Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 5 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः | भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ||१०-५||
Transliteration
ahiṃsā samatā tuṣṭistapo dānaṃ yaśo.ayaśaḥ . bhavanti bhāvā bhūtānāṃ matta eva pṛthagvidhāḥ ||10-5||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.5 Non-injury, eanimity, contentment, austerity, beneficence, fame, ill-fame (these) different kinds of alities of beings arise from Me alone.
।।10.5।। अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान. यश और अपयश ऐसे ये प्राणियों के नानाविध भाव मुझ से ही प्रकट होते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Adopt ethical practices (ahimsa, danam) in your work, maintain equanimity through project successes or failures, and find contentment in your effort rather than solely in external recognition. Understand that your reputation (fame/ill-fame) is a direct reflection of your conduct and contributions.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate equanimity to lessen the emotional impact of life's ups and downs, finding peace by detaching from extreme reactions. Practice contentment to reduce the stress of constant wanting and comparison, fostering inner satisfaction. Self-discipline (tapas) can build resilience against mental pressures.
❤️ In Relationships
Practice non-injury in thought, word, and deed, fostering harmonious interactions. Offer beneficence (danam) and support to others. Maintain equanimity regarding others' opinions or actions towards you, ensuring your peace isn't overly dependent on external validation, but also understanding that your actions shape how others perceive you (fame/ill-fame).
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“All aspects of human nature and experience, good or bad, originate from the Divine; your conscious cultivation of virtues like equanimity, contentment, and ethical conduct shapes your character and destiny.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.5 अहिंसा noninjury? समता eanimity? तुष्टिः contentment? तपः austerity? दानम् beneficence? यशः fame? अयशः illfame? भवन्ति arise? भावाः alities? भूतानाम् of beings? मत्तः from Me? एव alone? पृथग्विधाः of different kinds. Commentary Ahimsa is noninjury to living beings in thought? word and deed. Samata is that state wherein there is neither Raga (like) nor Dvesha (dislike)? when one gets pleasant or unpleasant objects. There is neither exhilaration when one gets pleasant or favourable objects nor depressions when one gets unpleasant or unfavourable objects. Tushtih is satisfaction or contentment. The man of contentment is satisfied with whatever object he gets through Prarabdha. He is satisfied with his present acisitions. He is free from greed and so he has peace of mind. Contentment makes a man very rich. It annihilates greed. Greed makes even a rich man a beggar of beggars. A greedy man is ever restless. Tapas is restraint of the senses? with bodily mortification through the practice of fasting and slow reduction of food. The strength of the body and the senses is reduced through fasting.Danam is beneficence. It is sharing of ones own things with others according to ones own means? or distribution of rice? gold? cloth? etc.? to a worthy person? in a fit place and time? especially to one who can do nothign in return.Yasas is fame due to Dharma or virtuous actions.Ayasah is illfame or disgrace due to Adharma or sinful actions.All these different kinds of alities of living beings arise from Me alone? the great Lord of the worlds? according to their respective Karmas.
Shri Purohit Swami
10.5 Harmlessness, equanimity, contentment, austerity, beneficence, fame and failure, all these, the characteristics of beings, spring from Me only.
Dr. S. Sankaranarayan
10.5. [Also] non-injury, eanimity, contentment, austerity, charity, repute and ill-repute - all these diverse dispositions of beings emanate from none but Me.
Swami Adidevananda
10.5 Non-violence, eality, cheerfulness, austerity, beneficence, fame and infamy- these different alities of beings arise from Me alone.
