Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 6 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Devotion (Bhakti Yoga)

Sanskrit Shloka (Original)

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः | अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ||१२-६||

Transliteration

ye tu sarvāṇi karmāṇi mayi saṃnyasya matparaḥ . ananyenaiva yogena māṃ dhyāyanta upāsate ||12-6||

Word-by-Word Meaning

येwho
तुbut
सर्वाणिall
कर्माणिactions
मयिin Me
संन्यस्यrenouncing
मत्पराःregarding Me as the supreme goal
अनन्येनsingleminded
एवeven
योगेनwith the Yoga
माम्Me
ध्यायन्तःmeditating
उपासतेworship.Commentary Ananya Yoga Unswerving Yoga exclusive

📖 Translation

English

12.6 But to those who worship Me, renouncing all actions in Me, regarding Me as the supreme gaol, meditating on Me with single-minded Yoga.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।12.6।। परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

In your work, dedicate your efforts not just for personal gain, but for a higher purpose or the greater good. Perform tasks with complete focus and diligence, surrendering attachment to specific outcomes or recognition, trusting that your best efforts contribute to a larger design.

🧘 For Stress & Anxiety

When overwhelmed, practice 'single-minded yoga' by fully immersing yourself in the present moment or a specific positive intention. Renounce the burden of controlling all outcomes; instead, surrender anxieties to a higher power or the natural flow of life, trusting that everything unfolds as it should, allowing for inner peace.

❤️ In Relationships

Approach relationships with selfless devotion, focusing on giving love and support without expectation of return. See the divine or the inherent goodness in others, and dedicate your interactions to fostering growth and harmony, rather than seeking personal validation or control.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate unwavering devotion to a higher purpose, dedicating all your actions and their fruits, and find ultimate peace and fulfillment through single-minded focus.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

12.6 ये who? तु but? सर्वाणि all? कर्माणि actions? मयि in Me? संन्यस्य renouncing? मत्पराः regarding Me as the supreme goal? अनन्येन singleminded? एव even? योगेन with the Yoga? माम् Me? ध्यायन्तः meditating? उपासते worship.Commentary Ananya Yoga Unswerving Yoga exclusive? having no other objects of worship or support save the Lord Samadhi.Even in Bhakti Yoga one should not abandon actions. He must perform actions but he will have to dedicate the merits or the fruits to the Lord. (Cf.IX.27)

Shri Purohit Swami

12.6 Verily, those who surrender their actions to Me, who muse on Me, worship Me and meditate on Me alone, with no thought save of Me,

Dr. S. Sankaranarayan

12.6. On the other hand, those who, having renounced all their actions in Me, have Me [alone] their goal; and revere Me, meditating on Me by that Yoga alone, which admits no other element but Me in it;

Swami Adidevananda

12.6 For, those who dedicate all actions to Me, hold Me as their supreme goal, intent on Me, and worship Me meditating on Me with exclusive devotion;

Swami Gambirananda

12.6 As for those who, having dedicated all actions to Me and accepted Me as the supreme, meditate by thinking of Me with single-minded concentration only-.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।12.6।। See Commentary under 12.7

