior to another's duty well performed. By performing a duty as dictated by one's own nature, one does not incur sin.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।18.47।। इस श्लोक की प्रथम पंक्ति का विस्तृत विवेचन तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। स्वधर्म से तात्पर्य स्वयं के वर्ण एवं कर्तव्य कर्मों से है। वर्ण शब्द का स्पष्टीकरण किया जा चुका है। यह देखा जाता है कि मनुष्य के मन में रागद्वेष होने के कारण उसे अपना कर्म गुणहीन और अन्य पुरुष का कर्म श्रेष्ठ प्रतीत हो सकता है। उसके मन में ऐसी भावना के उदय होने पर वह स्वधर्म को त्यागकर परधर्म के आचरण में प्रवृत्त होता है। परन्तु? स्वभाव के प्रतिकूल होने के कारण वह उस नवीन कार्य में तो विफल होता ही है? साथ ही उसके मन में रागद्वेषों का अर्थात् वासनाओं का बन्धन और अधिक दृढ़ हो जाता है। इसलिए? भगवान् कहते हैं? सम्यक् अनुष्ठित परधर्म से गुणरहित होने पर भी स्वधर्म का पालन ही श्रेष्ठतर है।स्वभाव नियत कर्माचरण से किल्विष अर्थात् पाप नहीं लगता। इसका अर्थ है स्वधर्म पालन से नवीन बन्धनकारक वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।गीता का यह अन्तिम अध्याय भगवान् श्रीकृष्ण के सुन्दर प्रवचन का उपसंहार है। अत? स्वाभाविक है कि यह सम्पूर्ण गीता का सारांश है। पूर्व अध्यायों में? अर्जुन के रोग के उपचार के लिए? जिन मुख्य सिद्धांतों का विवेचन किया गया था उनकी यहाँ पुनरावृत्ति की गई है।स्वधर्म पालन के उपदेश में दी गई युक्ति यह है कि स्वकर्माचरण पापोत्पत्ति का कारण नहीं बनता? यद्यपि हो सकता है कि उसमें कुछ दोष भी हो। इसे इस प्रकार समझना चाहिए कि (1) विषैले सर्प का विष स्वयं सर्प का नाश नहीं करता (2) मदिरा में रहने वाला जीवित जीवाणु स्वयं मदोन्मत्त नहीं हो जाते और (3) मलेरिया के मच्छर स्वयं मलेरिया से पीड़ित नहीं होते। उसी प्रकार? किसी भी मनुष्य का स्वभाव उसके लिए दोषयुक्त या हानिकारक नहीं होता यदि सर्प के विष को मदिरा में मिला दिया जाये? तो वे जीवाणु नष्ट हो जायेंगे। ठीक इसी प्रकार? यदि ब्राह्मण के कर्म में क्षत्रिय पुरुष प्रवृत्त होता है? तो वह आत्मनाश ही कर लेगा। अर्जुन क्षत्रिय्ा था शुद्ध सत्त्वगुण के अभाव में यदि वह वनों में जाकर ध्यानाभ्यास करता तो वह उसमें कदापि सफल नहीं होता।सारांशत? अपने स्वभाव के प्रतिकूल कार्यक्षेत्र में प्रवृत्त होने से कोई लाभ नहीं होता है। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु का निश्चित स्थान है। प्रत्येक प्राणी या मनुष्य का अपना महत्त्व है और कोई भी व्यक्ति तिरस्करणीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति किसी ऐसे कार्य विशेष को कर सकता है? जिसे दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता। परमेश्वर की सृष्टि में बहुतायत अथवा निरर्थकता कहीं नहीं है। एक तृण की पत्ती भी? किसी काल या स्थान में? व्यर्थ ही उत्पन्न नहीं हुई है।क्या हमारा कर्म दोषयुक्त होने पर भी उसका पालन करना चाहिए भगवान् उत्तर में कहते हैं

