Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 11 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः | नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||१०-११||
Transliteration
teṣāmevānukampārthamahamajñānajaṃ tamaḥ . nāśayāmyātmabhāvastho jñānadīpena bhāsvatā ||10-11||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
10.11 Out of mere compassion for them, I, dwelling within their Self, destroy the darkness born of ignorance by the luminous lamp of knowledge.
।।10.11।। उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
In your professional life, cultivate a relentless pursuit of knowledge and understanding. When faced with complex problems, ethical dilemmas, or career uncertainty, trust your inner wisdom and commit to thorough learning. This 'lamp of knowledge' will compassionately illuminate the best path, dispel confusion, and guide you to effective solutions and clarity.
🧘 For Stress & Anxiety
Much stress and anxiety arise from a sense of not knowing or understanding. This verse teaches that by turning inward and fostering self-awareness and wisdom, you activate an inner 'lamp' that dispels the 'darkness' of fear, doubt, and mental clutter. Practice mindfulness and introspection to gain perspective, realizing that the solution often lies in internal clarity rather than external scrambling.
❤️ In Relationships
Misunderstandings and conflicts in relationships often stem from ignorance about others' perspectives or our own biases. Apply the 'lamp of knowledge' by seeking to deeply understand, empathize, and communicate openly. This compassionate approach, guided by inner wisdom, dissolves the 'darkness' of assumptions, fosters genuine connection, and helps resolve relational issues effectively.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“The divine light of knowledge, inherent within you, compassionately dispels all darkness of ignorance, revealing truth and guiding your path.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
10.11 तेषाम् for them? एव mere? अनुकम्पार्थम् out of compassion? अहम् I? अज्ञानजम् born of ignorance? तमः darkness? नाशयामि (I) destroy? आत्मभावस्थः dwelling within their self? ज्ञानदीपेन by the lamp of knowledge? भास्वता luminous.Commentary Luminous lamp of knowledge The Lord dwells in the heart of the devotees who constantly think of Him and destroys the veil or the darkness born of ignorance due to the absence of discrimination? by the luminous lamp of knowledge fed by the oil of pure devotion? fanned by the wind of profound meditation on Him? provided with the wick of right intuition? generated by the constant cultivation of celibacy? piety and other divine virtues held in the chambers of the heart free from worldliness? placed in the innermost recesses of the mind free from the wind of senseattractions (withdrawn from the objects of the senses) and untainted by likes and dislikes? and shining with the light of knowledge of the Self caused by the constant practice of meditation.The lamp is not in need of an instrument or means or any sort of practice for the removal of darkness. The generation of the light itself is ite sufficient to remove the darkness. As soon as the darkness is removed by the light? the pot? the chair and the other articles are seen. Even so the dawn of knowledge of the Self itself is ite sufficient to remove ignorance. No other Karma or,practice is necessary. After the ignorance is removed by the knowledge of the Self? Brahman alone shines in Its pristine glory.
Shri Purohit Swami
10.11 By My grace, I live in their hearts; and I dispel the darkness of ignorance by the shining light of wisdom.
Dr. S. Sankaranarayan
10.11. Out of compassion only towards these men, I, who remain as their very Self, destroy with teh shining light of wisdom, their darkness born of ignorance,
Swami Adidevananda
10.11 Out of compassion for them alone, I, abiding in their mental activity as its object, dispel the darkness born of ignorance by the brilliant lamp of knowledge.
