Bhagavad Gita Chapter 9 Verse 12 — Meaning & Life Application
Sanskrit Shloka (Original)
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः | राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ||९-१२||
Transliteration
moghāśā moghakarmāṇo moghajñānā vicetasaḥ . rākṣasīmāsurīṃ caiva prakṛtiṃ mohinīṃ śritāḥ ||9-12||
Word-by-Word Meaning
📖 Translation
9.12 Of vain hopes, of vain actions, of vain knowledge and senseless, they verily are possessed of the deceitful nature of demons and undivine beings.
।।9.12।। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अविचारीजन राक्षसों के और असुरों के मोहित करने वाले स्वभाव को धारण किये रहते हैं।।
How to Apply This Verse in Modern Life
💼 At Work & Career
Avoid career paths driven solely by fleeting rewards, selfish ambition, or unethical practices, which lead to internal emptiness and potentially harm others. Instead, seek meaningful work that aligns with ethical principles, contributes positively to the world, and is performed with a sense of purpose beyond mere personal gain.
🧘 For Stress & Anxiety
Chronic stress and disillusionment often arise from chasing superficial achievements, external validation, or material desires (vain hopes/actions). Cultivate self-awareness, understand your true, eternal Self beyond the transient body, and detach from external outcomes to find inner peace and mental equilibrium.
❤️ In Relationships
Relationships suffer when founded on selfish desires, manipulation, or a lack of empathy (the 'demonic nature'). Nurture genuine connections by recognizing the intrinsic worth of others, practicing compassion, and moving beyond transactional interactions to foster mutual respect and understanding.
When to Chant/Recall This Verse
Solves These Life Problems
Key Message in One Line
“A life centered on selfish desires, superficial knowledge, and transient gains leads to a deluded and unfulfilling existence; true wisdom lies in recognizing the eternal Self and dedicating all actions to a higher, divine purpose.”
🕉️ Council of Sages
Compare interpretations from revered Acharyas and scholars
🌍 English Interpretations
Swami Sivananda
9.12 मोघाशाः of vain hopes? मोघकर्माणः of vain actions? मोघज्ञानाः of vain knowledge? विचेतसः senseless? राक्षसीम् devilish? आसुरीम् undivine? च and? एव verily? प्रकृतिम् nature? मोहिनीम् deceitful? श्रिताः (are) possessed of.Commentary They entertain vain hopes? for there can be no hope in perishable forms. It is vain hope because they run after transient objects and miss the Eternal. It is vain action? because it is not performed by them as sacrifice unto the Lord. The Agnihotra (a ritual) and other actions performed by them are fruitless? because they insult the Lord. They are senseless. They have no,discrimination. They have no idea of the eternal Self. They worship their body only. They behold no self beyond the body. They neglect their own Self. They do atrocious crimes and cruel actions. They rob others property and murder people. They partake of the nature of the demons and the undivine beings.The Rakshasa are Tamasic and the Asuras are Rajasic.Prakriti means here Svabhava (ones own nature).They see the external human body only. They have no knowledge of the Self that dwells within the body. They do not behold God in the universe. They life for eating and drinking only.He who entertains hope of getting the rewards of actions through mere Karma alone? without the grace of the Lord is one of empty hope and empty deed. Karmas are insentient. They cannot give rewards independently. The omniscient Lord Who knows the relationship between Karmas and their fruits can dispense them. He who has obtained knowledge from books which do not admit of the existence of the Self and which do not speak of the Self is one of empty knowledge. This will not give any reward. That knowledge obtained through the study of spiritual books which treat of Brahman alone can give the reward. (Cf.VII.15XVI.6?20)
Shri Purohit Swami
9.12 Their hopes are vain, their actions worthless, their knowledge futile; they are without sense, deceitful, barbarous and godless.
Dr. S. Sankaranarayan
9.12. [They] are of futile aspirations, futile actions, futile knowledge and wrong intellect; and they take recourse only to the delusive nature that is demoniac and also devilish.
