Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 6 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा | मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ||१०-६||
Transliteration
maharṣayaḥ sapta pūrve catvāro manavastathā . madbhāvā mānasā jātā yeṣāṃ loka imāḥ prajāḥ ||10-6||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.6 The seven great sages, the ancient four and also the Manus, possessed of powers like Me (on account of their minds being fixed on Me), were born of (My) mind; from them are these creatures born in this world.
।।10.6।। सात महर्षिजन, पूर्वकाल के चार (सनकादि) तथा (चौदह) मनु ये मेरे प्रभाव वाले मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार (लोक) में यह प्रजा है।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Cultivate a 'mind-born' approach, consciously envisioning and creating your projects with focused intention and innovation. Emulate the dedication of the sages and Manus by aligning your career with a clear purpose and ethical principles, striving to be a source of wisdom and guidance in your field.
🧘 For Stress & Anxiety
Recognize the immense power of your own mind to shape your inner world. By consciously directing your thoughts and fixing your focus on higher principles or a sense of purpose, you can reduce mental clutter and stress. Understand that you, like all beings, originate from a divine source, fostering a sense of inherent worth and inner stability amidst external pressures.
❤️ In Relationships
Approach relationships with the awareness of a shared divine origin, fostering empathy, understanding, and a sense of interconnectedness. Just as sages and Manus establish order and provide guidance, seek to be a source of wisdom, ethical conduct, and positive influence within your relationships, helping to create harmony and purposeful connection.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Your focused mind is a divine creative force; align it with higher purpose to manifest wisdom, order, and connection in your world.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.6 महर्षयः the great Rishis? सप्त seven? पूर्वे ancient? चत्वारः four? मनवः Manus? तथा also? मद्भावाः possessed of powers like Me? मानसाः from mind? जाताः born? येषाम् from whom? लोके in world? इमाः these? प्रजाः creatures. Commentary In the beginning I was alone and from Me came the mind and from the mind were produced the seven sages (such as Bhrigu? Vasishtha and others)? the ancient four Kumaras (Sanaka? Sanandana? Sanatkumara and Sanatsujata)? as well as the four Manus of the past ages known as Savarnis? all of whom directed their thoughts to Me exclusively and were therefore endowed with divine powers and supreme wisdom.The four Kumaras (chaste? ascetic youths) declined to marry and create offspring. They preferred to remain perpetual celibates and to practise BrahmaVichara or profound meditation on Brahman or the Absolute.They were all created by Me? by mind alone. They were all mindborn sons of Brahma. They were not born from the womb like ordinary mortals. Manavah? men? the present inhabitants of this world? are the sons of Manu. The Manus are the mindborn sons of God. These creatures which consist of the moving and the unmoving beings are born of the seven great sages and the four Manus. The great sages were original teaches of BrahmaVidya or the ancient wisdom of the Upanishads. The Manus were the rulers of men. They framed the code or rules of conduct or the laws of Dharma for the guidance and uplift of humanity.The seven great sages represent the seven planes also. In the macrocosm? Mahat or cosmic Buddhi? Ahamkara or the cosmic egoism and the five Tanmatras or the five rootelements of which the five great elements? viz.? earth? water? fire? air and ether are the gross forms? represent the seven great sages. This gross universe with the moving and the unmoving beings and the subtle inner world have come out of the above seven principles. In mythology or the Puranic terminology these seven principles have been symbolised and give human names. Bhrigu? Marichi? Atri? Pulastya? Pulaha? Kratu and Vasishtha are the seven great sages.In the microcosm? Manas (mind)? Buddhi (intellect)? Chitta (subconsciousness) and Ahamkara (egoism) have been symbolised as the four Manus and given human names. The first group forms the base of the macrocosm. The second group forms the base of the microcosm (individuals). These two groups constitute this vast universe of sentient life.Madbhava with their being in Me? of My nature.
Shri Purohit Swami
10.6 The seven Great Seers,* the Progenitors of mankind, the Ancient Four,** and the Lawgivers were born of My Will and come forth direct from Me. The race of mankind has sprung from them. [* Mareechi, Atri, Angira, Pulah, Kratu, Pulastya, Vahishta. ** The Masters: Sanak, Sanandan, Sanatan, Sanatkumar.]
Dr. S. Sankaranarayan
10.6. The ancient Seven Great-Seers and also the Four Manus, of whom these creatures in this world are offsprings-they have been born as My mental dispositions.
