Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 9 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय | उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ||९-९||
Transliteration
na ca māṃ tāni karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya . udāsīnavadāsīnamasaktaṃ teṣu karmasu ||9-9||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
9.9 These acts do not bind Me, O Arjuna, sitting like one indifferent, unattached to those acts.
।।9.9।। हे धनंजय ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के समान स्थित मुझ (परमात्मा) को वे कर्म नहीं बांधते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Approach work tasks with full dedication and effort, but without personalizing outcomes. View successes and failures as part of a larger process, allowing you to learn and adapt without egoic attachment or despair. This fosters resilience, objectivity in decision-making, and prevents burnout.
🧘 For Stress & Anxiety
Cultivate a 'witness consciousness' towards daily events and responsibilities. Perform your duties diligently but internally maintain an indifferent perspective towards the *results* and *reactions* they provoke. This reduces anxiety, prevents emotional volatility, and preserves inner peace amidst external pressures.
❤️ In Relationships
Engage with loved ones and colleagues with genuine care and support, offering your best self without clinging to specific expectations for their behavior or the relationship's outcome. Allow others their autonomy and journey, fostering healthier, less demanding, and more fulfilling connections.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“Perform your duties with dedication, but release your attachment to the outcomes and the ego of being the sole doer, thereby attaining inner freedom and unwavering peace.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
9.9 न not? च and? माम् Me? तानि these? कर्माणि acts? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya? उदासीनवत् like one indifferent? आसीनम् sitting? असक्तम् unattached? तेषु in those? कर्मसु acts.Commentary These acts Creation and dissolution of the universe. I am the only cause of dissolution of the universe. I am the only cause of Nature and its activities and yet? being indifferent to everythin? I do nothing. Nor do I cause anything to be done.I remain as one neutral or indifferent or unconcerned. I have no attachment for the fruits of those actions. Further I have not go the egoistic feeling of agency I do this. I know that the Self is actionless. Therefore the actions involved in creation and dissolution do not bind Me.As in the case of Isvara so in the case of others also the absence of the egoistic feeling of agency and the absense of attachment to the fruits of action is the cause of freedom (from Dharma and Adharma? virtue and evil) The ignorant man who works with egoism and who expects rewards for his action is bound by his own actions like the silkworm in the cocoon.Just as the neutral referee or umpire in a cricket or football match is not affected by the victory or defeat of the parties? so also the Lord is not affected by the creation and destruction of this world as He remains unconcerned or indifferent and as He is a silent and changeless witness. (Cf.IV.14)
Shri Purohit Swami
9.9 But these acts of mine do not bind Me. I remain outside and unattached.
Dr. S. Sankaranarayan
9.9. O Dhananjaya ! These acts do not bind Me, remaining as if unconcerned and unattached in these actions.
Swami Adidevananda
9.9 But these actions do not bind Me, O Arjuna, for I remain detached from them like one unconcerned.
Swami Gambirananda