Swami Gambirananda
10.5 Non-injury, eanimity, satisfaction, austerity, charity, fame, infamy-(these) different dispositions of beings spring from Me alone.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.5।। प्रस्तुत प्रकरण के विचार को ही आगे बढ़ाते हुए कि परमात्मा ही सम्पूर्ण विश्व का उपादान और निमित्त कारण है? भगवान् श्रीकृष्ण इन दो श्लोकों में उन विविध गुणों को गिनाते हैं? जो मनुष्य के मन और बुद्धि में व्यक्त होते हैं।साधारणत? सृष्टि शब्द से केवल हम भौतिक जगत् ही समझते हैं। परन्तु उपर्युक्त समस्त गुण उसके व्यापक एवं सर्वग्राहक अर्थ को सूचित करते हैं। उनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जगत् शब्द के अर्थ में हमारे मानसिक और बौद्धिक जीवन भी सम्मिलित हैं।पुन सभी मनुष्यों और प्राणियों का वर्गीकरण इन्हीं गुणों के आधार पर किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण या स्वभाव के वशीभूत है। यथा मन तथा मनुष्य। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ केवल शुभ दैवी गुणों का ही गणना की गई है। संस्कृत व्याख्याकारों की पारम्परिक शैली का अनुकरण करते हुए? श्लोक में प्रयुक्त च शब्द की व्याख्या यह की जा सकती है कि उसके द्वारा विरोधी अशुभ गुणों को भी यहाँ सूचित किया गया है। तथापि भगवान् केवल शुभ गुणों को ही स्पष्टत बताते हैं? क्योंकि जिस व्यक्ति में इन गुणों का अधिकता होती है? उसमें आत्मा की शुद्धता एवं दिव्यता के दर्शन होते हैं।इन विभिन्न प्रकार की भावनाओं एवं विचारों से प्रेरित होकर प्रत्येक व्यक्ति अपनेअपने संस्कारों के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यहाँ विविध प्रकार के जीवन दृष्टिगोचर होते है। ये समस्त गुण? मुझसे ही प्रकट होते हैं। स्तम्भ में प्रतीत हुआ प्रेत चाहे प्रेम से मन्दस्मित करे या क्रोध से खिसियाये अथवा प्रतिशोध की भावना से धमकाये? उसका मन्द स्मित या धमकाना इत्यादि गुणों का केवल एक अधिष्ठान है स्तम्भ। आत्मचैतन्य के बिना बुद्धि? ज्ञान आदि गुणों का न अस्तित्व है और न भान।इन गुणों के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनके अनुभवों का प्राय पूर्ण वर्गीकरण किया गया है। इसलिए जैसा कि शंकराचार्य कहते हैं? ये दो श्लोक आत्मा का सर्वलोकमहेश्वर होना सिद्ध करते हैं।
Swami Ramsukhdas
।।10.5।। व्याख्या--'बुद्धिः'--उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम बुद्धि है।'ज्ञानम्'--सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्यअकर्तव्य --ऐसा जो विवेक अर्थात् अलगअलग जानकारी है, उसका नाम 'ज्ञान' है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान्से मिला है। 'असम्मोहः'--शरीर और संसारको उत्पत्तिविनाशशील जानते हुए भी उनमें मैं और 'मेरा'-पन करनेका नाम सम्मोह है और इसके न होनेका नाम असम्मोह है।'क्षमा'--कोई हमारे प्रति कितना ही बड़ा अपराध करे, अपनी सामर्थ्य रहते हुए भी उसे सह लेना और उस अपराधीको अपनी तथा ईश्वरकी तरफसे यहाँ और परलोकमें कहीं भी दण्ड न मिले -- ऐसा विचार करनेका नाम 'क्षमा' है। 'सत्यम्'--सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये सत्यभाषण करना अर्थात् जैसा सुना, देखा और समझा है, उसीके अनुसार अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये न ज्यादा, न कम-- वैसा-का-वैसा कह देनेका नाम 'सत्य' है। 'दमः शमः' --परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखते हुए इन्द्रियोंको अपनेअपने विषयोंसे हटाकर अपने वशमें करनेका नाम 'दम' है, और मनको सांसारिक भोगोंके चिन्तनसे हटानेका नाम 'शम' है। 'सुखं दुःखम्' --शरीर, मन, इन्द्रियोंके अनुकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो प्रसन्नता होती है, उसका नाम 'सुख' है और प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयमें जो अप्रसन्नता होती है, उसका नाम 'दुःख' है। 