Bhagavad Gita Chapter 12 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् | अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ||१२-५||
Transliteration
kleśo.adhikatarasteṣāmavyaktāsaktacetasām || avyaktā hi gatirduḥkhaṃ dehavadbhiravāpyate ||12-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
12.5 Greater is their trouble whose minds are set on the unmanifested; for the goal; the unmanifested, is very hard for the embodied to reach.
।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
When pursuing highly innovative, research-intensive, or purely strategic roles with no immediate tangible deliverables, recognize the inherent mental strain. Develop concrete interim goals, structured methodologies, and strong mental discipline to navigate the abstract nature of the work effectively.
🧘 For Stress & Anxiety
Trying to achieve abstract mental states like 'peace' or 'happiness' without concrete practices can lead to frustration and stress. Instead of broad, intangible goals, focus on specific, actionable steps (e.g., daily meditation, gratitude journaling, setting healthy boundaries) that gradually cultivate inner peace, acknowledging the mind's natural inclination towards the tangible.
❤️ In Relationships
Building truly unconditional love or deep spiritual connections requires transcending superficial judgments and self-centered desires, which is difficult for those heavily identified with ego-driven needs. Practice empathy, active listening, and self-reflection to move beyond surface-level interactions towards deeper, more abstract bonds, understanding this process takes significant effort.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The path to highly abstract, unmanifested truths is arduous for those identified with the physical; recognize this inherent difficulty and cultivate immense discipline and a structured approach.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
12.5 क्लेशः the trouble? अधिकतरः (is) greater? तेषाम् of those? अव्यक्तासक्तचेतसाम् whose minds are set on the unmanifested? अव्यक्ता the unmanifested? हि for? गतिः goal? दुःखम् pain? देहवद्भिः by the embodied? अवाप्यते is reached.Commentary Worshippers of the Saguna (alified) and the Nirguna (unalified) Brahman reach the same goal. But the latter path is very hard and arduous? because the aspirant has to give up attachment to the body from the very beginning of his spiritual practice.The embodied Those who identify themselves with their bodies. Identification with the body is Dehabhimana. The imperishable Brahman is very hard to reach for those who are attached to their bodies. Further? it is extremely difficult to fix the resltess mind on the formless and attributeless Brahman. Contemplation on the imperishable? attributeless Brahman demands a very sharp? onepointed and subtle intellect. The Upanishad says Drisyate tu agraya buddhya sukshmaya sukshmadarsibhih -- It is seen by subtle seers through their subtle intellect.He who meditates on the unmanifested should possess the four means. Then he will have to approach a Guru who is well versed in the scriptures and who is also established in Brahman. He will have to hear the Truth from him? then reflect and meditate on It.He who realises the Nirguna (attributeless) Brahman attains eternal bliss or Selfrealisation or Kaivalya (Moksha) which is preceded by the destruction of ignorance with its effects. He who realises the Saguna Brahman (Brahman with attributes) goes to Brahmaloka and enjoys all the wealth and powers of the Lord. He then gets initiation into the mysteries of the Absolute from Hiranyagarbha and without any effort and without the practice of hearing? reflection and meditation attains? through the grace of the Lord alone? the same state as attained by those who have realised the Nirguna Brahman. Through the knowledge of the Self? ignorance and its effects,are destroyed in the case of the worshippers of the Saguna Brahman also.
Shri Purohit Swami
12.5 But they who thus fix their attention on the Absolute and Impersonal encounter greater hardships, for it is difficult for those who possess a body to realise Me as without one.
Dr. S. Sankaranarayan
12.5. (But) the trouble is much more for them, who have their mind fixed on the Unmanifest; for the Unmanifest-goal is attained with difficulty by men, bearing body.
Swami Adidevananda
12.5 Greater is the difficulty of those whose minds are thus attached to the unmanifest. For the way of the unmanifest is hard to reach by embodied beings.
