Bhagavad Gita Chapter 17 Verse 1 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Nature of Faith (Shraddha)

Sanskrit Shloka (Original)

अर्जुन उवाच | ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः | तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ||१७-१||

Transliteration

arjuna uvāca . ye śāstravidhimutsṛjya yajante śraddhayānvitāḥ . teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa sattvamāho rajastamaḥ ||17-1||

Word-by-Word Meaning

येwho
शास्त्रविधिम्the ordinances of the scriptures
उत्सृज्यsetting aside
यजन्तेperform sacrifice
श्रद्धयाwith faith
अन्विताःendowed
तेषाम्their
निष्ठाcondition
तुverily
काwhat
कृष्णO Krishna
सत्त्वम्Sattva
आहोor
रजःRajas

📖 Translation

English

17.1 Arjuna said Those who, setting aside the ordinances of the scriptures, perform sacrifice with faith, what is their condition, O Krishna? Is is Sattva, Rajas or Tamas?

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

Focus on bringing genuine dedication and belief to your work, even if you can't always follow every corporate policy or industry standard to the letter. Your sincerity and commitment to the goal can be more impactful than rigid adherence to methods that don't fit your situation, provided the intent is ethical.

🧘 For Stress & Anxiety

Release the anxiety of perfect adherence to external guidelines or societal expectations. If your core intention is pure and you act with sincere faith in your path, allow yourself grace when unable to meet every 'rule'. Trust your internal compass (Shraddha) to guide you, reducing perfectionism-induced stress.

❤️ In Relationships

Build relationships based on genuine love, trust, and sincere effort, rather than strictly adhering to conventional social norms or 'relationship rules.' Authenticity and heartfelt connection, even if unconventional, can foster deeper bonds than mere adherence to external protocols.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Sincere faith and pure intention in your actions matter profoundly, even when you cannot perfectly adhere to every prescribed rule or external ordinance. The quality of your conviction defines your path.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

17.1 ये who? शास्त्रविधिम् the ordinances of the scriptures? उत्सृज्य setting aside? यजन्ते perform sacrifice? श्रद्धया with faith? अन्विताः endowed? तेषाम् their? निष्ठा condition? तु verily? का what? कृष्ण O Krishna? सत्त्वम् Sattva? आहो or? रजः Rajas? तमः Tamas.Commentary This chapter deals with the three kinds of people who are endowed with three kinds of faith. Each of them follows a path in accordance with his inherent nature -- either Sattvic? Rajasic or Tamasic.Arjuna says to Krishna It is very difficult to grasp the meaning of the scriptures. It is still more difficult to get a spiritual preceptor who can teach the scriptures. The vast majority of persons are not endowed with a pure? subtle? sharp and onepointed intellect. The span of life is short. The scriptures are endless. The obstacles on the spiritual path are many. Facilities for learning are not always available.There are conflicting statements in the scriptures which have to be reconciled. Thou hast said that liberation is not possible without a knowledge of the scriptures. An ordinary man? though ignorant of or unable to follow this teaching? does charity? performs rituals? worships the Lord with faith? tries to follow the footsteps of sages and saints just as a child copies letters that have been written out for him as a model? or as a blind man makes hiw way by the aid of another who possesses sight. What faith is his How should the state of such a man be described -- Sattvic? Rajasic or Tamasic What is the fate of the believers who have no knowledge of the scriptures

Shri Purohit Swami

17.1 "Arjuna asked: My Lord! Those who do acts of sacrifice, not according to the scriptures but nevertheless with implicit faith, what is their condition? Is it one of Purity, of Passion or of Ignorance?

Dr. S. Sankaranarayan

17.1. Arjuna said Those who remain with faith, but neglecting the scriptural injunction, - what is their state ? Is it Sattva, Rajas or Tamas ? O Krsna !

Swami Adidevananda

17.1 Arjuna said Now what, O Krsna, is the position or basis of those who leave aside the injunction of the Sastra, yet worship with faith? Is it Sattva, Rajas or Tamas?