Swami Adidevananda
9.12 Senseless men entertain a nature which is deluding and akin to that of Raksasas (fiends) and Asuras (monsters). Their hopes are vain, acts are vain and knowledge is vain.
Swami Gambirananda
9.12 Of vain hopes, of vain actions, of vain knowledge, and senseless, they become verily possessed of the deceptive disposition of fiends and demons.
🇮🇳 Hindi Interpretations
Swami Chinmayananda
।।9.12।। See commentary under 9.13
Swami Ramsukhdas
।।9.12।। व्याख्या--'मोघाशाः'-- जो लोग भगवान्से विमुख होते हैं, वे सांसारिक भोग चाहते हैं, स्वर्ग चाहते हैं तो उनकी ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान् और परिवर्तनशील वस्तुकी कामना पूरी होगी ही-- यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाय, तो वह टिकेगी नहीं अर्थात् फल देकर नष्ट हो जायगी। जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक कितनी ही सांसारिक वस्तुओंकी इच्छाएँ की जायँ और उनका फल भी मिल जाय तो भी वह सब व्यर्थ ही है (गीता 7। 23)।'मोघकर्माणः'--भगवान्से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें, पर अन्तमें वे सभी व्यर्थ हो जायँगे। कारण कि मनुष्य अगर सकामभावसे शास्त्रविहित यज्ञ, दान आदि कर्म भी करेंगे, तो भी उन कर्मोंका आदि और अन्त होगा और उनके फलका भी आदि और अन्त होगा। वे उन कर्मोंके फलस्वरूप ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें भी चले जायँगे, तो भी वहाँसे उनको फिर जन्म-मरणमें आना ही पड़ेगा। इसलिये उन्होंने कर्म करके केवल अपना समय बरबाद किया, अपनी बुद्धि बरबाद की और मिला कुछ नहीं। अन्तमें रीते-के-रीते रह गये अर्थात् जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला था, उस लाभसे सदा ही रीते रह गये। इसलिये उनके सब कर्म व्यर्थ, निष्फल ही हैं।तात्पर्य यह हुआ कि ये मनुष्य स्वरूपसे साक्षात् परमात्माके अंश हैं, सदा रहनेवाले हैं और कर्म तथा उनका,फल आदि-अन्तवाला है; अतः जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक वे सकामभावपूर्वक कितने ही कर्म करें और उनका फल भोंगे, पर अन्तमें दुःख और अशान्तिके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। जो शास्त्रविहित कर्म अनुक��ल परिस्थिति प्राप्त करनेकी इच्छासे सकामभावपूर्वक किये जाते हैं, वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्-फल देनेवाले नहीं होते। परन्तु जो कर्म भगवान्के लिये, भगवान्की प्रसन्नताके लिये किये जाते हैं और जो कर्म भगवान्के अर्पण किये जाते हैं, वे कर्म निष्फल नहीं होते अर्थात् नाशवान् फल देनेवाले नहीं होते, प्रत्युत सत्-फल देनेवाले हो जाते हैं-- 'कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते'(गीता 17। 