Swami Gambirananda
12.5 For them who have their minds attached to the Unmanifested the struggle is greater; for, the Goal which is the Unmanifest is attained with difficulty by the embodied ones.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।12.5।। सगुण और निर्गुण दोनों के ही उपासकों को एक ही लक्ष्य की प्राप्ति बताने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण दोनों मार्गों की तुलना करने का प्रय़त्न करते हैं जबकि वास्तव में वे अतुलनीय हैं तथा समान प्रभाव और गुण वाले हैं। भगवान् कहते हैं? अव्यक्त के उपासकों को सगुणोपासकों की अपेक्षा अधिक कष्ट होता है। इस कथन को इतना ही और इसी रूप में समझने पर ऐसा प्रतीत होगा कि यह कथन न केवल सगुणोपासना का समर्थन ही करता है? बल्कि निर्गुणोपासना की निश्चयात्मक रूप से निन्दा भी करता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण और पथभ्रष्टक व्याख्या गीता को उपनिषत्प्रतिपादित सनातन ज्ञान का खण्डन करने वाला शास्त्र बना देगी। भक्ति मार्ग के कुछ वाचाल समर्थक ऐसे हैं? जो श्रद्धालु धर्मप्राण जनता को छलने के लिए इस श्लोकार्थ को ही उद्धृत करते हैं स्वयं भगवान् ही प्रथम पंक्ति के तात्पर्य को दूसरी पंक्ति में स्पष्ट करते हैं। अव्यक्त के उपासकों को अधिक क्लेश क्यों होता है भगवान् बताते हैं कि देहधारियों के द्वारा अव्यक्त की गति कठिनाई से प्राप्त की जाती है। इस श्लोक में परीक्षणीय शब्द है देहवद्भि अर्थात् देहधारियों के द्वारा। प्राय इस शब्द का यही वाच्यार्थ स्वीकार किया जाता है। परन्तु यदि हम इस प्रकार की व्याख्या के दूसरे स्वाभाविक पक्ष को देखें? तो ऐसे अर्थ की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। यदि सभी देहधारी मनुष्य केवल सगुणसाकार की ही उपासना कर सकते हैं? तो इसका अर्थ यह होगा कि निराकार का ध्यान करना केवल देहत्याग के बाद ही संभव होगा।इसलिए? श्रीशंकराचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि देहवद्भि का अर्थ है देहाभिमानवद्भि अर्थात् देहधारी से तात्पर्य उन लोगों से है? जिन्हें देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह को ही अपना स्वरूप समझते हैं? वे लोग उनमें आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का ध्यान करना प्राय असंभव होता है। जिसकी दृष्टि मन्द हो और हाथ काँपते हों? ऐसे वृद्ध व्यक्ति को सुई में धागा डालने में बड़ी कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार? जो मन और बुद्धि क्षुब्ध हैं? चंचल और विषयोपभोग में लालायित रहती है? ऐसे अन्तकरण से युक्त पुरुष समस्त नाम और रूपों के अतीत अनन्त आत्मवैभव को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है? वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है।संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप का ध्यान करना अधिक सरल और लाभदायक है। यदि मनुष्य जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे? तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार? अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।अक्षरोपासकों के जीवनवर्तन के विषय को इसी अध्याय के अन्तिम भाग में वर्णन किया जायेगा। तथापि अब? सगुण की उपासना करने वालों के लिए उपयोगी साधनाओं का वर्णन किया जा रहा है
Swami Ramsukhdas