Swami Ramsukhdas

।।18.47।। व्याख्या --   श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् -- यहाँ स्वधर्म शब्दसे वर्णधर्म ही मुख्यतासे लिया गया है।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यवाला मनुष्य स्व को अर्थात् अपनेको जा मानता है? उसका धर्म (कर्तव्य) स्वधर्म है। जैसे कोई अपनेको मनुष्य मानता है? तो मनुष्यताका पालन करना उसके लिये स्वधर्म है। ऐसे ही कर्मोंके अनुसार अपनेको कोई विद्यार्थी या अध्यापक मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको साधक मानता है? तो साधन करना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको भक्त? जिज्ञासु और सेवक मानता है तो भक्ति? जिज्ञासा और सेवा उसका स्वधर्म हो जायगा। इस प्रकार जिसकी जिस कार्यमें नियुक्ति हुई है और जिसने जिस कार्यको स्वीकार किया है? उसके लिये उस कार्यको साङ्गोपाङ्ग करना स्वधर्म है।ऐसे ही मनुष्य जन्म और कर्मके अनुसार अपनेको जिस वर्ण और आश्रमका मानता है? उसके लिये उसी वर्ण और आश्रमका धर्म स्वधर्म हो जायगा। ब्राह्मणवर्णमें उत्पन्न हुआ अपनेको ब्राह्मण मानता है तो यज्ञ कराना? दान लेना? पढ़ाना आदि जीविकासम्बन्धी कर्म उसके लिये स्वधर्म हैं। क्षत्रियके लिये युद्ध करना? ईश्वरभाव आदि वैश्यके लिये कृषि? गौरक्षा? व्यापार आदि और शूद्रके लिये सेवा -- ये जीविकासम्बन्धी कर्म स्वधर्म हैं। ऐसा अपना स्वधर्म अगर दूसरोंके धर्मकी अपेक्षा गुणरहित है अर्थात् अपने स्वधर्ममें गुणोंकी कमी है? उसका अनुष्ठान करनेमें कमी रहती है तथा उसको कठिनतासे किया जाता है परन्तु दूसरेका धर्म गुणोंसे परिपूर्ण है? दूसरेके धर्मका अनुष्ठान साङ्गोपाङ्ग है और करनेमें बहुत सुगम है तो भी अपने स्वधर्मका पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ है।शास्त्रने जिस वर्णके लिये जिन कर्मोंका विधान किया है? उस वर्णके लिये वे कर्म स्वधर्म हैं और उन्हीं कर्मोंका जिस वर्णके लिये निषेध किया है? उस वर्णके लिये वे कर्म परधर्म हैं। जैसे यज्ञ कराना? दान लेना आदि कर्म ब्राह्मणके लिये शास्त्रकी आज्ञा होनेमें स्वधर्म हैं परन्तु वे ही ���र्म क्षत्रिय? वैश्य और शूद्रके लिये शास्त्रका निषेध होनेसे परधर्म हैं। परन्तु आपत्कालको लेकर शास्त्रोंने जीविकासम्बन्धी जिन कर्मोंका निषेध नहीं किया है? वे कर्म सभी वर्णोंके लिये स्वधर्म हो जाते हैं। जैसे आपत्कालमें अर्थात् आपत्तिके समय वैश्यके खेती? व्यापार आदि जीविकासम्बन्धी कर्म ब्राह्मणके लिये भी स्वधर्म हो जाते हैं (टिप्पणी प0 941)।ब्राह्मणके शम? दम आदि जितने भी स्वभावज कर्म हैं? वे सामान्य धर्म होनेसे चारों वर्णोंके लिये स्वधर्म हैं। कारण कि उनका पालन करनेके लिये सभीको शास्त्रकी आज्ञा है। उनका किसीके लिये भी निषेध नहीं है।मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। इस दृष्टिसे मनुष्यमात्र साधक है। अतः दैवीसम्पत्तिके जितने भी सद्गुणसदाचार हैं? वे सभीके अपने होनेसे मनुष्यमात्रके लिये स्वधर्म हैं। परन्तु आसुरीसम्पत्तिके जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं? वे मनुष्यमात्रके लिये न तो स्वधर्म हैं और न परधर्म ही हैं वे तो सभीके लिये निषिद्ध हैं? त्याज्य हैं क्योंकि वे अधर्म हैं। दैवीसम्पत्तिके गुणोंको धारण करनेमें और आसुरीसम्पत्तिके पापकर्मोंका त्याग करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं? सभी सबल हैं? सभी अधिकारी हैं कोई भी परतन्त्र? निर्बल तथा अनधिकारी नहीं है। हाँ? यह बात अलग है कि कोई सद्गुण किसीके स्वभावके अनुकूल पड़ता है और कोई सद्गुण किसीके स्वभावके अनुकूल पड़ता है। जैसे? किसीके स्वभावमें दया मुख्य होती है और किसीके स्वभावमें उपेक्षा मुख्य होती है? किसीका स्वभाव स्वतः क्षमा करनेका होता है और किसीका स्वभाव माँगनेपर क्षमा करनेका होता है? किसीके स्वभावमें उदारता स्वाभाविक होती है और किसीके स्वभावमें उदारता विचारपूर्वक होती है? आदि। ऐसा भेद रह सकता है।