Bhagavad Gita Chapter 17 Verse 17 — Meaning & Life Application

Sanskrit Shloka (Original)

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः | अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ||१७-१७||

Transliteration

śraddhayā parayā taptaṃ tapastattrividhaṃ naraiḥ . aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ sāttvikaṃ paricakṣate ||17-17||

Word-by-Word Meaning

श्रद्धयाwith faith
परयाhighest
तप्तम्practised
तपःausterity
तत्that
त्रिविधम्threefold
नरैःby men
अफलाकाङ्क्षिभिःdesiring no fruit
युक्तैःsteadfast
सात्त्विकम्Sattvic
परिचक्षते(they) declare.Commentary Trividham Threefold -- physical

📖 Translation

English

17.17 This threefold austerity, practised by steadfast men, with the utmost faith, desiring no reward, they call Sattvic.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।17.17।। फल की आकांक्षा न रखने वाले युक्त पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से किये गये उस पूर्वोक्त त्रिविध तप को सात्त्विक कहते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Approach tasks with complete dedication, integrity (in speech and thought), and unwavering focus, driven by a belief in the inherent value of the work itself, rather than solely for promotion, recognition, or monetary reward. Maintain discipline and steadfastness, trusting that sincere, pure effort yields appropriate results over time.

🧘 For Stress & Anxiety

Significantly reduce anxiety by detaching from the *outcome* of your efforts, focusing instead on the purity, intention, and quality of your actions. Cultivate deep faith in a higher purpose, your chosen path, or the inherent goodness of your endeavors, providing a stable mental anchor amidst life's uncertainties. Practice mental and vocal discipline to avoid self-criticism or negative rumination.

❤️ In Relationships

Invest in relationships with genuine care, an open heart, and unwavering commitment, giving love, time, and support without expecting immediate or specific returns. Engage in honest, kind, and mindful communication (vocal austerity) and harbor positive, supportive intentions (mental austerity) towards others, building trust and depth based on selfless connection rather than transactional exchanges.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

True purity and peace in any endeavor arise from unwavering faith, disciplined effort, and profound detachment from its fruits.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

17.17 श्रद्धया with faith? परया highest? तप्तम् practised? तपः austerity? तत् that? त्रिविधम् threefold? नरैः by men? अफलाकाङ्क्षिभिः desiring no fruit? युक्तैः steadfast? सात्त्विकम् Sattvic? परिचक्षते (they) declare.Commentary Trividham Threefold -- physical? vocal and mental.Yuktaih Steadfast Balanced in mind? unaffected in success and failure.Sraddhaya With faith With belief in the existence of God? in the words of the preceptor? in the teachings of the scriptures and in ones own Self.

Shri Purohit Swami

17.17 These threefold austerities performed with faith, and without thought of reward, may truly be accounted Pure.

Dr. S. Sankaranarayan

17.17. This three-fold austerity, undertaken (observed) with best faith, by men who are maters of Yoga and have no desire for its fruits-they call it to be of the Sattva.

Swami Adidevananda

17.17 The threefold austerity, practised with supreme faith by men who desire no fruit and are devoted - they call it austerity of Sattva.

Swami Gambirananda

17.17 When that threefold austerity is undertaken with supreme faith by people who do not hanker after results and are self-controlled, they speak of it as born of sattva.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।17.17।। जब? शरीर? वाङ्मय और मानस तपों का आचरण फलासक्ति के बिना किया जाता है? तब वह तपाचरण सात्त्विक कहलाता है। वे योगयुक्त पुरुष सात्त्विक हैं? जो भविष्य में प्राप्त होने वाले फलों की कदापि चिन्ता नहीं करते हैं। वे जानते हैं कि प्रकृति में सामञ्जस्य और नियमबद्धता है। अत? वर्तमान काल की दशा से प्रभावित हुआ सम्पूर्ण भूतकाल का परिणामी फल ही भविष्य होता है इस तथ्य से वे भलीभांति परिचित होते हैं। वर्तमान की कर्मकुशलता पर ही भावी फल निर्भर करता है। इसलिए फल की चिन्ता करके वर्तमान के सुअवसरों को खोना मूढ़ता का ही लक्षण है। सात्त्विक पुरुष फलासक्ति का त्याग कर त्रिविध तप का आचरण करते हैं जिसका उन्हें सर्वाधिक फल प्राप्त होता है।