Swami Ramsukhdas

।।12.6।। व्याख्या--[ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने अनन्य भक्तके लक्षणोंमें तीन विध्यात्मक '(मत्कर्मकृत्, मत्परमः और मद्भक्तः)' और दो निषेधात्मक '(सङ्गवर्जितः' और 'निर्वैरः') पद दिये थे। उन्हीं पदोंका संकेत इस श्लोकमें इस प्रकार किया गया है --     (1) 'सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य' पदोंसे 'मत्कर्मकृत्' की ओर लक्ष्य है।   (2) 'मत्पराः' पदसे 'मत्परमः' का संकेत है।   (3) 'अनन्येनैव योगेन' पदोंमें 'मद्भक्तः' का लक्ष्य है।   (4) भगवान्में ही अनन्यतापूर्वक लगे रहनेके कारण उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती अतः वे 'सङ्गवर्जितः' हैं।   (5) कहीं भी आसक्ति न रहनेके कारण उनके मनमें किसीके प्रति भी वैर? द्वेष? क्रोध आदिका भाव नहीं रहता? इसलिये 'निर्वैरः' पदका भाव भी इसीके अन्तर्गत आ जाता है। परन्तु भगवान्ने इसे महत्त्व देनेके लिये आगे तेरहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें सबसे पहले 'अद्वेष्टा' पदका प्रयोग किया है। अतः साधकको किसीमें किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं रखना चाहिये]।   'ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य'-- अब यहाँसे निर्गुणोपासनाकी अपेक्षा सगुणोपासनाकी सुगमता बतानेके लिये तु पदसे प्रकरणभेद करते हैं।  यद्यपि 'कर्माणि' पद स्वयं ही बहुवचनान्त होनेसे सम्पूर्ण कर्मोंका बोध कराता है? तथापि इसके साथ सर्वाणि विशेषण देकर मन? वाणी? शरीरसे होनेवाले सभी लौकिक (शरीरनिर्वाह और आजीविकासम्बन्धी) एवं पारमार्थिक (जपध्यानसम्बन्धी) शास्त्रविहित कर्मोंका समावेश किया गया है (गीता 9। 27)। यहाँ 'मयि संन्यस्य' पदोंसे भगवान्का आशय क्रियाओंका स्वरूपसे त्याग करनेका नहीं है। कारण कि एक तो स्वरूपसे कर्मोंका त्याग सम्भव नहीं (गीता 3। 5 18। 11)। दूसरे? यदि सगुणोपासक मोहपूर्वक शास्त्रविहित क्रियाओंका स्वरूपसे त्याग करता है, तो उसका यह त्याग तामस होगा (गीता 18। 7) और यदि दुःखरूप समझकर शारीरिक क्लेशके भयसे वह उनका त्याग करता है, तो यह त्याग राजस होगा ( गीता 18। 8)। अतः इस रीतिसे त्याग करनेपर कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं छूटेगा। कर्मबन्धनसे मुक्त होनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक कर्मोंमें ममता, आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करे क्योंकि ममता, आसक्ति और फलेच्छासे किये गये कर्म ही बाँधनेवाले होते हैं।   यदि साधकका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति होता है, तो वह पदार्थोंकी इच्छा नहीं करता और अपनेआपको भगवान्का समझनेके कारण उसकी ममता शरीरादिसे हटकर एक भगवान्में ही हो जाती है। स्वयं भगवान्के अर्पित होनेसे उसके सम्पूर्ण कर्म भी भगवदर्पित हो जाते हैं।  भगवान्के लिये कर्म करनेके विषयमें कई प्रकार हैं, जिनको गीतामें मदर्पण कर्म, मदर्थ कर्म और,मत्कर्म नामसे कहा गया है।  1 -- मदर्पण कर्म उन कर्मोंको कहते हैं, जिनका उद्देश्य पहले कुछ और हो किन्तु कर्म करते समय अथवा कर्म करनेके बाद उनको भगवान्के अर्पण कर दिया जाय।  2 -- मदर्थ कर्म वे कर्म हैं, जो आरम्भसे ही भगवान्के लिये किये जायँ अथवा जो भगवत्सेवारूप हों। भगवत्प्राप्तिके लिये कर्म करना भगवान्की आज्ञा मानकर कर्म करना? और भगवान्की प्रसन्नताके लिये कर्म करना -- ये सभी भगवदर्थ कर्म हैं।  3 -- भगवान्का ही काम समझकर सम्पूर्ण लौकिक (व्यापार, नौकरी आदि) और भगवत्सम्बन्धी (जप, ध्यान आदि) कर्मोंको करना मत्कर्म है। वास्तवमें कर्म कैसे भी किये जायँ, उनका उद्देश्य एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही होना चाहिये।उपर्युक्त तीनों ही प्रकारों(मदर्पणकर्म, मदर्थकर्म, मत्कर्म)से सिद्धि प्राप्त करनेवाले साधकका कर्मोंसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि उसमें न तो फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान है और न पदार्थोंमें और शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंमें ममता ही है। जब कर्म करनेके साधन शरीर, मन, बुद्धि आदि ही अपने नहीं हैं, तो फिर कर्मोंमें ममता हो ही कैसे सकती है। इस प्रकार कर्मोंसे सर्वथा मुक्त हो जाना ही वास्तविक समर्पण है। सिद्ध पुरुषोंकी क्रियाओंका स्वतः ही समर्पण होता है और साधक पूर्ण समर्पणका उद्देश्य रखकर वैसे ही कर्म करनेकी चेष्टा करता है।  जैसे भक्तियोगी अपनी क्रियाओंको भगवान्के अर्पण करके कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानयोगी क्रियाओंको प्रकृतिसे हुई समझकर अपनेको उनसे सर्वथा असङ्ग और निर्लिप्त अनुभव करके कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।  'मत्पराः'--परायण होनेका अर्थ है-- भगवान्को परमपूज्य और सर्वश्रेष्ठ समझकर भगवान्के प्रति समर्पण-भावसे रहना। सर्वथा भगवान्के परायण होनेसे सगुण-उपासक अपने-आपको भगवान्का यन्त्र समझता है। अतः शुभ क्रियाओंको वह भगवान्के द्वारा करवायी हुई मानता है, तथा संसारका उद्देश्य न रहनेके कारण उसमें भोगोंकी कामना नहीं रहती और कामना न रहनेके कारण उससे अशुभ क्रियाएँ होती ही नहीं।    'अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते'--इन पदोंमें इष्ट-सम्बन्धी और उपाय-सम्बन्धी--दोनों प्रकारकी अनन्यताका संकेत है; अर्थात् उन भक्तोंके इष्ट भगवान् ही हैं उनके सिवाय अन्य कोई साध्य उनकी दृष्टिमें है ही नहीं और उनकी प्राप्तिके लिये आश्रय भी उन्हींका है। वे भगवत्कृपासे ही साधनकी सिद्धि मानते हैं, अपने पुरुषार्थ या साधनके बलसे नहीं। वे उपाय भी भगवान्को मानते हैं और उपेय भी। वे एक भगवान्का ही लक्ष्य, ध्येय रखकर उपासना अर्थात् जप, ध्यान, कीर्तन आदि करते हैं।