Swami Gambirananda
10.11 Out of compassion for them alone, I, residing in their hearts, destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of Knowledge.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।10.11।। कभीकभी कोई वस्तु विद्यमान होते हुए भी हमारी दृष्टि के लिए आच्छादित रहती है? क्योंकि उसे देखने के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। ध्वनि सुनने के लिए उसमें आवश्यक स्पन्दन होने चाहिए तथा यह भी आवश्यक है कि वे ध्वनि तरंगे हमारे कानों तक पहुँचे। इसी प्रकार? अपेक्षित प्रकाश के अभाव में वस्तु के समक्ष होने पर भी उसका नेत्रों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता।यदि हम अन्धकार में मेज पर पड़ी अपना कुंजी (चाभी) को टटोलकर खोज रहे हों और उसी समय कोई व्यक्ति स्विच दबाकर कमरे को प्रकाशित कर देता है? तो हमें अपनी कुंजी दिखाई पड़ती है। हम कह सकते हैं कि उस व्यक्ति के इस दयापूर्ण कार्य ने हमें कुंजी की प्राप्ति करायी? परन्तु यह कहना सर्वथा असंगत होगा कि प्रकाश ने उस कुंजी को उत्पन्न किया।इस दृष्टान्त के द्वारा वेदान्त में यह ज्ञान कराया जाता है कि आत्मा तो सदा हमारे हृदय में ही विद्यमान है? किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण यथार्थ अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं है। उन प्रतिकूल तत्त्वों की निवृत्ति होने पर वह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से अनुभव किया जा सकता है। आत्मा को आच्छादित करने वाला वह आवरण है अज्ञानजनित अंधकार। स्मरण रहे कि इस अज्ञान अवस्था में भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से विद्यमान रहता है? परन्तु हमारे साक्षात् अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं होता। जो साधक बुद्धियोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर लेते हैं? वे आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान के पात्र बन जाते हैं।बुद्धियोग की साधना अवस्था में ध्याता और ध्येय में भेद होता है? जिसे सविकल्प समाधि कहते हैं। इस श्लोक में यह कहा गया है कि इस सविकल्प अवस्था से वह साधक? मानो किसी ईश्वरीय कृपा से पूर्ण निर्विकल्प समाधि की स्थिति में स्थानान्तरित किया जाता है। वस्तुत? सविकल्प समाधि की स्थिति तक ही साधक अपने पुरुषार्थ के द्वारा पहुँच सकता है। यह बुद्धियोग भी मानो किसी अन्य स्थान से प्राप्त होता है? तात्पर्य यह है कि वह कोई सावधानीपूर्वक किये गये किसी प्रयत्न का फल नहीं? वरन् सहज स्वाभाविक आंशिक दैवी प्रेरणा है। अहंकार और शुद्ध आत्मा के मध्य का सघन कुहासा जब विरल हो जाता है? तब इस दैवी प्रेरणा का अनुभव होता है। जब यह कोहरा पूर्णतया नष्ट हो जाता है? तब पूर्ण आत्म साक्षात्कार अपने स्वयंप्रकाश स्वरूप में होता है।एक अन्धेरे कमरे में मेज पर रेडियम के डायल की एक घड़ी रखी हुई है? जिस पर कागज? पुस्तक आदि पड़े हुए होने से वह दिखाई नहीं देती। जब कोई व्यक्ति अन्धेरे में ही उसे खोजता हुआ उन कागजों को हटा देता है? तो वह घड़ी स्वयं ही चमकती हुई दिखाई पड़ती है। उसकी चमक ही उसकी परिचायक होती है। सनातन सत्य भी अज्ञान से आवृत्त हुआ अभाव रूप प्रतीत हो सकता है? किन्तु अज्ञान की निवृत्ति होने पर? वह स्वयं अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होता है? और उसे जानने के लिए अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती।जब अज्ञान का अन्धकार? प्रकाशमय ज्ञान के दीपक से नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने एकमेव अद्वितीय? सर्वव्यापी और परिपूर्ण स्वरूप में स्वत प्रकट होता है। अपने भक्तों के हृदय में स्थित स्वयं भगवान् इस आत्मा के प्रकटीकरण की क्रिया को उनके ऊपर अनुग्रह करने के भाव से सम्पन्न करते हैं? किन्तु वास्तविकता यह है कि यह अनुग्रह स्वयं के ऊपर ही है। जब मैं चलतेचलते थक जाता हूँ तब मैं किसी स्थान पर बैठ जाता हूँ केवल अपने ही प्रति अनुकम्पा के कारण।