9.9 O Dhananjaya (Arjuna), nor do those actions bind Me, remaining (as I do) like one unconcerned with, and unattached to, those actions.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।9.9।। एक परिच्छिन्न जीव को उसके अहंकारमूलक कर्म अपने संस्कार उसके अन्तकरण में अंकित करके कालान्तर में फलोन्मुख होकर उसे उत्पीड़ित करते हैं। सभी अहंकार केन्द्रित कर्म? जो कि सदा स्वार्थ से ही प्रेरित होते हैं? अपने कुरूप पदचिन्हों को मनरूपी समुद्र तट पर अंकित करते हैं? निरहंकार और निस्वार्थ भाव से किये गये कर्म नहीं जैसे? आकाश में विचरण करते हुए पक्षी अपने पदचिन्हों को पीछे नहीं छोड़ते। एक कृतघ्न पुत्र अपने पिता पर ही पदाघात करता है इसकी तुलना कीजिये? खेल में मग्न उस निष्पाप शिशु से जो अपने छोटेछोटे पैरों से अपने पिता को मार रहा हो यद्यपि पदाघात की क्रिया में समानता होने पर भी दोनों के अन्तर को समझने के लिए हमें किसी दार्शनिक की सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ कहीं और जब कभी अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म किये जाते हैं? वे निश्चय ही दुखदायक वासनाओं को जन्म देते हैं।प्रकृति को चेतनता प्रदान करने और भूत समुदाय की पुनपुन रचना करने में परम पुरुष को न कोई राग है और न कोई द्वेष। इस सृष्टि चक्र के चलते रहने मात्र से वह सनातन परम पुरुष कभी प्रभावित नहीं होता। वे कर्म मुझे बांधते नहीं। कारण यह है कि वे कर्म न अहंकार मूलक हैं और न स्वार्थ से प्रेरित।चलचित्रगृह के श्वेत परदे पर दिखाया जाने वाला चलचित्र (सिनेमा) कितना ही दुखान्त और हत्यापूर्ण क्यों न हो? उसकी कथा कितनी ही अश्रुपूर्ण और उदासी भरी क्यों न हो? कितने ही आंधी और वर्षा के दृश्य उसमें क्यों न दिखाये गये हों सिनेमा की समाप्ति पर वह श्वेतपट न रक्तरंजित होता है और न अश्रुओं से भीगा ही होता है? और न तूफानों से वह क्षतिग्रस्त ही होता है। तथापि हम जानते हैं कि उस स्थिर अपरिवर्तित पट के बिना? छाया और प्रकाश के माध्यम से चित्रपट की कथा प्रदर्शित नहीं की जा सकती थी। उसी प्रकार? नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा वह चिरस्थायी रंगमंच हैं? जिस पर दुखपूर्ण जीवन का नाटक अनेकत्व की भाषा में असंख्य जीवों के द्वारा निरन्तर अभिनीत होता रहता है? जो अपनी पूर्वाजित वासनाओं से विवश हुए निर्धारित भूमिकाओं को करते रहते हैं।रेल के पटरी से उतरने के कारण होने वाली भयंकर दुर्घटना के लिए इंजिन की वाष्प को दंडित नहीं किया जाता? और न ही गन्तव्य तक अपने समय पर सुरक्षित पहुँचने पर उसका अभिनन्दन ही किया जाता है। यह सत्य है कि उस वाष्प के बिना दुर्घटना नहीं हो सकती थी और न ही गन्तव्य की प्राप्ति क्योंकि उसके बिना इंजिन केवल निष्क्रिय? भारी लोहा ही होता है। रचनात्मक या विध्वंसात्मक कार्य करने की शक्ति इंजिन को वाष्प से ही प्राप्त होती है। इन सब घटनाओं में? उस वाष्प को इंजिन चलाने के प्रति न राग है और न द्वेष? इसलिए इन घटनाओं का उत्तरदायित्व उस पर थोप कर उसे बन्धन में नहीं डाला जाता। कर्म का प्रेरक उद्देश्य ही कर्म के फल्ा को निश्चित करता है।सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत आत्मा है। वह मन को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक मन वासनाओं का संचय मात्र है। शुभ वासनाओं से संस्कारित मन आनन्द और सामञ्जस्य का गीत गाता है? जबकि अशुभ वासनाएं मन को दुख से कराहने को बाध्य करती हैं। ग्रामोफोन की सुई रिकार्ड से बज रहे संगीत के लिए उत्तरदायी नहीं होती। जैसा रिकार्ड? वैसा संगीत। इसी प्रकार? आत्मा सनातन है? जिसे इसकी चिन्ता नहीं होती है कि किस प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है। जगत् परिवर्तन के प्रति उसे किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं होती। जगत् में जो कुछ हो रहा हो चाहे हत्या हो या प्राणोत्सर्ग सूर्यप्रकाश उसे प्रकाशित करता है। सूर्य का सम्बन्ध न हत्यारे के अप्ाराध से है और न बलिदानी पुरुष के गौरव से ही है। शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा वासनारूपी प्रकृति को व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करता है? फिर वे वासनाएं नरकयातना के लिए हों या गौरव ख्याति के लिए। उन कर्मों में असक्त और उदासीन के समान स्थित आत्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं।अनन्त और सान्त में निश्चित रूप से वह अद्भुत सम्बन्ध कौनसा है ऐसा कहा गया है कि सान्त प्रकृति अनन्त आत्मा के कारण कार्य करती है और फिर भी आत्मा उदासीन रहता है? वह कैसे
Swami Ramsukhdas