27)। सत्रहवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी भगवान्ने कहा है कि जिनकी मेरेमें श्रद्धा नहीं है अर्थात् जो मेरेसे विमुख हैं, उनके द्वारा किये गये यज्ञ, दान, तप आदि सभी कर्म असत् होते हैं अर्थात् मेरी प्राप्ति करानेवाले नहीं होते। उन कर्मोंका इस जन्ममें और मरनेके बाद भी (परलोकमें) स्थायी फल नहीं मिलता, अर्थात् जो कुछ फल मिलता है? विनाशी ही मिलता है। इसलिये उनके वे सब कर्म व्यर्थ ही हैं। 'मोघज्ञाना'--उनके सब ज्ञान व्यर्थ हैं। भगवान्से विमुख होकर उन्होंने संसारकी सब भाषाएं सीख लीं, सब लिपियाँ सीख लीं, तरहतरहकी कलाएँ सीख लीं, तरहतरहकी विद्याओंका ज्ञान प्राप्त कर लिया, कई तरहके आविष्कार कर लिये, अनन्त प्रकारके ज्ञान प्राप्त कर लिये, पर इससे उनका कल्याण नहीं होगा, जन्ममरण नहीं छूटेगा। इसलिये वे सब ज्ञान निष्फल हैं। जैसे, हिसाब करते समय एक अंककी भी भूल हो जाय तो हिसाब कभी सही नहीं आता, सब गलत हो जाता है, ऐसे ही जो भगवान्से विमुख हो गये हैं, वे कुछ भी ज्ञानसम्पादन करें, वह सब गलत होगा और पतनकी तरफ ही ले जायगा। 'विचेतसः'-- उनको सार-असार, नित्य-अनित्य, लाभहानि, कर्तव्य-अकर्तव्य, मुक्ति-बन्धन आदि बातोंका ज्ञान नहीं है। 'राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः'-- ऐसे वे अविवेकी और भगवान्से विमुख मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति अर्थात् स्वभावका आश्रय लेते हैं।जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें, अपनी कामना-पूर्ति करनेमें, अपने प्राणोंका पोषण करनेमें ही लगे रहते हैं, दूसरोंको कितना दुःख हो रहा है, दूसरोंका कितना नुकसान हो रहा है -- इसकी परवाह ही नहीं करते, वे आसुरी स्वभाववाले होते हैं। जिनके स्वार्थमें, कामना-पूर्तिमें बाधा लग जाती है, उनको गुस्सा आ जाता है और गुस्सेमें आकर वे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये दूसरोंका नुकसान कर देते हैं, दूसरोंका नाश कर देते हैं, वे 'राक्षसी' स्वभाववाले होते हैं।जिसमें अपना न स्वार्थ है, न परमार्थ है और न वैर है, फिर भी बिना किसी कारणके जो दूसरोंका नुकसान कर देते हैं, दूसरोंको कष्ट देते हैं (जैसे, उड़ते हुए पक्षीको गोली मार दी, सोते हुए कुत्तेको लाठी मार दी और फिर राजी हो गये), वे मोहिनी स्वभाववाले होते हैं।परमात्मासे विमुख होकर केवल अपने प्राणोंको रखनेकी अर्थात् सुखपूर्वक जीनेकी जो इच्छा होती है, वह आसुरी प्रकृति है। ऊपर जो तीन प्रकारकी प्रकृति (आसुरी, राक्षसी और मोहिनी) बतायी गयी है, उसके मूलमें आसुरी प्रकृति ही है अर्थात् आसुरी सम्पत्ति ही सबका मूल है। एक आसुरी सम्पत्तिके आश्रित होनेपर राक्षसी और मोहिनी प्रकृति भी स्वाभाविक आ जाती है। कारण कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंका ध्येय होनेसे सब अनर्थपरम्परा आ ही जाती है। उसी आसुरी सम्पत्तिके तीन भेद यहाँ बताये गये हैं -- कामनाकी प्रधानतावालोंकी आसुरी, क्रोधकी प्रधानतावालोंकी राक्षसी और मोह(मूढ़ता) की प्रधानतावालोंकी मोहिनी प्रकृति होती है। तात्पर्य है कि कामनाकी प्रधानता होनेसे आसुरी प्रकृति आती है। जहाँ कामनाकी प्रधानता होती है, वहाँ राक्षसी प्रकृति -- क्रोध आ ही जाता है-- 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' (गीता 2। 