Swami Tejomayananda

।।12.6।। परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।12.6 -- 12.7।।मदुपासकानां भक्तानां न कश्चित्क्लेश इति दर्शयति -- ये त्वित्यादिना। उक्तं च सौकरायणश्रुतौ -- उपासते ये पुरुषं वासुदेवमव्यक्तादेरीप्सितं किन्नु तेषाम् इति।तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः। अहमेव गतिस्तेषां निराशीः कर्मकारिणाम् इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12]।

Sri Anandgiri

।।12.6।।यद्यक्षरोपासका मामेवाप्नुवन्तीति विशिष्यन्ते तत्किं सगुणोपासकास्त्वां नाप्नुवन्ति न तेषामपि क्रमेण मत्प्राप्तेरित्याह -- ये त्विति। तुशब्दः शङ्कानिवृत्त्यर्थः।

Sri Vallabhacharya

।।12.6।।एवमक्षरोपासकानां गतिमुक्त्वा स्वभक्तानामाह द्वाभ्याम् -- ये त्विति। तुशब्दः पूर्वेभ्यो भेदनिर्देशार्थः।,मयि स्वामिनि सेव्ये स्वस्य सर्वकर्माणि सन्न्यस्य लौकिकानि वैदिकानि च समर्प्य अनन्येनोक्तलक्षणैकभक्तियोगेन मां ध्यायन्त उपासते ध्यानार्चनसेवनप्रणामश्रुतिकीर्तनादीनि स्वयमेवात्यन्तप्रियाणि प्राप्य सरूपाणि कुर्वन्तो,मामुपासत इत्यर्थः। तेषां मत्प्राप्तिविरोधिमृत्युसंसारसागरादहमचिरेणैव समुद्धर्त्ताऽस्मि। अथवा मयि परमात्मनि नित्यप्रिये सति मन्निमित्तं वा लौकिकवैदिकानि सर्वाणि कर्माणि सन्त्यज्य बहिरन्तश्च त्यक्त्वा सद्व्रजप्रिया यच्छब्दवाच्यास्तु मत्पराः अनन्येनैव सर्वनिरपेक्षेणैव योगेन अनुवृत्तिमात्रसम्बन्धेनैव मां परमात्मप्रियं चिन्तयन्तो मत्समीप आसते।

Sridhara Swami

।।12.6।। मद्भक्तानां मत्प्रसादादनायासत एव सिद्धिर्भवतीत्याह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। मयि परमेश्वरे सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य समर्प्य मत्परा भूत्वा मां ध्यायन्त अनन्येन न विद्यतेऽन्यो भजनीयो यस्मिंस्तेनैव। एकान्तभक्तियोगेनोपासत इत्यर्थः।

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