'भवोऽभावः'--सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, भाव आदिके उत्पन्न होनेका नाम 'भव' है और इन सबके लीन होनेका नाम 'अभाव' है। 'भयं चाभयमेव च' --अपने आचरण, भाव आदि शास्त्र और लोक-मर्यादाके विरुद्ध होनेसे अन्तःकरणमें अपना अनिष्ट होनेकी जो एक आशङ्का होती है, उसको भय कहते हैं। मनुष्यके आचरण, भाव आदि अच्छे हैं, वह किसीको कष्ट नहीं पहुँचाता, शास्त्र और सन्तोंके सिद्धान्तसे विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता, तो उसके हृदयमें अपना अनिष्ट होनेकी आशङ्का नहीं रहती अर्थात् उसको किसीसे भय नहीं होता। इसीको 'अभय' कहते हैं। 'अहिंसा'--अपने तन, मन और वचनसे किसी भी देश, काल, परिस्थिति आदिमें किसी भी प्राणीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम 'अहिंसा' है। 'समता' --तरह-तरहकी अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिके प्राप्त होनेपर भी अपने अन्तःकरणमें कोई विषमता न आनेका नाम 'समता' है।'तुष्टिः' -- आवश्यकता ज्यादा रहनेपर भी कम मिले तो उसमें सन्तोष करना तथा और मिले -- ऐसी इच्छाका न रहना 'तुष्टि' है। तात्पर्य है कि मिले अथवा न मिले, कम मिले अथवा ज्यादा मिले आदि हर हालतमें प्रसन्न रहना 'तुष्टि' है। 'तपः' --अपने कर्तव्यका पालन करते हुए जो कुछ कष्ट आ जाय, प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय, उन सबको प्रसन्नतापूर्वक सहनेका नाम तप है। एकादशी-व्रत आदि करनेका नाम भी तप है। 'दानम्'--प्रत्युपकार और फलकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाईका हिस्सा सत्पात्रको देनेका नाम 'दान' (गीता 17। 20)। 'यशोऽयशः' --मनुष्यके अच्छे आचरणों, भावों और गुणों��ो लेकर संसारमें जो नामकी प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि होते हैं, उनका नाम 'यश' है। मनुष्यके बुरे आचरणों, भावों और गुणोंको लेकर संसारमें जो नामकी निन्दा होती है, उसको 'अयश' (अपयश) कहते हैं। 'भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः'--प्राणियोंके ये पृथक्-पृथक् और अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उन सबको सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश मुझ लोकमहेश्वरसे ही मिलता है। तात्पर्य है कि तत्त्वसे सबके मूलमें मैं ही हूँ। यहाँ 'मत्तः' पदसे भगवान्का योग, सामर्थ्य, प्रभाव और 'पृथग्विधाः' पदसे अनेक प्रकारकी अलग-अलग विभूतियाँ जाननी चाहिये। संसारमें जो कुछ विहित तथा निषिद्ध हो रहा है; शुभ तथा अशुभ हो रहा है और संसारमें जितने सद्भाव तथा दुर्भाव हैं, वह सब-की-सब भगवान्की लीला है -- इस प्रकार भक्त भगवान्को तत्त्वसे समझ लेता है तो उसका भगवान्में अविकम्प (अविचल) योग हो जाता है (गीता 10। 7)। यहाँ प्राणियोंके जो बीस भाव बताये गये हैं, उनमें बारह भाव तो एक-एक (अकेले) हैं और वे सभी अन्तःकरणमें उत्पन्न होनेवाले हैं और भयके साथ आया हुआ अभय भी अन्तःकरणमें पैदा होनेवाला भाव है तथा बचे हुए सात भाव परस्परविरोधी हैं। उनमेंसे भव (उत्पत्ति), अभाव, यश और अयश--ये चार तो प्राणियोंके पूर्वकृत कर्मोंके फल हैं और सुख, दुःख तथा भय -- ये तीन मूर्खताके फल हैं। इस मूर्खताको मनुष्य मिटा सकता है। यहाँ प्राणियोंके बीस भावोंको अपनेसे पैदा हुए और अपनी विभूति बतानेमें भगवान्का तात्पर्य है कि ये बीस भाव तो पृथक्-पृथक् हैं, पर इन सब भावोंका आधार मैं एक ही हूँ। इन सबके मूलमें मैं ही हूँ, ये सभी मेरेसे ही होते हैं एवं मेरेसे ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं। सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भी भगवान्ने 'मत्तः एव' पदोंसे बताया है कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं अर्थात् उनके मूलमें मैं ही हूँ, वे मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं। अतः यहाँ भी भगवान्का आशय विभूतियोंके मूल तत्त्वकी तरफ साधककी