।।12.5।। व्याख्या--'क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्'--अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले-- इस विशेषणसे यहाँ उन साधकोंकी बात कही गयी है, जो निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं, पर जिनका चित्त निर्गुणतत्त्वमें आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्वमें आविष्ट होनेके लिये साधकमें तीन बातोंकी आवश्यकता होती है -- रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनोंके द्वारा निर्गुण-तत्त्वकी महिमा सुननेसे जिनकी (निराकारमें आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ माननेके कारण) उसमें कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं; परन्तु वैराग्यकी कमी और देहाभिमानके कारण जिनका चित्त तत्त्वमें प्रविष्ट नहीं होता-- ऐसे साधकोंके लिये यहाँ 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पदका प्रयोग हुआ है। भगवान्ने छठे अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें बताया है कि 'ब्रह्मभूत' अर्थात् ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित साधकको सुखपूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। परन्तु यहाँ इस श्लोकमें 'क्लेशः अधिकतरः' पदोंसे यह स्पष्ट किया है कि इन साधकोंका चित्त ब्रह्मभूत साधकोंकी तरह निर्गुण-तत्त्वमें सर्वथा तल्लीन नहीं हो पाया है। अतः उन्हें अव्यक्तमें 'आविष्ट' चित्तवाला न कहकर आसक्त चित्तवाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इन साधकोंकी आसक्ति तो देहमें होती है पर अव्यक्तकी महिमा सुनकर वे निर्गुणोपासनाको ही श्रेष्ठ मानकर उसमें आसक्त हो जाते हैं; जबकि आसक्ति देहमें ही हुआ करती है, अव्यक्तमें नहीं। तेरहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्यक्तम्' पद प्रकृतिके अर्थमें आया है तथा और भी कई जगह वह प्रकतिके लिये ही प्रयुक्त हुआ है; परन्तु यहाँ 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पदमें 'अव्यक्त' का अर्थ प्रकृति नहीं, प्रत्युत निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। कारण यह है कि इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने 'त्वाम्' पदसे सगुण-साकार स्वरूपके और 'अव्यक्तम्' पदसे निर्गुण-निराकार स्वरूपके विषयमें ही प्रश्न किया है। उपासनाका विषय भी परमात्मा ही है, न कि प्रकृति; क्योंकि प्रकृति और प्रकृतिका कार्य तो त्याज्य है। इसलिये उसी प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने 'अव्यक्त' पदका (व्यक्तरूपके विपरीत) निर्गुण-निराकार स्वरूपके अर्थमें ही प्रयोग किया है। अतः यहाँ प्रकृतिका प्रसङ्ग न होनेके कारण 'अव्यक्त' पदका अर्थ प्रकृति नहीं लिया जा सकता। नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'अव्यक्तमूर्तिना' पद सगुण-निराकार स्वरूपके लिये आया है। ऐसी दशामें यह प्रश्न हो सकता है कि यहाँ भी 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पदका अर्थ 'सगुण-निराकार' में आसक्त चित्तवाले पुरुष ही क्यों न ले लिया जाय? परन्तु ऐसा अर्थ भी नहीं लिया जा सकता; क्योंकि इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नमें 'त्वाम्' पद सगुण-साकारके लिये और 'अव्यक्तम्' पदके साथ 'अक्षरम्' पद निर्गुण-निराकारके लिये आया है। ब्रह्म क्या है? -- अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान् बता चुके हैं कि परम् अक्षर ब्रह्म है अर्थात् वहाँ भी 'अक्षरम्'पद निर्गुण-निराकारके लिये ही आया है। इसलिये अर्जुनने 'अव्यक्तम् अक्षरम्' पदोंसे जिस निर्गुण-ब्रह्मके विषयमें प्रश्न किया था, उसीके उत्तरमें यहाँ ('अक्षर' विशेषण होनेसे) अव्यक्त पदसे निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही लेना चाहिये, सगुण-निराकार नहीं। 