62) और जहाँ क्रोध आता है, वहाँ मोहिनी प्रकृति (मोह) आ ही जाता है-- 'क्रोधाद्भवति सम्मोहः' (2। 63)। यह सम्मोह लोभसे भी होता है और मूर्खतासे भी होता है। सम्बन्ध--चौथे श्लोकसे लेकर दसवें श्लोकतक भगवान्ने अपने प्रभाव, सामर्थ्य आदिका वर्णन किया। उस प्रभावको न माननेवालोंका वर्णन तो ग्यारहवें और बारहवें श्लोकमें कर दिया। अब उस प्रभावको जानकर भजन करनेवालोंका वर्णन आगके श्लोकमें करते हैं।
Swami Tejomayananda
।।9.12।। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अविचारीजन राक्षसों के और असुरों के मोहित करने वाले स्वभाव को धारण किये रहते हैं।।
📜 Sanskrit Commentaries
Sri Madhavacharya
।।9.12।।तेषां फलमाह -- मोघाशा इति। वृथाशाः? भगवद्वेषिभिराशासितं न किञ्चिदाप्यते। यज्ञादिकर्माणि च वृथैव तेषां? ज्ञानं च। केनापि ब्रह्मरुद्रादिभक्त्याद्युपायेन न कश्चित् पुरुषार्थ आमुष्मिकस्तैराप्यत इत्यर्थः। वक्ष्यति चतानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् [16।16] इत्यादि। मोक्षधर्मे च [म.भा.12।346।6?7]कर्मणा मनसा वाचा यो द्विष्याद्विष्णुमव्ययम्। मज्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः। यो द्विष्याद्विबुधश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम्। कथं स न भवेद्वेष्य आलोकान्तस्य (आत्मा लोकस्य) कस्यचित् इति। सर्वोत्कृष्टे ज्ञानभक्ती हि यस्य नारायणे पुष्करविष्टराद्ये। सर्वावमे द्वेषयुतश्च तस्मिन्भ्रूणानन्तघ्नोऽस्य समो न चैव इति सामवेदे शाण्डिल्यशाखायाम्।द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः [भाग.7।1।30]वैरणं यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्रशाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः। ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ तत्साम्यमीयुरनुरक्तधियः पुनः किम् [11।5।48] इति भागवते। भक्तिप्रियत्वज्ञापनार्थं नित्यध्यानस्तुत्यर्थं च? स्वभक्तस्य कदाचिच्छापबलात् द्वेषिणोऽपि भक्तिफलमेव भगवान्ददातीति।भक्ता एव हि ते पूर्वं शिशुपालादयः शापबलात् द्वेषिणः। तत्प्रश्नपूर्वं पार्षदत्वशापादिकथनाच्चैतज्ज्ञायते। अन्यथा किमिति तदप्रस्तुतमुच्यते। भगवतः साम्यकथनं तु द्वेषिणामपि द्वेषमनिरूप्य पूर्वतनभक्तिफलमेव ददातीति ज्ञापयितुम्।न मे भक्तः प्रणश्यति [9।31] इति वक्ष्यति। न चभावो हि भवकारणं इत्यादिविरोधः। द्वेषभाविनां द्वेष एव भवतीति हि युक्तम्। अन्यथा गुरुद्वेषिणामपि गुरुत्वं भवतीत्यनिष्टमापद्येत। न चाकृतधीत्वे विशेषः? तेषामेव हिरण्यकशिप्वादीनां पापप्रतीतेः।हिरण्यकशिपुश्चापि भगवन्निन्दया तमः। विविक्षुरत्यगात्सूनोः प्रह्लादस्यानुभावतः [भाग.4।