Swami Gambirananda

17.1 Arjuna said But, ['But' is used to present a standpoint distinct from the earlier ones understand from 16.23-4.-S.] O Krsna, what is the state [i.e., where do the rites undertaken by them end?] of those who, endued with faith, adore [Adore-perform sacrifices, distribute wealth etc. in honour of gods and others.] by ignoring the injunctions of the scriptures? Is it sattva, rajas or tamas?

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।17.1।। पूर्वाध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने शास्त्रों के प्रामाण्य एवं अध्ययन पर विशेष बल दिया था। उसी बिन्दु से विचार को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन यहाँ प्रश्न पूछ रहा है। वह चाहता है कि भगवान् श्रीकृष्ण विस्तृतरूप से इसका विवेचन करें कि किस प्रकार हम प्रभावशाली और लाभदायक आध्यात्मिक जीवन को अपना सकते हैं। इसके साथ ही अध्यात्मविषयक भ्रान्त धारणाओं का भी वे निराकरण करें।शास्त्रविधि को त्यागकर प्राय धर्मशास्त्रों से अनभिज्ञ होने के कारण सामान्य जनों को शास्त्रीय विधिविधान उपलब्ध नहीं होते हैं। यदि शास्त्रों को उपलब्ध कराया भी जाये? तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं? जिनमें तत्प्रतिपादित ज्ञान को समझने की बौद्धित क्षमता होती है। सांसारिक जीवन में कर्मों की उत्तेजनाओं तथा मानसिक चिन्ताओं और व्याकुलता के कारण शास्त्रनिर्दिष्ट मार्ग के अनुसार अपना जीवन सुनियोजित करने की पात्रता हम में नहीं होती। परन्तु? इन सबका अभाव होते हुए भी एक लगनशील साधक को श्रेष्ठतर जीवन पद्धति तथा धर्म के आदर्श में दृढ़ श्रद्धा और भक्ति हो सकती है। इसलिए अर्जुन के प्रश्न का औचित्य सिद्ध होता है।यहाँ प्रयुक्त यज्ञ शब्द से वैदिक पद्धति के होमहवन आदि ही समझना आवश्यक नहीं हैं। गीता सम्पूर्ण शास्त्र है और उसमें उन शब्दों की अपनी परिभाषाएं भी दी गयी है। यज्ञ शब्द की परिभाषा में वे समस्त कर्म समाविष्ट हैं? जिन्हें समाज के लोग अपनी लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए निस्वार्थ भाव से करते हैं। अर्जुन की जिज्ञासा यह है कि जगत् के पारमार्थिक अधिष्ठान को जाने बिना भी यदि मनुष्य यज्ञभावना से कर्म करता है? तो क्या वह परम शान्ति को प्राप्त कर सकता है उसकी स्थिति क्या कही जायेगी अपने प्रश्न को और अधिक स्पष्ट करते हुए वह पूछता है कि ऐसे श्रद्धावान् साधक की निष्ठा कौनसी श्रेणी में आयेगी सात्त्विक ?राजसिक या त्ाामसिक