Swami Ramsukhdas

।।17.17।। व्याख्या --   श्रद्धया परया तप्तम् -- शरीर? वाणी और मनके द्वारा जो तप किया जाता है? वह तप ही मनुष्योंका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है और यही मानवजीवनके उद्देश्यकी पूर्तिका अचूक उपाय है (टिप्पणी प0 854) तथा इसको साङ्गोपाङ्ग -- अच्छी तरहसे करनेपर मनुष्यके लिये कुछ करना बाकी नहीं रहता अर्थात् जो वास्तविक तत्त्व है? उसमें स्वतः स्थिति हो जाती है -- ऐसे अटल विश्वासपूर्वक श्रेष्ठ श्रद्धा करके बड़ेबड़े विघ्न और बाधाओंकी कुछ भी परवाह न करते हुए उत्साह एवं आदरपूर्वक तपका आचरण करना ही परम श्रद्धासे युक्त मनुष्योंद्वारा उस तपको करना है।अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः नरैः -- यहाँ इन दो विशेषणोंसहित नरैः पद देनेका तात्पर्य यह है कि आंशिक सद्गुणसदाचार तो प्राणिमात्रमें रहते ही हैं परन्तु मनुष्यमें यह विशेषता है कि वह सद्गुणसदाचारोंको साङ्गोपाङ्ग एवं विशेषतासे अपनेमें ला सकता है और दुर्गुणदुराचार? कामना? मूढ़ता आदि दोषोंको सर्वथा मिटा सकता है। निष्कामभाव मनुष्योंमें ही हो सकता है।सात्त्विक तपमें तो नर शब्द दिया है परन्तु राजसतामस तपमें मनुष्यवाचक शब्द दिया ही नहीं। तात्पर्य यह है कि अपना कल्याण करनेके उद्देश्यसे मिले हुए अमूल्य शरीरको पाकर भी जो कामना? दम्भ? मूढ़ता आदि दोषोंको पकड़े हुए हैं? वे मनुष्य कहलानेके लायक ही नहीं हैं।फलकी इच्छा न रखकर निष्कामभावसे तपका अनुष्ठान करनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ उपर्युक्त पद आये हैं।तपस्तत्ित्रविधम् -- यहाँ केवल सात्त्विक तपमें त्रिविध पद दिया है और राजस तथा तामस तपमें,त्रिविध पद न देकर यत्तत् पद देकर ही काम चलाया है। इसका आशय यह है कि शारीरिक? वाचिक और मानसिक -- तीनों तप केवल सात्त्विकमें ही साङ्गोपाङ्ग आ सकते हैं? राजस तथा तामसमें तो आंशिकरूपसे ही आ सकते हैं। इसमें भी राजसमें कुछ अधिक लक्षण आ जायँगे क्योंकि राजस मनुष्यका शास्त्रविधिकी तरफ खयाल रहता है। परन्तु तामसमें तो उन तपोंके बहुत ही कम लक्षण आयँगे क्योंकि तामस मनुष्योंमें मूढ़ता? दूसरोंको कष्ट देना आदि दोष रहते हैं।दूसरी बात? तेरहवें अध्यायमें सातवेंसे ग्यारहवें श्लोकतक जो ज्ञानके बीस साधनोंका वर्णन आया है? उनमें भी शारीरिक तपके तीन लक्षण -- शौच? आर्जव और अहिंसा तथा मानसिक तपके दो लक्षण -- मौन और आत्मविनिग्रह आये हैं। ऐसे ही सोलहवें अध्यायमें पहलेसे तीसरे श्लोकतक जो दैवीसम्पत्तिके छब्बीस लक्षण बताये गये हैं? उनमें भी शारीरिक तपके तीन लक्षण -- शौच? अहिंसा और आर्जव तथा वाचिक तपके दो लक्षण -- सत्य और स्वाध्याय आये हैं। अतः ज्ञानके जिन साधनोंसे तत्त्वबोध हो जाय तथा दैवीसम्पत्तिके,जिन गुणोंसे मुक्ति हो जाय? वे लक्षण या गुण राजसतामस नहीं हो सकते। इसलिये राजस और तामस तपमें शारीरिक? वाचिक और मानसिक -- यह तीनों प्रकारका तप साङ्गोपाङ्ग नहीं लिया जा सकता। वहाँ तो यत्तत् पदोंसे आंशिक जितनाजितना आ सके? उतनाउतना ही लिया जा सकता है।तीसरी बात? भगवद्गीताका आदिसे अन्ततक अध्ययन करनेपर यह असर पड़ता है कि इसका उद्देश्य केवल जीवका कल्याण करनेका है। कारण कि अर्जुनका जो प्रश्न है? वह निश्चित श्रेय(कल्याण) का है (2। 7 3। 2 5। 1)। भगवान्ने भी उत्तरमें जितने साधन बताये हैं? वे सब जीवोंका निश्चित कल्याण हो जाय -- इस लक्ष्यको लेकर ही बताये हैं। इसलिये गीतामें जहाँकहीं सात्त्विक? राजस और तामस भेद किया गया है? वहाँ जो सात्त्विक विभाग है? वह ग्राह्य है क्योंकि वह मुक्ति देनेवाला है -- दैवी सम्पद्विमोक्षाय और जो राजसतामस विभाग है? वह त्याज्य है क्योंकि वह बाँधनेवाला है -- निबन्धायासुरी मता। इसी आशयसे भगवान् यहाँ सात्त्विक तपमें शारीरिक? वाचिक और मानसिक -- इन तीनों तपोंका लक्ष्य करानेके लिये त्रिविधम् पद देते हैं।सात्त्विकं परिचक्षते -- परम श्रद्धासे युक्त? फलको न चाहनेवाले मनुष्योंके द्वारा जो तप किया जाता है? वह सात्त्विक तप कहलाता है।

Swami Tejomayananda

।।17.17।। फल की आकांक्षा न रखने वाले युक्त पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से किये गये उस पूर्वोक्त त्रिविध तप को सात्त्विक कहते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।17.17।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,

Sri Anandgiri

।।17.17।।त्रिविधस्य तपसो यथासंभवं सात्त्विकादिभावेन तन्त्रैविध्यमाकाङ्क्षाद्वारा निक्षिपति -- यथोक्तमिति। अधिष्ठानं देहवाङ्मनोनिर्वर्त्यमित्यर्थः। समाहितैः सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारैरिति यावत्।

Sri Vallabhacharya

।।17.17।।त्रिविधस्य तस्य तपसः सात्विकादिभेदेन त्रैविध्यमाह -- श्रद्धयेति त्रिभिः।

Sridhara Swami

।।17.17।।तदेवं शरीरवाङ्मनोभिर्निर्वर्त्यं त्रिविधं तपो दर्शितम्। त्रिविधस्यापि तपसः सात्त्विकादिभेदेन त्रैविध्यमाह -- श्रद्धयेति त्रिभिः। त्रिविधमपि तपः श्रेष्ठया श्रद्धया फलाकाङ्क्षाशून्यैर्युक्तैरेकाग्रचित्तैर्नरैस्तप्तं तत्सात्त्विकं कथयन्ति।

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