Bhagavad Gita Chapter 10 Verse 10 — Meaning & Life Application

Source: Bhagavad GitaTheme: Devotion (Bhakti)

Sanskrit Shloka (Original)

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||१०-१०||

Transliteration

teṣāṃ satatayuktānāṃ bhajatāṃ prītipūrvakam . dadāmi buddhiyogaṃ taṃ yena māmupayānti te ||10-10||

Word-by-Word Meaning

तेषाम्to them
सततयुक्तानाम्ever steadfast
भजताम्(of the) worshipping
प्रीतिपूर्वकम्with love
ददामि(I) give
बुद्धियोगम्Yoga of discrimination
तम्that
येनby which
माम्to Me
उपयान्तिcome
तेthey.Commentary The devotees who have dedicated themselves to the Lord

📖 Translation

English

10.10 To them who are ever steadfast, worshipping Me with love, I give the Yoga of discrimination by which they come to Me.

🇮🇳 हिंदी अनुवाद

।।10.10।। उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।

How to Apply This Verse in Modern Life

💼 At Work & Career

By consistently dedicating yourself to your work with integrity and a service-oriented mindset, you unlock an intuitive understanding that guides optimal decision-making and leads to meaningful professional growth and fulfillment beyond mere material gain.

🧘 For Stress & Anxiety

Cultivating a steady practice of self-reflection and engaging in activities you genuinely love, free from selfish expectation, fosters inner peace and clarity. This consistent, heartfelt approach allows you to navigate stress with wisdom, resilience, and a deeper sense of purpose.

❤️ In Relationships

Approach your relationships with unwavering commitment and selfless love. This consistent, heartfelt devotion enables deeper understanding, resolves conflicts with compassion, and transforms interactions into a path of mutual growth and harmonious connection, seeing the inherent value in others.

When to Chant/Recall This Verse

Solves These Life Problems

Key Message in One Line

Cultivate unwavering devotion and loving steadfastness; divine wisdom will then illuminate your path to ultimate understanding and union.

🕉️ Council of Sages

Compare interpretations from revered Acharyas and scholars

🌍 English Interpretations

Swami Sivananda

10.10 तेषाम् to them? सततयुक्तानाम् ever steadfast? भजताम् (of the) worshipping? प्रीतिपूर्वकम् with love? ददामि (I) give? बुद्धियोगम् Yoga of discrimination? तम् that? येन by which? माम् to Me? उपयान्ति come? ते they.Commentary The devotees who have dedicated themselves to the Lord? who are ever harmonious and selfabiding? who are ever devout and who adore Him with intense love (not for attaining any selfish purpose)? obtain the divine grace. The Lord gives them wisdom or the Yoga of discrimination or understanding by which they attain the knowledge of the Self. The Lord bestows on these devotees who have fixed their thoughts on Him alone? devotion of right knowledge. (Buddhi Yoga) by which they know Him in essence. They know through the eye of intuition in deep meditaion the Supreme Lord? the One in all? the Self of all? as their own Self? destitue of all limitations. Buddhi here is the inner eye of intuition by which the magnificent experience of oneness is had. Buddhi Yoga is Jnana Yoga. (Cf.IV.39XII.6and7)Why does the Lord impart this Yoga of knowledge to His devotees What obstacles does the Buddhi Yoga remove on the path of the aspirant or devotee The Lord gives the answer in the following verse.

Shri Purohit Swami

10.10 To those who are always devout and who worship Me with love, I give the power of discrimination, which leads them to Me.

Dr. S. Sankaranarayan

10.10. To these persons, who are [thus] mingling [with Me] and revere [Me] with love, I grant that knowledge-Yoga by means of which they reach Me.

Swami Adidevananda

10.10 To those, who are ceaselessly united with Me and who worship Me with immense love, I lovingly grant that mental disposition (Buddhi-yoga) by which they come to Me.