दृष्टि करानेमें ही है। विशेष बात साधक संसारको कैसे देखे ऐसे देखे? कि संसारमें जो कुछ क्रिया, पदार्थ, घटना आदि है, वह सब भगवान्का रूप है। चाहे उत्पत्ति हो, चाहे प्रलय हो; चाहे अनुकूलता हो, चाहे प्रतिकूलता हो; चाहे अमृत हो, चाहे मृत्यु हो; चाहे स्वर्ग हो, चाहे नरक हो यह सब भगवान्की लीला है। भगवान्की लीलामें बालकाण्ड भी है, अयोध्याकाण्ड भी है, अरण्यकाण्ड भी है और लङ्काकाण्ड भी है। पुरियोंमें देखा जाय तो अयोध्यापुरीमें भगवान्का प्राकट्य है राजा, रानी और प्रजाका वात्सल्यभाव है। जनकपुरीमें रामजीके प्रति राजा जनक, महारानी सुनयना और प्रजाके विलक्षण-विलक्षण भाव हैं। वे रामजीको दामादरूपसे खिलाते हैं, खेलाते हैं, विनोद करते हैं। वनमें (अरण्यकाण्डमें) भक्तोंका मिलना भी है और राक्षसोंका मिलना भी। लंकापुरीमें युद्ध होता है, मार-काट होती है, खूनकी नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग पुरियोंमें, अलग-अलग काण्डोंमें भगवान्की तरह-तरहकी लीलाएँ होती हैं। परन्तु तरह-तरहकी लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है और ये सभी लीलाएँ एक ही रामायणके अङ्ग हैं तथा इन अङ्गोंसे रामायण साङ्गोपाङ्ग होती है। ऐसे ही संसारमें प्राणियोंके तरह-तरहके भाव हैं, क्रियाएँ हैं। कहींपर कोई हँस रहा है तो कहींपर कोई रो रहा है, कहींपर विद्वद्गोष्ठी हो रही है तो कहींपर आपसमें लड़ाई हो रही है, कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है, आदि-आदि जो विविध भाँतिकी चेष्टाएँ हो रही हैं, वे सब भगवान्की लीलाएँ हैं। लीलाएँ करनेवाले ये सब भगवान्के रूप हैं। इस प्रकार भक्तकी दृष्टि हरदम भगवान्पर ही रहनी चाहिये; क्योंकि इन सबके मूलमें एक परमात्मतत्त्व ही है।
Swami Tejomayananda
।।10.5।। अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान. यश और अपयश ऐसे ये प्राणियों के नानाविध भाव मुझ से ही प्रकट होते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.5।।तुष्टिरलम्बुद्धिः।अलम्बुद्धिस्तथा तुष्टिः इत्यभिधानात्।
Sri Anandgiri
।।10.5।।यथाशक्तीति। पात्रे श्रद्धया स्वशक्तिमनतिक्रम्यार्थानां देशकालानुगुण्येन प्रतिपादनमित्यर्थः। उक्तानां बुद्ध्यादीनां साश्रयाणामीश्वरादुत्पत्तिं प्रतिजानीते -- भवन्तीति। नानाविधत्वे हेतुमाह -- स्वकर्मेति। कथंचिदपि तेषामात्मातिरेकेणाभावान्मत्त एवेत्युक्तम्।
Sri Vallabhacharya
।।10.4 -- 10.5।।किञ्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगकल्याणगुणान्मत्त एव बुद्धिर्ज्ञानं च भवति। ज्ञानमित्युपलक्षणं सर्वस्य सदसद्गुणसर्गस्यमत्तः सर्वं प्रवर्त्तते [10।8] इति वाक्यात्। तथाहि बुद्धिरित्यादि। बुद्धिः तत्त्वतोऽध्यवसायरूपा? ज्ञानमुपदेशजन्यम्?असम्मूढः [10।3] इत्यत्रोक्तोऽसम्मोहोऽपि मत्त एव भवति। क्षमा सहिष्णुता सत्यं प्रमाणेनावबुद्धस्यार्थस्य तथैव भाषणम्? दमो बाह्येन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवृत्तिः? शमोऽन्तःकरणस्य? सुखमात्मानुकूलानुभवः? दुःखं तद्विपरीतं च मत्त एव भवति। मार्गत्रयाधिष्ठाताऽहं यथामार्गानुसरणं तत्तदधिकृताय तथैव दुःखं सुखं प्रयच्छामीति भावः। एवं भवः उद्भवः? अभावस्तद्विपरीतः? भयमभयं च दानं यशः अयशश्चेति विंशद्भावास्तत्तन्मार्गरतानां प्राणिनां यथासर्गं पृथग्विधा मत्त एव भवन्तिरूपनामविभेदेन जगत् क्रीडति यो यतः इति निबन्धोक्तेः। अनेन स्वस्य मुख्यं कर्तृत्वं सर्वकारणत्वं चोक्तम्। प्रकृत्यादेस्तु करणत्वमेव? न कारणत्वं साधकतमत्त्वादिति स्वयोगमहिमोक्तः।
Sridhara Swami
।।10.5।।किंच -- अहिंसेति। अहिंसा परपीडानिवृत्तिः? समता रागद्वेषादिराहित्यं? मित्रामित्रतुल्यता च? तुष्टिर्दैवलब्धेन संतोषः? तपः शारीरादि वक्ष्यमाणम्? दानं न्यायार्जितधनादेः सत्पात्रार्पणम्? यशः सत्कीर्तिः? अयशोऽपकीर्तिः? एते बुद्धिर्ज्ञानमित्यादयस्तद्विपरीताश्चाबुद्ध्यादयो नानाविधा भावाः प्राणिनां मत्तः सकाशादेव भवन्ति।