'क्लेशोऽधिकतरः' पदका भाव यह है कि जिन साधकोंका चित्त निर्गुण-तत्त्वमें तल्लीन नहीं होता, ऐसे निर्गुण-उपासकोंको देहाभिमानके कारण अपनी साधनामें विशेष कष्ट अर्थात् कठिनाई होती है (टिप्पणी प0 631)। गौणरूपसे इस पदका भाव यह है कि साधनाकी प्रारम्भिक अवस्थासे लेकर अन्तिम अवस्थातकके सभी निर्गुण-उपासकोंको सगुण-उपासकोंसे अधिक कठिनाई होती है।'विशेष बात अब सगुणउपासनाकी सुगमताओं और निर्गुणउपासनाकी कठिनताओंका विवेचन किया जाता है -- 'सगुणउपासनाकी सुगमताएँ'1 -- सगुणउपासनामें उपास्यतत्त्वके सगुणसाकार होनेके कारण साधकके मनइन्द्रियोंके लिये भगवान्के स्वरूप? नाम? लीला? कथा आदिका आधार रहता है। भगवान्के परायण होनेसे उसके मनइन्द्रियाँ भगवान्के स्वरूप एवं लीलाओंके चिन्तन? कथाश्रवण? भगवत्सेवा और पूजनमें अपेक्षाकृत सरलतासे लग जाते हैं (गीता 8। 14)। इसलिये उसके द्वारा सांसारिक विषयचिन्तनकी सम्भावना कम रहती है।2 -- सांसारिक आसक्ति ही साधनमें क्लेश देती है। परन्तु सगुणोपासक इसको दूर करनेके लिये भगवान्के ही आश्रित रहता है। वह अपनेमें भगवान्का ही बल मानता है। बिल्लीका बच्चा जैसे माँपर निर्भर रहता है? ऐसे ही यह साधक भी भगवान्पर निर्भर रहता है। भगवान् ही उसकी सँभाल करते हैं (गीता 9। 22)।सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।। करउँ सदा तिन कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।(मानस 3। 43। 2 3) अतः उसकी सांसारिक आसक्ति सुगमतासे मिट जाती है।3 -- ऐसे उपासकोंके लिये गीतामें भगवान्ने नचिरात् आदि पदोंसे शीघ्र ही अपनी प्राप्ति बतायी है (गीता 12। 7)। 4 -- सगुण-उपासकोंके अज्ञानरूप अन्धकारको भगवान् ही मिटा देते हैं (गीता 10। 11)। 5 -- उनका उद्धार भगवान् करते हैं (गीता 12। 7)।6 -- ऐसे उपासकोंमें यदि कोई सूक्ष्म दोष रह जाता है, तो (भगवान्पर निर्भर होनेसे) सर्वज्ञ भगवान् कृपा करके उसको दूर कर देते हैं (गीता 18। 58? 66)।7 -- ऐसे उपासकोंकी उपासना भगवान्की ही उपासना है। भगवान् सदा-सर्वदा पूर्ण हैं ही। अतः भगवान्की पूर्णतामें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न रहनेके कारण उनमें सुगमतासे श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा होनेसे वे नित्य-निरन्तर भगवत्परायण हो जाते हैं। अतः भगवान् ही उन उपासकोंको बुद्धियोग प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें भगवत्प्राप्ति हो जाती है (गीता 10। 10)।8 -- ऐसे उपासक भगवान्को परम कृपालु मानते हैं। अतः उनकी कृपाके आश्रयसे वे सब कठिनाइयोंको पार कर जाते हैं। यही कारण है कि उनका साधन सुगम हो जाता है और भगवत्कृपाके बलसे वे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं (गीता 18। 56 58)।9 -- मनुष्यमें कर्म करनेका अभ्यास तो रहता ही है (गीता 3। 5), इसलिये भक्तको अपन�� कर्म भगवान्के प्रति करनेमें केवल भाव ही बदलना पड़ता है कर्म तो वे ही रहते हैं। अतः भगवान्के लिये कर्म करनेसे भक्त कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 18। 46)।10 -- हृदयमें पदार्थोंका आदर रहते हुए भी यदि वे प्राणियोंकी सेवामें लग जाते हैं तो उन्हें पदार्थोंका त्याग करनेमें कठिनाई नहीं होती। सत्पात्रोंके लिये पदार्थोंके त्यागमें तो और भी सुगमता है। फिर भगवान्के लिये तो पदार्थोंका त्याग बहुत ही सुगमतासे हो सकता है।