।।9.9।। व्याख्या--'उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु'--महासर्गके आदिमें प्रकृतिके परवश हुए प्राणियोंकी उनके कर्मोंके अनुसार विविध प्रकारसे रचनारूप जो कर्म है, उसमें मेरी आसक्ति नहीं है। कारण कि मैं उनमें उदासीनकी तरह रहता हूँ अर्थात् प्राणियोंके उत्पन्न होनेपर मैं हर्षित नहीं होता और उनके प्रकृतिमें लीन होनेपर मैं खिन्न नहीं होता।यहाँ 'उदासीनवत्' पदमें जो 'वत्'(वति) प्रत्यय है, उसका अर्थ तरह होता है अतः इस पदका अर्थ हुआ -- उदासीनकी तरह। भगवान्ने अपनेको उदासीनकी तरह क्यों कहा? कारण कि मनुष्य उसी वस्तुसे उदासीन होता है, जिस वस्तुकी वह सत्ता मानता है। परन्तु जिस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है, उसकी भगवान्���े सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान् उस संसारकी रचनारूप कर्मसे उदासीन क्या रहें? वे तो उदासीनकी तरह रहते हैं; क्योंकि भगवान्की दृष्टिमें संसारकी कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तवमें यह सब भगवान्का ही स्वरूप है, इनकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, तो अपने स्वरूपसे भगवान् क्या उदासीन रहें? इसलिये भगवान् उदासीनकी तरह हैं। 'न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं प्राणियोंको बार-बार रचता हूँ, उन रचनारूप कर्मोंको ही यहाँ 'तानि' कहा गया है। वे कर्म मेरेको नहीं बाँधते; क्योंकि उन कर्मों और उनके फलोंके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा कहकर भगवान् मनुष्यमात्रको यह शिक्षा देते हैं, कर्म-बन्धनसे छूटनेकी युक्ति बताते हैं कि जैसे मैं कर्मोंमें आसक्त न होनेसे बँधता नहीं हूँ, ऐसे ही तुमलोग भी कर्मोंमें और उनके फलोंमें आसक्ति न रखो, तो सब कर्म करते हुए भी उनसे बँधोगे नहीं। अगर तुमलोग कर्मोंमें और उनके फलोंमें आसक्ति रखोगे, तो तुमको दुःख पाना ही पड़ेगा, बार-बार जन्मना-मरना ही पड़ेगा। कारण कि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है तथा फल भी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं, पर कमर्फलकी इच्छाके कारण मनुष्य बँध जाता है। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि कर्म और उसका फल तो नहीं रहता, पर (फलेच्छाके कारण) बन्धन रह जाता है! ऐसे ही वस्तु नहीं रहती, पर वस्तुका सम्बन्ध,(बन्धन) रह जाता है! सम्बन्धी नहीं रहता, पर उसका सम्बन्ध रह जाता है! मूर्खताकी बलिहारी है!! सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें आसक्तिका निषेध करके अब भगवान् कर्तृत्वाभिमानका निषेध करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।9.9।। हे धनंजय ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के समान स्थित मुझ (परमात्मा) को वे कर्म नहीं बांधते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।9.9।।उदासीनवत्? नतूदासीनः। तदर्थमाह -- असक्तमिति। अवाक्यनादरः [छां.उ.3।34।2] इति श्रुतिः।द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च। यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया इति भागवते [2।10।12] यस्यासक्त्यैव सर्वकर्मशक्तिः कुतस्तस्य सर्वकर्मबन्धः इति भावः। न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् [बृ.उ.4।4।23] इति हि श्रुतिः। यः कर्माणि नियामयति कथं च तं कर्म बध्नाति।
Sri Anandgiri
।।9.9।।यदि प्राकृतं भूतग्रामं स्वभावादविद्यादितन्त्रं विषमं विदधासि तर्हि तव विषमसृष्टिप्रयुक्तं धर्मादिमत्त्वमित्यनीश्वरत्वापत्तिरिति शङ्क्यते -- तर्हीति। तत्रेति सप्तम्या परमेश्वरो निरुच्यते। ईश्वरस्य फलासङ्गाभावात्कर्तृत्वाभिमानाभावाच्च कर्मासंबन्धवदीश्वरादन्यस्यापि तदुभयाभावो धर्माद्यसंबन्धे कारणमित्याह -- अतोऽन्यस्येति। यदि कर्मसु कर्तृत्वाभिमानो वा कस्यचित्कर्मफलसङ्गो वा स्यात्तत्राह -- अन्यथेति।
Sri Vallabhacharya
।।9.9।।नचैवं विषमकर्मकरणे मम नैर्घृण्यादिबन्धोऽसक्तत्वादित्याह -- न च मामिति। असाधारणमहिमत्वद्योतकानि न मां बध्नन्ति नैर्घृण्यादिबन्धं नापादयन्ति? यतो जीवात्मनां प्राकृतानि कर्माणि तानि च देवादिभावहेतूनि। अहं तु तेषु कर्मसु प्रकृतौ च उदासीनवदितिमाया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना इत्यादिवाक्यात्। वैषम्यनैर्घृण्यं च सक्तस्य कर्मिणो भवति? न चासक्तस्य। यथाऽऽह सूत्रकारः -- वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयतिन कर्माविभागादिति चेत? न अनादित्वात् [ब्र.सू.2।1।3435] इति।
Sridhara Swami
।।9.9।। ननु एवं नानाविधानि कर्माणि कुर्वतस्तव जीववद्वन्धः कथं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नचेति। तानि सृष्ट्यादीनि कर्माणि मां न निबध्न्ति। कर्मासक्तिर्हि बन्धहेतुः सा चाप्तकामत्वान्मम नास्त्यत उदासीनवद्वर्तमानस्य मे बन्धनं नापादयन्ति? उदासीनत्वे कर्तृत्वानुपपत्तेरुदासीनवत्स्थितमित्युक्तम्।