Swami Adidevananda
10.6 The seven great seers of yore and similarly the four Manus, all possessing My mental disposition, were born of My mind. All these creatures of the world are descended from them.
Swami Gambirananda
10.6 The seven great sages as also the four Manus of anceint days, of whom are these creatures in the world, had their thoughts fixed on Me, and they were born from My mind.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.6।। इस अध्याय के दूसरे श्लोक में जिस सिद्धांत का संकेत मात्र किया गया है कि किस प्रकार सप्तर्षि? सनकादि चार कुमार और चौदह मनु? परमेश्वर के मन से उत्पन्न हुए हैं। ये सभी मिलकर जगत् के उपादान और निमित्त कारण हैं? क्योंकि यहाँ कहा गया है? इनसे यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न हुई है।सप्तर्षि जिन्हें पुराणों में मानवीय रूप में चित्रित किया गया है? वे सप्तर्षि अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं हैं। इन सब के संयुक्त रूप को ही जगत् कहते हैं।व्यक्तिगत दृष्टि से? सप्तर्षियों के रूपक का आशय समझना बहुत सरल है। हम जानते हैं कि जब हमारे मन में कोई संकल्प उठता है? तब वह स्वयं हमें किसी भी प्रकार से विचलित करने में समर्थ नहीं होता। परन्तु? किसी एक विषय के प्रति जब यह संकल्प केन्द्रीभूत होकर कामना का रूप ले लेता है? तब कामना में परिणित वही संकल्प अत्यन्त शक्तिशाली बनकर हमारी शान्ति और सन्तुलन को नष्ट कर देता है। ये संकल्प ही बाहर प्रक्षेपित होकर पंच विषयों का ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियायें व्यक्त कराते हैं। यह संकल्पधारा और इसका प्रक्षेपण ये दोनों मिलकर हमारे सुखदुख पूर्ण यशअपयश तथा प्रयत्न और प्राप्ति के छोटे से जगत् के निमित्त और उपादान कारण बन जाते हैं।पूर्वकाल के चार (सनकादि) और मनु श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में इस प्रकार पदच्छेद करते हैं कि पूर्वकाल सम्बन्धी और चार मनु। यहाँ इसका आध्यात्मिक विश्लेषण करना उचित है जिसके लिए हमें दूसरी पंक्ति में आधार भी मिलता है। भगवान् कहते हैं? ये सब मेरे मन से अर्थात् संकल्प से ही प्रकट हुए हैं।पुराणों में ऐसा वर्णन किया गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी से चार मानस पुत्र सनत्कुमार? सनक? सनातन और सनन्दन का जन्म हुआ। हममें से प्रत्येक (व्यष्टि) व्यक्ति में निहित सृजन शक्ति अथवा सृजन की प्रवृत्ति के माध्यम से व्यक्त चैतन्य ही व्यष्टि सृष्टि का निर्माता है। यह सृजन की प्रवृत्ति अन्तकरण के चार भागों में व्यक्त होती है तभी किसी प्रकार का निर्माण कार्य होता है। वे चार भाग हैं संकल्प (मन)? निश्चय (बुद्धि)? पूर्वज्ञान का स्मरण (चित्त) और कर्तृत्वाभिमान (अहंकार)। मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार इन चारों को उपर्युक्त चार मानस पुत्रों के द्वारा इंगित किया गया है।इस प्रकार एक ही श्लोक में समष्टि और व्यष्टि की सृष्टि के कारण बताए गए हैं। समष्टि सृष्टि की उत्पत्ति एवं स्थिति के लिए महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं कारण हैं? जबकि व्यष्टि सृष्टि का निर्माण मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार की क्रियाओं से होता है।संक्षेप में? सप्तर्षि समष्टि सृष्टि के तथा चार मानस पुत्र व्यष्टि सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण हैं।व्यष्टि और समष्टि की दृष्टि से? सृष्टि के अभिप्राय को समझने की क्या आवश्यकता है सुनो --