11 -- इस साधनमें विवेक और वैराग्यकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी प्रेम और विश्वासकी है। जैसे, कौरवोंके प्रति द्वेषवृत्ति रहते हुए भी द्रौपदीके पुकारनेमात्रसे भगवान् प्रकट हो जाते थे (टिप्पणी प0 633.1) क्योंकि वह भगवान्को अपना मानती थी। भगवान् तो अपने साथ भक्तके प्रेम और विश्वासको ही देखते हैं, उसके दोषोंको नहीं। भगवान्के साथ अपनापनका सम्बन्ध जो़ड़ना उतना कठिन नहीं (क्योंकि भगवान्की ओरसे अपनापन स्वतःसिद्ध है), जितना कि पात्र बनना कठिन है। 'निर्गुणउपासनाकी कठिनताएँ'1 -- निर्गुणउपासनामें उपास्यतत्त्वके निर्गुणनिराकार होनेके कारण साधकके मनइन्द्रियोंके लिये कोई आधार नहीं रहता। आधार न होने तथा वैराग्यकी कमीके कारण इन्द्रियोंके द्वारा विषयचिन्तनकी अधिक सम्भावना रहती है।2 -- देहमें जितनी अधिक आसक्ति होती है, साधनमें उतना ही अधिक क्लेश मालूम देता है। निर्गुणोपासक उसे विवेकके द्वारा हटानेकी चेष्टा करता है। विवेकका आश्रय लेकर साधन करते हुए वह अपने ही साधनबलको महत्त्व देता है। बँदरीका छोटा बच्चा जैसे (अपने बलपर निर्भर होनेसे) अपनी माँको पकड़े रहता है और अपनी पकड़से ही अपनी रक्षा मानता है? ऐसे ही यह साधक अपने साधनके बलपर अपनी उन्नति मानता है (गीता 18। 51 -- 53)। इसीलिये श्रीरामचरितमानसमें भगवान्ने इसको अपने समझदार पुत्रकी उपमा दी है -- मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। 'बालक सुत सम दास अमानी।।' (3। 43। 4)3 -- ज्ञानयोगियोंके द्वारा लक्ष्यप्राप्तिके प्रसङ्गमें चौथे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें 'अचिरेण' पद तत्त्वज्ञानके अनन्तर शान्तिकी प्राप्तिके लिये आया है, न कि तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके लिये।4 --निर्गुण-उपासक तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति स्वयं करते हैं (गीता 13। 34)।5 -- ये अपना उद्धार (निर्गुण-तत्त्वकी प्राप्ति) स्वयं करते हैं (गीता 5। 24)।6 -- ऐसे उपासकोंमें यदि कोई कमी रह जाती है, तो उस कमीका अनुभव उनको विलम्बसे होता है और कमीको ठीक-ठीक पहचाननेमें भी कठिनाई होती है। हाँ, कमीको ठीक-ठीक पहचान लेनेपर ये भी उसे दूर कर सकते हैं।7 -- चौथे अध्यायके चौंतीसवें और तेरहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने ज्ञानयोगियोंको ज्ञान-प्राप्तिके लिये गुरुकी उपासनाकी आज्ञा दी है। अतः निर्गु-उपासनामें गुरुकी आवश्यकता भी है; किंतु गुरुकी पूर्णताका निश्चित पता न होनेपर अथवा गुरुके पूर्ण न होनेपर स्थिर श्रद्धा होनेमें कठिनाई होती है तथा साधनकी सफलतामें भी विलम्बकी सम्भावना रहती है।8 -- ऐसे उपासक उपास्य-तत्त्वको निर्गुण, निराकार और उदासीन मानते हैं। अतः उन्हें भगवान्की कृपाका वैसा अनुभव नहीं होता। वे तत्त्वप्राप्तिमें आनेवाले विघ्नोंको अपनी साधनाके बलपर ही दूर करनेमें कठिनाईका अनुभव करते हैं। फलस्वरूप तत्त्वकी प्राप्तिमें भी उन्हें विलम्ब हो सकता है।9 -- ज्ञानयोगी अपनी क्रियाओँको सिद्धान्ततः प्रकृतिके अर्पण करता है; किन्तु पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर ही उसकी क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण हो सकती हैं। यदि विवेककी किञ्चिन्मात्र भी कमी रही तो क्रियाएँ प्रकृतिके अर्पण नहीं होंगी और साधक कर्तृत्वाभिमान रहनेसे कर्मबन्धनमें बँध जायगा।