इस अनुकम्पा के लिए उचित मूल्य चुकाये बिना साधक को सीधे ही इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। दिन के समय? मेरे कमरे की खिड़कियां खोल देने पर? सूर्य प्रकाश अनुकम्पावशात् मेरे लिए कमरे को प्रकाशित करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि जब तक वे खिड़कियां खुली रहती हैं? तब तक सूर्य को यह स्वतन्त्रता नहीं है कि वह अपनी दया का द्वार बन्द कर ले। उसी प्रकार उसकी दया तब तक प्रकट भी नहीं होगी? जब तक मैं अपने कमरे की खिड़कियां नहीं खोल देता हूँ। संक्षेपत? सूर्य प्रकाश का आह्वान उसी क्षण होता है? जब उसके मार्ग का अवरोधक दूर हो जाता है।इसी प्रकार? प्रारम्भिक साधनाओं के अभ्यास से साधक बुद्धियोग का पात्र बनता है। तत्पश्चात् इसके निरन्तर प्रयत्नपूर्वक किये गये अभ्यास से वह अज्ञान तथा तज्जनित विक्षेपों के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है। तत्काल ही आत्मा अपने स्वयं के प्रकाश में ही प्रकाश स्वरूप से प्रकाशित होता है। मेघों को चीरकर जाती हुई विद्युत् को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती।जीवन के सर्वोच्च व्यवसाय अथवा लक्ष्य चित्तशुद्धि और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति के लिए दिये गये उपदेश का खण्ड यहाँ पर समाप्त हो जाता है? तथापि अर्जुन को इससे सन्तोष नहीं होता? और इसलिए वह अपनी शंका को व्यक्त करते हुए भगवान् से सहायता के लिए अनुरोध करता है? जिससे कि साक्षात् अनुभव के द्वारा वह स्वयं सत्य की पुष्टि कर सके।भगवान् के मुख से उनकी विभूति और योग के विषय में श्रवण कर? अर्जुन अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है --
Swami Ramsukhdas
।।10.11।। व्याख्या--'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः'--उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं, होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती (टिप्पणी प0 547)। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किञ्चिन्मात्र भी कमी न रहे। 'आत्मभावस्थः' -- मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि मैं हूँ तो यह होनापन प्रायः प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध जोड़कर ही मानते हैं, अर्थात् तादात्म्यके कारण शरीरके बदलनेमें अपना बदलना मानते हैं, जैसे -- मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ इत्यादि। परन्तु इन विशेषणोंको छोड़कर तत्त्वकी दृष्टिसे इन प्राणियोंका अपना जो होनापन है, वह प्रकृतिसे रहित है। इसी होनेपनमें सदा रहनेवाले प्रभुके लिये यहाँ 'आत्मभावस्थः' पद आया है। 'भास्वता ज्ञानदीपेन नाशयामि' -- प्रकाशमान ज्ञानदीपकके द्वारा उन प्राणियोंके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञानके कारण 'मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?' ऐसा जो अनजानपना रहता है, उस अज्ञानका मैं नाश कर देता हूँ अर्थात् तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोधकी महिमा शास्त्रोंमें गायी गयी है, उसके लिये उनको श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। विशेष बात भक्त जब अनन्यभावसे केवल भगवान्में लगे रहते हैं, तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना -- यह 'समता' भी भगवान् देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है, वह 'तत्त्वबोध' (स्वरूपज्ञान) भी भगवान् स्वयं देते हैं। भगवान्के स्वयं देनेका तात्पर्य है कि भक्तोंको इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता; प्रत्युत भगवत्कृपासे उनमें समता स्वतः आ जाती है। उनको तत्त्वबोध स्वतः हो जाता है। कारण कि जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी, वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्तिके आनेपर समता-- संसारसे वैराग्य और अपने स्वरूपका बोध--ये दोनों स्वतः आ जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है, उसकी अपेक्षा भगवान्द्वारा की हुई पूर्णता बहुत विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णताकी गंध भी नहीं रहती।,जैसे भगवान् अनन्यभावसे भजन करनेवाले भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (गीता 9। 