Swami Ramsukhdas
।।10.6।। व्याख्या --[पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावश���ली और जगत्के कारण हैं।] 'महर्षयः सप्त'-- जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या; आदिसे वृद्ध धर्मका साक्षात् करनेवाले; और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं -- ऐसे सातों गुणोंसे युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ -- ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ 'महर्षि' कहा गया है। 'पूर्वे चत्वारः'-- सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-- ये चारों ही ब्रह्माजीके तप करनेपर सबसे पहले प्रकट हुए हैं। ये चारों भगवत्स्वरूप हैं। सबसे पहले प्रकट होनेपर भी ये चारों सदा पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकरूपमें ही रहते हैं। ये तीनों लोकोंमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रचार करते हुए घूमते रहते हैं। इनकी वाणीसे सदा 'हरिः शरणम्' का उच्चारण होता रहता है (टिप्पणी प0 540.3)। ये भगवत्कथाके बहुत प्रेमी हैं। अतः इन चारोंमेंसे एक वक्ता और तीन श्रोता बनकर भगवत्कथा करते और सुनते रहते हैं। 'मनवस्तथा'-- ब्रह्माजीके एक दिन-(कल्प-) में चौदह मनु होते हैं। ब्रह्माजीके वर्तमान कल्पके स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि नामवाले चौदह मनु हैं (टिप्पणी प0 540.4)। ये सभी ब्रह्माजीकी आज्ञासे सृष्टिके उत्पादक और प्रवर्तक हैं। 'मानसा जाताः'-- मात्र सृष्टि भगवान्के संकल्पसे पैदा होती है। परन्तु यहाँ सप्तर्षि आदिको भगवान्के मनसे पैदा हुआ कहा है। इसका कारण यह है कि सृष्टिका विस्तार करनेवाले होनेसे सृष्टिमें इनकी प्रधानता है। दूसरा कारण यह है कि ये सभी ब्रह्माजीके मनसे अर्थात् संकल्पसे पैदा हुए हैं। स्वयं भगवान् ही सृष्टि-रचनाके लिये ब्रह्मारूपसे प्रकट हुए हैं। अतः सात महर्षि, चार सनकादि और चौदह मनु -- इन पचीसोंको ब्रह्माजीके मानसपुत्र कहें अथवा भगवान्के मानसपुत्र कहें, एक ही बात है। 'मद्भावाः'-- ये सभी मेरेमें ही भाव अर्थात् श्रद्धा-प्रेम रखनेवाले हैं।'येषां लोकमिमाः प्रजाः'-- संसारमें दो तरहकी प्रजा है-- स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न होनेवाली और शब्दसे (दीक्षा, मन्त्र, उपदेश आदिसे) उत्पन्न होनेवाली। संयोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'बिन्दुज' कहलाती है और शब्दसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'नादज' कहलाती है। बिन्दुज प्रजा पुत्रपरम्परासे और नादज प्रजा शिष्य-परम्परासे चलती है। सप्तर्षियों और चौदह मनुओंने तो विवाह किया था; अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा 'बिन्दुज' है। परन्तु सनकादिकोंने विवाह किया ही नहीं; अतः उनसे उपदेश प्राप्त करके पारमार्थिक मार्गमें लगनेवाली प्रजा 'नादज' है। निवृत्तिपरायण होनेवाले जितने सन्त-महापुरुष पहले हुए हैं, अभी हैं और आगे होंगे, वे सब उपलक्षणसे उनकी ही नादज प्रजा हैं। सम्बन्ध--चौथेसे छठे श्लोकतक प्राणियोंके भावों तथा व्यक्तियोंके रूपमें अपनी विभूतियोंका और अपने योग-(प्रभाव-) का वर्णन करके अब भगवान् आगेके श्लोकमें उनको तत्त्वसे जाननेका फल बताते हैं।
Swami Tejomayananda