Swami Ramsukhdas

।।17.1।। व्याख्या    --   ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य ৷৷. सत्त्वमाहो रजस्तमः -- श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका संवाद सम्पूर्ण जीवोंके कल्याणके लिये है। उन दोनोंके सामने कलियुगकी जनता थी क्योंकि द्वापरयुग समाप्त हो रहा था। आगे आनेवाले कलियुगी जीवोंकी तरफ दृष्टि रहनेसे अर्जुन पूछते हैं कि महाराज जिन मनुष्योंका भाव बड़ा अच्छा है? श्रद्धाभक्ति भी है? पर शास्त्रविधिको जानते नहीं (टिप्पणी प0 833.3)। यदि वे जान जायँ? तो पालन करने लग जायँ? पर उनको पता नहीं। अतः उनकी क्या स्थिति होती हैआगे आनेवाली जनतामें शास्त्रका ज्ञान बहुत कम रहेगा। उन्हें अच्छा सत्सङ्ग मिलना भी कठिन होगा क्योंकि अच्छे सन्तमहात्मा पहले युगोंमें भी कम हुए हैं? फिर कलियुगमें तो और भी कम होंगे। कम होनेपर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है। परन्तु मुश्किल यह है कि कलियुगमें दम्भ? पाखण्ड ज्यादा होनेसे कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं। अतः सच्चे सन्त पहचानमें आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्तमहात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायँ तो उनमेंसे कौनसे संत कैसे हैं -- इस बातकी पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें -- ऐसी बात भी नहीं है। अतः जो शास्त्रविधिको भी नहीं जानते और असली सन्तोंका सङ्ग भी नहीं मिलता? परन्तु जो कुछ यजनपूजन करते हैं? श्रद्धासे करते हैं -- ऐसे मनुष्योंकी निष्ठा कौनसी होती है सात्त्विकी अथवा राजसीतामसीसत्त्वमाहो रजस्तमः पदोंमें सत्त्वगुणको दैवीसम्पत्तिमें और रजोगुण तथा तमोगुणको आसुरीसम्पत्तिमें ले लिया गया है। रजोगुणको आसुरीसम्पत्तिमें लेनेका कारण यह है कि रजोगुण तमोगुणके बहुत निकट है (टिप्पणी प0 834.1)। गीतामें कई जगह ऐसी बात आयी है जैसे -- दूसरे अध्यायके बासठवेंतिरसठवें श्लोकोंमें काम अर्थात् रजोगुणसे क्रोध और क्रोधसे मोहरूप तमोगुणका उत्पन्न होना बताया गया है (टिप्पणी प0 834.2)। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें हिंसात्मक और शोकान्वितको रजोगुणी कर्ताका लक्षण बताया गया है और अठारहवें अध्यायके ही पचीसवें श्लोकमें हिंसा को तामस कर्मका लक्षण और पैंतीसवें श्लोकमें शोक को तामस धृतिका लक्षण बताया गया है। इस प्रकार रजोगुण और तमोगुणके बहुतसे लक्षण आपसमें मिलते हैं।सात्त्विक भाव? आचरण और विचार दैवीसम्पत्तिके होते हैं और राजसीतामसी भाव? आचरण और विचार आसुरीसम्पत्तिके होते हैं। सम्पत्तिके अनुसार ही निष्ठा होती है अर्थात् मनुष्यके जैसे भाव? आचरण और विचार होते हैं? उन्हींके अनुसार उसकी स्थिति (निष्ठा) होती है। स्थितिके अनुसार ही आगे गति होती है। आप कहते हैं कि शास्त्रविधिका त्याग करके मनमाने ढंगसे आचरण करनेपर सिद्धि? सुख और परमगति नहीं मिलती? तो जब उनकी निष्ठाका ही पता नहीं? फिर उनकी गतिका क्या पता लगे इसलिये आप उनकी निष्ठा बताइये? जिससे पता लग जाय कि वे सात्त्विकी गतिमें जाननेवाले हैं या राजसीतामसी गतिमें।कृष्ण का अर्थ है -- खींचनेवाला। यहाँ कृष्ण सम्बोधनका तात्पर्य यह मालूम देता है कि आप ऐसे मनुष्योंको अन्तिम समयमें किस ओर खींचेगे उनको किस गतिकी तरफ ले जायँगे छठे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भी अर्जुनने गतिविषयक प्रश्नमें कृष्ण सम्बोधन दिया है -- कां गतिं कृष्ण गच्छति। यहाँ भी अर्जुनका निष्ठा पूछनेका तात्पर्य गतिमें ही है।मनुष्यको भगवान् खींचते हैं या वह कर्मोंके अनुसार स्वयं खींचा जाता है वस्तुतः कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है? पर कर्मफलके विधायक होनेसे भगवान्का खींचना सम्पूर्ण फलोंमें होता है। तामसी कर्मोंका फल,नरक होगा? तो भगवान् नरकोंकी तरफ खींचेंगे। वास्तवमें नरकोंके द्वारा पापोंका नाश करके प्रकारान्तरसे भगवान् अपनी तरफ ही खींचते हैं। उनका किसीसे भी वैर या द्वेष नहीं है। तभी तो आसुरी योनियोंमें जानेवालोंके लिये भगवान् कहते हैं कि वे मेरेको प्राप्त न होकर अधोगतिमें चले गये (16। 20)। कारण कि उनका अधोगतिमें जाना भगवान्को सुहाता नहीं है। इसलिये सात्त्विक मनुष्य हो? राजस मनुष्य हो या तामस मनुष्य हो? भगवान् सबको अपनी तरफ ही खींचते हैं। इसी भावसे यहाँ कृष्ण सम्बोधन आया है। सम्बन्ध --   शास्त्रविधिको न जाननेपर भी मनुष्यमात्रमें किसीनकिसी प्रकारकी स्वभावजा श्रद्धा तो रहती ही है। उस श्रद्धाके भेद आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Swami Tejomayananda