10 -- जबतक साधकके चित्तमें पदार्थोंका किञ्चिन्मात्र भी आदर तथा अपने कहलानेवाले शरीर और नाममें अहंताममता है, तबतक उसके लिये पदार्थोंको मायामय समझकर उनका त्याग करना कठिन होता है।11 -- यह साधक पात्र बननेपर ही तत्त्वको प्राप्त कर सकेगा। पात्र बननेके लिये विवेक और तीव्र वैराग्यकी आवश्यकता होगी, जिनको आसक्ति रहते हुए प्राप्त करना कठिन है। 'अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते' -- 'देही' 'देहभृत्' आदि पदोंका अर्थ साधारणतया 'देहधारी पुरुष' लिया जाता है। प्रसङ्गानुसार इनका अर्थ 'जीव' और 'आत्मा 'भी लिया जाता है। यहाँ 'देहवद्भिः' (टिप्पणी प0 633.2) पदका अर्थ 'देहाभिमानी मनुष्य' लेना चाहिये; क्योंकि निर्गुणउपासकोंके लिये इसी श्लोकके पूर्वार्धमें 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पद आया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि वे निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं; परन्तु उनका चित्त देहाभिमानके कारण निर्गुण-तत्त्वमें आविष्ट नहीं, हुआ है। देहाभिमानके कारण ही उन्हें साधनमें अधिक क्लेश होता है। निर्गुण-उपासनामें देहाभिमान ही मुख्य बाधा है -- 'देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति' -- इस बाधाकी ओर ध्यान दिलानेके लिये ही भगवान्ने 'देहवद्भिः' पद दिया है। इस देहाभिमानको दूर करनेके लिये ही (अर्जुनके पूछे बिना ही) भगवान्ने तेरहवाँ और चौदहवाँ अध्याय कहा है। उनमें भी तेरहवें अध्यायका प्रथम श्लोक देहाभिमान मिटानेके लिये ही कहा गया है।ब्रह्मके निर्गुणनिराकार स्वरूपकी प्राप्तिको यहाँ 'अव्यक्ताः गतिः' कहा गया है। साधारण मनुष्योंकी स्थिति व्यक्त अर्थात् देहमें होती है। इसलिये उन्हें अव्यक्तमें स्थित होनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। यदि साधक अपनेको देहवाला न माने, तो उसकी अव्यक्तमें सुगमता और शीघ्रतापूर्वक स्थिति हो सकती है।
Swami Tejomayananda
।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।12.5।।कथं तर्हि त्वदुपासकानामुत्तमत्वं इत्यत आह -- क्लेश इति। अव्यक्ता गतिर्दुःखं ह्यवाप्यते। गतिर्मार्गः। अव्यक्तोपासनद्वारको मत्प्राप्तिमार्गो दुःखमवाप्यत इत्यर्थः। अतिशयोपासनसर्वेन्द्रियातिनियमनसर्वसमबुद्धिसर्वभूतहितेरतत्वातिसुष्ट्वाचारसम्यग्विष्णुभक्त्यादिसाधनसन्दर्भमृते नाव्यक्तापरोक्षम्।तदृते च न विष्णुप्रसादः। सत्यपि तस्मिन्नसम्यग्भगवदुपासनमृते नर्ते च तं मोक्षः? विनाऽव्यक्तोपासनं भवत्येव भगवदुपासकानां मोक्ष इति क्लेशिष्ठो़ऽयं मार्ग इति भावः। तथाप्यपरोक्षीकृताव्यक्तानां सुकरं भगवदुपासनमित्येव प्रयोजनम्। तत्रापि योऽव्यक्तापरोक्षे प्रयासस्तावता प्रयासेन यदि भगवन्तमुपास्ते? ऊनेन वा? तदा भगवदपरोक्षमेव भवतीति द्वितीयमधिकम्। इन्द्रियसंयमाद्यूनभावे अत्युपासकस्यापि देवी नातिप्रसादमेति। देवस्तु तानि साधनानि भक्तिमतः स्वयमेव प्रयत्नेन ददातीति सौकर्यमिति भक्तानां भगवुपासने। इतरत्र च क्लेशोऽधिकतरः।तदेतत्सर्वं पर्युपासते सन्नियम्याधिकतर इति परिसन्तरप्शब्दैः प्रतीयते। सामवेदे माधुच्छन्दशाखायां चोक्तम् -- भक्ताश्च येऽतीव विष्णावतीव जितेन्द्रियाः सम्यगाचारयुक्ताः। उपासते तां समबुद्धयश्च तेषां देवी दृश्यते नेतरेषाम्। दृष्टा च सा भक्तिमतीव विष्णौ दत्त्वोपास्ते सर्वविघ्नांश्छिनत्ति। उपास्य तं वासुदेवं विदित्वा ततस्ततः शान्तिमत्यन्तमेति इति। उक्तं च सामवेदे अयास्यशाखायाम् -- प्रसन्नो भविता देवः सोऽव्यक्तेन सहैव तु। यावता तत्प्रसादो हि तावतैव न संशयः। न तत्प्रसादमात्रेण प्रीयते स महेश्वरः। तस्मिन्प्रीते तु सर्वस्य प्रीतिस्त भवति ध्रुवम्।।