।।10.6।। सात महर्षिजन, पूर्वकाल के चार (सनकादि) तथा (चौदह) मनु ये मेरे प्रभाव वाले मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार (लोक) में यह प्रजा है।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.6।।पूर्वे सप्तर्षयः -- मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठश्च महातेजाः इति मोक्षधर्मोक्ताः [म.भा.12।335।28]। ते हि सर्वपुराणेषु उच्यन्ते। चत्वारः प्रथमाः स्वायम्भुवाद्याः तेषां हीमाः प्रजाः -- नहि भविष्यतामिमाः प्रजा इति युक्तं -- विभागः प्राधान्यं च प्राथमिकत्वादेव भवति। गौतमखिलेषु चोक्तम् -- स्वायम्भुवं रोचिषं च रैवतं च तथोत्तमम्। वेद यः स प्रजावान् इति। पूर्वेभ्यो ह्युत्तरा जायन्त इत्येषां प्राधान्यम्। अजातेषु च ज्यैष्ठ्यम्।तामसस्य भगवदवतारत्वादनुक्तिः। तच्च भागवते प्रसिद्धम्। मानसत्वं च सर्वेषां मनूनामुक्तं भागवते ()ततो मनून्ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् [ ] इति। अन्यपुत्रत्वं त्वपरित्यज्यापि शरीरं तद्भवति। प्रमाणं चोभयविधवाक्यान्यथाऽनुपपत्तिरेव। पूर्व इति विशेषणाच्चैतत्सिद्धिः। मत्तो भावो येषां ते मद्भावाः। ये ते ब्रह्मणो मानसा जातास्ते मत्त एव जाता इति भावः।
Sri Anandgiri
।।10.6।।न केवलं भगवतः सर्वप्रकृतित्वमेव किंतु सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वरूपमधिष्ठातृत्वमपीत्याह -- किञ्चेति। आद्या भृग्वादयो वसिष्ठान्ताः सर्वज्ञा विद्यासंप्रदायप्रवर्तकाः। तथेति मनूनामपि पूर्वत्वेनाद्यत्वमनुकृष्यते। के ते मनवस्तत्राह -- सावर्णा इतीति। प्रसिद्धाः पुराणेषु प्रजानां पालकाः स्वयमीश्वराश्चेति शेषः। महर्षीणां मनूनां च तुल्यं विशेषणं -- ते चेति। मयि सर्वज्ञे सर्वेश्वरे गता भावना येषां ते तथा। भावनाफलमाह -- वैष्णवेनेति। वैष्णव्या शक्त्याधिष्ठितत्वेन ज्ञानैश्वर्यवन्त इत्यर्थः। तेषां जन्मनो वैशिष्ट्यमाचष्टे -- मानसा इति। मन्वादीनेव विशिनष्टि -- येषामिति। विद्यया जन्मना च संततिभूता मन्वादीनामस्मिंल्लोके सर्वाः प्रजा इत्यर्थः।
Sri Vallabhacharya
।।10.6।।एवं जातस्य गुणसर्गस्य हेतुरहमज एक इत्युक्त्वाअहमादिर्हि देवानां [10।2] इति व्याचष्टे -- महर्षय इति। गुणसंसर्गिण एते पूर्वे भृग्वादयःसप्त ब्रह्माण्ड इत्येते पुराणे निश्चयं गताः [म.भा.12।208।5],इत्यादिपुराणप्रसिद्धाः। मानसाः तथा चतुर्दशसु मनुषु पूर्वे प्रथमाश्चत्वारो मनवः स्वायम्भुवस्वारोचिषोत्तमतामसाख्या इत्येते नित्यसर्गप्रवर्त्तनार्था मद्भावा जाताः? मत्त एवेत्यनुवर्त्तनीयम्। एतेन कारणभूतसर्वर्षिमनुदेवानामादिभूततयाऽनादित्वं स्वस्योक्तम्। एतेषां तु बुद्ध्यादिवन्न प्राकृतभावत्वमेव? किन्तु मद्भावत्वमिति। तदाह -- मद्भावा इति। मम भावः सामर्थ्यं तेजोभावो वा येषु ते तथा? एते मानसा भावाश्चेतनाः मत् मत्तो जाता इति वा? अथवा बुद्ध्यादयो येषां लोक इमाः प्रजास्ते महर्षिमन्वादयश्चेत्येते सर्वे भावा मत् मत्तो मानसा जाताःइच्छामात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः इति भगवन्मुखोक्तेः सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6।1] इति असतोऽधिमनो यस्य मनः प्रजापतिमसृजत? प्रजापतिः प्रजा असृजत? तद्वा इदं मय्येव परमं प्रतिष्ठितम्। मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते? मनसो वशे सर्वमिदं बभूव? कामस्तदग्रे समवर्त्तताधीः इत्यादिश्रुतेश्च।
Sridhara Swami
।।10.6।।किंच -- महर्षय इति। सप्त महर्षयोभृग्वादयः सप्त ब्राह्मणा इत्येते पुराणे निश्चयं गता इत्यादि पुराणप्रसिद्धाः। तेभ्योऽपि पूर्वेऽन्ये चत्वारो महर्षयः सनकादयः? तथा मनवः स्वायंभुवादयः मद्भावा मदीयो भावः प्रभावो येषु ते हिरण्यगर्भात्मनो ममैव मनसः संकल्पमात्राज्जाताः। प्रभावमेवाह -- येषामिति। येषां भृग्वादीनां च सनकादीनां चेमा ब्राह्मणाद्या लोके वर्धमाना यथायथं पुत्रपौत्रादिरूपाः शिष्यादिरूपाश्च प्रजा जाता वर्तन्ते।