Swami Gambirananda

10.10 To them who are ever devoted and worship Me with love, I grant that possession of wisdom by which they reach Me.

🇮🇳 Hindi Interpretations

Swami Chinmayananda

।।10.10।। जब तक सबसे श्रेष्ठ आनन्ददायक वस्तु या लक्ष्य को नहीं पाया गया है जिसमें हमारा मन पूर्णतया रम सके? तब तक बाह्य विषयों? भावनाओं तथा विचारों के जगत् के साथ हुए तादात्म्य से हमारी सफलतापूर्वक निवृत्ति नहीं हो सकती। आनन्दस्वरूप आत्मा में ध्यानाकर्षण करने की ऐसी सार्मथ्य है और इसलिए? जिस मात्रा या सीमा तक इस आत्मस्वरूप में मन स्थित होता है? उसी मात्रा में वह दुखदायी मिथ्या बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाता है। इस वेदान्तिक सत्य का भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में वर्णन करते हैं? जो मेरा भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।प्रिय के साथ तादात्म्य का ही अर्थ है प्रेम। आत्मा के साथ हुए तादात्म्य के अनुपात में ही जीव भक्त कहलाता है और जब वह सततयुक्त हो जाता है? तभी वह वास्तविक रूप में हृदयस्थित अपनी अव्यक्त दिव्यता को अभिव्यक्त कर पाता है।ऐसे भक्त जो निरन्तर भक्ति? सन्तोष और आनन्द के वातावरण में सतत आत्मा का चिन्तन करते हैं उन भक्तों को स्वयं भगवान् ही वह बुद्धियोग देते हैं? जिसके द्वारा वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं।बुद्धियोग का पहले भी वर्णन किया जा चुका है। आत्मा के अनन्त स्वरूप पर निदिध्यासन से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना ही बुद्धियोग है। प्रस्तुत संदर्भ में उसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि उपर्युक्त पद्धति से साधनाभ्यास करने वाले साधक को सत्य का बौद्धिक ग्रहण होता है। निसंदेह हमारा वह अभिप्राय कदापि नहीं है कि परिच्छिन्न बुद्धि के द्वारा कभी अनन्त वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। हम केवल लौकिक जगत् के एक सुपरिचित वाक्प्रचार का उपयोग ही कर रहे हैं। जब तक बुद्धि से ग्रहण किया गया एक अनुभव किसी अन्य अनुभव से बाधित नहीं होता? तब तक उस पूर्व अनुभव को प्रामाणिक और संदेह रहित माना जाता है। आत्मा का अनुभव्ा कदापि बाधित नहीं हो सकता? क्योंकि वह अनुभवकर्ता का ही स्वरूप है। ऐसा दृढ़ ज्ञान केवल उन साधकों को ही प्राप्त होता है जिनमें आत्मानुसंधान करने की परिपक्वता एवं स्थिरता आ जाती है।इस प्रकार? उक्त ध्यानाभ्यास के द्वारा सत्य पर पड़े आवरण और तज्जनित विक्षेपों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है? तब वह साधक समाधि का साक्षात् अनुभव करता है? जो बुद्धियोग की परिसमाप्ति और पूर्णता है।इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान् अपने भक्तों के लिए निश्चित रूप से क्या करते हैं? इसका वर्णन अगले श्लोक में है --