22), ऐसे ही जो केवल भगवान्के ही परायण हैं, ऐसे प्रेमी भक्तोंको (उनके न चाहनेपर भी और उनके लिये कुछ भी बाकी न रहनेपर भी) भगवान् समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देनेपर भी भगवान् उन भक्तोंके ऋणी ही बने रहते हैं। भागवतमें भगवान्ने गोपियोंके लिये कहा है कि 'मेरे' साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोड़नेवाली गोपियोंका मेरेपर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओंके समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषिमुनि, त्यागी आदि भी घरकी जिस अपनापनरूपकी बेड़ियोंको सुगमतासे नहीं तोड़ पाते, उनको उन्होंने तोड़ डाला है (टिप्पणी प0 548)। भक्त भगवान्के भजनमें इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारेमें समता आयी है, हमें स्वरूपका बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँसे आये! वे 'अपनमें कोई विशेषता न दीखे' इसके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं कि 'हे नाथ! आप समता, बोध ही नहीं, दुनियाके उद्धारका अधिकार भी दे दें, तो भी मेरेको कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरेमें यह विशेषता है मैं केवल आपके भजन-चिन्तनमें ही लगा रहूँ।' सम्बन्ध --भक्तोंपर भगवान्की अलौकिक, विलक्षण कृपाकी बात सुनकर अर्जुनकी दृष्टि भगवान्की कृपाकी तरफ जाती है और उस कृपासे प्रभावित होकर वे आगेके चार श्लोकोंमें भगवान्की स्तुति करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।10.11।। उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।10.11।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
Sri Anandgiri
।।10.11।।भगवत्प्राप्तेर्बुद्धिसाध्यत्वे सत्यनित्यत्वापत्तेस्त्वमापे भक्तेभ्यो बुद्धियोगं ददासीत्ययुक्तमिति शङ्कते -- किमर्थमिति। तेषां बुद्धियोगं किमर्थं ददासीति संबन्धः। भगवत्प्राप्तिप्रतिबन्धकनाशको बुद्धियोगस्तेन नास्ति तत्प्राप्तेरनित्यत्वमित्याशङ्क्याह -- कस्येति। भक्तानां तत्प्राप्तिप्रतिबन्धकं विविच्य दर्शयति -- इत्याकाङ्क्षायामिति। अविवेको नामाज्ञानं ततो जातं मिथ्याज्ञानं तदुभयमेकीकृत्य तमो विवक्ष्यते। नच तन्नाशकत्वं जडस्य कस्यचित्तदन्तर्भूतस्य युक्तं तेनाहं नाशयामीत्युक्तम्। केवलचैतन्यस्य जडबुद्धिवृत्तेरिवाज्ञानाद्यनाशकत्वमाशङ्क्य विशिनष्टि -- आत्मेत��। तस्याशयस्तन्निष्ठो वृत्तिविशेषः। वाक्योत्थबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्तश्चिदात्मा सहायसामर्थ्यादज्ञानादिनिवृत्तिहेतुरित्यर्थः। बुद्धीद्धबोधस्याज्ञानादिनिवर्तकत्वमुक्त्वा बोधेद्धबुद्धेस्तन्निवर्तकत्वमिति पक्षान्तरमाह -- ज्ञानेति। देहाद्यव्यक्तान्तानात्मवर्गातिरिक्तवस्तुगोचरत्वमाह -- विवेकेति। भगवति सदा विहितया भक्त्या तस्य प्रसादोऽनुग्रहः स एव स्नेहस्तेनासेचनद्वाराऽस्योत्पत्तिमाह -- भक्तीति। मय्येव भावनायामभिनिवेशो वातस्तेन प्रेरितोऽयं जायते? नहि वातप्रेरणमन्तरणादौ दीपस्योत्पत्तिरित्याह -- मद्भावनेति। ब्रह्मचर्यमष्टाङ्गमादिशब्देन शमादिग्रहः। तेन हेतुनाहितसंस्कारवती या प्रज्ञा तथाविधवर्तिनिष्ठश्चायं नहि वर्त्यतिरेकेण दीपो निर्वर्त्यते तदा -- ब्रह्मचर्येति। न चाधारादृते दीपस्योत्पत्तिरदृष्टत्वादित्याह -- विरक्तेति। यद्विषयेभ्यो व्यावृत्तं चित्तं रागाद्यकलुषितं तदेव निवातमपवारकं तत्र स्थितत्वमस्य दर्शयति -- विषयेति। भास्वतेति विशेषणं विशदयति -- नित्येति। सदातनं चित्तैकाग्र्यं तत्पूर्वकं ध्यानं तेन जनितं सम्यग्दर्शनं फलं तदेव भास्तद्वता तत्पर्यन्तेनेत्यर्थः। तेनाज्ञाने सकार्ये निवृत्ते भगवद्भावः स्वयमेव प्रकाशीभवतीति मत्वा व्याख्यातमेव पदमनुवदति -- ज्ञानेति।
Sri Vallabhacharya
।।10.11।।आत्मज्ञानमपि तेषां मयैव सम्पाद्यते इत्याह -- तेषामेवानुकम्पार्थमिति।जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः। उच्चावचासु गतिषु वेद स्वां गतिं भ्रमन्। इति सञ्चिन्त्य भगवान्महाकारुणिको विभुः। तेषामन्तरात्मत्वं अङ्गीकृत्य स्थितो भास्वता ज्ञानदर्पणेनात्मविषयकसाक्षात्कारेणोभयाज्ञानजं तमो देहाध्यासादिना विषयप्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं सर्वं नाशयामि। एवं च भगवदीयानां निजानामहमेव सर्वयोगक्षेमसाधको नान्य इति द्योत्यते।
Sridhara Swami
।।10.11।।बुद्धियोगं दत्त्वा च तस्यानुभवपर्यन्तं तमापाद्याविद्याकृतं संसारं नाशयामीत्याह -- तेषामिति। तेषामनुकम्पार्थमनुग्रहार्थमेवाज्ञानाज्जातं तमः संसाराख्यं नाशयामि। कुत्र वा स्थितः सन्केन साधनेन तमो नाशयसीत्यत,आह। आत्मभावस्थः बुद्धिवृत्तौ स्थितः सन् भास्वता विस्फुरता ज्ञानलक्षणेन दीपेन नाशयामि।