।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।17.1।।सर्वगुणपूर्णाय नमः। श्रीः। गुणभेदान् प्रपञ्चयत्यनेनाध्यायेन शास्त्रविधिमुत्सृज्य अज्ञात्वैव।वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना [मनुः2।165] इति विधिरुत्सृष्टो हि तैः। ये वै वेदं न पठन्ते न चार्थं वेदोज्झांस्तान्विद्धि सानूनबुद्धीन् इति माधुच्छन्दसश्रुतिः। अन्यथा तु तामसा इत्येवोच्येत। न तु विभज्य। यदि सात्विकास्तर्हि नोत्सृष्टशास्त्राः। न हि वेदविरुद्धो धर्मः।वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् [मनुः2।6] इति हि स्मृतिः।वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः इति च भागवते [6।1।40]।

Sri Anandgiri

।।17.1।।आस्तिकानां नास्तिकानां च शास्त्रैकचक्षुषां गतिरुक्ता संप्रत्यास्तिकानामेव शास्त्रानभिज्ञानां गतिजिज्ञासया पृच्छतीत्याह -- तस्मादिति। यजन्त इति यागग्रहणं दानादेरुपलक्षणम्। यदि वेदोक्तं विधिमपश्यन्तस्तमुत्सृजन्ति कथं तर्हि श्रद्दधाना यागादि कुर्वन्ति? नहि मानं विना श्रद्धया यागादि कर्तुं शक्यमित्याशङ्क्याह -- श्रुतीति। ननु शास्त्रीयं विधिं पश्यन्तोऽपि केचित्तमुपेक्ष्य स्वोत्प्रेक्षया यागादि कुर्वन्तो दृश्यन्ते तेषामिह ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य इति ग्रहो भविष्यति नेत्याह -- ये पुनरिति। तेषामत्रापरिग्रहे प्रश्नपूर्वकं हेतुमाह -- कस्मादिति। शास्त्रज्ञानं तदुपेक्षावतां ग्रहेऽपि विशेषणमविरुद्धमित्याशङ्क्य व्याघातान्मैवमित्याह -- देवादीति। अश्रद्दधानतया तदुत्सृज्येति संबन्धः। शास्त्रोक्तं विधिमधिगच्छतामपि तमवधीर्य स्वेच्छया देवपूजादौ प्रवृत्तानामासुरेष्वेवान्तर्भावो यस्मादनन्तराध्याये सिद्धस्तस्मादास्तिकाधिकारे तेषां प्रसङ्गो नास्तीत्युपसंहरति -- यस्मादिति। पूर्वोक्ताः शास्त्रानभिज्ञाः। वृद्धव्यवहारानुसारिण इति यावत्। तैः श्रद्धया क्रियमाणं कर्म कुत्र पर्यवस्यतीति पृच्छति -- तेषामिति। का निष्ठेत्येतद्विवृणोति -- सत्त्वमिति। कार्याणां कारणैर्व्यपदेशमाश्रित्य तात्पर्यमाह -- एतदिति।