21।47] इति।यदनिन्दत्पिता मह्यं (मे त्वां) इत्यारभ्यतस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात् [भाग.7।10।1517] इति प्रह्लादेन भगवतो वरयाचनाच्च। बहुषु ग्रन्थेषु च निषेधः। कुत्रचिदेव तदुक्तिरिति विशेषः। यस्मिंस्तदुच्यते तत्रैव निषेध उक्तः।महातात्पर्यविरोधश्चोक्तः पुरस्तात्। अयुक्तिमद्भ्यो युक्तिमन्त्येव बलवन्ति वाक्यानि। युक्तयश्चोक्ता अन्येषाम्। न चैषां काचिद्गतिः। साम्येऽपि वाक्ययोर्लोकानुकूलाननुकूलयोर्लोकानुकूलमेव बलवत्। लोकानुकूलं भक्तप्रियत्वं च नेतरत्। उक्तं च तेषां भक्तत्वम्।मन्ये सुरान्भागवतांस्त्र्यधीशे संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् [भाग.3।1।24] इत्यादि। अतो न भगवद्वेषिणां काचिद्गतिरिति सिद्धम्। द्वेषकारणमाह -- राक्षसीमिति।
Sri Anandgiri
।।9.12।।भगवन्तमवजानतां प्रश्नपूर्वकं शोच्यत्वं विशदयति -- कथमिति। भगवन्निन्दापराणां न काचिदपि प्रार्थनार्थवतीत्याह -- वृथेति। ननु भगवन्तं निन्दन्तोऽपि नित्यं नैमित्तिकं वा कर्मानुतिष्ठन्ति? तदनुष्ठानाच्च तेषां प्रार्थनाः सार्था भविष्यन्तीति नेत्याह -- तथेति। परिभवस्तिरस्करणम्? अवज्ञानमनादरणम्। तेषामपि शास्त्रार्थाज्ञानवतां तद्द्वारा प्रार्थनार्थवत्त्वमित्याशङ्क्याह -- तथा मोघेति। तथापि यौक्तिकविवेकवशात्तत्प्रार्थनासाफल्यमित्याशङ्क्याह -- विचेतस इति। न केवलमुक्तविशेषणवत्त्वमेव तेषां किंतु वर्तमानदेहपातादनन्तरं तत्तदतिक्रूरयोनिप्राप्तिश्च निश्चितेत्याह -- किञ्चेति। मोहकरीमिति प्रकृतिद्वयेऽपि तुल्यं विशेषणं? छिन्धि भिन्धि पिब खादेति प्राणिहिंसारूपो रक्षसां स्वभावः? असुराणां स्वभावस्तु न देहि नो जुहुधि परस्वमेवापहरेत्यादिरूपः? मोहो मिथ्याज्ञानम्। उक्तमेव स्फुटयति -- छिन्धीति।
Sri Vallabhacharya
।।9.12।।न केवलमजानन्त इत्येव वक्तव्यं सर्वस्य तथात्वात्। किञ्च ते मोघाशाः परमार्थतो मोघे स्वर्गादौ देवतायां च ईश्वरं विना कर्मैव फलदमिति मोघा वा आशा येषां ते? अतएव मोघकर्माणः मोघमेव च ज्ञानमासुरं मायावादादिशास्त्रोपदेशजन्यं येषां तत एव विक्षिप्तचेतसः। सर्वत्र हेतुः राक्षसीमासुरीं चेति। मम मनुष्यानुकरणे परमकारुण्यादिपरत्वभावनिरोधकरीं प्रकृतिं स्वभावरूपां शब्दादिविषयैकपरां राजसीमासुरीं मायेत्यसुरा इति श्रूयमाणां श्रिताः राक्षसीं तामसीं शिश्नोदरभरणैकस्वभावरूपां तथा मोहिनीं सात्विकराजसी मानुषीं प्रकृतिं संश्रिता इत्यासुरादयो मामवजानन्ति।
Sridhara Swami
।।9.12।।किंच -- मोघाशा इति। मत्तोऽन्यद्देवतान्तरं क्षिप्रं फलं दास्यतीत्येवंभूता मोघा निष्फलैवाशा येषां ते। अतएव मद्विमुखत्वान्मोघानि व्यर्थानि कर्माणि येषां ते। मोघमेव नानाकुतर्काश्रितं शास्त्रज्ञानं येषां ते। अतएव विचेतसो विक्षिप्तचित्ताः। सर्वत्र हेतुः। राक्षसीं तामसीं हिंसादिप्रचुराम् आसुरीं च राजसीं कामदर्पादिबहुलाम् मोहिनीं बुद्धिभ्रंशकरीं प्रकृतिं स्वभावं श्रिताः आश्रिताः सन्तो मामवजानन्तीति पूर्वेणान्वयः।