Swami Ramsukhdas

।।10.10।। व्याख्या --[भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं (टिप्पणी प0 546.3)। उनका तो एक ही काम है-- हरदम भगवान्में लगे रहना। भगवान्में लगे रहनेके सिवाय उनके लिये और कोई काम ही नहीं है। अब सारा-का-सारा काम, सारी जिम्मेवारी भगवान्की ही है अर्थात् उन भक्तोंसे जो कुछ कराना है, उनको जो कुछ देना है आदि सब काम भगवान्का ही रह जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ (दो श्लोकोंमें) उन भक्तोंको समता और तत्त्वज्ञान देनेकी बात कह रहे हैं।] 'तेषां सततयुक्तानाम्' -- नवें श्लोकके अनुसार जो भगवान्में ही चित्त और प्राणवाले हैं, भगवान्के गुण, प्रभाव, लीला, रहस्य आदिको आपसमें एक-दूसरेको जानते हुए तथा भगवान्के नाम, गुणोंका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर भगवान्में ही सन्तुष्ट रहते हैं और भगवान्में ही प्रेम करते हैं, ऐसे नित्य-निरन्तर भगवान्में लगे हुए भक्तोंके लिये यहाँ 'सततयुक्तानाम्' पद आया है। 'भजतां प्रीतिपूर्वकम्' -- वे भक्त न ज्ञान चाहते हैं, न वैराग्य। जब वे पारमार्थिक ज्ञान, वैराग्य आदि भी नहीं चाहते, तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नव-निधि चाह ही कैसे सकते हैं! उनकी दृष्टि इन वस्तुओंकी तरफ जाती ही नहीं। उनके हृदयमें सिद्धि आदिका कोई आदर नहीं होता, कोई मूल्य नहीं होता। वे तो केवल भगवान्को अपना मानते हुए प्रेमपूर्वक स्वाभाविक ही भगवान्के भजनमें लगे रहते हैं। उनका,किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिसे किसी तरहका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उनका भजन, भक्ति यही है कि हरदम भगवान्में लगे रहना है। भगवान्की प्रीतिमें वे इतने मस्त रहते हैं कि उनके भीतर स्वप्नमें भी भगवान्के सिवाय अन्य किसीकी इच्छा जाग्रत् नहीं होती। 'ददामि बुद्धियोगं तम्' --किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिके संयोग-वियोगसे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो अर्थात् संसारके पदार्थ मिलें या न मिलें, नफा हो या नुकसान हो, आदर हो या निरादर हो, स्तुति हो या निन्दा हो, स्वास्थ्य ठीक रहे या न रहे आदि तरह-तरहकी और एक-दूसरेसे विरुद्ध विभिन्न परिस्थितियाँ आनेपर भी उनमें एकरूप (सम) रह सकें-- ऐसा बुद्धियोग अर्थात् समता मैं उन भक्तोंको देता हूँ। 'ददामि' का तात्पर्य है कि वे बुद्धियोगको अपना नहीं मानते, प्रत्युत भगवान्का दिया हुआ ही मानते हैं। इसलिये बुद्धियोगको लेकर उनको अपनेमें कोई विशेषता नहीं मालूम देती।'येन' -- मैं उनको वह बुद्धियोग देता हूँ, जिस बुद्धियोगसे वे मेरेको प्राप्त हो जाते हैं। 'माम��पयान्ति ते'--जब वे भगवान्में ही चित्त और प्राणवाले हो गये हैं और भगवान्में ही सन्तुष्ट रहते हैं तथा भगवान्में ही प्रेम करते हैं, तो उनके लिये अब भगवान्को प्राप्त होना क्या बाकी रहा, जिससे कि भगवान्को यह कहना पड़ रहा है कि वे मेरेको प्राप्त हो जाते हैं? मेरेको प्राप्त हो जानेका तात्पर्य है कि वे प्रेमी भक्त अपनेमें जो कमी मानते हैं, वह कमी उनमें नहीं रहती अर्थात् उन्हें पूर्णताका अनुभव हो जाता है।

Swami Tejomayananda

।।10.10।। उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।

📜 Sanskrit Commentaries

Sri Madhavacharya

।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।

Sri Anandgiri

।।10.10।।यदुक्तं सोऽविकम्पेनेत्यादि तदर्थं भूमिकां कृत्वा तदिदानीमुदाहरति -- ये यथोक्तेति। नित्याभियुक्तानामनवरतं भगवत्यैकाग्र्यसंपन्नानामित्यर्थः। पुत्रादिलोकत्रयहेत्वर्थित्वेन वा गर्भदासत्वेन वा प्रत्यहं जीवनोपायसिद्धये वा भजनमिति शङ्कित्वा दूषयति -- किमित्यादिना। प्रागुक्तां ज्ञानाख्यां भक्तिं स्नेहेन कुर्वतामित्यर्थः। तेभ्योऽहं तत्त्वज्ञानं प्रयच्छामीत्याह -- ददामीति। उक्तबुद्धिसंबन्धस्य फलमाह -- येनेति। ध्यानजन्यप्रकर्षकाष्ठागतान्तःकरणपरिणामे निरस्ताशेषविशेषभगवद्रूपप्राप्तिहेतौ बुद्धियोगे प्रश्नपूर्वकमुक्तानधिकारिणो दर्शयति -- के त इति।

Sri Vallabhacharya

।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च,माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।

Sridhara Swami

।।10.10।।एवंभूतानां च सम्यग्ज्ञानमहं ददामीत्याह -- तेषामिति। एवं सततयुक्तानां मय्यासक्तानां प्रीतिपूर्वकं भजतां तेषां तं बुद्धिरूपं योगमुपायं ददामि। तमिति कम्। येनोपायेन ते भक्ता मां प्राप्नुवन्ति।

Explore More