Sri Vallabhacharya

।।17.1।।पूर्वाध्यायान्तेयः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् [16।23] इत्यनेन शास्त्रविधिमुत्सृज्य स्वच्छन्दश्रद्धातो वर्त्तमानस्य दैवासुरविभागोक्तिमुखेन प्राप्यतत्त्वज्ञानाप्तिरूपा न सिद्धिरित्युक्तं? तत्राऽऽर्जुनः पृच्छति -- अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्येति। त्यक्त्वा वर्त्तन्ते कामकारशब्दनिर्दिष्टया श्रद्धयाऽन्विताः तेषां निष्ठा का हे कर्षक किं सत्त्वमाहो रजस्तम इति तेषां सत्त्वविषयिणी सा रजस्तमोविषयिणी वा निष्ठा इति प्रश्नतात्पर्यम्।

Sridhara Swami

।।17.1।।उक्ताधिकारहेतूनां श्रद्धा मुख्या तु सात्त्विकी। इति सप्तदशे गौणश्रद्धाभेदस्त्रिधोच्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्तेयः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति इत्यनेन शास्त्रोक्तविधिमुत्सृज्य कामकारेण वर्तमानस्य ज्ञानेऽधिकारो नास्तीत्युक्तम्। तत्र शास्त्रविधिमुत्सृज्य कामकारं विना श्रद्धया वर्तमानानां किमधिकारोऽस्ति नास्ति वेति बुभुत्सया अर्जुन उवाच -- य इति। अत्र शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते इत्यनेन शास्त्रार्थं बुध्वा तमुल्लङ्घ्य वर्तमानाश्च गृह्यन्ते? तेषां श्रद्धया यजनानुपपत्तेः। आस्तिक्यबुद्धिर्हि श्रद्धा। न चासौ शास्त्रज्ञानवतां शास्त्रविरुद्धेऽर्थे संभवति। तानेवाधिकृत्यत्रिविधा भवति श्रद्धा?यजन्ते सात्त्विका देवान् इत्याद्युत्तरानुपपत्तेश्च। अतो नात्र शास्त्रातिलङ्घिनो गृह्यन्ते अपितु क्लेशबुद्ध्या आलस्याद्वा शास्त्रार्थज्ञाने प्रयत्नमकृत्वा केवलमाचारपरम्परावशेन श्रद्धया क्वतिद्देवताराधनादौ प्रवर्तमाना गृह्यन्ते। अतोऽयमर्थःये शास्त्रविधिमुत्सृज्य दुःखबुद्ध्या आलस्याद्वा अनादृत्य केवलमाचारप्रामाण्येन श्रद्धयान्विताः सन्तो यजन्ते तेषां तु का निष्ठा का स्थितिः क आश्रयः तामेव विशेषेण पृच्छति किं सत्त्वं? आहो किं वा रजः? अथवा तम इति। तेषां तादृशी देवपूजादिप्रवृत्तिः किं सत्त्वसंश्रिता रजःसंश्रिता वा तमःसंश्रिता वेत्यर्थः। श्रद्धायाः सात्त्विकत्वात्? क्लेशबुद्ध्या आलस्येन च शास्त्रानादरस्य च राजसतामसत्वात्त्रेधा संदेहः। यदि सत्त्वभावसंश्रितास्तर्हि तेषामपि सात्त्विकत्वाद्यथोक्तात्मज्ञानेऽधिकारः स्यात् अन्यथा नेति प्रश्नतात्पर्यार्थः।

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