Bhagavad Gita Chapter 17 Verse 28 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् | असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ||१७-२८||
Transliteration
aśraddhayā hutaṃ dattaṃ tapastaptaṃ kṛtaṃ ca yat . asadityucyate pārtha na ca tatprepya no iha ||17-28||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
17.28 Whatever is sacrificed, given or performed, and whatever austerity is practised without faith, it is called 'Asat', O Arjuna; it is naught here or hereafter (after death).
।।17.28।। हे पार्थ ! जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न इस लोक में (इह) और न मरण के पश्चात् (उस लोक में) लाभदायक होता है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your work, avoid merely going through the motions or performing tasks solely out of obligation, fear, or for superficial rewards. If you lack genuine belief in the value of your work or your contribution, even significant efforts will feel 'Asat' – yielding no lasting satisfaction or meaningful impact. Cultivate a sense of purpose and commitment to truly benefit from your labor and find fulfillment.
🧘 For Stress & Anxiety
Engaging in stress-relief or self-care practices (like meditation, exercise, or therapy) without sincere faith in their efficacy or genuine commitment will likely prove futile. If done only because 'you should' or under pressure, these acts won't truly alleviate mental distress. A lack of genuine belief can lead to an 'egoistic and obstinate' heart, hindering your ability to heal and find inner peace. Approach self-improvement with conviction and authenticity.
❤️ In Relationships
Acts of kindness, giving gifts, or offering support in relationships, if performed without genuine affection, sincerity, or belief in the connection's value (e.g., out of obligation, fear of conflict, or to manipulate), will be perceived as hollow and will not build strong, lasting bonds. Such superficial gestures are 'Asat' – they waste 'energy, money, and time' without fostering true connection and may even breed resentment. Cultivate sincere intention in all your relational interactions.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Any action—be it sacrifice, charity, or austerity—performed without genuine faith and sincere intention is ultimately hollow, yielding no lasting benefit or true fulfillment, neither in this life nor the next.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
17.28 अश्रद्धया without faith? हुतम् is sacrificed? दत्तम् given? तपः austerity? तप्तम् is practised? कृतम् performed? च and? यत् whatever? असत् Asat? इति thus? उच्यते is called? पार्थ O Partha? न not? च and? तत् that? प्रेत्य hereafter (after death)? न not? इह here.Commentary Asat That which changes form and has no permanent existence. It does not mean nonexistence as such.Acts of sacrifice? austerity and gift that are performed without faith? under pressure? or to prevent some sort of trouble or to gratify a craving? are Asat in their nature. They yield no permanent benefit or fruit to anybody.Any sacrifice? austerity or gift done without dedicating it to the Lord will be of no avail to the doer in this earthly life here or in the life beyond hereafter. It would be as useless as showers of rain falling on rocky ground or pouring oblations of ghee (clarified butter) on cold ashes. If you have no faith you will become egoistic and obstinate. Your heart will become hard. If you perform even hundreds of sacrifices without faith? without the spirit of selfsurrender to the Lord? even if you distribute the wealth of the whole world in charity without faith in and devotion to the Lord? all these would be worthless and useless. The sages will not appreciate such sacrifices or gifts. Energy? money and time are simply wasted.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the seventeenth discourse entitledThe Yoga of the Division of the Threefold Faith. ,
Shri Purohit Swami
17.28 Whatsoever is done without faith, whether it be sacrifice, austerity or gift or anything else, as called Asat' (meaning Unreal') for it is the negation of Sat,' O Arjuna! Such an act has no significance, here or hereafter."
Dr. S. Sankaranarayan
17.28. Without faith, whatever oblation is offered, what-ever gift is made, whatever austerity is practised, and whatever action is undertaken, that is called ASAT and it is of no avail after one's death and in this world.
Swami Adidevananda
17.28 Whatever offering or gift is made, whatever austerity is practised and whatever action is performed without faith, that is called Asat, O Arjuna. It is naught here or hereafter.