स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् -- शास्त्रोंमें विहित और निषिद्ध -- दो तरहके वचन आते हैं। उनमें विहित कर्म करनेकी आज्ञा है और निषिद्ध कर्म करनेका निषेध है। उन विहित कर्मोंमें भी शास्त्रोंने जिस वर्ण? आश्रम? देश? काल? घटना? परिस्थिति? वस्तु? संयोग? वियोग आदिको लेकर अलगअलग जो कर्म नियुक्त किये हैं? उस वर्ण? आश्रम आदिके लिये वे नियत कर्म कहलाते हैं।सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंको लेकर जो स्वभाव बनता है? उस स्वभावके अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं? वे स्वभावनियत कर्म कहलाते हैं। उन्हींको स्वभावप्रभव? स्वभावज? स्वधर्म? स्वकर्म और सहज कर्म कहा है।तात्पर्य यह है कि जिस वर्ण? जातिमें जन्म लेनेसे पहले इस जीवके जैसे गुण और कर्म रहे हैं? उन्हीं गुणों और कर्मोंके अनुसार उस वर्णमें उसका जन्म हुआ है। कर्म तो करनेपर समाप्त हो जाते हैं? पर गुणरूपसे उनके संस्कार रहते हैं। जन्म होनेपर उन गुणोंके अनुसार ही उसमें गुण और पालनीय आचरण स्वाभाविक ही उत्पन्न होते हैं अर्थात् उनको न तो कहींसे लाना पड़ता है और न उनके लिये परिश्रम ही करना पड़ता है। इसलिये उनको स्वभावज और स्वभावनियत कहा है।यद्यपि सर्वारम्भा ही दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः (गीता 18। 48) के अनुसार कर्ममात्रमें दोष आता ही है? तथापि स्वभावके अनुसार शास्त्रने जिस वर्णके लिये जिन कर्मोंकी आज्ञा दी है? उन कर्मोंको अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे किया जाय? तो उस वर्णके व्यक्तिको उन कर्मोंका दोष (पाप) नहीं लगता। ऐसे ही जो केवल शरीरनिर्वाहके लिये कर्म करता है? उसको भी पाप नहीं लगता -- शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 4। 21)।विशेष बातयहाँ एक बड़ी भारी शङ्का पैदा होती है कि एक आदमी कसाईके घर पैदा होता है तो उसके लिये कसाईका कर्म सहज (साथ ही पैदा हुआ) है? स्वाभाविक है। स्वभावनियत कर्म करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता? तो क्या कसाईके कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये अगर उसको कसाईके कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये? तो फिर निषिद्ध आचरण कैसे छूटेगा कल्याण कैसे होगाइसका समाधान है कि स्वभावनियत कर्म वह होता है? जो विहित हो? किसी रीतिसे निषिद्ध नहीं हो अर्थात् उससे किसीका भी अहित न होता हो। जो कर्म किसीके लिये भी अहितकारक होते हैं? वे सहज कर्ममें नहीं लिये जाते। वे कर्म आसक्ति? कामनाके कारण पैदा होते हैं। निषिद्ध कर्म चाहे इस जन्ममें बना हो? चाहे पूर्वजन्ममें बना हो? है वह दोषवाला ही। दोषभाग त्याज्य होता है क्योंकि दोष आसुरीसम्पत्ति है और गुण दैवीसम्पत्ति है। पहले जन्मके संस्कारोंसे भी दुर्गुणदुराचोंमें रुचि हो सकती है? पर वह रुचि दुर्गुणदुराचार करनेमें बाध्य नहीं करती। विवेक? सद्विचार? सत्सङ्ग? शास्त्र आदिके द्वारा उस रुचिको मिटाया जा सकता है।युक्तिसे भी देखा जाय तो कोई भी प्राणी अपना अहित नहीं चाहता? अपनी हत्या नहीं चाहता। अतः किसीका अहित करनेका? हत्या करनेका अधिकार किसीको भी नहीं है। मनुष्य अपने लिये अच्छा काम चाहता है तो उसे दूसरोंके लिये भी अच्छा काम करना चाहिये। शास्त्रोंमें भी देखा जाय तो यही बात है कि जिसमें दोष होते हैं? पाप होते हैं? अन्याय होते हैं? वे कर्म वैकृत हैं? प्राकृत नहीं हैं अर्थात् वे विकारसे पैदा हुए हैं? स्वभावसे नहीं। तीसरे अध्यायमें अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापकर्म करता है तो भगवान्ने कहा कि कामनाके वशमें होकर भी मनुष्य पाप करता है (3। 36 -- 37)। कामनाको लेकर? क्रोधको लेकर? स्वार्थ और अभिमानको लेकर जो कर्म किये जाते हैं? वे कर्म शुद्ध नहीं होते? अशुद्ध होते हैं।