यद्यप्युपासनाधिक्यं तथापि गुणदो हि सः। मुक्तिदश्च स एवैको नाव्यक्तादिस्तु कश्चन इति।ममात्मभावमिच्छन्तो यतन्ते परमात्मने [म.भा.12।228।20] इति मोक्षधर्मे श्रीवचनम्।धर्मनित्ये महाबुद्धौ ब्रह्मण्ये सत्यवादिनि। प्रश्रिते दानशीले च सदैव निवसाम्यहम् [म.भा.12।228।26] इति च।महतः परं तु ब्रह्मैव। तथा हि भगवता सयुक्तिकमभिहितम्।वदतीति चेन्न प्राज्ञो हि त्रयाणामेव चैवमुपन्यासः प्रश्नश्चेत्यादि। तमिति पुल्लिङ्गाच्चैतत्सिद्धिः। महतः परत्वं तु अव्यक्तपरस्य भवत्येव। तथा चाग्निवेश्यशाखायाम् -- अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवम् [कठो.3।15] इति। पर��� हि देवः पुरुहूतो महत्तः इति। न चाव्यक्तरूपं भगवता निषिद्धं भारतादौ साधितत्वात्। शरीररूपकविन्यस्तगृहीतेरित्यादौ तु साङ्ख्यप्रसिद्धं,प्रधानं निषिध्य वैदिकमव्यक्तमेवोक्तम्। तथा च सौकरायणश्रुतिः -- शरीररूपिका अशरीरस्य विष्णोर्यतः प्रिया सा जगतः प्रसूतिः इति। सुव्रतानां क्षिप्रं महदैश्वर्यं ददाति देवी न देव इति विशेषः। सुवर्णवर्णां पद्मकरां च देवीं सर्वेश्वरीं व्याप्तजडां च बुद्ध्वा। सैवेति वै सुव्रतानां तु मासान्महाविभूतिं श्रीस्तु दद्यान्न देवः इत्यृग्वेदखिलेषु।
Sri Anandgiri
।।12.5।।सगुणोपासकेष्वपि कथमित्याह -- किंत्विति। अक्षरोपासनस्य दुष्करत्वादुपासनान्तरस्य सुकरत्वादित्यभिप्रेत्याह -- क्लेश इति। अधिक एवेतरेभ्यो द्वैतदर्शिभ्यः कामिभ्य इति शेषः। तेषां क्लेशस्याधिकतरत्वे हेतुं मत्वा विशिनष्टि -- देहेति। अव्यक्तमत्यन्तसूक्ष्मं निर्विशेषमक्षरं तस्मिन्नासक्तमभिनिविष्टं चेतो येषां तेषामिति यावत्। अक्षरोपासकानां क्लेशस्याधिकतरत्वे भगवानेव हेतुमाह -- अव्यक्तेति। दुःखं दुःखेन कृच्छ्रेणेति यावत्? अतो देहाभिमानत्यागादित्यर्थः। ते कथं वर्तन्ते तत्राह -- अक्षरेति।
Sri Vallabhacharya
।।12.5।।तेषां तथाऽव्यक्ततया प्राप्तिरेव मत्स्वरूपस्य? न च तदधिगमपूर्वकं सुखमपीत्याह -- इह क्लेशोऽधिकतरो दुःखमव्यक्ता गतिरिति। तत्रापि सर्वभूतहिते रता एव तदा तथा मां प्राप्नुवन्ति। अनेन भागवतैकादशस्कन्धे भक्तस्वरूपनिरूपणे सर्वभूतहिते रतस्य भगवदात्माप्तिरुक्ता? नान्यस्य? तथेहापीत्युक्तं भवति। ततो देह इव देहवतां मदव्यक्तदेहासक्तचेतसां न तदन्तस्थितस्यात्मनो मम प्राप्तिः साक्षाद्रसानन्दरूपा? किन्तु दुःखमव्यक्तगतिरेव स्वरूपसहानिरैक्यं लवणस्य सलिल इवेति भावः। किञ्च तदुपासनकालेऽप��� साधनक्लेशोऽधिकतरः? निर्विशेषे तस्मिन्नभेदेन भावनाया दुःखसम्भवात्। अतएवोक्तं -- श्रेयस्सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिशयन्ति ये केवलबोधलब्धये [भाग.10।14।14] इति। ते पुरुषोत्तमस्य भक्तिमुदस्य केवलस्याक्षरात्मनो बोधलब्ध्यै क्लिश्यन्तीति क्लेशोऽधिकःश्रम एव हि केवलं इत्याशयेन तरप् च। मद्भजनमार्गे त्वारम्भत एव परमानन्दः अक्षरज्ञानमार्गे त्वन्तत इत्यपि विशेषः।
Sridhara Swami
।।12.5।। ननु च तेऽपि त्वामेव प्राप्नुवन्ति तर्हीतरेषां युक्ततमत्वं कुत इत्यपेक्षायां क्लेशाक्लेशकृतं विशेषमाह -- क्लेश इति त्रिभिः। अव्यक्ते निर्विशेष अक्षर आसक्तं चेतो येषां तेषां क्लेशोऽधिकतरः। हि यस्मादव्यक्तविषया गतिर्निष्ठा देहाभिमानिभिः दुःखं यथाभवत्येवमवाप्यते। देहाभिमानिनां नित्यं प्रत्यक्प्रवणत्वस्य दुर्घटत्वादिति भावः।