Swami Gambirananda
17.28 O son of Prtha, whatever is offered in sacrifice and given in charity, as also whatever austerity is undertakne or whatever is done without, faith, is said to be of on avail. And it is of no conseence after death, nor here.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।17.28।। इस श्लोक में? निषेध की भाषा में निश्चयात्मक रूप से भगवान् कहते हैं कि श्रद्धारहित कोई भी कर्म न इस लोक में और न मरण के पश्चात् ही लाभदायक होता है। कर्मों का फल कर्ता की श्रद्धा? उत्साह और निश्चय पर ही निर्भर करता है। मनुष्य की श्रद्धा ही उसके कर्मों को आभा प्रदान करती है। अत कर्म का फल बहुत अधिक मात्रा में कर्ता की श्रद्धा पर निर्भर करता है।यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहा गया है कि श्रद्धारहित यज्ञ? दान? तप और अन्य कर्म असत् होते हैं। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे असत् कर्मों से कोई वास्तविक श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान् के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि सब कर्मों में श्रद्धा की प्रमुखता है और उसके बिना कर्म निष्फल होते हैं।श्रद्धा का यह नियम न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही सत्य है? अपितु लौकिक फलों की प्राप्ति में भी उतना ही सत्य प्रमाणित होता है। कर्ता को स्वयं अपने में? कर्म में तथा प्राप्य लक्ष्य में श्रद्धा आवश्यक होती है? केवल तभी वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ प्रयत्न कर सकता है? अन्यथा नहीं।अत भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि अश्रद्धा से किये गये यज्ञ? दान और तप असत् होते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्धायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवां अध्याय समाप्त होता है।
Swami Ramsukhdas
।।17.28।। व्याख्या -- अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् -- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ? दान और तप किया जाय और कृतं च यत् (टिप्पणी प0 864) अर्थात् जिसकी शास्त्रमें आज्ञा आती है? ऐसा जो कुछ कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाय -- वह सब असत् कहा जाता है।अश्रद्धया पदमें श्रद्धाके अभावका वाचक नञ् समास है? जिसका तात्पर्य है कि आसुर लोग परलोक? पुनर्जन्म? धर्म? ईश्वर आदिमें श्रद्धा नहीं रखते।बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब उर नारी।। (मानस 7। 98। 1) -- इस प्रकारके विरुद्ध भाव रखकर वे यज्ञ? दान आदि क्रियाएँ करते हैं।जब वे शास्त्रमें श्रद्धा ही नहीं रखते? तो फिर वे यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म क्यों करते हैं वे उन शास्त्रीय कर्मोंको इसलिये करते हैं कि लोगोंमें उन क्रियाओंका ज्यादा प्रचलन है? उनको करनेवालोंका लोग आदर करते हैं तथा उनको करना अच्छा समझते हैं। इसलिये समाजमें अच्छा बननेके लिये और जो लोग यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म करते हैं? उनकी श्रेणीमें गिने जानेके लिये वे श्रद्धा न होनेपर भी शास्त्रीय कर्म कर देते हैं।असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह -- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ आदि जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाय? वह सब असत् कहा जाता है। उसका न इस लोकमें फल होता है और न परलोकमें -- जन्मजन्मान्तरमें ही फल होता है। तात्पर्य यह कि सकामभावसे श्रद्धा एवं विधिपूर्वक शास्त्रीय कर्मोंको करनेपर यहाँ धनवैभव? स्त्रीपुत्र आदिकी प्राप्ति और मरनेके बाद स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है और उन्हीं कर्मोंको निष्कामभावसे श्रद्धा एवं विधिपूर्वक करनेपर अन्तःकरणकी शुद्धि होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है परन्तु अश्रद्धापूर्वक कर्म करनेवालोंको इनमेंसे कोई भी फल प्राप्त नहीं होता।