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे जो कर्म किये जाते हैं? उन कर्मोंमें भिन्नता तो रहती है? पर वे दोषी नहीं होते। ब्राह्मणके घर जन्म होगा तो ब्राह्मणोचित कर्म होंगे? शूद्रके घर जन्म होगा तो शूद्रोचित कर्म होंगे? पर दोषीभाग किसीमें भी नहीं होगा। दोषीभाग सहज नहीं है? स्वभावनियत नहीं है। दोषयुक्त कर्म स्वाभाविक हो सकते हैं? पर स्वभावनियत नहीं हो सकते। एक ब्राह्मणको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाय तो प्राप्ति होनेके बाद भी वह वैसी ही पवित्रतासे भोजन बनायेगा जैसी पवित्रतासे ब्राह्मणको रहना चाहिये? वैसी ही पवित्रतासे रहेगा। ऐसे ही एक अन्त्यजको परमात्माकी प्राप्ति हो जाय तो वह जूठन भी खा लेगा जैसे पहले रहता था? वैसे ही रहेगा। परन्तु ब्राह्मण ऐसा नहीं करेगा क्योंकि पवित्रतासे भोजन करना उसका स्वभावनियत कर्म है? जबकि अन्त्यजके लिये जूठन खाना दोषी नहीं बताया गया है। इसलिये सिद्ध महापुरुषोंमें एकएकसे विचित्र कर्म होते हैं? पर वे दोषी नहीं होते। उनका स्वभाव रागद्वेषसे रहित होनेके कारण शुद्ध होता है।पहलेके किसी पापकर्मसे कसाईके घर जन्म हो गया तो वह जन्म पापका फल भोगनेके लिये हुआ है? पाप करनेके लिये नहीं। पापका फल जाति? आयु और भोग बताया गया है? नया कर्म नहीं बताया गया -- सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः। (योगदर्शन 2। 13)। कर्म करनेमें वह स्वतन्त्र है। यदि उसका चित्त शुद्ध हो जाय तो वह कसाई आदिका कर्म कर नहीं सकेगा। एक सन्तसे किसीने कहा कि अगर कोई अपना धर्म पशुओंको मारना ही मानता है तो वह क्या करे तो उन सन्तने बड़ी दृढ़तासे कहा कि यदि वह अपने धर्मके अनुसार ही लगातार तीन वर्षतक पवित्रतापूर्वक भगवान्के नामका? अपने इष्टके नामका जप करे? तो फिर वह मार नहीं सकेगा। कारण कि उसका पूर्वजन्मका अथवा यहाँका जो स्वभाव पड़ा हुआ है? वह स्वभाव दोषी है। यदि सच्चे हृदयसे ठीक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहेगा तो वह कसाईका काम नहीं कर सकेगा। उससे अपनेआप ग्लानि होगी? उपरति होगी। बिना कहेसुने उसमें सद्गुण स्वाभाविक आयेंगे।रामचरितमानसमें शबरीके प्रसङ्गमें आ��ा है -- भगवान् रामने शबरीसे कहा -- नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। (3। 35। 4)। फिर नौ प्रकारकी भक्ति कहकर अन्तमें भगवान्ने कहा -- सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें (3। 36। 4)। तात्पर्य यह है कि भक्ति नौ प्रकारकी होती है? इसका शबरीको पता ही नहीं है परन्तु शबरीमें सब प्रकारकी भक्ति स्वाभाविक ही थी। सत्सङ्ग? भजन? ध्यान आदि,करनेसे जिन गुणोंका हमें ज्ञान नहीं है? वे गुण भी आ जाते हैं। जो केवल दूसरोंको सुनानेके लिये याद करते हैं? वे दूसरोंको तो बता देंगे? पर आचरणमें वे गुण तभी आयेंगे? जब अपना स्वभाव शुद्ध करके परमात्माकी तरफ चलेंगे। इसलिये मनुष्यको अपना स्वभाव और अपने कर्म शुद्ध? निर्मल बनाने चाहिये। इसमें कोई परतन्त्र नहीं है? कोई निर्बल नहीं है? कोई अयोग्य नहीं है? कोई अपात्र नहीं है। मनुष्यके मनमें ऐसा आता है कि मैं कर्तव्यका पालन करनेमें और सद्गुणोंको लानेमें असमर्थ हूँ। परन्तु वास्तवमें वह असमर्थ नहीं है। सांसारिक भोगोंकी आदत और पदार्थोंके संग्रहकी रुचि होनेसे ही असमर्थताका अनुभव होता है।उद्धारके योग्य समझकर ही भगवान्ने मनुष्यशरीर दिया है। इसलिये अपने स्वभावका सुधार करके अपना उद्धार करनेमें प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र है? सबल है? योग्य है? समर्थ है। स्वभावका सुधार करना असम्भव तो है ही नहीं? कठिन भी नहीं है। मनुष्यको मुक्तिका द्वार कहा गया है -- साधन धाम मोच्छ कर द्वारा (मानस 7। 43। 4)। यदि स्वभावका सुधार करना असम्भव होता तो इसे मुक्तिका द्वार कैसे कहा जा सकता अगर मनुष्य अपने स्वभावका सुधार न कर सके? तो फिर मनुष्यजीवनकी सार्थकता क्या हुई

Swami Tejomayananda

।।18.47।। सम्यक् अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। (क्योंकि) स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।18.47।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।18.47।।स्वधर्मानुष्ठानस्य बुद्धिशुद्ध्यादिद्वारा मोक्षावसायित्त्वात्तदनुष्ठानमावश्यकमित्याह -- यत इति। ननु युद्धादिलक्षणं स्वधर्मं कुर्वन्नपि हिंसाधीनं पापं प्राप्नोति तत्कथं स्वधर्मः श्रेयानिति तत्राह -- स्वभावेति। स्वकीयं वर्णाश्रमं निमित्तीकृत्य विहितं स्वभावजमित्यधस्तादुक्तमित्याह -- यदुक्तमिति। विग्रहात्मकमपि विहितं कर्म कुर्वन्पापं नाप्नोतीत्यत्र दृष्टान्तमाह -- तथेति।

Sri Vallabhacharya

।।18.47।।श्रेयानिति। विगुणोऽपि स्वधर्मः स्वनुष्ठितात्परधर्माच्छ्रेष्ठः? श्रेयस्कर इति वा स्वभावो यो यो विप्रक्षत्त्रादेस्तेन नियतं कर्म कुर्वन् -- यथा क्षत्ित्रयस्य युद्धादि तदेव स्वाभाविकं तव कर्म युद्धादिकमुचितमिति भावः। अन्यथा तु किल्बिषं प्राप्नोति। एवं च कर्मनिष्ठैव ज्यायसीति तृतीयोक्तं व्याख्यायोपदिशति।

Sridhara Swami

।।18.47।।स्वकर्मणेति विशेषणस्य फलमाह -- श्रेयानिति। विगुणोऽपि स्वधर्मः सम्यगनुष्ठितादपि परधर्माच्छ्रेयाञ्छ्रेष्ठः। नच बन्धुवधादियुक्ताद्युद्धादेः स्वधर्माद्भिक्षाटनादिपरधर्मः श्रेष्ठ इति मन्तव्यम्। यतः स्वभावेन पूर्वोक्तेन नियतं नयमेनोक्तं कर्म कुर्वन्किल्बिषं नाप्नोति।

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