यदि यहाँ यह कहा जाय कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है? उसका इस लोकमें और परलोकमें कुछ भी फल नहीं होता? तो जितने पापकर्म किये जाते हैं? वे सभी अश्रद्धासे ही किये जाते हैं? तब तो उनका भी कोई फल नहीं होना चाहिये और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करनेकी इच्छाको लेकर अन्याय? अत्याचार? झूठ? कपट? धोखेबाजी आदि जितने भी पापकर्म करता है? उन कर्मोंका फल दण्ड भी नहीं चाहता पर वास्तवमें ऐसी बात है नहीं। कारण कि कर्मोंका यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है? उसका फल कर्ताके न चाहनेपर भी कर्ताको मिलता ही है। इसलिये आस��रीसम्पदावालोंको बन्धन और आसुरी योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति होती है।छोटेसेछोटा और साधारणसेसाधारण कर्म भी यदि उस परमात्माके उद्देश्यसे ही निष्कामभावपूर्वक किया जाय? तो वह कर्म सत् हो जाता है अर्थात् परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला हो जाता है परन्तु ब़ड़ेसेबड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधिविधानसे सकामभावपूर्वक किया जाय? तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ? तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात् सत् फल देनेवाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि परमात्माकी प्राप्तिमें क्रियाकी प्रधानता नहीं है? प्रत्युत श्रद्धाभावकी ही प्रधानता है।पूर्वोक्त सद्भाव? साधुभाव? प्रशस्त कर्म? सत्स्थिति और तदर्थीय कर्म -- ये पाँचों परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे अर्थात् सत् -- परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले होनेसे सत् कहे जाते हैं।अश्रद्धासे किये गये कर्म असत् क्यों होते हैं वेदोंने? भगवान्ने और शास्त्रोंने कृपा करके मनुष्योंके कल्याणके लिये ही ये शुभकर्म बताये हैं? पर जो मनुष्य इन तीनोंपर अश्रद्धा करके शुभकर्म करते हैं? उनके ये सब कर्म असत् हो जाते हैं। इन तीनोंपर की हुई अश्रद्धाके कारण उनको नरक आदि दण्ड मिलने चाहिये परन्तु उनके कर्म शुभ (अच्छे) हैं? इसलिये उन कर्मोंका कोई फल नहीं होता -- यही उनके लिये दण्ड है।मनुष्यको उचित है कि वह यज्ञ? दान? तप? तीर्थ? व्रत आदि शास्त्रविहित कर्मोंको श्रद्धापूर्वक और निष्कामभावसे करे। भगवान्ने विशेष कृपा करके मानवशरीर दिया है और इसमें शुभकर्म करनेसे अपनेको और सब लोगोंको लाभ होता है। इसलिये जिससे अभी और परिणाममें सबका हित हो -- ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्यकर्म श्रद्धापूर्वक और भगवान्की प्रसन्नताके लिये करते रहना चाहिये।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।17।। ,
Swami Tejomayananda
।।17.28।। हे पार्थ ! जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न इस लोक में (इह) और न मरण के पश्चात् (उस लोक में) लाभदायक होता है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।17.28।।तथाच ऋग्वेदखिलेषु -- यज्ञाद्या निष्फलं कर्म तत्स्यात्सद्वै तदर्थकं कर्म वदन्ति देवाः। तच्छब्दानां सन्निधेर्ब्रह्मप्रीतेस्तद्रूपत्वाज्जनितं ब्रह्म तस्य इति।
Sri Anandgiri
।।17.28।।अश्रद्धान्वितस्यापि कर्मणो नामत्रयोच्चारणादवैगुण्ये श्रद्धाप्राधान्यं न स्यादित्याशङ्क्याह -- तत्र चेति। सप्तमीभ्यां प्रकृतं यज्ञादि गृह्यते सर्वं यज्ञादि सगुणमिति शेषः। तस्यासत्त्वं साधयति -- मत्प्राप्तीति। ऐहिकामुष्मिकं वा फलमश्रद्धितेनापि कर्मणा संपत्स्यते कुतोऽस्यासत्त्वमित्याशङ्क्याह -- नचेति। तस्योभयविधफलाहेतुत्वे हेतुमाह -- साधुभिरिति। निन्दन्ति हि साधवः श्रद्धारहितं कर्मातो नैतदुभयफलौपयिकमित्यर्थः। तदनेन शास्त्रानभिज्ञानमपि श्रद्धावतां श्रद्धया सात्त्विकत्वादित्रैविध्यभाजां राजसतामसाहारादित्यागेन सात्त्विकाहारादिसेवया सत्त्वैकशरणानां प्राप्तमपि यज्ञादिवैगुण्यं ब्रह्मनामनिर्देशेन,परिहरतां परिशुद्धबुद्धीनां श्रवणादिसामग्रीसंजाततत्त्वसाक्षात्कारवतां मोक्षोपपत्तिरिति स्थितम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
Sri Vallabhacharya
।।17.28।।किञ्च यज्ञादिकं हुतादिकं च यत्कृतं अश्रद्धया शास्त्रीयश्रद्धाराहित्येन तदसद्व्यर्थमित्यर्थः। कुतः न च तत्प्रेत्य नो इहेति उभयलोकसुखासाधकत्वादित्यर्थः।
Sridhara Swami
।।17.28।।इदानीं सर्वकर्मसु श्रद्धयैव प्रवृत्त्यर्थमश्रद्धाकृतं सर्वं निन्दति -- अश्रद्धयेति। अश्रद्धया हुतं हवनं? दत्तं दानं? तप्तं निर्वर्तितं तपः। यच्चान्यदपि कृतं कर्म तत्सर्वमसदित्युच्यते। यतस्तत्प्रेत्य लोकान्तरे न फलति विगुणत्वात्। नो इह न चास्मिंल्लोके फलति? अयशस्करत्वात्।